स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय
Fourteen वर्ष की अवस्था में (1837 र्इ0 में) Single ऐसी घटना घटी जिसने बालक मूलशंकर के मानस को ही बदल दिया। शिवरात्रि के त्योहार पर उपवास का व्रत किए लोग रात्रि-जागरण कर रहे थे। मूलशंकर भी उनमें से Single था। रात बीतती गर्इ- अन्य भक्तों के साथ उनके पिता भी सो गए। तभी Single घटना घटी। Single छोटी-सी चुहिया शिव जी की मूर्ति पर चढ़ कर प्रसाद खाने लगी। किशोर मूलशंकर के मन में प्रश्न उठा क्या यही सर्वशक्तिमान शंकर है? अगर ये शंकर है तो इन पर चुहिया कैसे चढ़ सकती है? उसकी आस्था डगमगा गर्इ। उसने निश्चय Reseller कि इस बलहीन, प्राणहीन मूर्ति की जगह वह सच्चे शिव का दर्शन करेगा। कालान्तर में यही किशोर उन्नीसवीं सदी के Single प्रखर और जुझारू समाज-सुधारक के Reseller में विख्यात हुआ। चारों ओर फैले पाखण्ड, दम्भ और अन्धविश्वासों पर चोट करता हुआ उसने भारत को वैज्ञानिक युग में ले जाने की राह दिखाया।
जिस समय मूलशंकर के हृदय में प्रश्नाकुलता उमड़-घुमड़ रही थी भारत पर अंग्रेजो का आधिपत्य स्थापित हो चुका था। विदेशी Kingों के साथ उनकी सभ्यता And संस्कृति भी आर्इ थी। वे Indian Customerों को ‘असभ्य’ मानते थे तथा इन्हें ‘सभ्य’ बनाने हेतु उन्होंने दो मार्ग अपनाए- Single था, र्इसार्इ धर्म की श्रेष्ठता दिखाने के लिए हिन्दू धर्म पर उसकी कुरीतियों का प्रदर्शन करके सीधा आक्रमण। Second, यहाँ की भाषा और व्यवहार सीख कर धीरे-धीरे अपनी धर्म पुस्तकों का प्रसार करना।
ऐसी अवस्था में जहाँ Single ओर Indian Customerों के ज्ञानचक्षु खुले वहीं दूसरी ओर उनके आक्रमण का जवाब देने के लिए यहाँ के बुद्धिजीवियों ने आत्म-मंथन भी शुरू Reseller। उन लोगों ने अनुभव Reseller कि भारत के अतीत में जो कुछ शुभ और सुन्दर था उसे भूलकर हम रूढ़ियों, कुरीतियों और पाखण्डों में फँस गये हैं। छूआछूत, बाल-विवाह, बहु-विवाह, कन्या-वध, सती-प्रथा, ऊँच-नीच, आदि बुरार्इयाँ सामाजिक जीवन का हिस्सा बन गर्इ हैं। इन दुष्कर्मों से मुक्त हुए बिना पश्चिम का उत्तर नहीं दिया जा सकता था।
सबसे First बंगाल में विचार-क्रांति का जन्म हुआ। उसके उपरांत भारत के अन्य भागों में सुधार के प्रयास तेज हुए। मूलशंकर के मन में भी जिस दिन सच्चे शिव की तलाश का संकल्प जागा वह निरन्तर अध्ययन और स्वतंत्र चिन्तन में लीन रहने लगा। उसने उस किसी भी बात को मानने से इंकार कर दिया जो केवल इसलिए माना जाता है क्योंकि वह परम्परा से चली आ रही है या किसी घर के बड़े का उसे मानने का आदेश है। उनका विद्रोही मन देश और समाज के लिए Creationत्मक कार्य करने हेतु आतुर हो उठता।
छोटी बहन And धर्मात्मा विद्वान चाचा की मृत्यु ने मूलशंकर को वैराग्य की दशा में पहुँचा दिया। माता-पिता मूलशंकर को विवाह के बन्धन में बाँध ना चाहते थे पर मूलशंकर 1846 र्इ0 में Single दिन संध्या के समय घर छोड़कर चले गए- पुन: कभी नहीं लौटने के लिए। अब सम्पूर्ण भारत उनका घर था और All Indian Customer उनके बन्धु-बान्धव। सन् 1946 से 1860 तक के पन्द्रह वर्षों में वह नाना Reseller कटु और मधुर अनुभवों से गुजरते हुए आगे और आगे बढ़ते गए। प्रसिद्ध संत और विद्वान पूर्णानन्द सरस्वती ने मूलशंकर को सन्यास की दीक्षा देकर उनका नाम दयानन्द सरस्वती रखा। इस बीच दयानन्द सरस्वती योग, निघण्टू, निरूक्त, वेद, पूर्व मीमांसा आदि के प्रकाण्ड विद्वान बन चुके थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती का सम्पूर्ण