राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत
Indian Customer संविधान की Single विशेषता यह है कि इसके अन्तर्गत ‘राज्य-नीति के निर्देशक तत्त्व’ नाम से राज्य से पथ-प्रदर्शन हेतु कुछ सिद्धांतो की व्यवस्था की गयी है। इस नीति निर्देशक तत्त्वों का History संविधान के चतुर्थ भाग में Reseller गया है। इस अध्याय के अन्तर्गत संविधान निर्माताओं ने Single दिशा की ओर संकेत Reseller है जिसका अनुसरण केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा कानून निर्माण और प्रशासन के संबंध में Reseller जाना चाहिए 1937 में आयरलैण्ड ने अपने संविधान में न केवल मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की वरन् सामाजिक नीति के निर्देशक सिद्धांतो को भी संविधान में स्थान दिया। इसके साथ ही मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धांतो में यह अन्तर रखा है कि जहाँ मौलिक अधिकारों को ‘न्याय योग्य’ ठहराया गया, नीति निर्देशक सिद्धांतो को न्याय योग्य नहीं माना गया।
निर्देशक सिद्धांतो की प्रकृति
इस निर्देशक तत्त्वों की प्रकृति और स्वReseller के सम्बन्ध में-अनुच्छेद 37 में स्पष्ट Reseller से कहा गया है कि-फ्इस भाग (4) में दिये गये उपबंधों को किसी भी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकेगी, किन्तु तो भी इसमें दिये हुए तत्त्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि निर्माण में इन तत्त्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्त्तव्य होगा। इसलिए हमारे राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्व कार्यपालिका के साथ-साथ विधानमंडलों को प्रभावित करेंगे। इन तत्त्वों की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए श्री जी.एन. जोशी अपनी पुस्तक ‘भारत का संविधान’ में लिखते हैं कि, निर्देशक तत्त्वों का विधानमंडलों को कानून बनाते समय और कार्यपालिका को इन तत्त्वों को लागू करते समय ध्यान रखना चाहिए। ये उस नीति की ओर संकेत करते हैं जिनका अनुसरण संघ और राज्यों को करना चाहिए।
राज्य-नीति के निर्देशक तत्त्व Indian Customer संविधान की Single नई विशेषता है। इन सिद्धांतो में उन आदेशों की सूची समाविष्ट है जिनके According वर्तमान तथा भविष्य की सरकारें कार्य करेंगी भले ही वे किसी राजनीतिक दल से संबंध्ति हो। ये सिद्धांत संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36 से 51) में दिए गए हैं। ये सिद्धांत, संविधान निर्माताओं की आशाओं And आकांक्षाओं को परिलक्षित करते हैं। इन सिद्धांतो द्वारा वे भारत में कल्याणकारी राज्य स्थापित करना चाहते थे जिसमें लोगों को सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक न्याय प्राप्त हो सके। ये उपबंध Indian Customer संविधान में जीवन का संचार करते हैं। इसके निर्माता इस सत्य को ठीक तरह समझते थे कि व्यक्ति के अधिकारों को समूचे समाज के सामूहिक हितों के साथ समंजित Reseller जाना चाहिए। वे अमरीका के अनुभव से परिचित थे इसलिए उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की संभावना को सम्मुख रखा। इस सम्बन्ध में उन्होंने आयरलैण्ड के संविधान से मार्गदर्शन प्राप्त Reseller।
निर्देशक सिद्धांतो का महत्व
निर्देशक सिद्धांत Single विशेष प्रकार की सामाजिक व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं। अनुच्छेद 38 के According, फ्राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करके जिसमें राष्ट्रीय जीवन की All संस्थाओं में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय उपलब्ध हों, लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयत्न करेगा। (‘‘The State shall strive to promote the welfare of the people by securing and protecting as effectively as it may a social order in which justice, social, economic and political shall inform all the institutions of national life.’’) इन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं Reseller जाता। 