विशिष्ट बालकों के लिये निर्देशन
जे0टी0 हण्ट ने विशिष्ट बालकों की परिभाषा देते हुये लिखा है कि-’’विशिष्ट बालक वे हैं जो कि शारीरिक, संवेगात्मक व सामाजिक विशेषताओं में सामान्य बालकों से इतने पृथक हैं कि उनकी क्षमताओं को अधिकतम विकासार्थ शिक्षा सेवाओं की Need है।’’
क्रुशांक ने विशिष्ट बालकों के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुये लिखा कि-विशिष्ट बालक वह है जो सामान्य बौद्धिक, शारीरिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक वृद्धि तथा विकास से इतने पृथक है कि वे नियमित तथा सामान्य शैक्षणिक कार्यो से अधिकतम लाभान्वित नहीं हो पाते जिनके लिये विशिष्ट कक्षाओं And अतिरिक्त शिक्षण व सेवाओं की Need होती है। इस परिभाषा से आपको ये बालक निम्न क्षेत्रों में पृथक दृष्टिगोचर हुये-
1. शारीरिक क्षेत्रों में पृथकता-
- बाहा्र अपंगता; जैसे-लूला, लंगड़ा, बहरा, गूंगा आदि।
- आन्तरिक अपंगता-हृदय की खराबी, फेफड़ों की दुर्बलता, निर्बल दृष्टि, ग्रन्थियों की खराबी आदि।
2. मानसिक क्षेत्रों में पृथकता-
- प्रतिभा-सम्पन्नता।
- मन्द-बुद्धिता।
3. व्यक्तिगत सन्तुलन क्षेत्र में पृथकता-
- संवेगात्मक असन्तुलन।
- सामाजिक असन्तुलन।
शारीरिक Reseller से विकलांग बालक व निर्देशन
निर्देशन प्रदान करने के दृष्टिकोण से निम्नांकित शारीरिक विकलांग बालकों का विशेष ध्यान रखने की Need है इन्हें निर्देशन अलग से देना पड़ता है जब ये समायोजन नहीं कर पाते।
- दृष्टि-दोष से ग्रस्त बालक।
- श्रवण-दोष से ग्रस्त बालक।
- वाणी-दोष से ग्रसित बालक।
- गामक-दोष से ग्रसित बालक।
- अन्य विशिष्ट शारीरिक दोषों से ग्रसित बालक।
आगे हम प्रत्येक के विषय में विस्तार से जानेगें।
1. दृष्टि-दोष से ग्रस्त बालक-
दृष्टि-दोष कर्इ प्रकार का हो सकता है; जैसे कम दिखार्इ देना, निकट की वस्तु स्पष्ट दिखार्इ न दे, दूर की वस्तुएँ स्पष्ट दिखार्इ न देना; अन्धापन, तीव्र प्रकाष में धुँधला दिखार्इ देना, थोड़े से अन्धकार में ही बिल्कुल दिखार्इ न देना तथा All वस्तुएँ Single ही रंग की दिखार्इ देना। इन बालकों में पूर्ण अन्धे उतनी समस्या पैदा नहीं करते हैं जितनी कि अन्य दृष्टि-दोषों से ग्रसित बालक। खराब दृष्टि का प्रभाव बालक की निश्पित्त्ायों पर ही नहीं पड़ता है वरन् इससे बालक की समायोजन-शक्ति, व्यंिक्तत्व तथा रूचि आदि भी प्रभावित होती हैं। तृतीयत: पूर्ण अन्धे बालकों की शिक्षा की विशिष्ट व्यवस्था होती है किन्तु दूषित दृष्टि वाले बालक सामान्य दृष्टि वाले बालकों के साथ ही पढ़ते है। इससे भी समस्याएँ पैदा होती हैं क्योंकि सामान्य बालकों के लिए मुद्रित पुस्तकों के अक्षरों को पढ़ने में इन्हें कठिनार्इ अनुभव होती है, परिणामस्वReseller ये बालक लम्बे समय तक बोधगम्यता के साथ धाराप्रवाह अध्ययन नहीं कर सकते हैं।
दृष्टिगत दोषों के लक्षण-
दृष्टिगत-दोषों से ग्रसित बालकों को निर्देशन सेवाओं से लाभान्वित करने की दृष्टि से निर्देशन कार्यकर्त्ता को First दृष्टिगत दोषों से ग्रसित बालकों का पता लगाना पड़ेगा, तदोपरान्त उनका निर्देशन करना पड़ेगा। परामर्शदाता निम्नांकित लक्षणों से दृष्टिगत दोषों का पता लगा सकता है :
- बालक आँखे बार-बार रगड़ता हो, पलकों के बाल नोंचता हो,
- आँखे लाल या गंदी रहती हो,
- ठीक से दिखायी न देता हो।
- छोटी वस्तुएँ बडे़ ध्यान से देखता हो।
- किताब आदि आँखों के अत्यन्त निकट लाकर पढ़ता हो।
- Single वस्तु के दो प्रतिबिम्ब दिखार्इ देते हो।
- साधारण प्रकाष से चकाचौंध आता हो।
- रंगों की पहचान न कर पाता हो।
निर्देशन के उपाय-
उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर निर्देशन कार्यकर्त्ता को दृष्टिगत दोषों से युक्त बालकों का पता लगाना चाहिए, तदोपरान्त दृष्टिगत दोष की मात्रा को ज्ञात करने की Need पड़ती है।
- गम्भीर दृष्टि-दोषों से ग्रसित बालकों को निर्देशन प्रदान करनें हेतु विद्यालय के सामान्य संचालन में ही नियमित Reseller से दृष्टि-संरक्षण कक्षाओं की व्यवस्था की जाय।
- इन कक्षाओं में नेत्र-चिकित्सक वर्ष में समय-समय पर आकर दृष्टि-दोषों की जाँच करता रहेगा।
- कक्षा-कक्ष सुन्दर ढंग से सज्जित होना भी आवश्यक हैं।
- कक्षा-कक्ष में समुचित प्रकार की भी व्यवस्था रहनी चाहिए। लेखनादि के लिए प्रयुक्त कागज हल्के क्रीम रंग पर गहरे नीले या काले रंग से छपी मोंटी पंक्तियों से युक्त होनी चाहिए।
- इस प्रकार के छात्रों के लिए विशिष्ट भोजन की व्यवस्था भी आवश्यक है। भोजन ऐसे तत्त्वों से युक्त होना चाहिए जो नेत्रों के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हो।
- साधारण दृष्टि-दोषों से ग्रसित बालकों को साधारण कक्षाओं में ही दृष्टि सुधार हेतु निर्देशन प्रदान Reseller जा सकता है।
- नियमित चिकित्सा के साथ ही साथ इनको विद्यालय की साधारण गतिविधियों में सामथ्र्यानुसार भाग लेने के अवसर प्रदान करने चाहिए।
- इनके साथ व्यवहार करते समय अध्यापक को ध्यान रखना चाहिए कि वह बालकों को यह बोध न होने दे कि उनके साथ दृष्टि-दोष के कारण विशेष प्रकार का व्यवहार Reseller जा रहा है।
2. श्रवण-दोषों से ग्रसित बालक-
श्रव्य-दोषों से ग्रसित बालकों को दो श्रेणियों में विभक्त Reseller जा सकता है- पूरे बहरे तथा ऊँचा सुनने वाले। पूरे बहरे वे होते है जो कुछ भी नही सुन पाते है। निपट बहरे भी पुन: दो प्रकार के होते है-Single तो वे जो जन्म से बहरे होते है तथा Second वे जो बाद में किसी कर्ण-रोग अथवा कर्णाघात के कारण श्रवण-शक्ति खो बैठते है। साधारणतया जन्म से बहरे गूँगे भी होते है। ऊँचा सुनने वाले अनेक प्रकार के होते है और उनका श्रेणी-विभाजन ऊँचा सुनने मात्रा के द्वारा Reseller जाता है किन्तु इसको श्रेणीबद्ध करने के पूर्व निर्धारित And निश्चित नियम नही है। इनके अतिरिक्त कुछ बालक कर्ण-रोगों से भी ग्रसित होते है; जैसे-कान का बहरा, कान का दर्द, कान में हर समय झनझनाहट का होना आदि। ये रोग बालकों की श्रवण शक्ति को प्रभावित कर सकते है। अत: इनका उपचार करके उनकी श्रवण-शक्ति की रक्षा करने की Need है। ऊँचा सुनने वाले तथा बहरों को शल्य-चिकित्सा द्वारा श्रवण-शक्ति प्रदान की जा सकती है। यदि शल्य-चिकित्सा के द्वारा यह सम्भव न हो तो उन्हें निर्देशन प्रदान करने की Need होती है। ऊँचा सुनने वाले श्रवण-उपकरणों का प्रयोग करके भी समस्या का समाध् ाान कर सकते है।
निर्देशन के उपाय –
- अध्यापक को इन्हें गम्भीर Reseller से निर्देशन प्रदान करना होता है। इस प्रकार के बालक न तो Second की वाणी सुन सकते है और न उनकी नकल करके कुछ बोल ही सकते है। ये अपने भावों अस्पष्ट संकेतों के द्वारा ही प्रदर्शित कर सकते है।
- अध्यापक इस प्रकार के बालकों के लिए अधर-अध्ययन कक्षा की व्यवस्था कर सकता है।
- अध्ययन-कक्षाओं में बहरे बालकों के सम्मुख अध्यापक धीरे-धीरे स्पष्ट Wordों में सम्बन्धित सहायक सामग्री की सहायता से भाषण दें और छात्रों को अपने (अध्यापक के) अधरों की गति को ध्यान पूर्वक देखने तथा उस गति का अनुकरण करते हुए उच्चारण करने को प्रोत्साहित करना चाहिए।
- अधर-अध्ययन कक्षाऐं छोटी-छोटी हो जिससे All छात्र अपने अध् यापक के अधरों की गति का स्पष्ट अध्ययन सुगमता से कर सकें।