व्यक्तित्व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण था। नाड़ीचक्र से सम्बन्धित उन्होंने कर्इ पुस्तकें हिमालय यात्रा के दौरान पढ़ी थीं। उन्होंने इस पुस्तकीय ज्ञान का वास्तविक परीक्षण Reseller। वे आत्मकथा में लिखते हैं ‘‘Single दिन संयोग से Single शव मुझे नदी में बहते मिला। तब समुचित अवसर प्राप्त हुआ कि मैं उसकी परीक्षा करता और उन पुस्तकों के संदर्भ में निर्णय करता। सो उन पुस्तकों को समीप ही Single ओर रखकर मैं नदी के भीतर गया और शव को पकड़ तट पर आया। मैंने तीक्ष्ण चाकू से उसे काटना आरम्भ Reseller और हृदय को उसमें से निकाल लिया और ध्यान पूर्वक देख परीक्षा की। अब पुस्तकोल्लिखित वर्णन की उससे तुलना करने लगा। ऐसे ही शर और ग्रीवा के अंगो को काटकर सामने रखा। यह पाकर कि दोनों पुस्तक और शव लेशमात्र भी परस्पर नहीं मिलते, मैंने पुस्तकों को फाड़कर उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले और शव के साथ ही पुस्तकों के टुकड़ों को भी नदी में फेंक दिया। उसी समय से शनै:-शनै: मैं यह परिणाम निकालता गया कि वेदों, उपनिषद्, पातंजल और सांख्य-शास्त्र के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें, जो विज्ञान और विद्या पर लिखी गर्इ हैं, मिथ्या और अशुद्ध हैं।’’
1857 से 1860 के बीच दयानन्द सरस्वती कहाँ रहें इसका कहीं History नहीं मिलता है। स्पष्टत: वे 1857 की क्रांति से सम्बद्ध रहे थे अत: उनके जीवन का यह काल-खंड आज भी रहस्य बना हुआ है। सन् 1860 में वे गुरू विरजानन्द के पास पहुँचते हैं। उनके निर्देशन में ढ़ार्इ वर्ष के अल्पकाल में उन्होंने महाभाष्य, ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, वेद-वेदांग इन सबका अध्ययन Reseller। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुरू विरजानन्द को वचन दिया कि वे आर्य ग्रन्थों की महिमा स्थापित करेंगे, अनार्ष ग्रन्थों का खंडन करेंगे और वैदिक धर्म की पुनपर््रतिष्ठा में अपने प्राण तक अर्पित कर देंगे।
1867 र्इ0 में हरिद्वार में कुम्भ था। वहाँ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने वस्त्र फाड़कर Single पताका तैयार की और उस पर लिखा ‘पाखंड खंडनी’, उसे अपनी कुटिया पर फहराकर अधर्म, अनाचार और धार्मिक शोषण के खिलाफ Fight की घोषणा कर दी। उनका यह धर्म Fight 1883 में उनके देहावसान के बाद ही समाप्त हुआ। उन्होंने काशी पण्डितों को मूर्तिपूजा के संदर्भ में हुए शास्त्रार्थ में निरूत्तर कर दिया। कलकत्ते में महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर, राजनारायण वसु, डब्लू0 सी0 बनर्जी, भूदेव मुखर्जी, केशवचन्द्र सेन आदि विद्वानों ने उनका भव्य स्वागत Reseller और उनके विचारों से लाभान्वित हुए। केशवचन्द्र सेन के सुझाव पर दयानन्द सरस्वती ने हिन्दी भाषा अपना ली तथा कोपीन के स्थान पर धोती-कुरता धारण करने लगे। 1875 में बम्बर्इ में इन्होंने ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की। हिन्दी के विकास और राष्ट्र-प्रेम की भावना जागृत करने में इस संस्था की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उसी वर्ष सत्यार्थ प्रकाश का प्रकाशन हुआ। विष्णु प्रभाकर (2006: 51) के Wordों में ‘‘वह (सत्यार्थ प्रकाश) आर्यसमाज की बार्इबिल है और हिन्दी का प्रचार और प्रसार करने में प्रत्यक्ष और परोक्ष Reseller से उसका योगदान अपूर्व है।’’ महाराष्ट्र में महादेव गोविन्द रानाडे, गोपाल हरि देशमुख, ज्योतिबा फुले जैसे सुधारक दयानन्द के प्रशंसकों में से थे। थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका मैडम ब्लैवेट्स्की ने दयानन्द सरस्वती के संदर्भ में कहा:
