हिंसा का Means, Reseller And प्रकार
तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने हिंसा को परिभाषित करते हुए कहा है-प्रमाद से जो प्राणघात होता है, वही हिंसा है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि प्राण क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में भगवती सूत्र में कहा गया है कि जीव आभ्यन्तर श्वासोच्छवास तथा बाह्य श्वासोच्छवास लेने के कारण प्राण कहा जाता है। जिस शक्ति से हम जीव का किसी-न-किसी Reseller में जीवन देखते हैं, वह शक्ति प्राण है, जिनके अभाव में शरीर प्राणहीन हो जाता है।
हिंसा के Reseller
हिंसा के दो Reseller है।-भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा। मन में कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) का जाग्रत होना भाव हिंसा है और मन के भाव को वचन और क्रिया का Reseller देना द्रव्य हिंसा कहलाती है। Meansात् मन, वचन और काय के दुष्प्रयोग से जो प्राणहनन या दुष्क्रिया होती है, वही हिंसा है।
हिंसा के प्रकार
हिंसा के दो प्रकार है-1. Means हिंसा, 2. अनर्थ हिंसा।
1. Means हिंसा-
जो व्यक्ति अपने लिए, अपनी जाति, परिवार, मित्र, घर, देवता आदि के लिए त्रस And स्थावर प्राणियों का स्वयं घात करता है, दूसरों से करवाता है, घात करते हुए को अच्छा समझता है, वह Means हिंसा है।
2. अनर्थ हिंसा-
जो व्यक्ति किसी प्राणी को अपने शरीर की रक्षा या अन्य उपयोगिता हेतु नहीं मारता किन्तु बिना प्रयोजनवश, कुतूहलवश प्राणियों को मारता है, छेदन-भेदन करता है, अंगों को काट डालता है, उपद्रव करता है, चपलतावश वनस्पतियों को उखाड़ता है, वह अनर्थ हिंसा है। कुछ विचारकों ने हिंसा के चार प्रकार बतलाए है-
- संकल्पी हिंसा-सोच-विचार कर First से मारने का उद्देश्य बनाकर किसी प्राणी के प्राण हनन करना।
- आरम्भी हिंसा-भोजनादि तैयार करने में जो हिंसा होती है।
- उद्योगी हिंसा-खेती-बाड़ी, उद्योग-धन्धे आदि करने में जो प्राणातिपात होता है।
- विरोधी हिंसा-समाज, राष्ट्र आदि पर हुए शत्रुओं या अत्याचारियों के आक्रमण का विरोध करने में जो हिंसा होती है।
हिंसा की उत्पत्ति कषायों के कारण होती है। ये कषाय चार होते है-क्रोध, मान, माया, लोभ। इन्हीं कषायों के कारण हिंसा करने का विचार मन में आता है, हिंसा करने के लिए उपक्रम किये जाते है, जो प्राणघात तक की क्रियाओं तक पहुंच सकती है। इस संसार में जो भी देहधारी है, वह किसी-न-किसी Reseller में हिंसा करता ही है। यदि वह Single जगह स्थिर ही रहता है तो भी वह भोजन स्वReseller अन्न, फल, वनस्पति आदि तो ग्रहण करता ही है। अपने शरीर And अस्तित्व की Safty हेतु मनुष्य को कुछ विशेष प्रकार की हिंसा तो करनी ही पड़ती है। इन हिंसाओं के प्रमुख तीन कारण है-
- व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण-भोजन आदि ग्रहण करने में हिंसा होती है, इसमें व्यक्तिगत स्वार्थ है क्योंकि भोजन से अपने शरीर की रक्षा होती है।
- परमार्थ के कारण-अन्य की Safty And शरण आदि हेतु की जाने वाली हिंसा।
- किसी प्राणी की सुख-शांति के लिए की जाने वाली हिंसा। यदि शरीर के किसी अंग में घाव हो जाए तो कभी-कभी इस अंग को काटना पड़ता है। गाँधीजी ने अपने आश्रम में Single मरणशील बछड़े को पीड़ामुक्त करने हेतु उसे मारने की आज्ञा दी थी।
इन तीनों में से First दो हिंसा का होना अनिवार्य है क्योंकि यदि हिंसा का ध्यान करते हुए कोर्इ व्यक्ति भोजन छोड़ दे या Safty आदि प्रश्नों को गौण कर दे तो ऐसी हालत में जीवन बचाए रखना कठिन हो जाएगा। अत: इन दोनों में हिंसा का कुछ अंश है। किन्तु Third प्रकार में शुद्ध अहिंसा है क्योंकि ऐसी हिंसा में हिंसक का कोर्इ अपना स्वार्थ नहीं होता। यहाँ हिंस्य जीव को सुख पहुंचाने की दृष्टि से हिंसा की जाती है। हिंसा करने से प्राय: समझा जाता है कि जो पक्ष दूसरों को पीड़ा पहुंचाता है, All कष्टों से मुक्त होता है। किन्तु ऐसा समझना सर्वथा गलत है। जब व्यक्ति के मन में कषाय का जागरण होता है तो उसके मन और तन दोनों में ही विकृति आ जाती है। अत: परघात करने से पूर्व वह हिंसक व्यक्ति आत्मघात ही करता है। इस प्रकार हिंसा किसी के लिए भी श्रेय नहीं है। कषायगत हिंसा न केवल हिंस्य के लिए अहितकारी है, अपितु स्वयं हिंसक के लिए भी अहितकारी है, इसलिए हिंसा का कोर्इ औचित्य नहीं हो सकता।