3. वाणी-दोषों से ग्र्स्त बालक-
वैसे प्रमुख वाणी-दोषों में हम हकलाना, तुतलाना, फटातालू; कुत्तौष्ठ, श्रवण-दोष जनित वाणी-दोष, विदेशी स्वराघात, अटपटी वाणी तथा अनियंत्रित वाणी आदि को सम्मिलित करते है। इनमें कुछ दोष इन्द्रियगति होती है, कुछ कार्यगत तथा कुछ संवेगात्मक And पारिवारिक कारणों से होते है।
इन्द्रियों से सम्बन्धित दोषों का यदि अध्यापक को संदेह हो तो उपर्युक्त चिकित्सक के पास परीक्षार्थ बालक को भेज देना चाहिए तथा आवश्यक चिकित्सा की व्यवस्था करनी चाहिए। इन दोषों को अपने वयस्कों के अनुकरण से अपनाता है तथा इन दोषों को उसके घर तथा पड़ोस के वयस्क लोग साधारण तथा सामान्य Reseller में ही स्वीकार कर लेते हैं। संवेगात्मक कारणों से जनित दोषों का भी सावधानी से उपचार Reseller जा सकता है।
निर्देशन के उपाय-
जब बच्चे को ज्ञात हो जाता है कि वे वाणी में असामान्य हैं तो वे संवेगात्मक तनाव के षिकार होते है, सामान्य बालकों से ही पृथक रहते है और यदि साथी उसकी नकल करते है या व्यंग्य करते है तो वह और भी अधिक Singleाकी हो जाता है और अपने वाणी-दोष को भी कम प्रदर्शित हेतु अपना बोलना और भी कम कर देता है। अध्यापक को इन बालकों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने की Need होती है। दण्ड या अस्वीकृति समस्या को और अधिक गम्भीर बना देती है।
- अध्यापक को चाहिए कि वह कक्षा को भी इस प्रकार के व्यवहार के लिए प्रेरित करें।
- अध्यापक का प्रमुख उद्देश्य इन छात्रों में ‘स्व’ का सामाजिक Reseller में विकास करना होना चाहिए। वाणी-दोषों से ग्रसित बालकों के लिए अध्यापक को वाणी-दोषों को दूर करने की उपायों का भी ज्ञान होना आवश्यक है।
- उचित शिक्षण विधियों का भी प्रयोग करना चाहिए।
4. गामक-दोषों से ग्रसित बालक-
गामक-दोषों से ग्रसित बालक वे हैं जिनका कोर्इ शारीरिक अंग किन्ही कारणों से असामान्य है। शारीरिक अंगों की असामान्यता जन्मजात हो सकती है अथवा किसी रोग या दुर्घटना का परिणाम हो सकती है। इस प्रकार के बालक मानसिक Reseller से स्वस्थ होते है, वे देख सकते है, वे सुन सकते है, बोल सकते है तथा सामान्य बालकों की भाँति अन्य मानसिक कार्य कर सकते है, किन्तु असामान्य अंग से सम्बन्धित कार्यो में वे सामान्य बालकों की अपेक्षा पीछे रह जाते है ये बालक क्षतिपूरक शक्तियों का विकास करके अपने व्यक्तित्व को असन्तुलित भी कर सकते है।
निर्देशन के उपाय-
- अध्यापक का कतर्व्य है कि वह इन बालकों में आत्मग्लानि तथा आत्महीनता की भावना का विकास न होने दें और उनमें Single स्वस्थ ‘स्व’ का विकास करें।
- अध्यापकाें को इन छात्राें के साथ इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए कि वे सामाजिक Reseller में क्षतिपूरक शक्तियों का विकास न कर पायें।
- बालक की व्यापक शारीरिक Creation तथा क्रियाओं में कोर्इ कमी नही है, इस तथ्य का ज्ञान करना अध्यापक का सबसे प्रमुख कर्तव्य है।
- अध्यापक को ऐसे बालकों में ऐसी क्षतिपरू क शक्तियों तथा क्षमताओं का विकास करना चाहिए जो सामाजिक हो तथा बालक में और भी अधिक दृढ़ तथा स्थायी ‘स्व’ का विकास करें।
5. शारीरिक दुर्बलताओं से ग्रस्त बालक-
