मेवाड़ का History और मेवाड़ में गोहिल वंश का उत्थान
मेवाड़ का History और मेवाड़ में गोहिल वंश का उत्थान
अनुक्रम –
मेवाड़ का History Indian Customer संस्कृति तथा उसके विविध पक्षों की विकाSeven्मक गतिविधियों के संचालित करने की दृष्टि से भी अत्यधिक समृद्ध रहा है। मेवाड़ के History के राजनीतिक घटना चक्र के समानान्तर ही इस प्रदेश में संचालित होती रहने वाली सांस्कृतिक And कलात्मक गतिविधियों से यह स्पष्ट होता है कि सामान्य Reseller में Human सभ्यता और विशिष्ट Reseller में Indian Customer संस्कृति के विकास And संरक्षण की Humanीय चेष्टाएँ इस भू-भाग में प्राचीन काल से ही प्रारम्भ हो गयी थीं, जिसका प्रवाह वर्तमान समय तक चला आ रहा है।
सामान्यत: मेवाड़ का History विशिष्टता मध्ययुगीन भारत के राजनीतिक घटनाचक्र के सन्दर्भ में इस राज्य के Kingों, सैनिकों तथा आम जनता द्वारा निजी सुख-सुविधाओं का परित्याग कर अपनी स्वतंत्रता और मान-मर्यादा की रक्षा के लिए किये गये व्यक्तिगत तथा सामूहिक त्याग की दृष्टि से स्वीकार की जाती रही है। वर्तमान मेवाड़ क्षेत्र भिन्न-भिन्न समय में अलग-अलग नामों से जाना जाता रहा है। ईसा से पूर्व तीसरी शताब्दी के आस-पास इसे शिवि जनपद कहा जाता था। 9वीं-10वीं शताब्दी से प्राग्वट और मेवाड़ नामक तीन सभाओं का History प्राप्त होता है। किन्तु मेवाड़ नामक संज्ञा सर्वाधिक प्रचलित रही थी। मेवाड़ क्षेत्र वर्तमान समय में Indian Customer गणतंत्र के राजस्थान राज्य का उदयपुर सम्भाग कहलाता है।
मध्ययुगीन ऐतिहासिक सन्दर्भों में ‘मेवाड़’ से प्रसिद्ध भू-भाग का संस्कृतनिष्ठ Reseller ‘मेदपाट’ है। छठी शताब्दी और उसके बाद के ऐतिहासिक स्रोतों में मेवाड़ नाम से प्रसिद्ध भू-भाग में ‘मेद’ जाति की अधिक जनसंख्या रहने के कारण इस भू-भाग को संभवत: ‘मेवाड़’ अथवा ‘मेदपाट’ नाम से पुकारा जाने लगा। मेवाड़ अथवा मेदपाट संज्ञा का इस भू-भाग के लिए प्रयोग छठी शताब्दी से पूर्व के स्रोतों में उपलब्ध नहीं होता है, बल्कि पूर्व के स्रोतों में मेवाड़ प्रदेश के अलग-अलग भागों के अलग-अलग नाम मिलते हैं। मेवाड़ राज्य के चित्तौड़गढ़ And उसके निकटवर्ती भू-भाग को तीसरी शताब्दी में ‘मालव राज्य’ कहा जाता था। चित्तौड़ के किले से 7 मील किलोमीटर) विद्यमान हैं और उसको आज भी ‘नगरी’ कहकर पुकारा जाता हैं। मेवाड़ के भू-भाग में उपलब्ध होने वाले पुरातात्विक साक्ष्य इस तथ्य को प्रकट करते हैं कि लगभग Single लाख वर्ष पूर्व Human सभ्यता के प्रागैतिहासिक युग के प्राचीन पाषाणकाल के समय से ही इस क्षेत्र में Human विचरण करने लगा था।
उसके बाद प्रागैतिहासिक युग के अन्य उपभागों मध्य पाषाण-काल, ताम्रपाषाण काल, धातु युग तथा ऐतिहासिक युग के विभिन्न कालों में इस भू-भाग में रहने वाले Human समूहों ने प्रारम्भ में अपनी दैहिक अथवा कार्मिक Needओं की पूर्ति के लिए और बाद में अपनी मनोवैज्ञानिक And सौन्दर्य-बोध परक भावनाओं की तुष्टि के लिए, धार्मिक उत्साह, कला-प्रेम तथा दानशीलता से अनुप्राणित रहकर Indian Customer संस्कृति से सम्बद्ध प्रवृित्तयों-गतिविधियों को संचालित-सम्पादित कर प्रभूत मात्रा में ललित कला से सम्बद्ध कृतियों-Creationओं का सृजन Reseller था।
