सामवेद का Means, स्वReseller, शाखाएं
सामवेद का Means-
साम Word का प्रयोग दो Meansो में Reseller गया मिलता है। ऋक् मन्त्रों के ऊपर गाये जाने वाले गाान ही वस्तुत: ‘साम’ Word के वाच्य हैं, परन्तु ऋक् मन्त्रों के लिए भी ‘सम’ Word का प्रयोग Reseller जाता है। साम-संहिता का संकलन उद्गाता नामक ऋत्विज के लिये Reseller गया है, तथा यह उद्गाता देवता के स्तुतिपरक मन्त्रों को ही Needनुसार विविध स्वरों में गाता है। अत: साम का आधार ऋक् मन्त्र ही होता है यह निश्चित ही है- (ऋचि अध्यूढं साम-छाव्म्उ01/6/1)। ऋक् और साम के इस पारस्परिक गाढ़ सम्बन्ध को सूचित करने के लिये इन दोनों में दाम्पत्य-भाव की भी कल्पना की गर्इ है। पति संतानोत्पादन के लिये पत्नी को आख्रान करते हुए कह रहा है कि मैं सामReseller पति हूँ, तुम ऋक्Resellerा पत्नी हो; मैं आकाश हूँ और तुम Earth हो। अत: आवो, हम दोनों मिलकर प्रजा का उत्पादन करें। गीतिषु सामाख्या’ इस जैमिनीय सूत्र के According गीति को ही ‘साम’ संज्ञा प्रदान की गर्इ है। छान्दोग्य उपनिषद् में ‘स्वर’ साम का स्वReseller बतलाया है। अत: निश्चित है कि ‘साम’ Word से हमें उन गानों को समझना चाहिये जो भिन्न-भिन्न स्वरों में ऋचाओं पर गाये जाते है।
‘साम’ Word की Single बड़ी सुन्दर निरुक्ति बृहदारण्यक उपनिषद् में दी गर्इ है-’’सा च अमश्चेति तत्साम्न: सामत्वम्’’-वृहव्म्उ01/3/22। ‘सा’ Word का Means है ऋक् और ‘अम’ Word का Means है गान्धार आदि स्वर। अत: ‘सम’ Word का व्युत्पत्तिलभ्य Means हुआ ऋक् के साथ सम्बद्ध स्वरप्रधान गायन-’’तया सह सम्बद्ध: अमो नाम स्वर: यत्र वर्तते तत्साम।’’ जिन ऋचाओं के ऊपर ये साम गाये जाते हैं उनको वैदिक लोग ‘साम-योनि’ नाम से पुकराते है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि जिस साम-संहिता का वर्णन Reseller जा रहा है वह इन्हीं सामयोनि ऋचाओं का संग्रहमात्र है, Meansात् साम-संहिता मेकं केवल सामौपयोगी ऋचाओं का ही संकलन है, उन गायनों का नहीं, जो साम के मुख्य वाच्य हैं। ये साम ‘गान-संहिता’ में संकलित किये गये है।
सामवेद का स्वReseller
सामवेद के दो प्रधान भाग होते है-आर्चिक तथा गान। आर्चिक का शाब्दिक Means है ऋक्-समूह जिसके दो भाग हैं-पूर्वाचिक तथा उत्तरार्चिक। पूर्वाचिक में 6 प्रपाठक या अध्याय है। प्रत्येक प्रपाठक में दो अर्ध या खण्ड है और प्रत्येक में Single ‘दशति’ और हर Single ‘दशति’ में ऋचायें है। ‘दशति’ Word से प्रतीत होता है कि इनमें ऋचाओं की संख्या दश होनी चाहिए, परन्तु किसी खण्ड में यह दस से कम है और कहीं दस से अधिक। दशतियों मेंं मन्त्रों का संकलन छन्द तथा देवता की Singleता पर निर्भर है। ऋग्वेद के भिन्न-भिनन मण्डलों के भिन्न-भिन्न ऋषियों के द्वारा दृष्ट भी ऋचायें Single देवता-वाचक होने से यहाँ Singleत्र संकलित की गर्इ है। First प्रपाठक को आग्नेय काण्ड (या पर्व) कहते हैं, क्योंकि इसमें अग्नि-विषयक ऋग् मन्त्रों का समवाय उपस्थित Reseller गया है। द्वितीय से लेकर चतुर्थ अध्याय तक इन्द्र की स्तुति होने से ‘ऐन्द्र-पर्व’ कहलाता है। पंच्चम अध्याय को ‘पवमान पर्व’ कहते हैं, क्योंकि यहाँ सोम-विषयक ऋचायें संगृहीत हैं, जो पूरी की पूरी ऋग्वेद के नवम् (पवमान) मण्डल से उद्धृत की गर्इ है। “ाष्ठ प्रगाठक को ‘आरण्यक पर्व’ की संज्ञा दी गर्इ है; क्योंकि देवताओं तथा छन्दों की विभिन्नता होने पर भी इनमें गान-विषयक Singleता विद्यमान है। First से लेकर पंच्चमाध्याय तक की ऋचायें तो ‘ग्राम-गान’ कही जाती है, परन्तु “ाष्ठ अध्याय की ऋचायें अरण्य में ही गार्इ जाती है।