कुछ बालक शारीरिक Reseller में इतने दुर्बल होते हैं कि वे सामान्य कार्य तथा खेल नही कर पाते है। इस प्रकार के बच्चों को भी उसी प्रकार निर्देशन देने की Need पड़ती है जिस प्रकार अध्यापक शारीरिक अपंगता वाले छात्रों को देता है। बालकों में शारीरिक दुर्बलताए अनेक कारणों से आ सकती है। कुपोषण, लम्बी बीमारी, क्षय, हृदय रोग या शारीरिक रसायन-Creation आदि के कारण शारीरिक दुर्बलताएँ आ जाती है। शारीरिक शक्ति से हीन बालक सामान्य बालकों के साथ खेल नही सकता है, वह शीघ्र ही थकान का अनुभव करता है, शीघ्र ही क्रोधित हो जाता है, उसमें झुंझलाहट की मात्रा काफी अधिक होती है तथा वह सामान्य बालकों के साथ समायोजन भी स्थापित नही कर पाता है। इससे व्यक्तित्व सन्तुलन सम्बन्धी समस्याएँ उठ खड़ी होती है।
निर्देशन के उपाय-
- अध्यापक ऐसे बालकों को सन्तुलित व्यक्तित्व के विकासार्थ ऐसे अवसर प्रदान कर सकता है जिससे बालक पाठ्यक्रम तथा सह-पाठ्यक्रम सम्बन्धी क्रियाओं में अपनी शारीरिक सीमाओं को ध्यान में रखते हुए यथा सम्भव भाग ले सके।
- इन बालकों के सम्बन्ध में अध्यापक का कर्तव्य है कि वह उनकी शारीरिक क्षमताओं तथा बौद्धिक स्तर को ध्यान में रखते हुए उनका पूर्ण सामाजिक विकास करें जिससे वे समाज के उपयोगी सदस्य बन सकें।
- अध्यापक का भी कर्तव्य है कि वह बालकों की शारीरिक दुर्बलताओं को दूर करने के प्रयास भी करता रहे।
- इसके लिए अभिभावकों से भी सहयोग लें।
मानसिक Reseller से असामान्य बालक व निर्देशन
मनसिक Reseller से असामान्य बालक वे हैं जो सामान्य बौद्धिक तथा मानसिक कार्यों से पर्याप्त मात्रा में दूर रहते है। विले ने ऐसे बालकों के सम्बन्ध में लिखा है कि ये बालक सीखने की क्षमता में सामान्य बालकों से काफी पृथक होते है। मानसिक Reseller से असामान्य बालक मानसिक कार्यो को सामान्य बालकों की तुलना में या तो बहुत ही शीघ्रता तथा कुशलता के साथ कर सकते हैं या फिर काफी सामान्य बालकों के ऊपर तथा नीचे ही दिशाओं में होते है। सामान्य बालकों से ऊपर अच्छी कुशलता से मानसिक कार्य करने वाले बालक प्रतिभावान कहलाते है। तथा सामान्य बालकों की अपेक्षा कम काम करने वाले छात्र मन्दबुद्धि बालक कहलाते है। नीचे दोनों के सम्बन्ध में Discussion की गयी है।
1. प्रतिभा-सम्पन्न बालक-
प्रतिभाशाली बालक वे होते है जो सबमें All बातों में श्रेश्ठ होते है। स्किनर व हैरीमैन-’’प्रतिभाशाली Word का प्रयोग उन 01 प्रतिशत के बच्चों के लिए Reseller जाता है जो सबसे अधिक बुद्धिमान होते है। क्रो0 And क्रो0-प्रतिभाशाली बालक दो प्रकार के होते है-
- वे बालक जिनकी बुद्धिलब्धि 130 से अधिक होती है जो असाधारण बुद्धि वाले होते है।
- वे बालक जो गणित, विज्ञान, संगीत व अभिनय आदि में से Single से अधिक में विशेष योग्यता रखते है।
अध्यापक तथा निर्देशन कार्यकर्ताओं का कर्तव्य है कि वे इन बालकों की प्रतिभाओं के पूर्ण And समुचित विकास हेतु आवश्यक निर्देशन प्रस्तुत करें।
प्रतिभावान बालकों की उपर्युक्त परिभाषा के अतिरिक्त उनकी सही विश्वसनीय And वैध पहचान करने के लिए उनकी कुछ सामान्य लक्षणों का जानना भी आवश्यक है। प्रतिभा-सम्पन्न बालकों में सामान्यतया निम्नांकित लक्षण दिखार्इ देते हैं :
- बालकों की बुद्धि-लब्धि साधारणतया ऊँची (प्राय: 130 से ऊपर)।
- शारीरिक स्वास्थ्य तथा सामाजिक समायोजन।
- चरित्र-परीक्षणों के आधार पर मापित नैतिक अभिवृित्त में श्रेष्ठता।
- शैषवास्था में अपेक्षाकृत शीघ्रता के साथ विकास।
- विद्यालय-विषयों के मापन हेतु प्रयुक्त निष्पित्त परीक्षणों।
- तीव्र निरीक्षण-शक्ति, अच्छी स्मरण-शक्ति, तत्काल उत्तर क्षमता, ज्ञान की स्पष्टता And मौलिकता, विचारों को तार्किक विधि से प्रस्तुत करने की शक्ति तथा विषाल And मौलिक Wordावली।
- Wordावली के प्रयोग में मौलिकता है, भाषा और भाव-प्रदर्शन में श्रेश्ठता।
- प्रतिभा-सम्पन्न बालक व्यक्तिगत स्वास्थ्य तथा शारीरिक स्वच्छता का पूरा-पूरा ध्यान।