‘‘शंकराचार्य के बाद में भारत में कोर्इ भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जो स्वामीजी से बड़ा संस्कृतज्ञ, उनसे बड़ा दार्शनिक, उनसे बड़ा तेजस्वी वक्ता तथा कुरीतियों पर आक्रमण करने में उनसे अधिक निभ्र्ाीक रहा हो।’’
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने राजस्थान के देशी रियासतों में सुधार आन्दोलन चला रखा था। अत: अनेक प्रभावशाली लोग उनके विरोधी हो गये। जोधपुर राज्य के राजमहल में वे “ाड़यंत्र के शिकार हुए। उन्हें दूध में जहर और पिसा हुआ काँच दिया गया था। 1883 र्इ0 में दीपावली के दिन इनका देहावसान हो गया।
स्वामी जी चले गये परन्तु भारत के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनकी मान्यताओं और सिद्धान्तों ने हीन भाव से ग्रस्त Indian Customerों में अपूर्व उत्साह का संचार Reseller। अन्धविश्वास और कुरीतियों के जाल से मुक्त होकर उन्होंने जिस प्रगतिशील मार्ग को अपनाया था, जिस वैचारिक क्रांति को जन्म दिया था वही मार्ग आज हमें वैज्ञानिक युग में ले आया है।
जीवन-दर्शन
दयानन्द सरस्वती ब्रह्म को निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान And सर्वज्ञ मानते हैं। साथ ही वे जीवात्माओं And पदार्थों के स्वतंत्र अस्तित्व को भी स्वीकार करते है। उनके According ब्रह्म या र्इश्वर इस ब्रह्माण्ड का कर्ता है, पदार्थ जन्य इसके उपादान का कारण है और जीवात्माएँ इसके सामान्य कारण। Meansात् पदार्थ जन्म जगत भी वास्तविक है, यर्थाथ है। दयानन्द मूर्तिपूजा के घोर विरोधी तथा Singleेश्वरवाद के कट्टर समर्थक थे। वे परमात्मा और जीवात्मा को दो अलग तत्व मानते हैं। इनके According परमात्मा सर्वव्यापक और आत्मा सीमित है। परमात्मा ही विश्व का सृजन, पोषण और नियमन करता है। जीवात्मा अपने कर्मों का फल भोगता है। कर्म-भोग के अंत को ही ये मुक्ति मानते हैं। कर्म भोग से मुक्ति के उपरांत आत्मा पुन: परमात्मा में मिल जाती है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती वस्तु जगत और आध्यात्मिक जगत दोनों ही तरह के ज्ञान को महत्त्व प्रदान करते हैं। वे वस्तु जगत के ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते है और आध्यात्मिक जगत के ज्ञान को सद्ज्ञान कहते हैं। दयानन्द सद्ज्ञान को सर्वोच्च ज्ञान मानते हैं, जो वैदिक ग्रंथों में निहित है। पर हर ज्ञान को तर्क की कसौटी पर कसना दयानन्द की विशेषता थी।
दयानन्द ने ज्ञान और कर्म को मुक्ति का साधन माना। दयानन्द की आचार-संहिता अत्यन्त ही स्पष्ट थी। उन्होंने अशुद्ध ज्ञान And अकरणीय कार्य को ‘आठ गप्प’ कहा। ये हैं:-
- मनुष्यकृत पुराणादि ग्रन्थ
- पाषाणादि पूजन
- वैष्णवादि सम्प्रदाय
- तन्त्र ग्रन्थों में described वाम मार्ग
- भाँग आदि नशे
- पर स्त्री गमन
- चोरी
- कपट, छल And अभिमान।
सद्ज्ञान And करने योग्य कार्य को स्वामी दयानन्द ने ‘आठ सत्य’ के नाम से पुकारा। ये हैं:-
- र्इश्वर रचित वेदादि 21 शास्त्र
- ब्रह्मचर्यव्रत-धारण करके गुरूसेवा और अध्ययन
- वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए संध्यावन्दन करना
- पंच महायज्ञ करते हुए श्रौत स्मार्तादि द्वारा निश्चित आचार का पालन करना
- शम दम नियम आदि का पालन करते हुए वानप्रस्थ आश्रम का ग्रहण
- विचार, विवेक, वैराग्य, पराविज्ञा का अभ्यास, सन्यास ग्रहण
