पूंजी संCreation का Means, परिभाषा And सिद्धांत
पूंजी संCreation का Means And परिभाषा
Single व्यावसायिक संस्था में पूँजीकरण की राशि का निर्धारण करने के बाद पूँजी संCreation का निर्धारिण करना आवश्यक होता है। पूँजी संCreation का Means, पूँजीकरण राशि को, किन-किन प्रतिभूतियों द्वारा, किस-किस अनुपात में प्राप्त करने के निर्धारिण करने से होता है। पूँजी संCreation में पूँजी के विभिन्न साधनों का Single ऐसा अनुपात निर्धारित Reseller जाता है, जिससे वे कम्पनी को Single ऐसी विशिष्ट पूँजी-संCreation प्रदान करें जो कम्पनी की Needओं को पूरा करने में पूर्ण Reseller से सक्षम हो। पूँजी संCreation जिन प्रतिभूतियों द्वारा निर्धारित की जाती है उनमें प्रत्येक प्रतिभूति के अपने-अपने गुण And दोष होते हैं। किसी कम्पनी की पूँजी संCreation में किसी Single विशिष्ट प्रकार की प्रतिभूतियों का अधिक भाग होना आगे चलकर कम्पनी के लिए अधिक लाभदायक अथवा अधिक जोखिमपूर्ण हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि Single कम्पनी अपनी पूँजी संCreation में समता अंशों (Equilty Shares) का ही प्रयोग करे तथा ऋण पूँजी का प्रयोग नहीं करे तो ऐसी कम्पनी ‘समता पर व्यापार’ (Trading on Equity) के लाभ से वंचित रह जाएगी तथा ऐसी कम्पनी अपने अंशधारियों या स्वामियों के लिए अधिकतम लाभ-अर्जित करने के उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल नहीं होगी। इसके विपरीत Single कम्पनी अपनी पूँजी संCreation में समता अंशों को कम तथा ऋण पूँजी को अधिक महत्त्व देती है तथा कम्पनी की आय में अत्यधिक उतार-चढ़ाव आते हैं तो यह माना जाएगा कि इस प्रकार की कम्पनी अपने ऊपर बहुत अधिक जोखिम ले रही है। इस प्रकार की पूँजी संCreation को पूँजी का उच्च गीयरिंग कहते हैं। यह पूँजी-संCreation सम्पन्नता के वर्षों में समता अंशधारियों की आय को अत्यधिक बढ़ा देता है, परन्तु विपन्नता के वर्षों में यह न केवल समता अंशधारियों की आय को बहुत घटा देती है बल्कि यह कम्पनी के ऊपर बड़ी जोखिम उत्पन्न कर देती है, क्योंकि ऐसे वर्षों में कम्पनी पूर्वाधिकार अंशों तथा ऋण-पत्रों पर देय निश्चित भार को वहन करने में असमर्थ होती है। अत: कम्पनी की पूँजी संCreation का निर्धारिण अत्यधिक सोच-समझ कर करना चाहिए। किसी आदर्श पूँजी संCreation की कल्पना करना कठिन है, जिसे All कम्पनियों And व्यवसायों में समान Reseller से लागू Reseller जा सके। अत: प्रत्येक व्यक्तिगत स्थिति में प्रत्येक कम्पनी के लिए उसकी विशिष्ट Needओं के According पूँजी संCreation का निर्धारण करना चाहिए।
कुछ लेखक पूँजीकरण And पूँजी संCreation दोनों को Single ही Means में प्रयुक्त करते हैं, जो गलत है। इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है। जहाँ पूँजीकरण का तात्पर्य संस्था के लिए आवश्यक पूँजी की मात्रा का निर्धारण करना होता है, वहाँ पूँजी-संCreation का तात्पर्य पूँजी के स्वReseller का निर्धारण करना होता है पूँजीकरण में यह निर्धारित Reseller जाता है कि संस्था के लिए कितनी पूँजी प्राप्त की जाय? पूँजी-संCreation में यह निर्धारित Reseller जाता है कि यह पूँजी की राशि किन-किन प्रतिभूतियों द्वारा किस अनुपात में प्राप्त की जाय?