मेवाड़ में विकसित होने वाली ताम्र-पाषाणकालीन सभ्यता को ‘आहड़ संस्कृति’ के नाम से सम्बोधित Reseller गया है। इसका प्रमुख कारण यह है कि मेवाड़ की इस ताम्र पाषाणकालीन संस्कृति के अवशेषों की उपलब्धि First आहड़ में स्थित टीलों से हुई और पुरातत्व विज्ञान की संस्कृतियों के नामकरण की परम्परा में इसे आहड़ संस्कृति की संज्ञा दी गयी। आहड़ संस्कृति स्पष्टत: विश्व की अन्य नदी घाटी संस्कृति की तरह Single कृषि प्रधान संस्कृति थी। इस संस्कृति को विकसित करने वाले Human समुदाय निश्चित स्थान पर अपनी बस्तियाँ बसा कर पत्थर, मिट्टी मे पकाई गयी ईटो And लकड़ी व बांस से बनाये गए मकानों में रहते थे। वे अपने मकान पत्थर के आधारो पर मिट्टी में पत्थर व र्इंट चुनकर बनाते थे और अनाजों को भोज्य पदार्थ के Reseller में उपयोग में लाते थे। इस संस्कृति से सम्बद्ध लोग भैंस, भेड़, बकरी, कुत्ता, सुअर, गधा इत्यादि पशुओं को पालते थे।
आहड़ संस्कृति के लोग पर्याप्त Reseller से विकसित थे वे ताबा धातु से परिचित थे। जमीन से कच्चे खनिज के Reseller में तांबा निकालना, उसे भट्टियों में गलाकर साफ करना और शुद्ध तांबे के औजार-उपकरण बनाने की विधि से वे परिचित थे। मेवाड़ के प्रागैतिहासिक काल की संस्कृतियों के संदर्भ में यह तथ्य अत्यन्त आकर्षक है कि मेवाड़ की ताम्र-पाषाणकालीन संस्कृति से परिपूर्ण रहा है, जिससे Human समुदाय लोहे के औजारों-उपकरणों का प्रयोग करते थे। लेकिन लोहे का प्रयोग करने वाले समुदाय के सांस्कृतिक अवशेषों का पुरातात्विक विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि मेवाड़ के आहड़ क्षेत्र में पनपी ताम्र-पाषाणकालीन संस्कृति के अवसान के कई शताब्दियों बाद लौह-संस्कृति से सम्बद्ध समुदाय इन क्षेत्रों में बसे और उन्होंने अपनी संस्कृति का विकास Reseller। लेकिन इस क्षेत्र में ताम्र-पाषाणकालीन संस्कृति ही धीरे-धीरे लौह युग की संस्कृति में प्रविष्ट हुई।
मेवाड़ की प्रागैतिहासिक संस्कृतियों से सम्बद्ध पूर्व में प्रस्तुत व्याख्या के आधार पर यह स्वीकारा जाना कदापि उपयुक्त नहीं होगा कि मेवाड़ भू-क्षेत्र में ऐतिहासिक काल की Indian Customer सभ्यता का विकास बहुत बाद में दूसरी या तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से हुआ। यहाँ इस तथ्य को स्पष्टत: समझ लेना होगा कि भारत के अन्य भागों की तरह मेवाड़ क्षेत्र में भी उत्तर प्रागैतिहासिक ताम्रपाषाणयुगीन And लौह-युग की संस्कृतियां तथा ऐतिहासिक युग की संस्कृति कुछ शताब्दियों तक समानान्तर विकास करती रहीं। ईसा पूर्व छठी शताब्दी की ऐतिहासिक Creation-बोधायन धर्मसूत्र में इस तथ्य का स्पष्ट History उपलब्ध होता है कि भारत के विभिन्न भागों में आर्यों के प्रसार की समायावधि में आये कबीले मेवाड़ के भू-भाग से परिचित थे।
बोधायन धर्मसूत्र में ‘पियात्र पर्वत-शिखर’ का History आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा के सन्दर्भ में आया है। पुराण, रामायण, महाभारत में भी इस पर्वत-शिखर का History है तथा इस पर्वत-शिखर से ही बनास नदी के उद्गम का वर्णन हैं। चित्त्ाौडगढ़ से लगभग 11 किलोमीटर उत्तर की तरफ स्थित लोक परंपरा में नगरी नाम से विख्यात And ऐतिहासिक व पुराताित्त्वक स्रोतों में ‘मध्यमिका’ नाम से उल्लिखित Single विस्तृत नगर के भग्नावशेष संप्रति विद्यमान हैं। ये All प्रमाण स्पष्ट करते हैं कि मेवाड़ में ई. पूर्व की छठी शताब्दी के First से आर्य कबीलों का अधिवासन प्रारंभ हो गया था।
