स्वामी विवेकानन्द का जीवन परिचय And शिक्षा दर्शन
नरेन्द्रनाथ Single मेघावी छात्र थे। 1879 में First श्रेणी में प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने कलकत्ता के सबसे अच्छे महाविद्यालय- प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया। बाद में वे Single Second महाविद्यालय में भी पढ़े। विवेकानन्द का अंग्रेजी और बंगला- दोनो ही भाषाओं पर अधिकार था। धर्मशास्त्र, History, विज्ञान आदि विषयों में इनकी गहरी रूचि थी। वे विद्याथ्री जीवन में अत्यन्त ही क्रियाशील थे And विभिन्न क्रियाकलापों में रूचि लेते थे। परम्परागत Indian Customer व्यायाम And कुश्ती से लेकर क्रिकेट जैसे आधुनिक खेल में उनकी रूचि थी। बी0ए0 की परीक्षा के उपरांत नरेन्द्र के पिता उनका विवाह कराना चाहते थे पर नरेन्द्र गृहस्थ का जीवन जीना नहीं चाहते थे। पिता की अकस्मात् मृत्यु ने विवाह के प्रसंग को रोक दिया। पर नरेन्द्र के कन्धे पर पूरे परिवार का बोझ आ पड़ा।
नरेन्द्रनाथ को कोर्इ भी बन्धन या मोह बाँध नहीं सका। सत्य की खोज में वे ब्रह्मसमाज की सभाओं में आने-जाने लगे। लेकिन उनकी ध् ार्म-पिपासा वहाँ शांत नहीं हो पार्इ। उन्हें सत्य And ब्रह्म का साक्षात्कार स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिलने के उपरांत ही हुआ। चौबीस वर्ष की अवस्था में नरेन्द्रनाथ ने सन्यास ग्रहण कर लिया- वे अपने योग्य गुरू रामकृष्ण परमहंस के योग्यतम शिष्य ‘स्वामी विवेकानन्द’ के Reseller में ‘जगत प्रसिद्ध’ हुए। विवेकानन्द ने परिब्राजक के Reseller में कश्मीर से कन्याकुमारी तक समस्त भारत का भ्रमण Reseller। इस अनवरत भ्रमण ने जहाँ स्वामी विवेकानन्द के ज्ञान को बढ़ाया वहीं वे भारत के दीन-दुखियों की विवशता को भी अपनी आँखों से देख सके। स्वामी जी जहाँ भी गये लोग उनकी विद्वता, तेज और संकल्प-शक्ति से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। स्वामी
विवेकानन्द की चरम प्रसिद्धि का क्षण 1893 में आया जब वे संयुक्त राज्य अमेरिका के शिकागो नगर में आयोजित सर्वधर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के Reseller में सम्मिलित हुए। शिकागो धर्म सम्मेलन में सम्मिलित होने में होनी वाली कठिनाइयों के संदर्भ में विवेकानन्द स्वंय कहते हैं- ‘‘आज से चार वर्ष First मैं अमेरिका जा रहा था- Seven समुद्र पार बिना किसी जान पहचान के, Single धनहीन, मित्रहीन, अज्ञात सन्यासी के Reseller में।’’ अमेरिका पँहुचने के बाद की स्थिति के बारे में वे लिखते हैं- ‘‘मेरे पास Resellerये बहुत कम थे और वे शीघ्र समाप्त हो गए। इधर जाड़ा भी आ गया और मेरे पास थे सिर्फ गरमी के कपड़े। इस घोर शीतप्रधान देश में आखिर क्या करूँ, यह कुछ सूझता न था। भीख माँगने पर जेल में ठूँस दिया जाता।’’ इन विपरीत परिस्थितियों में भी स्वामी विवेकानन्द ने हिम्मत नहीं हारी। उनके ‘ब्रदरर्स एण्ड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका’ के सम्बोधन मात्र से सभा स्थल करतल ध्वनि से गूँज उठा। इस अभिभाषण से विवेकानन्द विश्व भर में सर्वश्रेष्ठ धार्मिक पुरूष के Reseller में स्वीकार किए ही गए, हिन्दू धर्म And भारत की आध्यात्मिक परम्परा की श्रेष्ठता भी पूरे विश्व ने स्वीकार कर ली। उन्होंने विश्व के अनेक देशों का भ्रमण कर हिन्दू धर्म And संस्कृति की विजय-पताका पूरे विश्व में फहरार्इ।
अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस के विचारों के प्रसार, वेदान्त ज्ञान के अध्ययन And प्रचार तथा दीन-दुखियों की सेवा के लिए स्वामी विवेकानन्द ने 1 मर्इ, 1897 को रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। विवेकानन्द जीवन पर्यन्त अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्यशील रहे। वे Single महान ऋषि परम्परा के प्रतिनिधि थे, जिनका देहावसान 39 वर्ष की अल्पावस्था में हो गया। भारत के आध्यात्मिक गगन के चमकते सूरज का भरी दोपहरी में अस्त हो गया। पर आज भी स्वामी विवेकानन्द के वचन And कार्य हमारे मार्ग को आलोकित करने में सक्षम है।
स्वामी विवेकानन्द का जीवन-दर्शन
स्वामी विवेकानन्द ने वेदान्त-दर्शन की व्याख्या आधुनिक परिप्रेक्ष्य में की तथा निराशा And कुंठा के दल-दल में फँसी हुर्इ Indian Customer जनता को जीवन का नया पथ दिखाया।
स्वामी विवेकानन्द का वेदों और उपनिषदों पर अटूट विश्वास था। उन्होंने पूरे विश्व में वेदान्त दर्शन को सर्वजनीन, सार्वभौमिक दर्शन के Reseller में प्रचारित-प्रसारित Reseller। स्वामी विवेकानन्द के नव्य वेदान्त दर्शन में आधुनिक वैज्ञानिक खोजों तथा समकालीन विचारों को स्थान मिला। स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि देश की भैतिक उन्नति And सामान्य जन की समृद्धि उतना ही आवश्यक है जितना व्यक्ति और समाज की आध्यात्मिक उन्नति। विवेकानन्द का सम्पूर्ण दर्शन गरीबी के अभिशाप में डूबी Indian Customer जनता के कल्याण की कामना है। वे प्राय: कहा करते थे- ‘‘रोटी का प्रश्न हल किये बिना भूखे मनुष्य धार्मिक नहीं बनाये जा सकते। इसलिए रोटी का प्रश्न हल करने का नया मार्ग बताना सबसे मुख्य और सबसे पहला कर्तव्य है।’’