उत्तरार्चिक में 9 प्रपाठक है। First पाँच प्रपाठकों में दो-भाग है, जो ‘प्रपाठ-कार्घ कहे जाते हैं, परन्तु अन्तिम चार प्रपाठकों में तीन-तीन अर्ध है। राणायनीय शाक्षा के According है। कौथुम शाक्षा में इन अर्ध को अध्याय तथा दशतियों को खण्ड कहने की चाल है। उत्तरार्चिक के समग्र मन्त्रों की संख्या बारह सौ पच्चाीस (1225) हं ै अत: दोनों आर्चिकों की सम्मिलित मन्त्र-संख्या अठारह सौ पचहत्तर (1875) है। ऊपर कहा गया है कि साम ऋचायें ऋग्वेद से संकलित की गर्इ है, परन्तु कुछ ऋचायें नितान्त भिन्न हैं, Meansात् उपलब्ध शाकल्य-संहिता में ये ऋचायें बिलकुल नहीं मिलती। यह भी ध्यान देने की बात है कि पूर्वाचिक के 267 मन्त्र (लगभग तृतीयांश से कुछ ऊपर ऋचायें) उत्तरार्चिक में पुनरुल्लिखित किये गये हैं। अत: ऋग्वेद की वस्तुत: पन्द्रह सौ चार (1504) ऋचायें ही सामवेद में उद्धृत हैं। सामान्यResellerेण 75 मन्त्र अधिक माने जाते हैं, परन्तु वस्तुत: संख्या इससे अधिक है। 99 ऋचायें Singleदम नवीन हैं, इनका संकलन सम्भवत: ऋग्वेद की अन्य शाखाओं की संहिताओं से Reseller गया होगा। यह आधुनिक विद्वानों की मान्यता है।
ऋग्वेद की ऋचायें 1504 + पुनरुक्त 267 त्र 1771
नवीन ‘‘ 99 + ‘‘ 5 त्र 1771
सामसंहिता की सम्पूर्ण ऋ़चायें = 1675 (अठारह सौ पचहत्तर)
ऋक् – साम के सम्बन्ध की मीमांसा
ऋग्वेद तथा सामवेद के परस्पर सम्बन्ध की मीमांसा यहाँ अपेक्षित है। वैदिक विद्वानों की यह धारणा है कि सामवेद उपलब्ध ऋचायें ऋग्वेद से ही गान के निमित्त गृहीत की गर्इ है, वे कोर्इ स्वतन्त्र ऋचायें नहीं है। यह बद्धमूल धारणा नितान्त भ्रान्त है। इसके अनेक कारण है-
- सामवेद की ऋचाओं में ऋग्वेद की ऋचाओं से अधिकतर आंशिक साम्य है। ऋग्वेद का ‘अग्नेयुक्ष्वा हि ये तवाSश्र्वासो देव साधव:। अरं बहन्ति मन्यवे (6/16/43) सामवेद में ‘अग्ने युक्ष्वा हि ये तवाश्र्वासों देव साधव:। हरं वहन्त्याशव:’ Reseller में पठित है। ऋग्वेद का मन्त्रांश ‘अपो महि व्ययति चक्षसे तमो ज्योतिष्कृणोति सूनरी’ (7/81/1) सामवेद में ‘अपो मही वृणुते चक्षुषा तमो ज्योतिष् कृणोति सूनरी’ Reseller धारण करता है। इस आंशिक साम्य के तथा मन्त्र में पादव्यत्यय के अनेक उदाहरण सामवेद में मिलते है। यदि ये ऋचायें ऋग्वेद से ही ली गर्इ होती, तो वे उसी Reseller में और उसी क्रम में गृहीत होतीं, परन्तु वस्तुस्थिति All नहीं है।
- यदि ये ऋचायें गायन के लिए ही सामवेद में संगृहीत है, तो कवेल उतने ही मन्त्रों का ऋग्वेद से सकलन करना चाहिए था, जितने मन्त्र गाान या साम के लिए अपेक्षित होते। इसके विपरीत हम देखते हैं कि सामसंहिता में लगभग 450 ऐसे मन्त्र है, जिन पर गान नहीं है। ऐसे गानानपेक्षित मन्त्रों का सकलन सामसंहिता में क्यों Reseller गया है?