महाभारत में ‘मध्यमिका’ तथा मेवाड़ क्षेत्र के किसी श्रुतFight नामक King का History आया है। मेवाड़ लोक परम्परा में चित्तौड़ दुर्ग से पाण्डवों का सम्बन्ध होना तथा उनके द्वारा इस क्षेत्र में किसी दुर्ग के निर्माण की किंवदंती भी प्रचलित है। डॉ. डी.सी. सरकार की धारणा है कि अवंती के प्रद्योतों का मेवाड़ के किसी भाग पर आधिपत्य था और मौर्य वंश के शासन काल में मेवाड़ का प्रदेश उनके अधीन रहा था। इसी प्रकार कतिपय ऐतिहासिक साक्ष्यों में मेवाड़-क्षेत्र पर शुगों के प्रभुत्व And यूनानियों के आक्रमणों का सन्दर्भ भी मिलता है। उन Historyों के आधार पर विद्वानों के Single वर्ग का यह विचार है कि मेवाड़ पर शुंगों का शासन रहा और यूनानी आक्रमणकारी ने मेवाड़ पर शुंगों का शासन रहा और मिनाण्डर नामक यूनानी आक्रमणकारी ने मेवाड़ पर आक्रमण Reseller जिससे मेवाड़ के तत्कालीन King ने लोहा लिया।
Sevenवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत में उत्तरकालीन मौर्यों की शक्ति के उदय के साथ मध्यमिक नगरी और उससे सम्बद्ध राज्य भाग पर उत्तरकालीन मौर्यों का प्रभुत्व स्थापित हुआ इस मौर्य वंश का मेवाड़ में प्रभुता प्राप्त करने वाला पहला King चित्रांगद मोरी था जिसने पूर्व में निर्मित दुर्ग के भग्नावशेषों पर वर्तमान चित्तौड़ के दुर्ग का निर्माण करवाया। चित्तौड़ के किले से प्राप्त दो शिलालेखों के आधार पर स्पष्ट होता है कि मेवाड़ के इस भाग पर शासन करने वाले उत्तरकालीन मौर्यों में महेश्वर, भीम, भोज तथा मानमोरी नामक King प्रमुख थे। इनमें से मानमोरी ने चित्तौड़ दुर्ग में Single Ultra site का मंदिर, Single बावड़ी तथा मानसरोवर तालाब का निर्माण कराया था। मानमोरी द्वारा निर्मित वह मंदिर ही वर्तमान में कालिका देवी के मन्दिर के नाम से पहचाना जाता है। ई.सन् 754 के चित्तौड़ से प्राप्त शिलालेख में कुकडेश्वर नामक King का History है, किन्तु उसका मानमोरी से क्या संबंध था, यह निर्धारित नहीं हो पाया।
मेवाड़ में गुहिलों का उत्थान
मेवाड़ की वर्तमान राजवंश-परम्परा गुहिल से आरंभ होने के कारण गुहिलोत कहलाई। इसका सस्थापक गुहिल था। ऐसा प्रतीत होता है कि छठी शताब्दी के उत्त्ारार्द्ध में इस वंश की स्थापना हो गई थी। गुहिल अपने को Ultra siteवंशी मानते है और अपनी वंश-परम्परा अयोध्यापति रामचन्द्र के ज्येष्ठ पुत्र कुश के वंश से मानते है। सुमित्र की कुछ पीढ़ियों के बाद कनकसेन ने काठियावाड़ में वलभी साम्राज्य स्थापित Reseller जिस पर उसके वंश ने 524 ई. तक शासन Reseller। इसके बाद 568 ई. में मेवाड़ में इसी वंश का उक्त गुहादित्य या गुहिल नाम का King हुआ, जिसके नाम से उसका वंश ‘गुहिल वंश’ अथवा ‘गहलोत वंश’ कहलाया।