42वें संशोधन से पूर्व मौलिक अधिकार निर्देशक सिद्धांतो से उफँचे माने जाते थे, भले ही ये सिद्धांत देश के शासन के लिए आधरभूत थे। अनुच्छेद 37 के According भाग IV के उपबंध किसी न्यायालय द्वारा लागू नहीं होंगे, पर देश के प्रबंध्न में तथा कानून बनाते समय ध्यान में रखे जाऐंगे। (‘‘Provisions in Part IV shall not be enforceable by any court, but the principle there in laid down are nevertheless fundamental in the governance of the country and it shall be the duty of the State to apply their principles in making the laws.’’) 42वें संशोधन के बाद इन्हें मौलिक अधिकारों से ऊचा स्थान दिया गया है। इस संशोधन के बाद संसद अथवा राज्य विधानमंडलों द्वारा बनाए गए किसी कानून को किसी न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह संविधान के अनुच्छेद 14, 19 तथा का उल्लंघन करता है।
निर्देशक सिद्धांतो का वर्गीकरण
संविधान के अध्याय 4, अनुच्छेद 36 से 51 तक निर्देशक सिद्धांतो का History Reseller गया है। संविधान में तो इनका वर्गीकरण नहीं Reseller गया लेकिन, प्रो. एम.पी. शर्मा ने इन्हें प्रमुख Reseller से तीन भागों में विभाजित Reseller है। इन तीन वर्गों में दो और वर्गों को भी जोड़ा जा सकता है।
समाजवादी सिद्धांत
इस वर्ग के अधीन ऐसे सिद्धांत रखे जा सकते हैं जिनका उद्देश्य भारत में समाजवादी कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है।
- धारा 38 के According राज्य कल्याणकारी राज्य की उन्नति के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।
- धारा 39 के According- ;ंद्ध प्रत्येक नागरिक को अपना निर्वाह करने के लिए आजीविका कमाने का अधिकार प्राप्त हो। ;इद्ध देश में भौतिक साधनों का विभाजन इस प्रकार हो जिससे अधिक-से-अधिक जन-कल्याण हो सके। ;बद्ध देश का आर्थिक ढाँचा इस प्रकार का हो कि धन तथा उत्पादन के साधन चन्द व्यक्तियों के हाथ में Singleत्रित न हों। ;कद्ध स्त्रियों व पुरुषों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था हो। ;मद्ध स्त्रियों, बच्चों तथा युवकों को नैतिक तथा भौतिक पतन And शोषण से बचाया जाए। ;द्धि स्त्री, पुरुष तथा बच्चों को आर्थिक संकट से विवश होकर ऐसे कार्य न करने दिए जाएँ जो उनकी आयु तथा स्वास्थ्य के अनुकूल हों।
- धारा 41 के According बेकारी, बीमारी, बुढ़ापा तथा अंगहीन होने की स्थिति में राज्य अपनी शक्ति के According सहायता देने की व्यवस्था करे। इसके अलावा राज्य सब लोगों को रोजगार तथा शिक्षा देने का प्रयास करे।
- धारा 42 के According राज्य काम के लिए न्यायपूर्ण स्थिति उत्पन्न करे तथा अधिक-से-अधिक प्रसूति सहायता (Maternity Relief) का प्रबंध करे।
गाँधीवादी सिद्धांत
इस श्रेणी में वे सिद्धांत शामिल किए जा सकते हैं जिनसे समाज की स्थापना हो सकती है जिनका स्वप्न गाँधी जी के मन में था।
- धारा 40 के According गाँवों में ग्राम पंचायतों का निर्माण Reseller जाएगा।
- धारा 43 के According गाँवों में घरेलू दस्तकारियों की उन्नति के लिए प्रयत्न Reseller जाएगा।
- धारा 46 के According राज्य कमजोर वर्गों को तथा विशेषत: अनुसूचित जातियों और पिछड़े कबीलों को शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ प्रदान करेगा, उनको सामाजिक अन्याय तथा हर प्रकार के शोषण से बचाएगा।
- धारा 47 के According राज्य शराब तथा अन्य नशीली वस्तुओं पर जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, प्रतिबंध लगाने का प्रयास करेगा।
- धारा 48 के द्वारा दूध देने वाले पशुओं को मारने पर रोक लगाएगा तथा पशुओं की नस्ल सुधारने का यत्न करेगा।
उदारवादी सिद्धांत
इस श्रेणी में साधारण तथा विशाल विचारों वाले मनोरथों को शामिल Reseller गया है।
- धारा 44 के According राज्य समस्त भारत में समान व्यवहार नियम (Uniform Civil Code) लागू करने का यत्न करेगा।