- सामसंहिता के मन्त्र ऋग्वेद से ही लिए गये होते, तो उनका Reseller ही नहीं, प्रत्युत उनका स्वरनिर्देश भी, तद्वत् होता। ऋग्वेद के मन्त्रों में उदात अनुदात्त तथा स्वरित स्वर पाये जाते हैं, जब सामवेद निर्देश 1, 2, तथा 3 अंकों के द्वारा Reseller गया है जो ‘नारदीशिक्षा’ के According क्रमश: मध्यम, गान्धार और ऋषभ स्वर हैं। ये स्वर अंगुष्ठ, तर्जनी तथा मध्यमा अंगुलियों के मध्यम पर्व पर अंगुष्ठ का स्पर्श करते हुए दिखलायें जाते हैं। साममन्त्रों का उच्चारण ऋक्मन्त्रों के उच्चारण से नितान्त भिन्न होता है।
- यदि सामवेद ऋग्वेद के बाद की Creation होती, (जैसा आधुनिक विद्वान् मानते है), तो ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर साम का History कैसे मिलता? अंगिरसा सामभि: स्तूयमाना: (ऋव्म् 1/107/2), उद्गातेव शकुने साम गायति (2/43/2), इन्द्राय साम गायत विप्राय बृहते वृहत् (8/98/1)-आदि मन्त्रों में सामान्य साम का भी History नहीं है, प्रत्युत ‘बृहत्साम’ जैसे विशिष्ट साम का भी History मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण (2/23) का तो स्पष्ट कथन है कि सृष्टि के आरम्भ में ऋक् और साम दोनों का अस्तित्व था (ऋक् च वा इदमग्रे साम चास्ताम्)। इतना ही नहीं, यज्ञ की सम्पन्नता के लिए होता, अध्वर्यु तथा ब्रह्म नामक ऋत्विजों के साथ ‘उद्गाता’ की भी सत्ता सर्वथा मान्य है। इन चारों ऋत्विजों के उपस्थित रहने पर ही यज्ञ की समाप्ति सिद्ध होती है और ‘उद्गाता’ का कार्य साम का गायन ही तो है? तब साम की अर्वाचीनता क्यों नहीं विश्वसनीय है। मनु ने स्पष्ट ही लिखा है कि परमेश्वर ने यज्ञसिद्धि के लिए अग्नि, वायु तथा Ultra site से क्रमश: सनातन ऋक् यजु: तथा सामReseller वेदों का दोहन Reseller (मनुस्मृति 1/23) ‘त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ में वेदों के लिए प्रयुक्त ‘सनातन’ विशेषण वेदों की नित्यता तथा अनादिता दिखला रहा है। ‘दोहन’ से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है।
- साम का नामकरण विशिष्ट ऋषियों के नाम Reseller गया मिलता है, तो क्या वे ऋषि इन सामों के कर्ता नहीं है? इसका उत्तर है कि जिस साम से First जिस ऋक् को इष्ट प्राप्ति हुर्इ, उस साम का वह ऋषि कहलाता है। ताण्डय ब्राह्मण में इस तथ्य के द्योतक स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध है। ‘‘वृषा शोणों ‘अभिकनिक्रदत्’ (ऋव्म्9/97/13) ऋचा पर साम का नाम ‘वसिष्ठ’ होने का यही कारण है कि बीडु के पुत्र वसिष्ठ ने इस साम से स्तुति करके अनायास स्वर्ग प्राप्त कर लिया (वसिष्ठं भवति, वसिष्टों वा एतेन वैडव: स्तुत्वा•ज्जसा स्वर्ग लोकमपश्यत्-ताण्डय ब्राव्म् 11/8/13) ‘तं वो दस्ममृतीषहं (9/88/1) मन्त्र पर ‘नौधस साम’ के नामकरण का ऐसा ही कारण अन्यत्र कथित है (ताण्डत्त्ा 7/10/10)। फलत: इष्टसिद्धिनिमित्तक होने से ही सामों का ऋषिपरक नाम है, उनकी Creation के हेतु नहीं।