विवेकानन्द शंकराचार्य की ही तरह सृष्टि का कर्ता ब्रह्मा को ही मानते थे। वे यह भी स्वीकार करते थे कि यह वस्तु-जगत ब्रह्म की माया शक्ति के द्वारा निर्मित है, परन्तु ये माया और जगत को असत्य नहीं मानते थे, पर वे माया And जगत के मूल तत्व ब्रह्म को अन्तिम सत्य मानते थे। वे शंकराचार्य की ही तरह मानते थे कि आत्मा ब्रह्म का अंश होती है, इसलिए वह भी अपनें में पूर्ण होती है। शंकर की तरह विवेकानन्द भी मानते थे कि मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति है। परन्तु विवेकानन्द द्वारा प्रस्तावित मुक्ति अधिक व्यापक है। उनका विश्वास था कि जब तक मनुष्य शारीरिक दुर्बलता, मानसिक दासता, आर्थिक अभाव And हीनता की भावना से मुक्त नहीं होता तब तक उसकी मुक्ति संभव नहीं है।
विवेकानन्द ने ज्ञान को दो भागों में विभाजित Reseller- वस्तु जगत का ज्ञान और आत्म तत्व का ज्ञान। Single प्रगतिशील आदर्शवादी की तरह विवेकानन्द ने इन दोनों ही तरह के ज्ञानों को सच माना। और कहा कि दोनों ही तरह का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। वस्तु जगत के ज्ञान के लिए प्रत्यक्ष विधि और आत्म तत्व के ज्ञान के लिए अध्ययन, मनन और सत्संग पर जोर दिया।
स्वामी विवेकानन्द के According मनुष्य के जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति है। वस्तुत: वे आत्मानुभूति, मुक्ति और र्इश्वर प्राप्ति को समानाथ्री मानते थे। स्वामी जी मानते थे कि All मनुष्यों में र्इश्वर का निवास है अत: Human सेवा सबसे बड़ा धर्म है। मनुष्य को मन, वचन और कर्म से शुद्ध होकर Meansोपार्जन करना चाहिए, दीन-हीनों की सेवा करनी चाहिए और योग मार्ग द्वारा आत्मानुभूति प्राप्त करते हुए मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए।
धर्म
विवेकानन्द के According भविष्य के धार्मिक आदर्शों को All धर्मों में जो कुछ भी सुन्दर और महत्वपूर्ण है, उन सबको Single साथ लेकर चलना पड़ेगा। र्इश्वर सम्बन्धी All सिद्धान्त- सगुण, निर्गुण, अनन्त, नैतिक नियम अथवा आदर्श Human धर्म की परिभाषा के अन्तर्गत आना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द All धर्मों की Singleता में विश्वास करते थे। उन्होंने धार्मिक उदारता, समानता और सहयोग पर बल दिया है। उनका कहना था कि धर्म के मूल लक्ष्य के विषय में All धर्म Singleमत हैं। आत्मा की भाषा Single है जबकि राष्ट्रों की भाषाएँ विभिन्न हैं, उनकी परम्परायें और जीने की शैली भिन्न है। धर्म आत्मा से सम्बन्धित है लेकिन वह विभिन्न राष्ट्रों, भाषाओं और परम्पराओं के माध्यम से प्रकट होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संसार के All धर्मों में मूल आधार Singleता है, यद्यपि उसके स्वReseller भिन्न-भिन्न हैं।
स्वामी विवेकानन्द धर्म को भारत राष्ट्र का जीवन-केन्द्र या प्रधान-स्वर मानते हैं। वे मानते थे कि भारतवर्ष में धर्म ही जीवन का केन्द्र है और वही राष्ट्रीय जीवन Resellerी संगीत का प्रधान स्वर है। यदि कोर्इ राष्ट्र अपनी स्वभाविक जीवन शक्ति को दूर फेंक देने की चेष्टा करे तो वह राष्ट्र काल-कवलित हो जाता है। अत: विवेकानन्द भारत में धर्म प्रचार आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि भारतवर्ष में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के First धर्म प्रचार आवश्यक है। वे कहते हैं ‘‘भारत को सामाजिक अथवा राजनीतिक विचारों से प्लावित करने से First आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाय।’’
सत्य
विवेकानन्द के According, विश्व में सत्य Single है और Human उसे विभिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं।
अपने भाषण ‘मेरी कार्यविधि’ में स्वामीजी कहते है ‘‘हमें शक्ति चाहिए, इसलिए अपने आप पर विश्वास करो। अपने स्नायुओं को शक्तिशाली बनाओ। हमें लोहे की पेशियां और फौलाद के स्नायु चाहिए। हम बहुत रो चुके हैं, अब और रोना नहीं, अपने पैरो पर खड़े हो जाओ और Human बनो। हमें Human गठन करने वाला धर्म चाहिए, हमें मनुष्य गठन करने वाले सिद्धान्त चाहिए, चारो ओर हमें Human गठन करने वाली शिक्षा चाहिए। सत्य की परीक्षा यह है : कोर्इ भी वस्तु जो तुम्हें शरीर से, बुद्धि से या आध्यात्मिकता से निर्बल करती है, उसे विष समझ कर त्याग दो, इसमें कोर्इ जीवन नहीं है, यह सत्य नहीं हो सकती। सत्य माने पवित्रता, सत्य माने समग्र ज्ञान, सत्य द्वारा बल प्राप्ति होनी चाहिए।’’ सत्य की विशेषताओं का History करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते है- ‘‘सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रता स्वReseller है, ज्ञान स्वReseller है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अंधकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दे।’’
अहिंसा