- सामाजिक विकास सन्तुलन, सामाजिक कार्यो में प्रसन्नता से सहयोग।
- विद्यालय में अध्ययन हेतु उपस्थित।
- अध्यापक वर्ग तथा पारिवारिक सदस्यों के साथ व्यवहार मधुर।
- सामान्य परिपक्वता-स्तर ऊँचा।
- सृजनात्मकता अधिक।
(आ) Needएँ-इन बालकों की कुछ विशिष्ट Needएँ भी होती है। इन Needएँ की अवांछित Reseller से पूर्ति होने पर इन बालकों में भी असामाजिकता के तत्वों तथा व्यवहारों का विकास हो जाता है किन्तु इनमें सामान्य तथा औसत बालकों की तुलना में असामाजिक व्यवहार अधिक मात्रा में और शीघ्रता से विकसित नही हो पाते हैं। प्रतिभा-सम्पन्न बालकों की अनेक Needएँ होती है।
(इ) प्रतिभा-सम्पन्नों का निर्देशन-निर्देशन कार्यकर्ताओं तथा अध्यापक को प्रतिभा-सम्पन्न बालकों को निर्देशन प्रदान करने में विशेष सावधानी रखने की Need होती है क्योंकि इनकी Needएँ तथा विशेषताएँ सामान्य बालकों से पृथक् होती है। परामर्शदाता तथा अध्यापक को प्रतिभा-सम्पन्न बालकों के निर्देशन के सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए :
- प्रतिभा-सम्पन्नों की समुचित पहचान की जाए तथा उनकी विविध क्षमताओं की माप की जाए।
- उन क्रियाओं को प्रारम्भ Reseller जाए जो प्रतिभा-सम्पन्नों की योग्यताओं, क्षमताओं तथा रूचियों के अनुकूल हो तथा उनका विकास करने में सहायक हो।
- प्रतिभा-सम्पन्नों के कार्यो में रूचि प्रदर्शित की जाए तथा उनके कार्यो की प्रषंसा करके उन्हें प्रोत्साहित Reseller जाए।
- कक्षा-कक्ष के सामान्य स्तर से ऊँचा उठाने हेतु सदैव प्रोत्साहित Reseller जाए।
- नेतृत्व गुणों के विकास, स्वाध्याय, चारित्रिक दृढ़ता, आत्म-निर्भरता तथा स्वतंत्र चिन्तन-शक्ति का निरन्तर विकास Reseller जाना आवश्यक है।
- शिक्षक व्यक्तिगत ध्यान दें।
- संस्कृति And सभ्यता की शिक्षा दी जाए।
- सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए।
- विशेष अध्ययन की सुविधा दी जाए।
- सामान्य Reseller से कक्षोन्नति दी जाए।
- सामाजिक अनुभव के अवसर प्रदान किये जाए।
- छात्रों को आत्म-मूल्यांकन तथा आत्म-विवेचन हेतु न केवल प्रोत्साहित ही Reseller जाये, वरन् इस कार्य में उनकी आवश्यक सहायता भी दी जाए।
- उन्हें उच्च-स्तरीय शिक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की जाए।
(र्इ) प्रतिभा-सम्पन्नों के लिए विशिष्ट क्रियाओं की व्यवस्था-प्रतिभा-सम्पन्न बालक न केवल अधिक कार्य ही कर सकते हैं, वरन् वे अधिक उच्च-स्तरीय कार्य भी करते हैं। कक्षा के सामान्य कार्य-कलाप उनकी विविध क्षमताओं की पूर्ति नही करते है और न सामान्य शिक्षण ही उनकी Needओं की पूर्ति करता है। कक्षा के कार्य को वह अतिशीघ्र कर लेता है; तदोपरान्त वह अन्य कार्यो में व्यस्त हो जाता है। वह ऐसे कार्य अधिक करना पसन्द करता है, जिससे उसकी प्रशंसा हो, या जो अन्य लोगों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित करें, जिनमें साहस हो, जो रोमांचकारी हो, जिनमें नवीनता हो, क्लिश्टता व जटिलता हो तथा जिनमें मौलिकता हो।
जो बालक शारीरिक संCreation, मानसिक शक्ति तथा व्यवहार में सामान्य नहीं हैं वे All विशिष्ट बालक कहलाते हैं। अब तक हम शारीरिक संCreation में पृथक् बालक And मानसिक क्षमताओं से सम्पन्न And समृद्ध बालकों का अध्ययन कर चुके हैं। नीचे उन बालकों का अध्ययन Reseller गया है जो मानसिक क्षमताओं में सामान्य तथा औसत बालकों से पिछड़े हुए हैं। कुप्पू स्वामी ने पिछडे़ बालक की निम्नलिखित विशेषताये बतायी हैं-
- सीखने की धीमी गति।
- निराशा का अनुभव।
- समाज विरोधी काम में रूचि।