- धारा 45 के According संविधान लागू होने के दस वर्ष के अन्दर-अन्दर राज्य 14 वर्ष तक के बालकों के लिए नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा।
- धारा 47 के According राज्य लोगों के जीवन-स्तर तथा खुराक-स्तर को ऊचा उठाने तथा उनके स्वास्थ्य में सुधार करने का प्रयत्न करेगा।
- धारा 48 के According राज्य वैज्ञानिक आधार पर कृषि और पशुपालन का संचालन करेगा।
- धारा 50 के According राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथव्फ रखने का प्रयास करेगा।
अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों संबंधी सिद्धांत
इस श्रेणी में ऐसे सिद्धांत शामिल किए गए हैं जिनका लक्ष्य विश्व-शान्ति स्थापित करना है। ये सिद्धांत इस प्रकार हैं- धारा 51 के According-
- राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा व्यवस्था को बढ़ावा देगा।
- राज्य विभिन्न राष्ट्रों के बीच सम्मानपूर्वक तथा न्यायोचित सम्बन्धों को बनाए रखने का यत्न करेगा।
- राज्य अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों, सन्धियों तथा समझौतों का मान करेगा।
- अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को पंच पैफसले (Arbitration) द्वारा निपटाने के ढंग का राज्य समर्थन करेगा।
अन्य सिद्धांत
धारा 49 के According राज्य ऐतिहासिक स्मारकों की रक्षा करने का पूरा प्रयास करेगा।
- 42वें संशोधन द्वारा संविधान में नया अनुच्छेद 43.A जोड़ा गया है जिसके द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि राज्य उचित कानून या किसी अन्य विधि से इस उद्देश्य के लिए प्रयत्न करेगा कि किसी भी उद्योग से सम्बन्धित कारोबार के प्रबंध में अथवा अन्य संस्थाओं में श्रमिकों को भाग लेने का अवसर प्रदान हो।
- 42वें संशोधन द्वारा संविधान में Single नया अनुच्छेद 48-A जोड़ा गया है, जिसमें यह व्यवस्था की गई है कि राज्य वातावरण की Safty तथा सुधार के लिए और देश के वनों तथा जीवन की रक्षा के लिए यत्न करेगा।
नीति निर्देशक तत्त्वों की आलोचना
जिस समय संविधान का निर्माण हो रहा था, उस समय संविधान सभा में और बाहर भी राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्वों सम्बन्धी उपबंधों की बहुत आलोचना हुई थी। संविधान के स्वीकृत हो जाने के बाद भी अनेक विद्वानों ने कई आधारों पर इन उपबंधों की आलोचना की है। निर्देशक तत्त्वों के विरुद्व की जाने वाली आलोचना के प्रमुख आधार हैं-
वैधानिक शक्ति का अभाव
संविधान ने राज्य के नीति के निर्देशक तत्त्वों को Single ओर तो देश के शासन में मूलभूत माना है किन्तु साथ ही वे वैधानिक शक्ति या प्राप्त न्याय योग्य नहीं है Meansात् न्यायालय उपर्युक्त सिद्धांत को क्रियान्वित नहीं कर सकते हैं। अत: आलोचकों की राय में ये निर्देशक तत्त्व ‘शुभ इच्छाएँ’ (Pious wishes), ‘नैतिक उपदेश’ (Morel precepts) या ‘ऐसी राजनीतिक घोषणाओं के समान हैं, जिनका कोई संवैधानिक महत्त्व नहीं हो।’ संविधान सभा के Single सदस्य श्री नासिरूद्दीन ने इन्हें ‘नववर्ष के First दिन पास किए गए शुभकामना का प्रस्ताव’ जैसी वस्तु कहा था और प्रो. के.टी. शाह के Wordों में, ‘यह Single ऐसा चैक है जिसका भुगतान बैंक की इच्छा पर छोड़ दिया गया है।’ प्रो. हीयर ने इन निर्देशक तत्त्वों को ‘उद्देश्यों और आकांक्षाओं का घोषणा पत्र‘ कहा है और श्री एन.आर. राघवाचारी इन्हें ‘ललित पदावली में व्यक्त ध्वनित भावनाओं की ऐसी पंक्तियाँ कहते हैं जिनका वैधानिक दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है।’ सर बी.एन. राव के Wordों में, फ्राज्यों की नीति-निर्देशक तत्त्व राज्य के अधिकारियों के लिए नैतिक उपदेश के समान हैं और वे इस आलोचना के पात्र हैं कि संविधान में नैतिक उपदेशों के लिए उचित स्थान नहीं है। आलोचकों को कहना है यदि संविधान में नैतिक उपदेश करना ही अभीष्ट था, तो बाइबिल की दस पवित्र आज्ञाओं को संविधान में क्यों नहीं लिया गया?