12वीं शताब्दी के उत्त्ारार्द्ध में करणसिंह के शासनकाल में यहां की आंतरिक शासन व्यवस्था में Single महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ जिससे मेवाड़ परिवार दो भिन्न शाखाओं में विभक्त हो गया-’रावल’ चित्तौड़ पर शासन करते रहे तो ‘राणा’ सीसोद गांव के जागीरदार बने। इस विभक्तीकरण का वंश पर प्रतिकूल प्रभाव रहा हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। यदि राजनीतिक प्रभाव की दृष्टि से देखा जाय तो ज्ञात होता है कि इसके बाद पड़ौसी क्षेत्रों से निरंतर Fight होते रहे जिससे सैनिक शक्ति का ह्रास व आर्थिक स्थिति का दयनीय होना स्वाभाविक ही था। अत: जब जैत्रसिंह के काल में 1222 ई. के लगभग इल्तुतमिश का आक्रमण हुआ तो मेवाड़ की राजधानी ‘नागदा’ पूर्णत: Destroy कर दी गई थी। इस प्रकार रावल Kingों के हाथ से चित्तौड़ का आधिपत्य निकल गया।
मेवाड़ में सिसोदिया वंश का आधिपत्य
1326 ई. के लगभग ‘सीसोद’ के राणा हमीर ने चित्तौड़ पर अपना अधिकार कर मेवाड़ को फिर से मुसलमानों से मुक्त करा लिया और यहीं से मेवाड़ में गुहिल वंश की ‘सिसोदिया राणा शाखा’ का आधिपत्य प्रभावी हुआ तथा मेवाड़ के राजस्थान में विलीनीकरण तक यहां पर सिसोदिया वंश का शासन था।
हमीर के शासनकाल से मेवाड़ का पुन: विस्तार प्रारंभ हुआ था जो उसके पुत्र क्षेत्रसिंह के काल में और अधिक पूर्णता को पहुँचा। क्षेत्रसिंह ने अजमेर, जहाजपुर व मांडलगढ़ को अपने अधीन Reseller। 15वीं शताब्दी में सबसे महत्वपूर्ण King राणा कुम्भा हुआ जिसने मालवा के महमूद खिलजी तथा गुजरात के कुतुबुद्दीन को पराजित Reseller। कुम्भा ने मेवाड़ की सीमा में वृद्धि कर अपने पैंतीस वर्षीय शासनकाल में कला, साहित्य And स्थापत्य के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति का मार्ग प्रशस्त Reseller और उसी के समय से मेवाड़ का गौरवमय युग प्रारम्भ होता है, उसमें उसके पौत्र संग्रामसिंह जो सांगा के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुआ, अपने शासनकाल में उसे और अधिक विकास की ओर बढ़ाया।
17वीं से 19वीं शताब्दी के मध्य Kingों का संक्षिप्त परिचय
महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.) के शासनकाल के बाद उसका पुत्र अमरसिंह (1597-1620 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसे उजड़ा हुआ प्रदेश और राज्य का खाली खजाना उत्त्ाराधिकार में प्राप्त हुए। जब 1615 ई. में मेवाड़-मुगल संधि हुई उस समय तक मेवाड़ के सामन्तों के अधिकार में निश्चित और स्थायी जागीरे थीं, उन्हें स्थानान्तरित करना महाराणा के लिए सम्भव नहीं हुआ। अत: यह कहना समीचीन होगा कि 17वीं शताब्दी में Single ओर तो राजपूताने की अन्य रियासतों के सामन्तों की शक्ति क्षीण हुई, वहीं मेवाड़ के सामन्त शक्ति सम्पन्न होने लगे थे।
महाराणा अमरसिंह की मृत्यु 26 जनवरी 1620 ई. में हुई। इसके बाद महाराणा कर्णसिंह (1620-1628 ई.) मेवाड़ की राज्य-गद्दी पर बैठा। महाराणा कर्णसिंह का राज्यकाल पूर्णReseller से शान्तिमय रहा तथा इस काल में मुगलों से महाराणा के संबंध भी सद्भावपूर्ण रहे। महाराणा कर्णसिंह के बाद महाराणा जगत्सिंह First (1628-1652 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। महाराण जगत्सिंह के काल में, महाराणा अमरसिंह के द्वितीय पुत्र सूरजमल के वरिष्ठ पुत्र सुजानसिंह और महाराणा जगत्सिंह में अनबन हो जाने से वह बादशाह शाहजहां की सेवा में चला गया। बादशाह ने 1631 ई. में सुजानसिंह को फूलिया का परगना प्रदान Reseller, जो मेवाड़ से अलग कर जब्त कर लिया गया था। सुजानसिंह ने बादशाह शाहजहां के नाम से इस परगने को आबाद कर शाहपुरा के नाम से कस्बा बसाया।