गेस्टनबर्ग ने इन दोनों के भेद को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “ पूँजीेकरण Single निगम की स्वामी पूँजी तथा ऋण पूँजी जो इसके दीर्घकालीन ऋण भार द्वारा व्यक्त होती है, के बराबर होती है। पूँजी-संCreation उन प्रतिभूतियों के प्रकार को व्यक्त करता है, जिनसे पूँजीकरण का निर्माण होता है।”
साधारणतया पूँजीकरण And पूँजी-सरंचना कीक Need (i) संस्था के संगठन के समय, या (ii) संस्था के विकास या अन्य कार्य के लिए अतिरिक्त पूँजी की आवश्कता के समय, या (iii) अन्य संस्था के साथ Singleीकरण या विलीनीकरण के समय, या (iv) पुन: पूँजीकरण (Recapitalisation), पुन:समायोजन (Readjustment) या पुन:संगठन (Reorganisation) समय महसूस की जाती है। इन All परिस्थितियों के वित्त्ाीय प्रबन्धक के सामने दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं- First कितनी मात्रा में प्रतिभूतियों का निर्गमन Reseller जाये तथा किस प्रकार की प्रतिभूतियों का निर्गमन Reseller जाए? कितनी मात्रा में प्रतिभूतियों का निर्गमन Reseller जाए-का सम्बन्ध पूँजीेकरण से होता है तथा किस प्रकार की प्रतिभूतियों का निर्गमन Reseller जाए-का सम्बन्ध पूँजी-संCreation से होता है।
वैस्टन And ब्राइघम के According, “पूँजी संCreation किसी फर्म का स्थायी वित्त प्रबन्धन होता है, जो दीर्घकालीन ऋणों, पूर्वाधिकारी अंशों तथा शुद्ध मूल्य से प्रदर्शित होता है।”
आर.एच. वैरूल के According, “पूँजी संCreation का उपयोग प्राय: किसी व्यावसायिक संस्था में विनियोजित कोषों के दीर्घकालीन स्रोतों को दर्शाने के लिए Reseller जाता है।”
अत: पूँजी संCreation में प्रमुखत: विभिन्न प्रतिभूतियों के पारस्परिक अनुपात को निर्धारित Reseller जाता है Meansात् यह निर्णय लिया जाता है कि कुल आवश्यक पूँजी का कितना भाग अंशों से तथा कितना भाग ऋण-पत्रों से Singleत्रित Reseller जाए। अंश पूँजी में भी कितना भाग समता या साधारण अंशों से तथा कितना भाग पूर्वाधिकारी अंशों से Singleत्रित Reseller जाए। पूर्वाधिकारी अंश तथा ऋण पूँजी कम्पनी की आय पर Single निश्चित भार उत्पन्न करते है, अत: यह स्थायी लागत वाली प्रतिभूतियाँ (Fixed cost bearing securities) कहलाती है। दूसरी तरफ साधारण अंशों पर लाभांश घोषित करना सदैव आवश्यक नहीं होता है तथा लाभांश कितना घोषित Reseller जाए यह लाभों पर तथा संचालकों की नीति पर निर्भर करता है। साधारण अंशों पर लाभांश कम या अधिक घोषित Reseller जा सकता है, अत: ये परिवर्तनशील लागत प्रतिभूतियाँ (Variable Cost Securities) कहलाती हैं। संस्था को उपर्युक्त दोनों ही प्रकार की प्रतिभूतियों के मध्य सन्तुलन स्थापित करना आवश्यक होता है, क्योंकि प्रतिभूति सन्तुलन (Security mix) का संस्था की दीर्घकालीन वित्त्ाीय सुदृढ़ता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि कोर्इ संस्था इस सन्तुलन को कायम नहीं रख पाती है तो वित्त्ाीय ढाँचा असन्तुलित हो जाएगा जो संस्था के लिए हानिकारण हो सकता है।
पूँजी संCreation के सिद्धान्त