इन प्रमाणों पर ध्यान देने से सिद्ध होता है कि सामसंहिता के मन्त्र ऋग्वेद से उधार लिये गये नहीं हैं, प्रत्युत उससे स्वतन्त्र हैं और वे उतने ही प्राचीन हैं जितने ऋग्वेद के मन्त्र। अत: सामसंहिता की स्वतन्त्र सत्ता है, वह ऋक् संहिता पर आधृत नहीं है।
सामवेद की शाखायें
भागवत, विष्णुपुराण तथा वायुपुराण के According वेदव्यासजी ने अपने शिष्य जैमिनि को साम की शिक्षा दी। कवि जैमिनि ही साम के आद्य आचार्य के Reseller में सर्वत्र प्रतिष्ठित है। जैमिनि ने अपने पुत्र सुमन्तु को, सुमन्तु ने अपने पुत्र सुन्वान को और सुन्वान ने स्वकीय सूनु सुकर्मा को सामवेद की संहिता का अध्ययन कराया। इस संहिता के विपुल विस्तार का श्रेय इन्हीं सामवेदाचार्य सुकर्मा को प्राप्त है इनके दो पट्ट-शिष्य हुए-(1) हरिण्यनाभ कौशल्य तथा (2) पौष्यज्जि, जिनसे सामगायन की द्विविध धारा-प्राच्य तथा उदीच्य-का आविर्भाव सम्पन्न हुआ। प्रश्न उपनिषद् (6/1) में हिरण्यनाभ कोशल-देशीय राजपुत्र के Reseller में निर्दिष्ट किये गये है। भागवत (12/6/78) ने सामगों की दो परम्पराओं का History Reseller है-प्राच्यसामगा: तथा उदीच्यसामगा:। ये दोनों भौगोलिक भिन्नता के कारण नाम निर्देश हैं। इन भेदों का मूल सुकर्मा नामक सामाचार्य के शिष्यों के उद्योगों का फल है। भागवत ने सुकर्मा के दो शिक्ष्यों का History Reseller है-(1) हिरण्यनाथ (या हिरण्यनाभी) कौशल्य, (2) पौष्यज्जि जो अवन्ति देश के निवासी होने से ‘आवन्त्य’ कहे गये हं।ै इनमें से अन्तिम आचार्य के शिष्य ‘उदीच्य सामग’ कहलाते थे। हिरण्यनाभ कौशल्य की परम्परा वाले सामग ‘प्राच्य सामगा:’ के नाम से विख्यात हुए। प्रश्नोपनिषद् (6/1) के According हिरण्यनाभ कोशल देश के राजपुत्र थे। फलत: पूर्वी प्रान्त के निवासी होने के कारणउनके शिष्यों को ‘प्राच्यसामगा:’ नाम से विख्याति उचित ही है। हिरण्यनाभ का शिष्य पौरवंशीय सन्नतिमान् King का पुत्र कृत था, जिसने सामसंहिता का चौबीस प्रकार से अपने शिष्यों द्वारा प्रवर्तन Reseller। इसका वर्णन मत्स्यपुराण (49 अव्म्, 75-76 श्लोव्म्) हरिवंश (20/41-44), विष्णु (4/19-50); वायु (41/44), ब्रह्मण्ड पुराण (35/49-50), तथा भागवत (12/6/80) में समान Wordों में Reseller गया हैं। वायु तथा ब्रह्मण्ड में कृत के चौबीस शिष्यों के नाम भी दिये गये हैं। कृत के अनुयायी होने के कारण ये साम आचार्य ‘कार्त’ नाम से प्रख्यात थे-(मस्त्य पुराण 49/76)-
चतुर्विशतिधा येन प्रोक्ता वै सामसंहिता:।
स्मृतास्ते प्राच्यसामान: कर्ता नामेह सामगा:।।
इनके लौगक्षि, माष्लि, कुल्य, कुसीद तथा कुक्षि नामक पाँच शिष्यों के नाम श्रीमùभागवत (12/6/69) में दिये गये हैं, जिन्होंने सौ-सौ सामसंहिताओं का अध्यापन प्रचलित कराया। वायु तथा ब्राह्मण्ड के According इन शिष्यों के नाम तथा संख्या में पर्याप्त भिन्नता दीख पड़ती है। इनका कहना है कि पोष्पिज्जि के चार शिष्य थे-इन पुराणों में, विशेषReseller से दिया गया है। नाम धाम में जो कुछ भी भिन्नता हो, इतना तो निश्चित सा प्रतीत होता है कि सामवेद के सहस्र शाखाओं से मण्डित होने में सुकर्मा के ही दोनों शिष्य-हिरण्यनाभ तथा पौष्पिज्जि-प्रधानतया कारण थे। पुराणोपलब्ध सामप्रचार का यही संक्षिपत वर्णन है।