- ज्ञान-विज्ञान द्वारा जन्म-मरण शोक-हर्ष, काम, क्रोध आदि सब दोषों का त्याग 8. तम-रज का त्याग, सतोगुण का ग्रहण
आर्यसमाज के नियम
इन ‘आठ सत्यों’ के ही आधार पर ही स्वामी दयानन्द ने आर्यसमाज के नियम And उद्देश्य निश्चित किए। ये हैं:-
- सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।
- र्इश्वर सच्चिदानन्द स्वReseller निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी चाहिए।
- वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
- सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।
- सब काम धर्मानुसार Meansात् सत्य और असत्य को विचार करके करना चाहिये।
- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है- Meansात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
- सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये।
- अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।
- प्रत्येक को अपनी उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।
- सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम का अवश्य पालन करना चाहिये।
तर्क को महत्त्व
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने धर्म में भी तर्क को महत्व प्रदान Reseller। वे कहते हैं ‘‘कुछ लोग नदियों, गंगा इत्यादि की पूजा करते हैं, कुछ सितारों की, कुछ लोग मिट्टी और पत्थर की मूर्तियां पूजते हैं लेकिन बुद्धिमान व्यक्ति का परमात्मा उसके हृदय में, उसकी अपनी आत्मा में वास करता है। परमात्मा को Human अस्तित्व की गूढ़तम गहराइयों में पाया जा सकता है। उन्होंने तर्क के नियम पर बल दिया और बताया कि श्रद्धा के आधार पर कुछ भी स्वीकार न करो, बल्कि जांचो, परखो और निष्कर्ष पर पहँुचो।
पुरूष-नारी समानता के पक्षधर
दयानन्द सरस्वती ने स्त्री और पुरूष समानता के नियम की व्याख्या की। उन्होंने कहा ‘‘र्इश्वर के समीप स्त्री-पुरूष दोनों बराबर है क्योंकि वह न्यायकारी है। उसमें पक्षपात का लेश नहीं है। जब पुरूष को पुनर्विवाह की आज्ञा दी जाए तो स्त्रियों को Second विवाह से क्यों रोका जाये।… पुरूष अपनी इच्छानुसार जितनी चाहे उतनी स्त्रियाँ रख सकता है। देश, काल, पात्र और शास्त्र का कोर्इ बन्धन नहीं रहा। क्या यह अन्याय नहीं है? क्या यह अधर्म नहीं है?’’
सामाजिक समानता के समर्थक
स्वामी दयानन्द सरस्वती Single महान समाज सुधारक थे। उनमें जेहाद का जोश था, प्रखर बुद्धि थी और जब वह सामाजिक अन्याय देखते तो उनके हृदय में आग जल उठती थी। वे बार-बार कहते थे- ‘‘अगर आप आस्तिक हैं तो All आस्तिक भगवान के Single परिवार के सदस्य हैं। अगर आपका परमात्मा में विश्वास है तो प्रत्येक मनुष्य उसी परमात्मा की Single चिनगारी है। इसलिए आप प्रत्येक Human-प्राणी को अवसर दीजिए कि वह अपने को पूर्ण बना सके।’’
इस प्रकार दयानन्द Human-Human में कोर्इ भेद नहीं मानते थे चाहे वह जाति के आधार पर हो या धर्म के आधार पर।
राष्ट्रीयता के पोषक
देश के प्रति उनके मन में अगाध ममता थी। सत्य की तलाश में नगर, वन, पर्वत All कहीं घूमते-घूमते उन्होंने जनता की दुर्दशा और जड़ता को देखा था। भारत राष्ट्र की दुर्दशा से स्वामी जी अत्यधिक आहत थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत करने में लगा दिया। वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे, गुजराती उनकी मातृभाषा थी पर राष्ट्र की Singleता को मजबूत करने हेतु उन्होंने हिन्दी भाषा के माध्यम से ही अपना उपदेश देना प्रारम्भ Reseller