विवेकानन्द अहिंसा को श्रेष्ठ मानते है पर हिंसा को सर्वथा त्याज्य नहीं। उनके According गृहस्थ को अपने शत्रु के सामने दृढ़ होना चाहिए और गुरू और बन्धुजनों के समक्ष नम्र।… यदि वह शत्रु के समक्ष वीरता नहीं दिखाता है, तो वह अपने कर्तव्य की अवहेलना करता है किन्तु अपने बन्धु-बान्धव , आत्मीय स्वजन And गुरू के निकट उसे गौ के समान शांत और निरीह भाव अवलम्बन करना चाहिए।’’ विवेकानन्द के According अहिंसा की कसौटी है, र्इष्र्या का अभाव।
त्याग
स्वामी विवेकानन्द के According त्याग का Means है, स्वार्थ का सम्पूर्ण अभाव। यूरोप और अमेरिका में भोग पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी। इसलिए स्वामी जी ने वहाँ के निवासियों को संयम और त्याग की शिक्षा दी। किन्तु भारत में दरिद्रता का साम्राज्य था। यहाँ के लोग धनाभाव के कारण जीवन के ऊँचे गुणों से विमुक्त हो गए। अत: उन्होंने भारतवासियों को जो उपदेश दिया वह केवल धर्म के लिए नही था, प्रत्युत उन्होंने यहाँ के लोगो में असन्तोष जगाना चाहा और उन्हें कर्म की भावना से आन्दोलित करने की चेष्टा की। विवेकानन्द कहते है- ‘‘त्याग के बिना कोर्इ सिद्धि संभव नहीं है। त्याग Humanीय चेतना का पवित्रतम, सर्वोत्तम साध्य है।’’
Human सेवा
विवेकानन्द ने यह सीख दी कि Human सेवा ही र्इश्वर सेवा है। उससे मुँह मोड़ना धर्म नहीं है। वे कहते थे अगर तुम्हें भगवान की सेवा करनी है तो Human की सेवा करो। वह भगवान ही रोगी मनुष्य, दरिद्र मनुष्य और सब प्रकार के मनुष्यों के Reseller में तुम्हारे सामने खड़ा है। इसलिए उन्होंने कहा- ‘‘तुम्हें सिखाया गया है कि अतिथि देवो भव, मातश् देवो भव, पितश् देवो भव, पर अब मैं तुमसे कहता हूँ दरिद्र देवो भव।’’
विवेकानन्द कहते है कि ‘‘विश्व में सन्यासी क्यों जन्म लेते हैं? औरों के निमित्त अपना जीवन उत्सर्ग करने, जीव के आकाशभेदी क्रन्दन को दूर करने, विधवा के आँसू पोंछने, पुत्र-वियोग से पीड़ित अबलाओं के मन को शान्ति देने, सर्व-साधारण को जीवन-संग्राम के लिए तैयार करने, शास्त्र के उपदेशों को फैलाकर सबका ऐहिक और परमार्थिक मंगल करने और ज्ञानालोक से सबके अन्दर जो ब्रह्मसिंह सुप्त है, उसे जागृत करने।’’
जाति व्यवस्था के विरोधी
विवेकानन्द भारत में व्याप्त सामाजिक बुरार्इयों के विरूद्ध लगातार संघर्ष करते रहे। वे चाण्डाल में र्इश्वर का निवास महसूस करते थे। उन्हीं के Wordों में ‘‘यदि मैं अत्यन्त नीच चाण्डाल होता, तो मुझे और भी आनन्द आता, क्योंकि मैं उन महापुरूष का शिष्य हूँ जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण होते हुए भी Single चाण्डाल के पाखाने की सफार्इ लगातार कर्इ दिनों तक की थी। सबका सेवक बनकर ही Single हिन्दू अपने को उन्नत करने की चेष्टा करता है।
सामाजिक व्याधि के प्रतिकार का उपाय: शिक्षा
स्वामी विवेकानन्द का मानना था कि सामाजिक व्याधियों का प्रतिकार बाहरी उपायों द्वारा नहीं होगा, इसके लिए भीतरी उपायों का अवलम्बन करना होगा, मन पर कार्य करने की चेष्टा करनी होगी। विवेकानन्द कहते हैं ‘‘समाज के दोषों को दूर करने के लिए प्रत्यक्ष Reseller से नहीं वरन् शिक्षा-दान द्वारा परोक्ष Reseller से उसकी चेष्टा करनी होगी।’’
देशभक्ति की Need
विवेकानन्द Single प्रखर राष्ट्र भक्त थे और वे All Indian Customerों को राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत-प्रोत देखना चाहते थे। वे Indian Customer नवयुवकों को सम्बोधित करते हुए कहते है ‘‘मेरे भावी देशभक्तो, हृदयवान बनो। क्या तुम हृदय से यह अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों की करोड़ों सन्तान आज पशुतुल्य हो गयी है? क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि लाखों आदमी आज भूखों मर रहे हैं? क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञान के काले बादल ने सारे भारत को ढ़क लिया है? यदि ‘हाँ’ तो जानो कि तुमने देशभक्त होने की पहली सीढ़ी पर पैर रखा है।’’ इस समस्या के निवारण हेतु कर्तव्य पथ निश्चित करना स्वामी विवेकानन्द के According दूसरी सीढ़ी है और उस पथ पर दृढ़ता से चलना देशभक्त की निशानी है।
राष्ट्रीयता के विकास And राष्ट्र को जड़भावापन्न स्थिति से निकालने का उपाय बताते हुए विवेकानन्द कहते हैं- ‘‘First राष्ट्र को शिक्षित करो, अपनी निजी विधायक संस्थाएँ बनाओ, फिर तो नियम आप ही आप आ जायेंगे। जिस शक्ति के बल से, जिसके अनुमोदन से विधान का गठन होगा, First उसकी सृष्टि करो। आज King नहीं रहे; जिस नयी शक्ति से, जिस नये दल की सम्मति से नयी व्यवस्था गठित होगी, वह लोक शक्ति कहाँ है? उसी लोक शक्ति को संगठित करो। अतएव समाज-सुधार के लिए भी, First कर्तव्य है- लोगों को शिक्षित करना। और जब तक यह कार्य सम्पन्न नहीं होता, तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।’’
इस तरह से स्वामी विवेकानन्द भारत को Single स्वतंत्र, शक्तिशाली प्रजातांत्रिक राष्ट्र बनाने के लिए जन-सामान्य की शिक्षा अनिवार्य मानते थे।
प्राच्य And पाश्चात्य संस्कृतियों का समन्वय