अस्पष्ट तथा अताक्रिक Reseller से संग्रहीत
नीति-निर्देशक तत्त्वों के विरुद् यह भी आलोचना की जाती है कि ये किसी निश्चित या संगतपूर्ण दर्शन पर आधारित नहीं है। वे अस्पष्ट हैं, उनमें क्रमबद्व ता का अभाव है और Single बात को बार-बार दोहराया गया है। उदाहरण के लिए, इन तत्त्वों में पुराने स्मारकों की रक्षा जैसे महत्त्वहीन प्रश्न अपेक्षाकृत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, आर्थिक तथा सामाजिक प्रश्नों के साथ मिला दिए गए हैं। प्रो. श्रीनिवासन के Wordों में, फ्इस अध्याय में कुछ बेढंगे तरीके से आधुनिक को पुरातन के साथ और तक्र तथा विज्ञान द्वारा सुझाये गए उपबंधों को विशुद्व Reseller से भावुकता और पूर्वाग्रह पर आधारित उपबंधों के साथ मिला दिया गया है।
Single प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य में अस्वाभाविक
Single प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य में इस प्रकार के सिद्धांतो को ग्रहण करना अस्वाभाविक भी लगता है। Single उच्च सत्ता अधीनस्थ सत्ता को आदेश दे सकती है जैसा कि 1935 के Indian Customer शासन अधिनियम में ब्रिटिश संसद द्वारा गवर्नर जनरल और गवर्नरों को आदेश दिए गए थे, लेकिन Single प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य को इस प्रकार के आदेश देने की Need पड़े, यह अस्वाभाविक जान पड़ता है विधिवेत्ताओं की दृष्टि में Single प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य के लिए इस प्रकार के आदेशों का कोई औचित्य नहीं है।
अव्यावहारिक And अनुचित
व्यावहारिकता व औचित्य को भी कुछ आलोचकों के द्वारा चुनौती दी गयी है। उदाहरण के लिए, मद्य निषेध से सम्बन्धित निर्देशक तत्त्वों की स्वतंत्र Meansव्यवस्था के प्रतिपादकों द्वारा उग्र आलोचना की गयी है। उनका कहना है कि ये तथाकथित सुधार राष्ट्रीय कोष पर भारस्वReseller होंगे। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि नैतिकता थोपी नहीं जा सकती। मद्य निषेध शराबियों को नैतिक प्रणाली बनाने के बजाय शराब के अवैध व्यापार को जन्म देगा। यह व्यवस्था इस दृष्टि से भी अव्यावहारिक प्रतीत है कि अनेक राज्य सरकारों द्वारा मद्य निषेध की व्यवस्था का अन्त तक सार्वजनिक क्षेत्र में ‘मद्य विक्रय गृहों’ (Wine Shops) की स्थापना की गयी है। ऐसी स्थिति में डॉ. जैनिंग्ज के ये Word बहुत कुछ सीमा तक उचित प्रतीत होते हैं कि-’आने वाली सदी में ये तत्त्व निस्संदेह निरर्थक हो जाएँगे’।
संवैधानिक द्वन्द्व के कारण
संवैधानिक विधि वेत्ताओं ने यह आशंका व्यक्त की कि ये तत्त्व Indian Customer शासन में संवैधानिक द्वन्द्व और गतिरोध के कारण भी बन सकते हैं। संविधान सभा में श्री संथानम् ने यह आशंका व्यक्त की थी कि इन निर्देशक तत्त्वों के कारण राष्ट्रपति तथा प्रधनमंत्री अथवा राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद उत्पन्न हो सकते हैं? प्रश्न यह है कि अगर प्रधानमंत्री इन सिद्धांतो का उल्लंघन करता है तो स्थिति क्या होगी? Single पक्ष का कहना है कि राष्ट्रपति इस आधार पर किसी भी विधेयक पर निशेषाधिकार का प्रयोग कर सकता है कि वह शासन के मूलभूत सिद्धांत निर्देशक तत्त्वों के विरफद्व है। Indian Customer संविधान के प्रसिद्व लेखक श्री दुर्गादास बसु के द्वारा भी उपर्युक्त विचार व्यक्त Reseller गया है। इसी प्रकार की घटनाएँ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच तीव्र मतभेद को जन्म देंगी और इससे संसदात्मक प्रजातन्त्र को गम्भीर आघात पहुँच सकता है।
राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व की उपयोगिता
नीति-निर्देशक तत्त्वों की आलोचना की गई है उसका तात्पर्य नहीं लिया जाना चाहिए कि वे बिल्कुल व्यर्थ और महत्त्वहीन हैं। वास्तव में, संवैधानिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से नीति-निर्देशक तत्त्वों का बहुत अधिक महत्त्व है। न्यायमूर्ति हेगड़े के According, फ्यदि हमारे संविधान के कोई भाग ऐसे हैं जिन पर सावधानी और गहराई से विचार करने की Need है तो व हैं भाग तीन और चार। उनमें संविधान का दर्शन निहित है और Single लेखक के Wordों में, वे हमारे संविधान की अन्तरात्मा है। डॉ. पायली के According, इन निर्देशक तत्त्वों का महत्त्व इस बात में है ये नागरिकों के प्रति राज्य के सकारात्मक दायित्व है। इन तत्त्वों के महत्त्व का अध्ययन निम्नलिखित Resellerों से Reseller जा सकता है-
असंगत तथा असामयिक होने के तक्र गलत
नीति-निर्देशक तत्त्वों के सम्बन्ध में प्रो. जैनिग्ज और श्रीनिवास जैसे व्यक्तियों की यह आलोचना नितान्त अनुचित है कि ये तत्त्व असंगत तथा असामयिक है। वास्तव में, ये विचार केवल विदेशी नहीं है वरन् इस अध्याय के अनेक उपबंध पूर्णReseller में Indian Customer है। यद्यपि 21वीं सदी में ये सिद्धांत पुराने पड़ जाएँगे और व्यावहारिक हो जाएँगे लेकिन कम से कम 20वीं सदी के भारत में ये सिद्धांत उपयोगी तथा व्यावहारिक प्रतीत होते हैं। पुन: प्रो. एम.वी. पायली के Wordों में, फ्यदि कभी ये सिद्धांत पुराने पड़ जाएँगे तो इनका Needनुसार संशोधन Reseller जा सकता है क्योंकि संशोधन प्रक्रिया अत्यन्त सरल है। जब तक इनके संशोधन करने का समय आएगा, तब तक भारत इनका पूरा लाभ उठा चुका होगा और भारत भूमि में आर्थिक लोकतंत्र की जड़ें गहरी हो चुकी होंगी। संविधान का निर्माण वर्तमान समस्याओं को सुलझाने के लिए होता है। यदि हम वर्तमान का निर्माण सदृढ़ नींव पर करे तो भविष्य की चिन्ता करने की Need नहीं रहेगी।
निर्देशक तत्त्वों के पीछे जनमत की शक्ति
यद्यपि इन निर्देशक तत्त्वों को न्यायालय द्वारा क्रियान्वित नहीं Reseller जा सकता, लेकिन इसके पीछे जनमत की सत्ता होती है, जो प्रजातंत्र का सबसे बड़ा न्यायालय है। अत: जनता के प्रति उत्तरदायी कोई भी सरकार इनकी अवहेलना का साहस नहीं कर सकती। शासन द्वारा Reseller गया इनका बार-बार उल्लंघन देश में शक्तिशाली विरोध को जन्म देगा। व्यवस्थापिका के भीतर शासन को विरोधी दल के प्रहारों का सामना करना पड़ेगा और व्यवस्थापिका के बाहर इसे निर्वाचन के समय निर्वाचकों को जवाब देना होगा। निर्देशक तत्त्वों के पीछे जनमत देना होगा। प्रो. पायली के According, फ्ये निर्देशक तत्त्व राष्ट्रीय चेनता के आधारभूत स्तर का निर्माण करते हैं और जिनके द्वारा इन तत्त्वों का उल्लंघन Reseller जाता है, वे ऐसा कार्य उत्तरदायित्व की स्थिति से अलग होने की जोखिम पर ही करते हैं। आलोचक राघवाचारी भी स्वीकार करते हैं कि, फ्जो शासन सत्ता पर आधिपत्य बना ले, उसे इस अनुदेश-पत्र का आदर करना ही होगा। आगामी आम चुनाव में उसे इस सम्बन्ध में निर्वाचकों को जवाब देना ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में श्री अल्लादि कृष्णास्वामी अÕयर ने संविधान सभा में ठीक ही कहा था कि कोई भी लोकप्रिय मंत्रिमंडल संविधान के चतुर्थ भाग के उपबंधें के उल्लंघन का साहस नहीं कर सकता।