और इसी भाषा में अपनी पुस्तकें लिखी। हिन्दी भाषा के प्रति ऐसी अटूट निष्ठा किसी Second Indian Customer मनीषी या नेता में मिलना कठिन है। स्वामी जी First व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी और स्वराज्य जैसे Wordों का प्रयोग Reseller। दादाभार्इ नरौजी ने स्पष्ट कहा है कि उन्होंने स्वराज्य Word दयानन्द सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश से सीखा है। दयानन्द सरस्वती से श्यामजी कृष्ण वर्मा, लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानन्द, डॉ0 सत्यपाल, रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह आदि ने प्रेरणा पार्इ और वे भारत की स्वतंत्रता के लिए प्राण तक उत्सर्ग करने के लिए तैयार हो गए।
अतएव Single भगवान की पूजा, जाति, रंग और धर्म के भेदभाव से ऊपर उठकर मनुष्य की सेवा तथा स्वदेशी भावना का विकास – तीन बुनियादी सिद्धान्त थे जिनकी स्वामी दयानन्द सरस्वती ने स्थापना की। न सिर्फ स्थापना की बल्कि देश-भर में उनका प्रचार भी Reseller। आर्यसमाज अनेक ऐसी संस्थायें चलाती हैं जो इन सिद्धान्तों को कार्यान्वित करती हैं।
समाज सुधारक के Reseller में स्वामी दयानंद सरस्वती की भूमिका
जगह-जगह घूते हुए स्वामी जी जनता से ये ही कहते थे, कि अपनी भलार्इ चाहते हो तो नीच-ऊँच, छोटे-बड़े इत्यादि भेद और द्वेष भाव को त्यागकर संगठित हो जाओ, वेद की षिक्षा पर चलो और सदाचारी बनकर Single सर्वव्यापक सर्वषक्तिमान निराकार परब्रह्म की उपासना करो। स्वामी जी पौराणिक दन्तकथाओं को नहीं मानते थे। वे केवल वेद और वेद के अनुकूल आर्ष ग्रन्थों को ही प्रमाण कोटि में रखते थे।
स्वामी दयानन्द ने यह स्वीकार Reseller है कि Indian Customer पुनरूत्थान और आधुनिकीकरण भारत की प्राचीन वैदिक संस्कृति के आधार पर ही संभव है। स्वामी दयानन्द का Indian Customer समाज पर ज्ञान अधिक गहरा था, और उनका Indian Customer परम्परा का अध्ययन अधिक पूर्ण माना जा सकता है। स्वामी दयानन्द में प्रखर प्रतिभा और गहरी अन्तदर्ृष्टि थी, साथ ही उनमें Humanीय संवेदना की बहुत व्यापक और आन्तरिक क्षमता थी। इसलिये घर से बाहर निकलने के बाद लगभग चौबीस वर्ष उन्होने देष के स्थान-स्थान पर योग के घूमने में बिताये और सारे Indian Customer जन-समाज का बहुत व्यापक अनुभव प्राप्त किये। अपनी सूक्ष्म संवेदना के कारण ही उनको Indian Customer समाज के जीवन का यथार्थ ज्ञान हो सका। म्ूलषंकर घर से निकले थे संसार के बंधनों से मुक्त होकर शुद्धस्वReseller षिव की खोज में और दयानन्द को मिला दु:खी, संतप्त, हीन भाव से ग्रस्त, अनेक कुरीतियों, पाखण्डो, दुराचारों से पीड़ित, कुंठित, गतिरूद्ध Indian Customer समाज। और फिर वे व्यक्तिगत मोक्ष के मार्ग को भूल कर अपने समाज के उद्धार में प्राण-पण से लग गये।
Single ओर दयान्द जी को तत्कालीन Indian Customer समाज की यथार्थ स्थिति का सही ज्ञान था, तो दूसरी ओर Indian Customer संस्कृति का उन्होंने मन्थन भी Reseller था। स्वामी विरजानन्द ने आर्ष ग्रन्थों और वैदिक संस्कृति की ओर उनका ध्यान आकर्षित करके उनको दिषा-निर्देष दिया था। अपने परिभ्रमण काल में देष के समाज को अवरूद्ध करने वाला वर्ग पौराणिको, पुरोहितो, साम्प्रदायिको तथा महन्तो था है।