स्वामी विवेकानन्द मानते थे कि प्राच्य And पाश्चात्य दोनो ही संस्कृतियों में गुण और दोष हैं। इनकी कमियों का History करते हुए वे कहते हैं- ‘‘यहाँ की भूमि विधवाओं के आँसू से कभी-कभी तर होती हैं, तो पाश्चात्य देश का वायु-मण्डल अविवाहित स्त्रियों की आहों से भरा रहता है। यहाँ का जीवन गरीबी की चपेट से जर्जरित है, तो वहाँ पर लोग विलासिता के विष से जीवन्मश्त हो रहें है।… बुराइयाँ All जगह हैं।… रोग की जड़ साफ कर देना ही ठीक-ठाक उपाय है। अत: दोनों ही संस्कृतियों के श्रेष्ठ तत्वों का समन्वय Reseller जाना चाहिए।
शिक्षा-दर्शन
स्वामी विवेकानन्द के According शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है। Human में शक्तियाँ जन्म से ही विद्यमान रहती है। शिक्षा उन्हीं शक्तियों या गुणों का विकास करती है। पूर्णता बाहर से नहीं आती वरन् मनुष्य के भीतर छिपी रहती है। All प्रकार का ज्ञान मनुष्य की आत्मा में निहित रहता है। गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त अपने प्रतिपादन के लिए न्यूटन की खोज की प्रतीक्षा नहीं कर रहा था। वह न्यूटन के मस्तिष्क में First से ही विद्यमान था। जब समय आया तो न्यूटन ने केवल उसकी खोज की। विश्व का असीम ज्ञान-भंडार Human मन में निहित है, बाहरी संसार केवल Single प्रेरक मात्र है, जो अपने ही मन का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करता है। पेड़ से सेव के गिरने से न्यूटन ने कुछ अनुभव Reseller और मन का अध्ययन Reseller। उसने अपने मन में पूर्व से स्थित विचारों की कड़ियों को व्यवस्थित Reseller और उसमें Single नयी कड़ी को देखा, जिसे मनुष्य गुरूत्वाकर्षण का नियम कहते हैं।
अतएव All ज्ञान, चाहे वह संसारिक हो अथवा परमार्थिक, मनुष्य के मन में निहित है। यह आवरण से ढ़का रहता है, और जब वह आवरण धीरे-ध् ाीरे हटता है, तो मनुष्य कहता है कि ‘‘मुझे ज्ञान हो रहा है।’’ ज्यों-ज्यों आवरण हटने की प्रक्रिया या आविष्कार की प्रक्रिया बढ़ती जाती है त्यों-त्यों मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती जाती है। जिस मनुष्य पर यह आवरण पूर्णत: पड़ा रहता है, वह मूढ़ या अज्ञानी है और जिस मनुष्य पर से यह आवरण बिल्कुल हट जाता है, वह सर्वज्ञानी मनुष्य हो जाता है। जिस प्रकार Single चकमक पत्थर के टुकड़े में अग्नि निहित रहती है, उसी प्रकार मनुष्य के मन में ज्ञान निहित रहता है। उद्दीपक कारण ही वह घर्षण है, जो उठा ज्ञानाग्नि को प्रकाशित कर देता है।
स्वामी विवेकानन्द सर्वहितकारी, सर्वव्यापी And Human-निर्माण करने वाली शिक्षा पर जोर देते थे। वे Human की स्वतंत्रता को मूल बिन्दु मानकर राजनीति से परे Human निर्माण की योजना के सर्मथक थे। शिक्षा को धर्म से Added मानकर विवेकानन्द ने दोनों की Human के अन्दर पार्इ जाने वाली प्रवृत्ति को उजागर करना ध्येय माना। Human-कल्याण का मूल बीज शिक्षा को मानकर विवेकानन्द ने शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने की योजना बनार्इ। उन्होंने शिक्षा की Single उदार And संतुलित प्राReseller देश के सामने रखा ‘‘Need है विदेशी नियंत्रण हटाकर हमारे विविध शास्त्रों, विद्याओं का अध्ययन हो और साथ ही साथ अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य विज्ञान भी सीखा जाये। हमें उद्योग-धंधो की उन्नति के लिए यांत्रिक शिक्षा भी प्राप्त करनी होगी जिससे देश के युवक नौकरी ढूंढ़ने के बजाय अपनी जीविका के लिए समुचित धनोपार्जन भी कर सके और दुर्दिन के लिए कुछ बचा भी सके।
शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द ने ज्ञान दान को श्रेष्ठ दान बताया। उन्होंने चार प्रकार के दान बताये: धर्म (आध्यात्मिक ज्ञान का) दान, ज्ञान दान, प्राण दान और अन्न दान। इन सब में उन्होंने First दो दानों को श्रेष्ठ दान माना। वे ज्ञान-विस्तार को भारत की सीमाओं से बाहर भी ले जाना चाहते हैं। भारत ने संसार को अनेक बार आध्यात्मिक ज्ञान दिया। स्वामी जी ने धर्म प्रचार और लौकिक विद्या दोनों को ही Human के लिए आवश्यक बताया पर उनका स्पष्ट मत था कि ‘‘यदि लौकिक विद्या बिना धर्म के ग्रहण करना चाहो, तो मैं तुमसे साफ कह देता हूँ कि भारत में तुम्हारा ऐसा प्रयास व्यर्थ सिद्ध होगा- वह लोगों के हृदयों में स्थान प्राप्त नहीं कर सकेगा।
वे कहते थे Indian Customerों में आत्मविश्वास भरने के लिए उन्हें आत्मतत्व की जानकारी देनी चाहिए। वे कहते हैं- ‘‘अब उनको (वंचितों को) आत्मतत्व सुनने दो, यह जान लेने दो कि उनमें से नीच-से-नीच में भी आत्मा विद्यमान है। वह आत्मा, जो कभी न मरती है, न जन्म लेती है, जिसे न तलवार काट सकती है, न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है, जो अमर है, अनादि और अनन्त है, शुद्ध स्वReseller, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। इस प्रकार विवेकानन्द ने शिक्षा के द्वारा आत्मसाक्षात्कार की संभावना पर अत्यधिक बल दिया।
