वर्ण व्यवस्था का Means And वर्णों के कर्त्तव्य
वर्ण व्यवस्था का Means And वर्णों के कर्त्तव्य
वर्ण व्यवस्था ‘‘वर्ण’’ Word संस्कृत के ‘वर्ण वरणे’ या ‘वरी’ धातु से बना है जिसका Means है ‘वरण करना’ या चुनना। आचार्य यास्क ने ‘वर्ण’ Word की व्युत्पत्ति ‘वर्ण’ धातु से मानी है- ‘वर्णो वृणोते:’ – जिसका Means है – चुनाव करना। मौटे तौर पर वर्ण के तीन सम्भावित Means माने जाते हैं- (1) वरण करना, (2) रंग तथा (3) वृत्ति के अुनReseller। ‘वर्ण’ Word के First Means के According व्यक्ति अपने स्वभाव के और कर्म के अुनसार जिस व्यवसाय को चुनता है उसी के According वर्ण निर्धारित होता है। भगवान् श्रीकृष्ण इस व्यवस्था को गुणगत तथा कर्मगत मानते हैं। ‘वर्ण’ Word का दूसरा Means ‘रंग’ है। Reseller या रंग का नाम ही वर्ण है इसीलिए महाभारत में श्वेत वर्ण ब्राह्मण का, लोहितवर्ण क्षत्रियों का, पीत वर्ण वैश्यों का, कृष्ण वर्ण शूद्रों का मिलता है।
Third Means के According ‘वर्ण’ Word ‘वृत्ति’ से सम्बन्धित है Meansात् जिन व्यक्तियों की मानसिक और व्यवहार सम्बन्धी विशेषताएँ समान हों उनसे Single वर्ण निर्मित हुआ। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं, ‘‘चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:’’ (गीता, 4/13)
Meansात् मैंने ही गुण और कर्मों के आधार पर चारों वर्णों का निर्माण Reseller है। गुण और कर्म से आशय व्यक्ति के ‘स्वभाव’ और सामाजिक दायित्वों से लिया जाता है, और इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राचीन वर्ण-व्यवस्था में चारों वर्ण अपने-अपने सामाजिक दायित्वों को अपने स्वभाव के According परिपालन करते हुए समाज की उन्नति में सहयोगी होते थे। इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था को व्यक्ति के गुण और कर्म पर आधारित सामाजिक स्तरीकरण की सुन्दर व्यवस्था कहा जा सकता है।
वर्णों के कर्त्तव्य
प्राचीन Indian Customer समाज में चारों वर्णों के पृथक्-पृथक् कर्त्तव्य निर्धारित किए गये थे जो इस प्रकार हैं-
ब्राह्मण
समाज का सुष्ठु संचालन करते हुए उसे सन्मार्ग की ओर ले जाने वाले ब्राह्मण हैं, जो अपने उदात्त विचारों, दीर्घकालीन अनुभव And ज्ञान से समाज का नेतृत्व करते थे। मनु ने ज्ञानवान् होने के कारण ही ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ माना है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भी ब्राह्मण के स्वभाविक लक्षण इस प्रकार बताए हैं। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में ब्राह्मण के छह प्रमुख कर्त्तव्य माने गये हैं- अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ, याजन, दान और प्रतिग्रह (दान लेना) आदि। आचार्य मनु तथा आचार्य याज्ञवल्क्य ने ब्राह्मण की आत्मोन्नति के लिए वेदाध्ययन और तप को आवश्यक कर्त्तव्य माना गया है। इस प्रकार अपने उत्तम आचरण, निर्मल अन्त:करण, गम्भीर अध्ययन और तप के कारण ही ब्राह्मण सम्पूर्ण पूजा का उपदेष्टा बनने का सामर्थ्य प्राप्त करता था। इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से उसकी वृत्ति, कर्त्तव्य और सामाजिक स्थिति भली-भांति स्पष्ट हो जाती है।
क्षत्रिय
प्राचीनकाल में क्षत्रिय ही ‘King’ का पद प्राप्त करते थे और वर्णाश्रमधर्म की रक्षा करना उनका परम कर्त्तव्य था। क्षत्रिय Word का व्युत्पत्तिमूलक Means दूसरों की रक्षा करना (क्षतात्त्रायते) है। प्रजा की रक्षा में निपुण, शूर, पराक्रमी और दुष्टों का दमन करने में समर्थ व्यक्ति को क्षत्रिय कहा जाता था। All प्राणियों की रक्षा करना, प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, स्वाध्याय करना, विषयों के प्रति अनासक्ति, शौर्य, वीर्य, धैर्य, तेज, त्याग, आत्मविजय, ब्राह्मणों का आदर, सरलता, पीड़ितों को बचाना, Fight से मुँह न मोड़ना तथा शासन करने की योग्यता क्षत्रियों के आवश्यक गुण हैं। महाभारत में क्षत्रियों के महत्त्व का उद्घोष करते हुए कहा गया है कि यदि संसार में क्षत्रिय न हो तो यह संसार रSevenल को चला जाएगा, क्षत्रियों के द्वारा रक्षा करने के कारण ही यह संसार टिका हुआ है। इस प्रकार प्रजापालन, धर्मFight, न्यायसम्मत, शासन, दान, यज्ञ और विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करना क्षत्रियों के परम कर्त्तव्य माने जाते हैं।
वैश्य
समाज के भरण पोषण का कार्य वैश्यों को वहन करना होता है। समाज के आर्थिक विकास का उत्तरदायित्व इन्हीं पर था। वैश्व के स्वReseller के विषय में कहा गया है कि देवता, गुरू तथा भगवान् के प्रति भक्ति, धर्म, Means, काम-पुरुषार्थों का पोषण, आस्तिकता, उद्योगशीलता तथा लोकव्यवहार निपुणता से युक्त व्यापार, पशुसंरक्षण, कृषि, धनसंग्रह आदि कार्यों को करने के स्वभाव वाला, पवित्र आचरण करने वाला और वेदाध्ययन करने वाला व्यक्ति वैश्य है। अध्यापन, यज्ञ करना, दान लेना, Fight करना आदि ब्राह्मण And क्षत्रिय के जीविकोपार्जन के उपायों को छोड़कर कृषि, पशुपालन And व्यापार ही वैश्य की आजीविका के साधन हैं। इसके अतिरिक्त साधारण ब्याज पर ऋण देना भी उनकी वृत्ति है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वैश्यवर्ण सम्बन्धी कार्यों के बिना राष्ट्र का आर्थिक स्त्रोत शुष्क हो जायेगा। इसीलिए वैश्यवर्ण का बहुत महत्त्व है।
शूद्र
शूद्रों की उत्पत्ति ब्रह्मा के पैरों से बताई गई है। शरीर में जो स्थिति पैरों की है, वही समाज में शूद्रों की है। पैर व्यक्ति को उसके गन्तव्य तक ले जाते हैं, उसे गतिशील रखते हैं, शूद्र भी समाज के अन्य वर्गों को उनके गन्तव्य तक पहुँचने में अपेक्षित सहायता करते हैं। शूद्रों के स्वभाव तथा स्वReseller के विषय में कहा गया है कि विनम्रता, पवित्रता, स्वामी की निष्कपट सेवा, मन्त्ररहितयज्ञ, चोरी न करना, सत्यनिष्ठा, गौब्राह्मण की रक्षा करना। भिक्षा, यज्ञ, व्रतादि शूद्र के लिए निषिद्ध हैं।