उस प्रज्ञाचक्षु संन्यासी ने यह समझ लिया था कि वैदिक काल के काद के ब्राह्मण और पुरोहित वर्गों ने स्वार्थवष और शक्ति की प्रतिद्वंदिता में शुद्ध आर्ष ग्रन्थों की मनमानी टीकाएँ और व्याख्याएँ की हैं। अनेक समानान्तर ग्रन्थों की Creation की है। इन संहिताओं, स्मृतियों, उपनिषद्ो और पुराणों में अपने स्वार्थ-सिद्धि के नियमों और सिद्धान्तों का समाहार Reseller। इतना ही नहीं, मनमाने ढंग से आर्ष ग्रन्थों में प्रक्षेप भी किये गये।
स्वामी दयानन्द ने वेदों के प्रामाण्य पर ही यह घोषित Reseller कि जो हमारे विवेक को स्वीकारर्य नहीं, उसके त्याग में हम को Single क्षण का विलम्ब नहीं करना चाहिए। यदि वेदों में ज्ञान के बदले अज्ञान है, Humanीय उच्च मूल्यों के बाजय घोर हिंसावृत्ति, भोगवाद और यर्थार्थ की उपासना है तो उनको अस्वीकार कर देना चाहिए। (उन्होंने निघण्टु, निरूक्त अष्टाध्यायी और महाभाष्य जैसे व्याकरण ग्रन्थों के आश्रय से वेद- मन्त्रों की सुसंगत और व्यवस्थित व्याख्या प्रस्तुत की।) इस दृष्टि से गहन अध्ययन करने के बाद उन्होंने घोषित Reseller कि वेद, वैदिक साहित्य और अन्य आर्ष गन्थ ही प्रमाण्य हैं, उनमें सत्य-ज्ञान Windows Hosting है, इसी में Indian Customer संस्कृति के उच्चतम मूल्य Windows Hosting हैं और ये मूल्य Indian Customer समाज और व्यक्ति के जीवन के All पक्षों को मौलिक सृजनषीलता से गतिषील करने में सक्षम रहे हैं।
स्वामी दयानन्द ने Indian Customer समाज में व्याप्त निष्क्रियता, अन्धविष्वास और स्वार्थपरता के मूल में मध्ययुग के पुराणपंथ को माना है।
स्वामी दयानन्द के According वैदिक धर्म परमब्रह्म परमेष्वर की उपासना का विधान है परन्तु पुराणपंथियों ने उसके स्थान पर अनेकेष्वरवाद, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, देवी-देवताओं की पूजा और यहाँ तक उपदेवताओं तक की पूजा प्रचलित करके अपना स्वार्थ सिद्ध Reseller। वेद समर्थित समाज में चार वर्णों की व्याख्या हैं, और यह व्यवस्था कर्म के अधार पर थी। इनमें ऊँच-नीच तथा छुआछुत का अन्तर नहीं था। दयानन्द जी के According -व्यक्ति अपने विकास में समाज की सहायता पाता हैं, अत: उसे समाज को चुकाना भी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति पर स्वस्थ वंष परम्परा चलाने, ज्ञान की परम्परा को आगे बढ़ोन, प्राणिमात्र की सेवा और सहायता करने तथा जीवन को आध्यात्म की ओर अग्रसर करने का दायित्व है। इन विभिन्न दायित्वों को पूरा किए बिना कोर्इ व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता।
वैदिक द्वैतवाद की स्थापना
स्वामी दयानन्द ने मध्ययुग के व्यक्तिपरक धर्म, दर्षन साधना तथा अध्यात्म को पुन: वैदिक समाजपरक आधार पर प्रतिष्ठित Reseller। मध्ययुगीन अद्वैत तथा अद्वैत आधारित दर्षनों को अस्वीकार कर उन्होंने वैदिक द्वैतवाद की स्थापना की। Single परम ब्रह्म परमेष्वर सर्वत्र व्याप्त शाष्वत, अनादि, अनन्त सत्य स्वReseller है। वह हम जीवों का परम पिता है और पालन-पोषण-संरक्षण करने वाला है। वस्तुत: इस प्रकार की अवधारणा में व्यक्ति और समाज के संबंधों का सुंदर स्वReseller Windows Hosting हैं। इसी कारण दयानंद जी ने ज्ञान और भक्ति के सूक्ष्म चिंतन और अनुभव के स्तर पर विकसित होने वाले आत्मा और ब्रह्म के अद्वैतपरक भेदाभेद को महत्व नहीं दिया, वरन् उसे अस्वीकार Reseller है। उन्होंने स्पष्ट अनुभव Reseller कि जब तक मध्ययुगीन मूल्यों, स्थापनाओं, मान्यताओं, जीवन-पद्धतियों और परम्पराओं का खुला विरोध नहीं Reseller जायेगा, और Indian Customer समाज को इनकी कुंठाओं, जड़ताओं और स्वार्थपरताओं से पूर्णत: मुक्त नहीं Reseller जायेगा, तब तक इस समाज के पुनर्जीवित होने और फिर से मौलिक सर्जनषीलता से गतिषील होने का कोार्इ अवसर नहीं है। इसी कारण उन्होंने इन सब पर कड़ा प्रहार Reseller है और इसमें उन्होंने कभी किसी प्रकार का कार्इ समझौता नहीं Reseller। वस्तुत: अपनी गहरी अंतदृष्टि से उन्होंने समझ लिया था कि विखण्डित और कुंठित परंपरा से मुक्त होने का Only उपाय है उसको तोड़ कर फेंक देना।