उन्नीसवीं शताब्दी में प्रचलित रहस्य या तांत्रिक विद्या की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा इन्होंने Human के विवेक को समाप्त कर दिया। वे आदर्श शिक्षा व्यवस्था की कल्पना करते हुए कहते है ‘‘हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके।’’ वे केवल सूचनाओं के संग्रह को शिक्षा नहीं मानते थे। उनका कहना था: ‘‘शिक्षा उस जानकारी के समुच्चय का नाम नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में भर दिया गया है, और वहाँ पड़े-पड़े तुम्हारी सारी जिन्दगी भर बिना पचाए सड़ रही है। हमें तो भावों या विचारों को इस प्रकार आत्मSeven् करना चाहिए, जिससे जीवन निर्माण हो, मनुष्यत्व आवे और चरित्रगठन हो। यदि शिक्षा और जानकारी Single ही वस्तु होती, तो पुस्तकालय सबसे बड़े सन्त और विश्व-कोष ही ऋषि बन जाते।’’
शिक्षा का उद्देश्य
स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा को व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए आवश्यक माना। उन्होंने हर समस्या का निदान शिक्षा को बताया। शिक्षा के उद्देश्यों का विवेचन करते हुए वे लिखते हैं ‘‘जो शिक्षा प्रणाली जन-साधारण को जीवन-संघर्ष से जूझने की क्षमता प्रदान करने में सहायक नहीं होती, जो मनुष्य के नैतिक बल का, उसकी सेवा-वश्त्ति का, उसमें सिंह के समान साहस का विकास नहीं करती, वह भी क्या शिक्षा के नाम के योग्य है?’’ स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य बतलाये-
- अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति: विवेकानन्द ने शिक्षा का सर्वाक्तिाक महत्वपूर्ण उद्देश्य Human में निहित पूर्णता का विकास है। वेदान्त-दर्शन के According प्रत्येक बालक में अनन्त ज्ञान, अनन्त बल And अनन्त व्यापकता की शक्तियाँ विद्यमान हैं, परन्तु उसे इन शक्तियों का पता नहीं। शिक्षा का उद्देश्य इन शक्तियों के बारे में छात्रों को जानकारी देना तथा प्रत्येक विद्याथ्री में अन्तर्निहित शक्तियों का उत्तरोत्तर विकास करना है।
- Human-निर्माण करना: स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा प्रमुख उद्देश्य Human का निर्माण करना बताया। वे कहते हैं ‘‘शिक्षा द्वारा मनुष्य का निर्माण Reseller जाता है। समस्त अध्ययनों का अन्तिम लक्ष्य मनुष्य का विकास करना है। जिस अध्ययन द्वारा मनुष्य की संकल्प-शक्ति का प्रवाह संयमित होकर प्रभावोत्पादक बन सके, उसी का नाम शिक्षा है।’’
- शारीरिक पूर्णता: विवेकानन्द के According Human तभी पूर्णता प्राप्त कर सकता है जब उसका शरीर स्वस्थ हो। शारीरिक दुर्बलता पूर्णता के लक्ष्य प्राप्त करने में सबसे बड़ा बाधक तत्व है। वे युवकों को सम्बोधित करते हुए कहते है ‘‘सबसे First हमारे युवकों को सबल बनाना चाहिए। धर्म तो बाद की चीज है। तुम गीता पढ़ने की बजाय फुटबाल खेलकर स्वर्ग के अधिक नजदीक पहुँच सकते हो। यदि तुम्हारा शरीर स्वस्थ है, अपने पैरों पर दृढ़ता पूर्वक खड़े हो सकते हो, तो तुम उपनिषदों और आत्मा की महत्ता को अधिक अच्छी तरह समझ सकते हो।’’
- चरित्र का निर्माण: स्वामी विवेकानन्द उसी शिक्षा को शिक्षा मानते थे जो चरित्रवान स्त्री-पुरूष को तैयार कर सके। उनके According सबल राष्ट्र के निर्माण हेतु नागरिक का चरित्रवान होना आवश्यक है। वे कहते हैं ‘‘आज हमें जिसकी वास्तविक Need है, वह है चरित्रवान स्त्री-पुरूष। किसी भी राष्ट्र का विकास और उसकी Safty उसके चरित्रवान नागरिकों पर निर्भर है।’’ अत: विद्यार्थियों में उच्च चरित्र का निर्माण शिक्षा का Single महत्वपूर्ण कार्य है।
- जीवन-संघर्ष की तैयारी: शिक्षा विद्याथ्री को भावी जीवन के लिए तैयार करती है। विवेकानन्द की दृष्टि में जीवन-संघर्ष की तैयारी के लिए तकनीकी And विज्ञान की शिक्षा आवश्यक है। विवेकानन्द कहते हैं ‘‘आज की यह उच्च शिक्षा रहे या बन्द हो जाए, इससे क्या बनता-बिगड़ता है? यह अधिक अच्छा होगा, यदि लोगों को थोड़ी तकनीकी शिक्षा मिल सके, जिससे वे नौकरी की खोज में इधर-उधर भटकने के बदले किसी काम में लग सकें और जीविकोपार्जन कर सकें।’’
- राष्ट्रीयता की भावना का विकास: विवेकानन्द भारत की दुर्दशा से अत्यन्त ही मर्माहत थे। वे Single ऐसी शिक्षा व्यवस्था का विकास करना चाहते थे जो Indian Customer विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास कर सके। वे कहते हैं- ‘‘ऐ वीर! साहस का अवलम्बन करो। गर्व से कहो, मैं भारतवासी हूँ और प्रत्येक भारतवासी मेरा भार्इ है। तुम चिल्लाकर कहो कि मूर्ख भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी, All मेरे भार्इ हैं। भारत के दीन-दुखियों के साथ Single होकर गर्व से पुकार कर कहो- ‘‘प्रत्येक भारतवासी मेरा भार्इ है, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत के देवी-देवता मेरे र्इश्वर हैं, भारत का समाज मेरे बचपन का झूला, जवानी की फुलवारी और बुढ़ापे की काशी है।’’
इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से विवेकानन्द Indian Customerों के मध्य राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना का विकास करना चाहते थे।
पाठ्यक्रम
स्वामी विवेकानन्द का यह मानना था कि हर राष्ट्र की कुछ विशेष गुणों के कारण अलग पहचान होती है। भारत राष्ट्र की विशिष्ट पहचान उसकी आध्यात्मिकता है। विवेकानन्द के According धर्म शिक्षा की आत्मा है। विवेकानन्द की धर्म की परिभाषा अत्यन्त व्यापक है। वे धर्म अन्तर्गत सम्प्रदाय विशेष को न मानकर नैतिक जीवन पद्धति को मानते हैं। वे पाश्चात्य शिक्षा को अधर्म के विस्तार का कारण मानते हैं। हृदय का विकास जहाँ Human को आध्यात्मिक बनाता है वहीं मात्र बौद्धिक विकास उसे स्वाथ्री बनाता है।