महाराणा जगत्सिंह की मृत्यु (10 अप्रैल, 1652 ई.) के साथ ही मेवाड़ का यह शान्ति-समृद्धि काल भी समाप्त प्राय हो गया। महाराणा राजसिंह First (1652-1680 ई.) सन् 1615 ई. की मेवाड़ मुगल सन्धि की शर्त के विरूद्ध चित्तौड़ के किले की मरम्मत, जिसे महाराणा जगत् सिंह पूरी न करवा सका था, उसे शीघ्रता से पूर्ण करवाने में लग गया।
औरंगजेब के साथ महाराणा राजसिंह के प्रारम्भिक मधुर संबंध स्थायी नहीं रह सकें किशनगढ़ के King मानसिंह की बहन चारूमति के साथ महाराणा का विवाह हो जाने से वह राजसिंह से नाराज हो गया।
झाड़ोल के पास नेनबाड़ा की लड़ाई में बेगूं का रावत मानसिंह, सलूम्बर का रावत रतनसिंह और पारसोली के रावत केसरींसिंह ने शाहजादे अकबर के सेनापति हसन अली खां को बुरी तरह Defeat Reseller।24 यह Fight महाराणा के जीवन के अंतिम क्षण तक चलता रहा और इस Fight के दौरान महाराणा राजसिंह का अक्टूबर 1680 ई. में देहान्त हो गया महाराणा जयसिंह (1680-1698 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। वह अपने पिता के समान योग्य, साहसी और कुशल नहीं था। अत: जब शाहजादे आजम ने महाराणा के चचेरे भाई श्यामसिंह को, जो उस समय शाही सेना में था, समझौते की बातचीत के लिए भेजा तो महाराणा सन्धि करने को तेयार हो गया। जून 1681 ई. में मुगल सम्राट और महाराणा जयसिंह के बीच सुलह हो गई जिसके परिणामस्वReseller मांडलपुर व बदनौर के परगने ‘‘जजिया कर’’ के चुकारे के Reseller में मुगल सम्राट को सौंपने पड़े। बनेड़ा की जागीर का मेवाड़ में Single विशिष्ट स्थान रहा है।
महाराणा जयसिंह के बाद महाराणा अमरसिंह द्वितीय (1698-1711 ई.) मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठा। इस महाराणा का राज्य-काल शांतिपूर्ण रहा, अत: महाराणा ने मेवाड़ की आंतरिक व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान दिया। महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने अपने सामन्तों को तीन श्रेणियों में विभाजित Reseller, जो आगे चलकर क्रमश: ‘सोलह’, ‘बत्तीस’ और ‘गोल’ के सरदार कहलाए। First श्रेणी के सामंतों को सामान्य Reseller से उमराव कहा जाता था। महाराणा अमरसिंह द्वितीय के काल में इनकी संख्या 15 थी। कालान्तर में इनकी संख्या बढ़ती गई।। इसी प्रकार महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने द्वितीय श्रेणी के सामंतों की संख्या 32 निश्चित की थी। अत: ये बत्तीस के सरदार कहलाए। तीसरी श्रेणी के सरदारों की संख्या 100 थीं।
अत: उन्हें ‘गोल’ के सरदार कहा जाता था। महाराणा ने इन All सामंतों को उनकी जागीरों का पक्का पट्टा प्रदान कर, उनके पट्टों के लिए अमरशाही रेख कायम की। सामंतों द्वारा दी जाने वाली सेवाएं तथा सामंतों की तलवार बंधाई आदि के नियम बनाये गये। महाराणा अमरसिंह ने सामंतों की जो व्यवस्था की थी, वह मेवाड़ मे जब तक सामंती प्रथा रही, उस समय तक सामान्यत: चलती रही।