- कम शैक्षिक लब्धि।
- विद्यालय पाठ्यक्रम से लाभ लेने में असमर्थ।
- सामान्य शिक्षण विधियों से शिक्षा ग्रहण करने में विफलता।
- मानसिक Reseller से अस्वस्थ।
- निम्न बुद्धि लब्धि।
- सामान्य बच्चों की तरह प्रगति में अयोग्य
- अपनी व नीची कक्षा के कार्य में अयोग्य।
- मान्यताओं में अटल विश्वास।
- सामाजिक कुसमायोजन।
- केवल अपनी चिन्ता।
शैक्षिक मन्दता के कारण-कुप्पूस्वामी के Wordों में शैक्षिक पिछडे़पन के अनेक कारण हो सकते है। जैसे कि-
- सामान्य से कम शारीरिक विकास हो जो कि वंषानुक्रम या वातावरण के कारण हो।
- शरीर में कोर्इ दोष हो।
- लम्बे समय तक कोर्इ शारीरिक रोग लगा रह जाये।
- निम्न स्तर की सामान्य बुद्धि हो।
- परिवार में अत्यधिक निर्धनता हो जो कि Needयें न पूरी कर पाते हो।
- परिवार का बड़ा आकार होने से Singleान्त स्थान अध्ययन हेतु न मिलता हो।
- पारिवारिक कलह से बालक तनावग्रस्त रहता हो।
- माता-पिता अशिक्षित हों।
- विद्यालय का दोषपूर्ण संगठन व वातावरण भी बालक पर कुप्रभाव डालते हैं।
बौद्धिक स्तर का ज्ञान करने के लिए सामान्यतया बुद्धि-परीक्षण का सहारा लिया जाता है और बुद्धि-लब्धि के आधार पर बालकों का श्रेणी-विभाजन Reseller जाता है। जिन बालकों की बुद्धि-लब्धि सामान्यतया 75 से कम होती है उन्हें मन्द-बुद्धि बालक कहा जाता है। इन मन्द-बुद्धि बालकों को पुन: तीन उपश्रेणियों में विभाजित Reseller जाता है-
- जिनकी बुद्धि-लब्धि 25 से कम होती है। इन्हें जड़-बुद्धि कहा जाता है। ये समाज पर भार-स्वReseller होते हैं। ये कुछ भी कार्य नहीं कर पाते हैं। इन्हें किसी भी प्रकार की शिक्षा प्रदान नहीं की जा सकती है।
- Second वे जिनकी बुद्धि-लब्धि 25 से 50 मध्य होती है इन्हें मूढ़-बुद्धि कहा जाता है। इनमें भी बुद्धि की अत्यन्त कमी होती है। समाज के Single उपयोगी सदस्य के Reseller में कार्य नहीं कर सकते हैं। निरीक्षण के अन्तर्गत ये कार्य कर सकते हैं। इन्हें शारीरिक कार्यो में प्रशिक्षण प्रदान Reseller जा सकता है और इसी प्रशिक्षण के आधार पर वे कार्य भी कर सकते हैं।
- मन्द-बुद्धि होते हैं जिनकी बुद्धि-लब्धि 50 और 75 के मध्य होती है। इन्हें मूर्ख कहा जाता है और ये करीब-करीब औसत बालक के पास होते है। थोड़ी-सी सावधानी, परिश्रम तथा लगन के द्वारा इन्हें शिक्षा प्रदान की जा सकती है और इन्हें समाज का Single उपयोगी सदस्य बनाया जा सकता है। मन्द-बुद्धि बालकों में से तीसरी प्रकार के बालक ही सामान्य Reseller में विद्यालय में आते हैं और परामर्शदाता तथा अध्यापक दोनों को ही इन्हीं से काम पड़ता है।
प्रो0 उदय शंकर ने लिखा है कि-’’यदि पिछड़े बालकों को सामान्य बालकों के साथ शिक्षा दी जायेगी तो वे पिछड़ जायेगें फलस्वReseller वे अपने स्वयं के स्तर के बालकों से और अधिक पिछडे़ हो जायेगें और विशिष्ट विद्यालयों में उनको अपनी कमियों का कम ज्ञान होगा और वे अपने समान बालकों के समूह में अधिक Safty का अनुभव करेगें। इन विद्यालयों में उनके लिये प्रतिद्विन्द्वता कम होगी और प्रोत्साहन अधिक।’’
2. मन्द-बुद्धि बालकों का निर्देशन-
- बालकों की क्षमताएँ तथा अभिरूचियाँ ही वास्तव में बालकों की शिक्षा का आधार होनी चाहिए। इस सिद्धान्त के आधार पर मन्द-बुद्धि बालकों की निम्न मानसिक क्षमताओं को उन्हें शिक्षा प्रदान करते समय सदैव ध्यान में रखना चाहिए। परामर्शदाता को इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उनके लिए उपयुक्त पाठ्यक्रम की योजना निर्मित करनी चाहिए।
- परामर्शदाता को विद्यालय के All शिक्षकों का सहयागे प्राप्त करने की Need।