विवेकानन्द शिक्षा में आध्यात्म के साथ विज्ञान And तकनीकी की शिक्षा आवश्यक मानते हैं। स्वामी विवेकानन्द का यह स्पष्ट तौर पर मानना था कि Indian Customer आध्यात्म And पश्चिमी विज्ञान का समन्वय ही Human कल्याण का सर्वाधिक विश्वसनीय आधार बन सकता है। स्वामी विवेकानन्द का मानना था कि आधुनिक विज्ञान And तकनीकी तथा उद्योग की शिक्षा ने Human के जीवन को आरामदायक बनाया है। पर अगर इसका विकास बिना नैतिक- आध्यात्मिक समन्वय के साथ हुआ तो यह Human जाति के विनाश का कारण बन सकता है। द्वितीय विश्वFight के दौरान स्वामी विवेकानन्द की भविष्यवाणी सच हुर्इ।
विवेकानन्द की शिक्षा व्यवस्था में कला को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वे मानते थे कि ‘‘कला हमारे धर्म का ही Single अंग है।’’ उन्होंने विद्यार्थियों, शिक्षकों And शिक्षाशास्त्रियों का ध्यान चित्रांकित पात्रों, नयनाभिराम साड़ियों आदि से लेकर कश्“ाक की झोपड़ियों तथा अनाज भरने के कोठारों तक खींचा। उन्हें जीवन का हर आयाम कलात्मक दिखता था और वे शिक्षा को कला की साधना का माध्यम बनाने पर जोर देते थे।
स्वामी विवेकानन्द भाषा की शिक्षा के संदर्भ में अत्यधिक उदार थे। वे संस्कृत भाषा की शिक्षा पर अत्यधिक जोर देते थे क्योंकि यही हमारे धर्म और संस्कृति की भाषा है। इसके साथ ही मातृभाषा की शिक्षा आवश्यक मानते थे। विज्ञान And तकनीक की उचित शिक्षा के लिए वे अंग्रेजी की भी शिक्षा महत्वपूर्ण मानते थे।
जनसामान्य में शिक्षा के प्रसार हेतु विवेकानन्द की शिक्षा-व्यवस्था में शारीरिक शिक्षा, खेलकूद और व्यायाम को उचित स्थान दिया गया है। वे नवयुवकों को गीता पढ़ने की बजाए फुटबाल खेलने का सुझाव देते थे। उनका मानना था कि अगर शरीर स्वस्थ होगा तो गीता भी बेहतर ढ़ंग से समझ में आयेगी। उन्होंने नवयुवकों को शक्ति का महत्व बताते हुए कहा- ‘‘शक्ति ही जीवन और कमजोरी मृत्यु है। शक्ति परम सुख है और अजर अमर जीवन है, कमजोरी कभी न हटने वाला बोध और यन्त्रणा है, कमजोरी ही मृत्यु है।’’
इस प्रकार शिक्षा के पाठ्यक्रम में स्वामी विवेकानन्द ने प्राच्य धर्म, दर्शन और भाषा तथा पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान, तकनीक And औद्योगिक प्रशिक्षण को स्थान दिया। उन्होंने स्पष्ट Reseller से यह महसूस Reseller था कि पाश्चात्य जगत के भौतिक ज्ञान से हम अपना भौतिक विकास कर सकते है और अपने देश के आध्यात्मिक ज्ञान से पश्चिमी जगत का कल्याण कर सकते है। इस प्रकार से स्पष्ट है कि पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द का दृष्टिकोण समन्वयवादी, आधुनिक और व्यापक था।
शिक्षण विधि
स्वामी विवेकानन्द के According ज्ञान प्राप्त करने की सर्वोत्तम विधि Singleाग्रता है। वे कहा करते थे कि जितनी अधिक Singleाग्रता होगी उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त Reseller जा सकता है। उनका कहना था कि Singleाग्रता के बल पर जूता पॉलिश करने वाला भी बेहतर ढ़ंग से जूता पॉलिश कर सकेगा And रसोइया भी अधिक अच्छा भोजन बना सकेगा।
Singleाग्रता तभी आ सकती है जब मनुष्य में अनासक्ति हो। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि तथ्यों का संग्रह शिक्षा नहीं है। सच्ची शिक्षा है तन को अनासक्ति द्वारा Singleाग्र करने की क्षमता विकसित करना। इससे All तरह के तथ्यों का संग्रह Reseller जा सकता है, समस्याओं को समझा जा सकता है और उनके निराकरण का मार्ग ढूंढ़ा जा सकता है।
स्वामी विवेकानन्द लौकिक And आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के ज्ञान के लिए योग विधि को अपनाने पर बल देते थे। भौतिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए जहाँ अल्प योग (अल्पकाल की Singleाग्रता) पर्याप्त है वहीं आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए पूर्ण योग (दीर्घकालीन Singleाग्रता) आवश्यक है।
स्वामी विवेकानन्द शिक्षा को प्रत्येक बालक-बालिका का जन्म सिद्ध अधिकार मानते थे। खोये हुए सांस्कृतिक And भौतिक वैभव को फिर से प्राप्त करने के लिए जनसाधारण की शिक्षा को वे आवश्यक बताते थे। उन्होंने स्पष्ट Wordों में कहा- ‘‘मेरे विचार में जनसाधारण की अवहेलना राष्ट्रीय पाप है और हमारे पतन का कारण है। जब तक भारत की सामान्य जनता को Single बार फिर से शिक्षा, अच्छा भोजन और अच्छी Safty प्रदान नहीं की जायेगी, तब तक सर्वोत्तम राजनीतिक कार्य भी व्यर्थ होंगे।’’ वे शिक्षा की सुविधा All के लिए समान Reseller से उपलब्ध कराना चाहते थे।
स्वामी विवेकानन्द के जीवन And शिक्षा सम्बन्धी विचार आज की परिस्थितियों में भी उतनी ही उपयोगी है जितनी उनके समय में थी। आज वेदान्त और विज्ञान के समन्वय की Need और अधिक है। स्वामी विवेकानन्द का दर्शन Human मात्र का कल्याण के लिए है। उन्होंने स्वंय कहा था- ‘‘हम Human-निर्माण का धर्म चाहते हैं। हम मनुष्य का निर्माण करने वाले सिद्धान्त चाहते हैं और हम Human निर्माण की सर्वागींण शिक्षा चाहते हैं।’’