उनके जैसा उदार Humanतावादी नेता दूसरा नहीं रहा है। उन्होंने धर्म की सदा Indian Customer व्यापक परिकल्पना साने रखी है। वे धार्मिक सम्प्रदायों को अस्वीकार कर शुद्ध Human मूल्यों पर प्रतिष्ठित धर्म को स्वीकार करने के पक्ष में रहे हैं। इस दृष्टि से वे Indian Customer संतों के समान उदार और व्यापक दृिष्कोण के रहे हैं। पर संतों का दृष्टिकोण मुख्यत: आध्यात्मिक जीवन तक सीमित था, जब कि दयानन्द के सामने Indian Customer जन-समाज के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य था। इस्लाम और र्इसार्इ धर्म की आलोचना उन्होंने प्रासंगिक Reseller में की है क्योंकि वे हिन्दुओं को मत परिवर्तन करने के लिए प्रेरित करते थे। उन्होंने सांर के समाने दो महत्वपूर्ण बातें रखीं-
- Humanीय मूल्यों की सृजनषीलता से प्रेरित Single ही धर्म हैं।
- यह धर्म संसार के All धर्मों के मूल में निहित है।
उनके लिए आर्य Word किसी साम्प्रदायिक धर्म का पर्याय कभी नहीं बना, यह उनके द्वारा आर्य समाज की स्थापना से भी सिद्ध है। आर्य समाज कभी किसी धर्म का Reseller नहीं ले सका, यह उनकी इच्छा और विष्वास का ही परिणाम था। स्वामी दयानन्द ने समाज में स्त्री के स्थान पर विशेष ध्यान दिया था। वे पुरूष के साथ नारी की समानता का पूर्ण समर्थन करते थे। Indian Customer समाज की हीन अवस्था का Single महत्वपूर्ण कारण उनके According यह भी है कि इस समाज में नारी का सम्मानपूर्ण स्थान नही रह गया है। वे नारी और पुरूषों के अधिकारों की पूर्ण समानता स्वीकार करते हैं, स्त्री अषिक्षा, बाल-विवाह, विधवा प्रथा तथा वेष्या वृत्ति आदि अनेक समस्याओं को दयानन्द ने उठाया और उनका उचित समाधान प्रस्तुत Reseller था। जिस साहस और दृढ़ता के साथ उन्होंने इन समस्याओं का समाधान समाज के सामने रखा था, उससे उनके व्यक्तित्व की क्रांतिकारिता लक्षित होती है और उनका द्रष्टा Reseller भी सामने आता है।
स्वामी दयानन्द ने लौकिक तथा आध्यात्मिक जीवन के मूल्यों के पारस्परिक अंत: संबंध को जितनी स्पष्टता के साथ प्रतिपादित और विवेचित Reseller है,वह अन्यत्र नहीं मिलता। स्वामी दयानन्द ने संसकृति के इसी Reseller की परिकल्पना की है और उनकी दृष्टि में यही Indian Customer संस्कृति का सच्चा स्वReseller है।
स्वामी दयानन्द आधुनिक युग में ऋषि और द्रष्टा उनमें जितनी गहरी यथार्थ की पकड़ थी, उतनी ही व्यापक History और परम्परा को ग्रहण करने की क्षमता भी। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने समाज की प्रक्रिया को समझा, उसके भविष्य की संभावनाओं को पहचाना और फिर उसको Single स्वस्थ, सप्रमाण और सृजनषील समाज-Creation की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न Reseller। स्वामी दयानन्द King राममोहन राय से लेकर जवाहरलाल नेहरू तक ऐसे Indian Customer नेताओं से बिल्कुल अलग थे, जो अपनी समस्त सद्भावनाओं और द्वेश कल्याण की भावनाओं के बावजूद Indian Customer आधुनिकीकरण का रास्ता हर प्रकार से पष्चिमीकरण से होकर गुजरता पाते रहे हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती का यौगिक दृष्टिकोण