चरम सीमाओं से रक्षा
हमारे संविधान निर्माता इस तथ्य से पूर्णतया परिचित थे कि प्रजातांत्रिक राज्य में परिवर्तनशील जनमत के परिणामस्वReseller विभिन्न समयों में विभिन्न राजनीतिक दल सत्तारूढ़ हो सकते हैं। कभी दक्षिणपंथी दल शासन सत्ता पर अधिकार कर सकता है और कभी कोई वामपंथी दल। निर्देशक तत्त्व दोनों प्रकार की सरकारों को मर्यादित रखेंगे तथा उन्हें किसी प्रकार का Single तरपफ झुकाव रखने से रोवेंफगे। श्री अमरनन्दी के According, संविधान के निर्देशक तत्त्व इस बात का आश्वासन देते हैं कि अनुदार दल अपनी नीति के निर्धारण में इन तत्त्वों की पूर्ण अवहेलना नहीं कर सकेगा और Single उग्रगामी दल अपने दल के आर्थिक या अन्य कार्यक्रम को पूरा करने के लिए संविधान का अन्त करना आवश्यक नहीं समझेगा। इस प्रकार निर्देशक तत्त्व वाम और दक्षिण पंथ की चरम सीमाओं से Safty प्रदान करते हैं।
नैतिक आदर्शों के Reseller में महत्व
यदि निर्देशक तत्त्वों को केवल नैतिक धारणाएँ ही मान लिया जाए तो इस Reseller में भी उनका अपार महत्त्व है। ब्रिटेन में मैग्नाकार्टा, फ्रांस में Humanीय तथा नागरिक अधिकारों की घोषणा तथा अमरीकी संविधान की प्रस्तावना को कोई कानूनी अनुशक्ति प्राप्त नहीं, फिर भी इन देशों के History पर इसका प्रभाव पड़ा है। इसी प्रकार उचित Reseller से यह आशा की जा सकती है कि ये निर्देशक तत्त्व Indian Customer शासन की नीति को निर्देशित और प्रभावित करेंगे। ऐलेन ग्लेडहिल के Wordों में, अनगिनत व्यक्तियों के जीवन नैतिक आदर्शों के फलस्वReseller सुधरे हैं और ऐसे उदाहरणा भी मिलने कठिन नहीं हैं जबकि उच्च नैतिक आदर्शों का राष्ट्रों के History पर प्रभाव पड़ता है।
संविधान की व्याख्या में सहायक
संविधान के According निर्देशक तत्त्व देश के शासन में मूलभूत हैं जिसका तात्पर्य यह है कि देश के प्रशासन के लिए उत्तरदायी All सत्ताएँ उनके द्वारा निर्देशित होंगी। न्यायपालिका भी शासन का Single महत्त्वपूर्ण अंग होने के कारण यह आशा की जा सकती है कि भारत में न्यायालय संविधान की व्याख्या के कार्य में निर्देशक तत्त्वों को उचित महत्त्व देंगे। प्रो. ऐलेक्जेण्डरोविच का मत है कि फ्चूँकि निर्देशक सिद्धांतो में संविधान सभा की आर्थिक और सामाजिक नीति बोल रही है और क्योंकि उसमें हमारे संविधान निर्माताओं की इच्छा की अभिव्यक्ति है, इसलिए हमारे न्यायालयों का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वे मौलिक अधिकारों संबंधी उपबंधों की व्याख्या करते समय राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्वों पर पूरा-पूरा ध्यान दें। Indian Customer न्यायालयों ने कई बार मौलिक अधिकार संबंधी विवादों में निर्णय देते समय निर्देशक सिद्धांतो से मार्गदर्शन लिया है। ‘बम्बई राज्य बनाम एपफ.