- परामर्शदाता को मन्द-बुद्धि बालकों के लिए निदानात्मक कक्षाओं की व्यवस्था भी करनी चाहिए। भाषा, गणित तथा वाणी सम्बन्धी क्षेत्रों के लिए निदानात्मक कक्षाएँ अधिक उपयोगी होती हैं।
- मन्द-बुद्धि बालकों के शिक्षण हेतु छात्र-केिन्द्रत शिक्षण-पद्धतियाँ सदैव उपयोगी तथा अच्छी रहती है।
- परामर्शदाता को All मन्द-बुद्धि की आरे व्यक्तिगत Reseller से ध्यान देने की Need है।
- इनकी कक्षाओं में पर्याप्त मात्रा में सहायक सामग्री की व्यवस्था होनी चाहिए।
- इनके लिये विशेष पाठ्यक्रम की व्यवस्था होनी चाहिये।
- इन्हें हस्तषिल्प व सास्ंकृतिक विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिये।
- स्वतन्त्रता व आत्मविश्वास की भावना का विकास Reseller जाए।
- परामषर्द ाता को बडी़ सावधानी से इन बालकों की रूचियों तथा अभिवृित्तयों की खोज करनी चाहिए जिससे उन्हें आवश्यक तथा उपयोगी शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन प्रदान Reseller जा सके।
- मन्द-बुिद्ध बालकों के लिए उपयकुत व्यावसायिक निर्देशन तथा Appointment-सेवाएँ सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। इस महत्व के दो प्रमुख कारण हैं।
- व्यावसायिक समायोजन के लिए इन्हें आवश्यक सहायता तथा निर्देशन की Need पड़ती है। व्यावसायिक समायोजन की शक्ति के विकास हेतु विशिष्ट कक्षाओं के द्वारा इन बालकों को इस योग्य बना देना चाहिए वे अपना स्वतन्त्र जीवन व्यतीत कर सकें और जिस व्यवसाय में लग जायँ, उसके साथ सरलता तथा सुगमता के साथ समायोजन स्थापित कर सकें।
- मन्द-बुद्धि बालकों के लिए जीवनापे यागेी शिक्षा की अत्यन्त Need होती है। इनकी शिक्षा जीवन से घनिश्ठ Reseller से सम्बन्धित होनी चाहिए।
समस्याग्रस्त व्यवहार वाले बालक व निर्देशन कार्यक्रम
वेलन्टाइन के According-’समस्यात्मक बालकों Word का प्रयागे साधारणत: उन बालकों का वर्णन करने के लिये Reseller जाता है जिनका व्यवहार व व्यक्तित्व किसी बात में गम्भीर Reseller से असामान्य होता है।’’
- चोरी करने वाला
- झूठ बोलने वाला
- क्रोध करने वाला
- मादक द्रव्यों का सेवन करने वाला।
1. समस्यात्मक व्यवहार के कारण-
बालक के समस्यात्मक व्यवहार के अनेक कारण हो सकते हैं। इनमें से कुछेक निम्नांकित प्रमुख Reseller से Historyनीय हैं : –
- अSafty की भावना-विशिष्ट तथा सामान्य-दोनों की प्रकार की अSafty की भावना पैदा होने से तनाव तथा चिन्ता का जन्म होता है। मानसिक तनाव तथा चिन्ता समस्यात्मक व्यवहार का Single प्रमुख कारण है।
- पारिवारिक परिस्थितियाँ-बालक जब विद्यालय में जाने लगता है तब तक उसके व्यक्तित्व की नींव पड़ चुकी होती है। व्यक्तित्व की नींव की Resellerरेखा में पारिवारिक परिस्थितियाँ अपना महत्व रखती है। परिवार ने जैसी नींव डाल दी है, विद्यालय उसी पर भवन खड़ा करेगा। परिवार ने बालक की आधारभूत Needओं को किस सीमा तक पूरा Reseller है। इसका उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।
- विद्यालय-विद्यालय वातावरण भी बालकों में तनाव तथा चिन्ता की भावना का विकास करता है। यदि परिवार ने बालक को विद्यालय के लिए ठीक प्रकार से तैयार नहीं Reseller है और विद्यालय भी बालक को समायोजित होने के पर्याप्त अवसर प्रदान नहीं कर रहा है तो बालक के मन में तनाव व चिन्ता का जन्म होना स्वाभाविक ही है।
- आर्थिक स्थिति-जब तक आधारभतू मनोवैज्ञानिक Needएँ पूरी होती रहती हैं, बालक निम्न आर्थिक स्थिति की चिन्ता न करेगा, किन्तु अगर उसकी इन Needओं की पूर्ति नहीं हो पाती है तो वह तनाव And चिन्ताग्रस्त होकर समस्यात्मक व्यवहार करेगा।