सामवेद की कितनी शाक्षायें थी? पुराणों के According पूरी Single हजार, जिसकी पुष्टि पतज्जलि के ‘सहस्रवत्र्मा सामवेद:’ वाक्य से भली-भॉति होती है। सामवेद गानप्रधान है। अत: संगीत की विपुलता तथा सूक्ष्मता को ध्यान में रखकर विचारने से यह संख्या कल्पित सी नहीं प्रतीत होती, परन्तु पुराणों में कहीं भी इन सम्पूर्ण शाखाओं का नामोल्लेख उपलब्ध नहीं होता। इसलिये अनेक आलोचकों की दृष्टि में ‘चत्र्म’ Word शाखावाची न होकर केवल सामगायनों की विभिन्न पद्धतियों को सूचित करता है। जो कुछ भी हो, साम की विपुल बहुसंख्यक शाखायें किसी समय अवश्य थीं, परन्तु दैवदुर्ग से उनमें से अधिकांश का लोप इस ढंग से हो गया कि उनके नाम भी विस्मृति के गर्त में विलीन हो गये।
आजकल प्रपच्चहृदय, दिव्यावदान, चरणव्यूह तथा जैमिनि गूह्यसूत्र (1/14) के पर्यालोचन से 13 शाखाओं के नाम मिलते है। सामतर्पण के अवसर पर इन आचार्यों के नाम तर्पण का विधान मिलता है- ‘राणायन -Sevenयमुगि ्र-व्यास -भागुरि -औलुण्डि -गौल्मुलवि-भानु-मानौपमन्यव-काराटि-मशक-गाग्र्य-वार्षगण्यकौथुमि-शालिहोत्र-जैमिनि -त्रयोदशैते ये स्रामगाचार्या: स्वस्ति कुर्वन्तु तर्पिता:’। इन तेरह आचार्यों में से आजकल केवल तीन ही आचार्यों की शाखायें मिलती हैं-(1) कौथुमीय (2)राणायनीय तथा (3) जैमिनीय। Single बात ध्यान देने योग्य है कि पुराणों में उदीच्य तथा प्राच्य सामगों के वर्णन होने पर भी आजकल न उत्तर भारत में साम का प्रचार है, न पूर्वी भारत में, प्रत्युत दक्षिण तथा पश्चिम भारत में आज भी इन शाखाओं का यत्किन्चित प्रकार है। संख्या तथा प्रचार की दृष्टि से कौथुम शाखा विशेष महत्वपूर्ण हैं इसका प्रचलन गुजरात क ब्राह्मणों में, विशेषत: नागर ब्राह्मणों में है। राणायनीय शाखा महाराष्ट्र मेंं तथा जैमिनीय कर्नाटक में तथा सुदूर दक्षिण के तिन्नेवेली और तज्ज्ाौर जिले में मिलती जरूर है, परन्तु इनके अनुयायियों की संख्या कौथुमों की अपेक्षा अल्पतर है।
(1) कौथुम शाखा –
इसकी संहिता सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसी का विस्तृत वर्णन First Reseller जा चुका है। इसी की ताण्डÓ नामक शाक्षा भी मिलती है, जिसका किसी समय विशेष प्रभाव तथा प्रसार था। शंकराचार्य ने वेदान्त-भाष्य के अनेक स्थलों पर इसका नाम निर्देशन Reseller है, जो इसके गौरव तथा महत्त्व का सूचक है। पच्चीस काण्डात्मक विपुलकाय ताण्डÓ -ब्राह्मण इसी शाक्षा का हैं सुप्रसिद्ध छान्दोग्य उपनिषद् भी इसी शाखा से सम्बन्ध रखती है। इसका निर्देश शंकराचार्य ने भाष्य में स्पष्टत: Reseller है।
(2) राणायनीय शाखा –