पूंजी ढांचा, पूंजी की लागत और कम्पनी के मूल्यांकन के बीच सम्बन्ध को नियंत्रित करने वाले अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन Reseller गया है। कम्पनी के मूल और पूंजी की कुल लागत के बीच जो सम्बन्ध होता है जबकि अन्य मतानुसार दोनों में कोर्इ सम्बन्ध नहीं होता है। किसी संस्था के कुल पूंजीकरण में ऋण And समता पूंजी का मिश्रण संस्था की पूंजी की लागत And उसके कुल मूल्य को प्रभावित करता है। किसी संस्था का कुल मूल्य संभावित अर्जनों And पूँजी की लागत पर निर्भर करता है। अत: किसी संस्था की पूंजी संCreation के सम्बन्ध में निर्णय लेने से पूर्व पूंजी की लागत And उसका संस्था के मूल्य पर पड़ने वाले प्रभावों का ज्ञान होना आवश्यक है। इस दृष्टि से पूंजी संCreation के सिद्धान्त किसी संस्था की पूंजी संCreation में पूंजी की लागत And उसका संस्था के मूल्य पर पड़ने वाले प्रभावों को बताते हैं। पूंजी संCreation के चार प्रमुख सिद्धान्त हैं।
1. शुद्ध आय सिद्धान्त
यह उपागम डूरण्ड के द्वारा दिया गया था। इस सिद्धान्त के According पूंजी की लागत और संस्था के मूल्य में सम्बन्ध होता है। Meansात पूंजी संCreation के परिवर्तन से संस्था की पूंजी की लागत And उसका कुल मूल्य प्रभावित होता है। इस सिद्धान्त के According Single संस्था को अपने पूंजी संCreation में ऋण पूंजी का अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिये। ऐसा करने से संस्था की पूंजी की लागत न्यूनतम हो जाती है और समता अंश पूंजी पर प्रत्याय की दर में वृद्धि हो जाती है। यह सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-
- पूंजी संCreation में ऋण पूंजी में वृद्धि होने पर समता अंशधारियों की दृष्टि से जोखिम धारणा में कोर्इ परिवर्तन नहीं आता है।
- इस उपागम के According अनुकूलतम पूंजी संCreation, पूंजी की लागत न्यूनतम और संस्था का कुल मूल्य अधिकतम हो इसी मान्यता पर आधारित है।
- समता पूंजी की लागत ऋण पूंजी की लागत से अधिक होती है।
- आयकर पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
शुद्ध आय सिद्धान्त के According संस्था का कुल मूल्य समता अंशों के बाजार मूल्य And ऋण के बाजार मूल्यों के योग के बराबर होता है।
2. शुद्ध परिचालन आय सिद्धान्त
शुद्ध परिचालन आय सिद्धान्त का प्रतिपादन भी डेविड (Devid Durand) द्वारा ही Reseller गया था। परन्तु यह सिद्धान्त शुद्ध आय यसिद्धान्त से Singleदम विपरीत है। इस सिद्धान्त के According पूंजी की लागत और कम्पनी के मध्य किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता है Meansात पूंजी संCreation में परिवर्तन से कम्पनी के मूल्य में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। कम्पनी की पूंजी संCreation में जब ऋण पूंजी का अनुपात बढ़ाया जाता है तब पूंजी की कुल लागत में कमी होती है क्योंकि ऋण वित्त का सबसे सस्ता साधन होता है। परन्तु इसके साथ ही ऋा पूंजी में वृद्धि होने से ब्याज का भार भी बढ़ता जाता है। जिससे वृद्धि हो जाती है। और वे अधिक प्रत्याय की आशा कम्पनी में करने लगते हैं। इसके परिणामस्वReseller समता लागत में जो कुछ भी कमी आती है, वह समता अंश पूंजी में जोखिम में वृद्धि के कारण समाप्त हो जाती है। और पूंजी संCreation में परिवर्तन का कम्पनी के मूल्य पर पड़ने वाला प्रभाव शून्य हो जाता है। इस प्रकार शुद्ध परिचालन आय सिद्धान्त यह बताता है कि कोर्इ पूंजी संCreation अनुकूलतम नहीं होती है जो कम्पनी की पूंजी लागत And कम्पनी के मूल्य को प्रभावित करती हो। शुद्ध परिचालन आय का सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-
- ऋण पूंजी की लागत स्थिर रहती है।
- निगम कर का अस्तित्व नहीं होता है।
- संस्था की कुल पूंजी को समता पूंजी And ऋण पूंजी में विभाजित करना महत्वहीन है क्योंकि विनियोक्ता संस्था की कुल आय का पूंजीकरण करके संस्था का मूल्य ज्ञात करता है।