एम. वालसराय’ वाले विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 47 के आधार पर निर्णय दिया कि शासन ने मादक द्रव्य निषेध अधिनियम पास करके उचित प्रतिबंध ही लगाया था। पुन: उच्चतम न्यायालय ने ‘बिहार राज्य बनाम कामेश्वरसिंह’ वाले विवाद में अनुच्छेद 39 के प्रकाश में यह निर्णय दिया था कि जमींदारों के अन्त का उद्देश्य वास्तविक जनहित ही था। इसी प्रकार ‘विजय वस्त्र उद्योग बनाम अजमेर राज्य’ के विवाद में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 43 के प्रकाश में ‘न्यूनतम पारिश्रमिक अधिनियम’ को उचित ठहराया। श्री एम.सी. सीतलवाड़ के Wordों में ‘राज्य नीति के इन मूलभूत सिद्धांतो को वैधनिक प्रभाव प्राप्त न होते हुए भी इनके द्वारा न्यायालयों के लिए उपयोगी प्रकाश स्तम्भ का कार्य Reseller जाता है’।
शासन के मूल्यांकन का आधार
नीति-निर्देशक तत्त्वों द्वारा जनता को शासन की सफलता व असफलता की जाँच करने का मापदण्ड भी प्रदान Reseller जाता है। King दल के द्वारा अपने मतदाताओं को निर्देशक सिद्धांतो के संदर्भ में अपनी सफलताएँ बतानी होंगी तथा King शक्ति पर अधिकार करने के इच्छुक राजनीतिक दल को इन तत्त्वों की क्रियान्विति के प्रति अपनी तत्परता और उत्साह दिखाना होगा। इस प्रकार निर्देशक तत्त्व जनता को विभिन्न दलों की तुलनात्मक जाँच करने योग्य बना देंगे।
कार्यपालिका प्रधान इनका दुरुपयोग नहीं कर सकते हैं
निर्देशक तत्त्व के पक्ष में अन्तिम बात यही कही जा सकती है कि यद्यपि विधान के सदस्यों तथा कुछ संविधान-वेत्ताओं ने यह भय प्रकट Reseller है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल इस आधार पर किसी विधेयक पर अपनी सम्मति देने से इंकार कर सकते हैं कि वह निर्देशक तत्त्वों के प्रतिवूफल हैं, लेकिन व्यवहार में ऐसा घटना की सम्भावना कम है, क्योंकि संसदात्मक शासन प्रणाली में नाममात्र का कार्यपालिका प्रधान लोकप्रिय प्रधान लोकप्रिय मंत्रि-परिषद् द्वारा पारित विधि को अस्वीकृत करने का दुस्साहस नहीं कर सकता है। डॉ. अम्बेडकर के Wordों में, फ्विधायिका द्वारा पारित विधि को अस्वीकृत करने के लिए राष्ट्रपति या राज्यपाल निर्देशक तत्त्वों का प्रयोग नहीं कर सकते। वास्तव में, निर्देशक तत्त्व Indian Customer राजनीति के सर्वोच्च सिद्धांत हैं। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री केनिया ने ‘गोपालन बनाम मद्रास राज्य’ के विवाद पर निर्णय देते हुए कहा था, फ्क्योंकि राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्व संविधान में शामिल हैं, इसलिए वे बहुमत दल के अस्थायी आदेश मात्र ही नहीं हैं, वरन् उनमें राष्ट्र की बुद्वि मत्तापूर्ण स्वीकृति बोल रही है जो संविधान सभा के माध्यम से व्यक्त हुई थी।
निर्देशक तत्त्वों का क्रियान्वयन और उपलब्धियाँ
नीति निर्देशक तत्त्वों के क्रियान्वयन की समस्या पुलिस राज्य को कल्याणकारी राज्य और संविधान द्वारा स्थापित राजनीतिक लोकतंत्र को आर्थिक लोकतंत्र में परिवर्तन करने की समस्या है। यह कार्य इतना बड़ा है कि इसे तुरन्त सम्पन्न नहीं Reseller जा सकता। इसे पूरा करने के लिए दीर्घकालीन प्रयत्न, प्रचुर धन और तीव्र गति से आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास आवश्यक है। परन्तु राज्य ने यह कार्य प्रारंभ कर दिया है और इस दिशा में कई महत्त्वपूर्ण बातें की गयी हैं-
- पाँच पंचवष्र्ाीय योजनाओं के आधार पर कृषि और उद्योगों की उन्नति, शिक्षा और स्वस्थ्य की सुविधओं का प्रसार, नौकरी व कार्य के साधनों में वृद्वि , राष्ट्रीय आय व लोगों के रहन-सहन के स्तर को ऊचा उठाने के प्रयत्न किए गए हैं।