इसकी संहिता कौथुमों से कथमपि भिन्न नहीं है। दोनों मन्त्र-गणना की दृष्टि Single ही है। केवल उच्चारण में कहीं-कहीं पार्थक्य उपलब्ध होता है। कौथुमीय लोग जहाँ ‘हाउ’ तथा ‘राइ’ कहते हैं, वहाँ राणयनीय गण ‘हाबु’ तथा ‘रायी’ उच्चारण करते हैं। राणायनीयों की Single अवान्तर शाखा Seven्यमुग्रि है जिसकी Single उच्चारणविशेषता भाषा-विज्ञान की दृष्टि से नितान्त आलोचनीय है। आपिशली शिक्षा तथा महाभाष्य ने स्पष्टत: निर्देश Reseller है कि सत्यमुग्रि लोग Singleार तथा ओंकार का स्वर उच्चारण Reseller करते थे। आधुनिक भाषाओं के जानकारी को याद दिलाने की Need नहीं है कि प्राकृत भाषा तथा आधुनिक प्रान्तीय अनेक भाषाओं में ‘ए’ तथा ‘ओ’ का उच्चारण ह्रस्व भी Reseller जाता है। इस विशेषता की इतनी प्राचीन और लम्बी परम्परा है; भाषाविदों के लिए यह ध्यान देने की वस्तु है।
(3) जैमिनीय शाखा-
हर्ष का विषय है कि इस मुख्य शाखा के समग्र अंश संहिता, ब्राह्मण श्रोत तथा गृहृसूत्र-आजकल उपलब्ध हो गये है। जैमिनीय संहिता नागराक्षर में भी लाहौर से प्रकाशित हुर्इ हैं इसके मन्त्रों की संख्या 687 है, Meansात् कौथुम शाक्षा से Single सौ बयासी (182) मन्त्र कम हैं। दोनों में पाठभेद भी नाना प्रकार के हैं। उत्तरार्चिक में ऐसे अनेक नवीन मन्त्र है जो कौथुमीय संहिता में उपलबध नहीं होते, परन्तु जैमिनीयों के सामगान कौथुमों से लगभग Single हजार अधिक है। कौथुमगान केवल 2722 है परन्तु इनके सथान पर जैमिनीय गान छत्तीस सौ इक्यासी (3681) है। इन गानों के प्रकाशन होने पर दोनों की तुलनात्मक आलोचना से भाषाशास्त्र के अनेक सिद्धान्तों का परिचय मिलेगा। तवलकर शाखा इसकी अवान्तर शाखा है, जिससे लघुकाय, परन्तु महत्वशाली, केनोपनिषद् सम्बद्ध है। ये तवलकार जैमिनि के शिष्य बतलायें जाते हैं।
ब्राह्मण तथा पुराण के अध्ययन से पता चलता है कि साममन्त्रों, उनके पदों तथा सामगानों की संख्या अद्यावधि उपलब्ध अंशों से कहीं बहुत अधिक थी। शतपथ में साममन्त्रों के पदों की गणना चार सहस्र बृहती बतलार्इ गर्इ है, Meansात् 4 हजार × 36 ¾ 1,44,000, Meansात् साममन्त्रों के पद Single लाख 44 हजार थे। पूरे साभों की संख्या थी आठ हजार तथा गायनों की संख्या थी Fourteen हजार आठ सौ बीस 1480 (चरण ब्यूह) अनेक स्थलों पर बार-बार History से यह संख्या अप्रामाणिक नहीं प्रतीत होती। इस गणना में अन्य शाखाओं के सामों की संख्या अवश्य ही सम्मिलित की गर्इ है। कौथुम शाखीय सामगान दो भागों में है-ग्रामगान तथा आरण्यगान। यह औंधनगर से श्री एव्म् नारायण स्वामिदीक्षित के द्वारा सम्पादित होकर 1999 विक्रम सं0 में प्रकाशित हुआ है।
जैमिनीय साम-गान का First प्रकाशन संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से 2033 विव्म्सं0 में हुआ है। यह सामगान पूर्वाचिक से सम्बद्ध मन्त्रों पर ही है। इसके तीन भाग है-आग्नेय, ऐन्द्र तथा पावमान। इनमें आदिम तथा अन्तिम पर्व का विशेष विभाग नहीं है, परन्तु ऐन्द्रपर्व के चार है। पूरे ग्रन्थ में गान संख्या 1224 है (Single सहस्र दो सौ चौबीस)। कौथुमीय सामसंहिता से जैमिनीय साम संहिता के पाठ में सर्वथा भेद नहीं है, परन्तु गान प्रकार सर्वथा भिन्न हैं अभी तक केवल First भाग ही प्रकाशित है। द्वितीय खण्ड हस्तलेख में ही है।