शिक्षक का दायित्व
विवेकानन्द ने कहा कि शिक्षक का कार्य मार्ग से रूकावटें हटाना है। Meansात् व्यक्ति के अन्तर्गत ब्रह्मत्व की शक्ति First से ही विद्यमान है, शिक्षा का कार्य उसे उजागर करना है।
सर्वजनीन और सर्वसुलभ शिक्षा प्रसार के लिए स्वामी जी ने शिक्षा देने हेतु ऐसे अध्यापकों की अपेक्षा की जो सदाचारी हों, त्यागी हों और उच्च भाव से ओत-प्रोत हों। उन्होंने यह स्पष्ट Reseller कि भारत में शिक्षा ‘ज्ञानदान’ या ‘विद्यादान’ अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है और यह दानी पुरूषों द्वारा होता है। अत: ज्ञान प्रसार का कार्य निस्वार्थ त्यागी पुरूषों के कन्धों पर ही होना चाहिए। शिक्षकों को निस्वार्थ भाव से शिक्षा देनी चाहिए न कि धन, नाम या यश सम्बन्धी स्वार्थ की पूर्ति के लिए। शिक्षकों को Human-जाति के प्रति विशुद्ध प्रेम से प्रेरित होना चाहिए क्योंकि स्वार्थ पूर्ण भाव, जैसे लाभ अथवा यश की इच्छा, इसके अभीष्ट उद्देश्य को Destroy कर देगा।
शिक्षा के लिए विवेकानन्द गुरूगृह प्रणाली के पोषक थे। उनका मत था कि विद्यालयों का पर्यावरण And वातावरण गुरूगृह की ही तरह शुद्ध होना चाहिए, जहाँ व्यायाम, खेल-कूद, अध्ययन-अध्यापन के साथ भजन-कीर्तन और ध्यान की भी व्यवस्था हो। वे कहते है- ‘‘मेरे विचार के According शिक्षा का Means है गुरूकुल-वास। शिक्षक के व्यक्तिगत जीवन के बिना कोर्इ शिक्षा हो ही नहीं सकती। जिनका चरित्र जाज्वल्यमान अग्नि के समान हो, ऐसे व्यक्ति के सहवास में शिष्य को बाल्यावस्था के आरम्भ से ही रहना चाहिए, जिससे कि उच्चतम शिक्षा का सजीव आदर्श शिष्य के सामने रहे।’’
विद्याथ्री के कर्तव्य
शिक्षाथ्री के लिए स्वामी जी कठोर नियमों का पालन And इन्द्रिय निग्रह पर जोर देते थे, जिससे छात्र शिक्षक में श्रद्धा रखकर सत्य को जानने का प्रयास करे। उन्होंने कहा ‘‘शिक्षक के प्रति श्रद्धा, विनम्रता, समर्पण तथा सम्मान की भावना के बिना हमारे जीवन में कोर्इ विकास नहीं हो सकता। उन देशों में जहाँ शिक्षक-शिक्षाथ्री सम्बन्धों में उपेक्षा बरती गर्इ है, वहाँ शिक्षक Single व्याख्याता मात्र रह गया है। वहाँ शिक्षक अपने लिये पाँच डालर की आशा रखने वाले और छात्र, शिक्षक के व्याख्यान को अपने मस्तिष्क में भरने वाले रह जाते हैं। इतना कार्य सम्पन्न होने पर दोनों अपनी-अपनी राह पर चल देते हैं। इससे अधिक उनमें कोर्इ सम्बन्ध नहीं रह गया है।’’
विवेकानन्द विद्याथ्री-जीवन में ब्रह्मचर्य पालन पर जोर देते हैं। उनके According इस काल में विद्याथ्री को मन, वचन और कर्म से ब्रह्मचर्य-पालन करना चाहिए। इससे संकल्प-शक्ति दृढ़ होती है तथा आध्यात्मिक शक्ति तथा वाग्मिता का विकास होता है।
नारी शिक्षा
स्वामी विवेकानन्द स्त्री-पुरूष समानता के समर्थक थे। इसलिए महिलाओं की शिक्षा भी उनकी शिक्षा सम्बन्धी योजना में महत्वपूर्ण विषय है। उनका मानना था कि देश की उन्नति के लिए महिलाओं की शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है। महिलाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने तपस्वी, ब्रह्मचारिणी तथा त्यागी महिलाओं को प्रशिक्षण देना आवश्यक माना ताकि ऐसी महिलायें दूसरी महिलाओं को सम्यक शिक्षा प्रदान कर सकें।
महिलाओं की समुचित शिक्षा के लिए विवेकानन्द ने पुरूषों की भाँति महिलाओं के लिए अलग संघ स्थापित करने पर जोर दिया। उनका विचार था कि मठों की स्थापना के माध्यम से वहाँ प्रशिक्षित ब्रह्मचारी स्त्रियाँ, सन्यासी और सुशिक्षित बन कर नारी जाति को शिक्षा देने का प्रयास करेंगी। शिक्षित स्त्रियाँ भले-बुरे का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगी और स्वतंत्र तथा स्वाभाविक Reseller से प्रगतिपथ पर अग्रसर हो सकेंगी। पुरूषों की तरह स्त्रियों को भी भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक विषयों तथा लौकिक विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे वे दूसरों तक सम्यक Reseller से प्रसारित कर सकें।
वे कहते हैं कि ‘‘जिस तरह माता-पिता अपने पुत्रों को शिक्षा देते है उसी तरह उन्हें पुत्रियों को भी शिक्षित करना चाहिए। जबकि हम उन्हें प्रारम्भ से ही Second पर निर्भर रहकर परतंत्र रहने की शिक्षा देते हैं।’’ विवेकानन्द की दृष्टि में मिलनी चाहिए कि वे दूसरों पर निर्भर रहने की बजाय स्वयं अपनी समस्याओं का निराकरण कर सकें। वे लड़कियों की शिक्षा के केन्द्र में धर्म को रखने का सुझाव देते हैं। इसके अतिरिक्त History And पुराण, गृह-व्यवस्था, कला And शिल्प, बच्चों की उचित देखभाल, पाक कला आदि की शिक्षा देने का सुझाव देते हैं। वे कन्याओं से ‘सीता’ के उज्ज्वल चरित्र से शिक्षा लेने को कहते हैं।
शिक्षा का प्रसार
स्वामी विवेकानन्द ने राष्ट्र और Human की समस्याओं का निदान शिक्षा को माना। वे शिक्षा को समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने प्राचीन Indian Customer शिक्षा पद्धति के प्रभावशाली माध्यमों के प्रयोग पर बल दिया।
भ्रमणकारी सन्यासियों द्वारा शिक्षा