- सामाजिक स्थिति-अगर समाज में रहकर बालक अपने को निम्न अथवा तुच्छ अनुभव करता है अथवा ऐसा अनुभव करने के लिए बाध्य Reseller जाता है है तो इससे बालक के मन में तनाव व चिन्ता हो सकती है
2. समस्यात्मक बालकों का निर्देशन के उपाय-
व्यवहार अनके प्रकार के होते है उनके निराकरण हेतु विशिष्ट प्रयास की आवश्कता पड़ती है, फिर भी कुछ सामान्य बातें ऐसी हैं जो परामर्शदाता को All क्षेत्रों में ध्यान रखनी चाहिए।
- अभिवृित्त तथा व्यक्तित्व का मापन-परामर्शदाता को बालक की अभिवश्ित्त तथा व्यक्तित्व का मापन करना चाहिए। इससे परामर्शदाता को बालक के व्यवहार को समझने में सहायता मिलेगी।
- व्यवहार का मूल्यांकन-परामर्शदाता को समस्यात्मक व्यवहार का मूल्यांकन करना चाहिए। मूल्यांकन के अन्तर्गत परामर्शदाता को समस्या के प्रकार, उसकी गम्भीरता तथा कारणों को ज्ञात करना चाहिए। इससे परामर्शदाता को बालक की समस्या का निराकरण करने में सहायता मिलेगी।
- घर के साथ सम्पर्क-स्थापन-परामर्शदाता को बालक के घर तथा परिवार का अध्ययन कर माता-पिता आदि के मानसिक स्वास्थ्य, आर्थिक व सामाजिक स्थिति आदि बातों का ज्ञान करना चाहिए। परिवार के सम्पर्क से बालक के समस्यात्मक व्यवहार के कारणादि को समझने में सफलता मिलेगी।
- रोकथाम, निदानात्मक तथा उपचारात्मक सेवाओं की व्यवस्था- छात्र निर्देशन कार्यक्रम के अन्तर्गत समस्यात्मक व्यवहार के रोकथाम की व्यवस्था करनी चाहिए। इलाज से रोकथाम सदैव अच्छा रहता है, अत: परामर्शदाता को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे बालक तनाव व चिन्ता से ग्रसित ही न हो।
- शिक्षक-वर्ग के साथ विचार-विमर्श-बालकों के समस्यात्मक व्यवहार को समझने के लिए परामर्शदाता को बालकों से सम्बन्धित शिक्षकों के साथ बालक के व्यवहार के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करना चाहिए।
- बालक के व्यवहार का अवलोकन-समस्यात्मक बालक अपने को अनेक प्रकार के समस्यात्मक कार्यो के द्वारा प्रदर्शित करता है तथा उसका प्रत्येक कार्य किसी न किसी विचार का प्रतिनिधित्व करता है। परामर्शदाता को, जहाँ तक सम्भव हो, बालक के व्यवहारों का अवलोकन करना चाहिए।
- विशेषज्ञों के साथ सम्पर्क-व्यवहार को समझना अत्यन्त जटिल तथा कठिन कार्य है। समस्यात्मक व्यवहार को सही ढंग से साधारण शिक्षक अथवा परामर्शदाता सही Reseller में समझ लें, यह आवश्यक नहीं, अत: परामर्शदाता को क्षेत्र से सम्बन्धित विशेषज्ञों के साथ सम्पर्क कर बालकों के व्यवहार को समझने का प्रयास करना आवश्यक है।
- अनुसन्धान कार्य-सुविधा होने पर परामर्शदाता क्षत्रे से सम्बन्धित अनुसन्धान कार्य भी कर सकता है। शिक्षक वर्ग के अध्ययन, परामर्श तथा सुझाव अवैज्ञानिक तथा अपूर्ण हो सकते हैं।
- व्यक्ति-अध्ययन-समस्यात्मक बालकों का अध्ययन करने के लिए व्यक्ति-अध्ययन पद्धतियाँ बहुत ही उपयोगी होती है। व्यक्ति-अध्ययन पद्धति के द्वारा किसी बालक-विशेष के सम्बन्ध में विस्तृत अध्ययन Reseller जाता है तथा बालक के सम्बन्ध में All आवश्यक तथ्य संग्रहीत कर लिए जाते हैं, जिनके आधार पर निश्कर्ष निकाले जाते हैं और तदोपरान्त उपचारात्मक कार्य किए जाते हैं।
- ऐसे बच्चों में परामर्शदाता आत्मविश्वास जगायें
- बच्चे के स्थिति के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनायें।
- बच्चे में परामर्शदाता नैतिक साहस की भावना का अधिकतम विकास करें।
- बालक के लिये ऐसी संगति And वातावरण बनाने का परामर्श अध्यापक And परिवार को दिया जाये कि बालक सही व्यवहार करें।