मौलिक Reseller से स्वामी दयानन्द सरस्वती वेदान्त के साधक थे। वेदान्त साधना में भी अद्वैतवाद पर विषेष जोर रहा। स्वामी जी Indian Customer योग परम्पराओं में समकालीन समय के Single विषिश्ट व्यक्तित्व रहे है। इनके जीवन में प्राचीन योग साधना का नवीनतम प्रयोग देखने को मिलते है। ये ध्यान योग के सिद्धहस्त तथा ध्यान योग के भी साधक थे, किन्तु निराकार ध्यान इनका विषय रहा।
स्वामी जी बाल्यावस्था से ही निराकार उपासना के प्रति आकर्षित थे। निराकार साधना में आगे बढ़ते हुये अन्तत: इन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की। अत: निराकार ब्रह्म ही उनके व्यक्तित्व का केन्द्रिय ध्येय रहा है। इन्होंने ब्रह्मचर्य साधना का जीवन पर्यन्त पूर्ण Reseller से पालन Reseller। जिसका प्रभाव उनके व्यक्तित्व में प्रखरता, तेजस्विता तथा अद्भुत शारीरिक बल में दृष्टिगोचर होता था। निराकार ब्रह्म की शक्ति के सहारे उन्होंने कुछ ऐसे कार्य किये जो सामान्य जन के लिये चमत्कार प्रतीत होता है। स्वामी जी हठयोग की कुछ साधनात्मक क्रियाओं के भी अभ्यासी थे। शरीर में हठयोग सिद्धि के लक्षण प्रत्यक्ष Reseller में अभिव्यक्त होते थे। मुख्यत: स्वामी दयानन्द सरस्वती सन्यास मार्ग के आदर्ष अनुयायी थे। सन्यास मार्ग में जाने की All विषिष्ट साधनाएं इन्होने सम्पन्न की थी। जिनके फलस्वReseller संन्यास मार्ग के आगामी अनुयार्इयों के लिये Single उज्जवल पथ प्रषस्त Reseller। Single योगी पुरूष के व्यक्तित्व में जो विषिष्ट लक्ष्य परिलक्षित होते है, स्वामी जी का व्यक्तित्व उन All विषिष्टताओं से परिपूर्ण था।
गुरूकुल And दयानन्द-एंग्लो-वेदिक (डी0ए0वी0) विद्यालय
स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों का Indian Customer शिक्षा व्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ा। दयानन्द के समर्थकों ने दो तरह की शिक्षा संस्थायें स्थापित की- गुरूकुल और दयानन्द एंग्लो वेदिक विद्यालय And महाविद्यालय।
गुरूकुल व्यवस्था दयानन्द सरस्वती के मूल विचारों पर आधारित है। पहला गुरूकुल दिल्ली के समीप सिकन्दराबाद में खोला गया। बाद में वृन्दावन में यमुना के किनारे इसे स्थानान्तरित कर दिया गया। यह वृन्दावन गुरूकुल के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
सर्वाधिक प्रसिद्धि हरिद्वार के समीप स्थित गुरूकुल कांगड़ी को प्राप्त है। इसकी स्थापना स्वामी दयानन्द के योग्य शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द ने की थी। यहाँ पर Indian Customer भाषा हिन्दी के माध्यम से उच्चतम And नवीनतम ज्ञान देने की शुरूआत की गर्इ। और इस कार्य में इस विश्वविद्यालय ने अभूतपूर्व सफलता पार्इ। कन्याओं के लिए देहरादून, बड़ौदा और सासनी (अलीगढ़) के गुरूकुल बड़े प्रसिद्ध हैं। इन गुरूकुलों में वैदिक ज्ञान-विज्ञान, संस्कृत भाषा और साहित्य पर विशेष जोर दिया जाता है। ये गुरूकुल वैदिक काल की मर्यादाओं को जीवन्त करते हैं।
आर्यसमाज के ही Single Second पक्ष ने लाल हंसराज के नेतृत्व में दयानन्द एंग्लो ओरिएन्टल विद्यालयों का सम्पूर्ण देश में जाल बिछा दिया। ये दयानन्द के विचारों को स्वीकार करते हुए अंग्रेजी भाषा के माध्यम से प्राचीन And नवीन दोनों ही तरह का ज्ञान देते थे। डी0ए0वी0 संस्थायें राष्ट्रभक्ति की शिक्षा देती थी। अंग्रेजी शासन के दौर में गुरूकुलों And डी0ए0वी0 संस्थाओं को सन्देह की दृष्टि से देखा जाता था। स्वतंत्र भारत में भी ये दोनों तरह की संस्थायें अपनी-अपनी भूमिका निभा रही हैं।