स्वामी विवेकानन्द की यह योजना श्रमण प्रकृति से मिलती-जुलती है। उन्होंने कहा कि शिक्षा के प्रसार का कार्य उन हजारों सन्यासियों के माध्यम से हो सकता है जो गाँव-गाँव धर्मोपदेश करते हुए घूमते रहते हैं। उन्हीं के Wordों में ‘‘हमारे देश में Singleनिष्ठ और त्यागी साधु हैं जो गाँव-गाँव धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं। यदि उनमें से कुछ लोगों को शैक्षिक विषयों में भी प्रशिक्षित Reseller जाये तो गाँव-गाँव दरवाजे जाकर वे न केवल धर्म की ही शिक्षा देंगे बल्कि ऐहिक शिक्षा भी दिया करेंगे।’’ उन्होंने उदाहरण देते हुए स्पष्ट Reseller कि यदि इनमें से Single दो शाम को साथ में Single मैजिक लैन्टर्न, Single-Single ग्लोब और कुछ नक्शे आदि लेकर गाँव में जायें तो इनकी सहायता से वे अनपढ़ों को बहुत कुछ गणित, भूगोल, नक्षत्र-विज्ञान, ज्योतिष आदि की शिक्षा दे सकते हैं। ये सन्यासी विभिन्न देशों के बारे में कहानियाँ सुनाकर निर्धन लोगों को नाना प्रकार का समाचार दे सकते हैं जिनसे उनका ज्ञानवध्र्धन हो सके। बातचीत के माध्यम से सीधी सूचना के कारण ज्यादा प्रभावकारी जानकारी दी जा सकती है जो शायद पुस्तकों के माध्यम से संभव न हो सके।
विवेकानन्द ने गरीब लड़कों की आर्थिक मजबूरी को ध्यान में रखते हुए स्पष्ट Reseller कि गरीब लड़के पाठशाला जाने की बजाय Meansोपार्जन हेतु खेतों में माता-पिता की सहायता करने अथवा किसी अन्य तरीके से धन अर्जित करना ज्यादा पसन्द करते हैं, उनके लिए ऐसे सन्यासियों का घर-घर जाकर शिक्षा देना ज्यादा सराहनीय कदम होगा।
स्वामी जी शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने हेतु नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था चाहते थे। स्वामी जी मानते थे कि शिक्षा देने का कार्य त्यागी और तपस्वी पुरूषों का है। उन्हें लोभ से दूर रहते हुए ऐसे बालकों के पास पहुँचकर शिक्षा प्रदान करनी चाहिए जो आर्थिक अभाव के कारण शिक्षा ग्रहण करने हेतु अध्यापक के पास न आ पायें। स्वामी जी की मान्यता थी कि अशिक्षित जनसमूह को साक्षर बनाने की अपेक्षा जीवनोपयोगी शिक्षा देना अधिक आवश्यक है। इसलिए स्वामी जी औपचारिक शिक्षा के बजाय अनौपचारिक शिक्षा पर अधिक जोर देते थे।
रामकृष्ण मिशन
स्वामी विवेकानन्द ने Human जाति के उत्थान के लिए नवीन सन्यासी सम्प्रदाय का गठन Reseller, जो रामकृष्ण मिशन के नाम से प्रसिद्ध है। विवेकानन्द ने इसका उद्देश्य निश्चित Reseller- ‘‘आत्मनो मोक्षार्थ जगत् हिताय च।’’- ‘अपनी मुक्ति तथा जगत के कल्याण के लिए।’ रामकृष्ण मठ की स्थापना 1897 में की गर्इ तथा रामकृष्ण मिशन का पंजीकरण 1909 में Reseller गया। मठ और मिशन स्वामीजी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों को साकार Reseller देने का माध्यम है। मठ का मुख्य कार्यालय बेलूर मठ में है। देश में तो मठ और मिशन की अनेक शाखायें हैं ही, विदेशों में भी 130 शाखायें स्थापित की गर्इ हैं। रामकृष्ण मठ और मिशन का मुख्य उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से समाज-सेवा है। पुनरूजीवित हिन्दू धर्म के लिए विश्व की सांस्कृतिक विजय को इसने अपना साध्य माना।
भारत में मठ और मिशन का कार्य है मठ से चरित्रवान व्यक्ति निकलकर समाज को आध्यात्मिक शांति और संसारिक वैभव से प्लावित करे। मनुष्य की संसारिक And आध्यात्मिक उन्नति के लिए ‘विद्यादान’ तथा ‘ज्ञानदान’, शिल्पकारों And श्रमजीवियों को प्रोत्साहित करना तथा वेदान्त And Second धर्मों के भावों का प्रसार करना मिशन का उद्देश्य है।
स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन की मुहर के लिए साँप द्वारा घेरे हुए कमल दल के बीच में हंस का छोटा सा चित्र तैयार Reseller था। इस चित्र का तरंगपूर्ण जल समूह कर्म का, कमल दल भक्ति का और उदयीमान सूरज ज्ञान का प्रतीक है। चित्र में जो साँप का घेरा है, वह योग और जाग्रत कुण्डलिनी शक्ति का द्योतक है। चित्र के मध्य में जो हंस की मूर्ति है उसका Means है परमात्मा। Meansात् कर्म, भक्ति, ज्ञान और योग के साथ सम्मिलित होने से ही परमात्मा का दर्शन होता है।
रामकृष्ण मिशन का Single महत्वपूर्ण कार्य है जनसेवा। यह आपदा की स्थिति में पूरी निष्ठा से लोगों की सेवा करता है। मठ के शैक्षिक उद्देश्यों पर जोर डालते हुए विवेकानन्द ने कहा ‘‘इस मठ को धीरे-धीरे Single सर्वांग सुन्दर विश्वविद्यालय के Reseller में परिणत करें। इसमें दर्शनशास्त्र तथा धर्मशास्त्र के साथ-साथ औद्योगिक विषयों की भी शिक्षा देनी होगी।’’ उनके विचार में राष्ट्र की उन्नति उसी अनुपात में होगी जिस अनुपात में जनता के मध्य शिक्षा का प्रसार होगा। विवेकानन्द के इन सुझावों पर मठ And मिशन चलने का प्रयास कर रहे हैं। इनके द्वारा अनेक विद्यालय, महाविद्यालय, शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान, धार्मिक विद्यालय, औद्योगिक विद्यालय, कृषि संस्थान, संस्कृत विद्यालय And महाविद्यालय, पालीटेकनीक स्कूल, कम्प्यूटर सेन्टर, अनौपचारिक शिक्षा केन्द्र आदि प्रभावशाली ढ़ंग से चलाये जा रहे हैं।