- युवक वर्ग व बालकों को शोषण से रक्षा करने के लिए अनेक कानून पास किए गए हैं, बीमारी और दुर्घटना के विरुद्व Safty के लिए कुछ सीमा तक मजदूर वर्ग में बीमा योजना लागू की गयी है व बेरोजगारी बीमा योजना को लागू करने और रोजगार की सुविधाएँ बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं। राज्य सामाजिक कल्याण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है।
- हिन्दू बिल के कई अंशों जैसे हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955- हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956ऋ आदि का पारित करके देश के All वर्गों के लिए समान विधि संहिता प्राप्त करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं।
- अस्पृश्यता निवारण के लिए और अनुसूचित तथा पिछड़ी हुई जातियों के बालकों को उदारपूर्वक छात्रवृत्ति और अन्य सुविधायों द्वारा शिक्षित करने का कार्य भी हुआ है।
- यद्यपि अब भी नि:शुल्क और अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा और सबके लिए पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा का प्रबंध अधूरा ही है, तथापि इन दिशाओं में भी महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है। अन्तिम स्थान में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीयकरण और सामुदायिक विकास योजनाओं द्वारा ग्राम पंचायतों को अधिक सशक्त बनाने का प्रयास Reseller जा चुका है। गरीबों को ‘मुफ्रत कानूनी सहायता’ प्रदान करने के लिए न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती की अध्यक्षता में Single समिति गठित की गई। कई प्रांतों में वृद्व तथा असहाय लोगों के लिए वृद्वावस्था पेंशन (Old Age Pension) की व्यवस्था की गई है। यह गौरव हरियाणा को भी प्राप्त है।
हाल ही के वर्षों में निर्देशक तत्त्वों के क्रियान्वियन की दिशा में कुछ और कदम भी उठाये गये हैं। बंधुआ मजदूरी की समाप्ति और स्त्री-पुरुष को समान वेतन दिलाने का अध्यादेश जारी Reseller गया जिसे बाद में संसद के द्वारा पुष्टि प्रदान कर दी गयी। राज्य सरकारों के द्वारा ग्रामीण जनता और समाज के अन्य कमजोर वर्गों का ऋण माफ करने के लिए आवश्यक कानूनों का निर्माण Reseller गया है। अभी 1976 में संसद के द्वारा ‘शहरी भूमि सीमाकरण कानून’ पारित Reseller गया है, जिसके According 4 श्रेणी के शहरों में शहरी भूमि की सीमा 500 वर्ग मीटर से 2000 वर्ग मीटर निश्चित कर गयी है। आशा की जानी चाहिए कि आगे चल कर इस कानून को अन्य शहरी क्षेत्रों में भी लागू Reseller जाएगा। वास्तव में गरीबों की खुशहाली के कार्यक्रम में Single नयी जान डाली गयी है। जिन लोगों के पास जमीन नहीं, उन्हें घर बनाने के लिए जमीन दिलाने, भूमि सुधार लागू करने और खेतीबाड़ी पर काम करने वालों की मजदूरी बढ़ाने के काम तेजी से आगे बढ़ाए जा रहे हैं।
नीति-निर्देशक तत्त्वों में निहित लक्ष्य को पूरा करने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है, परन्तु राज्य इस सम्बन्ध में अपने उत्तरदायित्व को भूला नहीं है और आशा की जा सकती है और आगे आने वाले वर्षों में इस उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए और अधिक तेजी से प्रयत्न किए जाएँगे।