- पूंजी संCreation में ऋण पूंजी के अनुपात में वृद्धि होने से अंशधारियों की जोखिम धारणा में परिवर्तन होता है।
- पूंजी की कुल लागत ऋण And समता मिश्रण के All स्तरों पर Single समान रहती है।
इस सिद्धान्त के According संस्था का कुल मूल्य शुद्ध परिचालन आय को समग्र पूंजीकरण दर से पूंजीकृत करके ज्ञात Reseller जाता है।
3. मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धानत या एम.एम. सिद्धान्त
मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धान्त, शुद्ध परिचालन आय सिद्धान्त के समान ही है और इस सिद्धान्त के द्वारा प्रस्तुत दृष्टिकोण का समर्थन करता है। इन दोनों ही सिद्धान्तों के According पूंजी संCreation में परिवर्तन का संस्था की समस्त पूंजी लागत And संस्था के कुल मूल्य पर कोर्इ प्रभाव नहीं पड़ता है परन्तु एम.एम.सिद्धान्त के अन्तर्गत प्रयुक्त कार्य प्रणाली, शुद्ध परिचालन आय सिद्धान्त से भिन्न है। जहाँ शुद्ध संचालन आय सिद्धान्त संस्था के मूल्य पर पूंजी संCreation की अप्रासंगिकता के पक्ष में कोर्इ संचालनात्मक औचित्य प्रस्तुत नहीं करता है, वहीं एम.एम.सिद्धान्त इसके लिए व्यावहारिक औचित्य प्रस्तुत करता है और इसको सिद्ध करने के लिये एम.एम. सिद्धान्त इसके लिए व्यावहारिक औचित्य प्रस्तुत करता है। और इसको सिद्ध करने के लिए एम. एम. सिद्धान्त में अन्तरपणन (Arbitrage process) नीति का प्रयोग Reseller गया है-
i. निगम कर की अनुपस्थिति में मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धान्त –निगम करों की अनुपस्थिति में एस. एम.सिद्धान्त शुद्ध परिचालन आय सिद्धान्त के समान होता है इस सिद्धान्त के According संस्था की पूंजी संCreation में परिवर्तन में संस्था की समस्त पूंजी लागत And संस्था का कुल मूल्य अप्रभावित रहता है। इसका कारण यह है कि किसी संस्था की पूंजी संCreation में ऋण पूंजी का Single निश्चित सीमा से अधिक प्रयोग करने पर संस्था की वित्तीय जोखिम बढ़ जाती है जिससे ऋण पूंजी की लागत बढ़ती है व समता पूंजी की लागत घटती है और इस प्रकार ऋण व समता पूंजी की लागतों का पुन: सन्तुलन हो जाता है। यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि संस्था के कुल मूल्य निर्धारण में संस्था की परिचालन आय प्रमुख तत्व है। इस सिद्धान्त के According पूंजी संCreation के अतिरिक्त अन्य दृष्टि से समान दो संस्थाओं की समस्त पूंजी लागत And संस्था का मूल्य अन्तरपणन प्रक्रिया (arbitrage process) के कारण अलग-अलग नहीं हो सकते हैं। अन्तरपणन से आशय किसी वस्तु को कम मूल्य वाले बाजार से खरीदने व अधिक मूल्य वाले बाजार में बेचने की क्रिया से है। यह अन्तरपणन की प्रक्रिया वस्तु बाजार से सम्बन्धित है। इस सिद्धान्त में एम. एम. अपने तर्क को इसी आधार पर उचित कहते हैं।
एम.एम. सिद्धान्त के According यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रहेगी क्योंकि अन्तरपणन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जायेगी और दोनों कम्पनियों का मूल्य समान स्तर पर आ जायेगा। मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धान्त इन मान्यताओं पर आधारित हैं –
- व्यक्तिगत विनियोक्ताओं को भी बिना किसी बाधा के उन्हीं शर्तों पर ऋण प्राप्त होता है जिन शर्तों पर किसी संस्था को प्राप्त होता है।
- पूंजी बाजार में प्रतिभूतियों के क्रय-विक्रय करने पर कोर्इ लागत नहीं आती है और विनियोक्ता समान शर्तों पर ही ऋण ले सकता है या ऋण दे सकता है।
- संस्था का मूल्यांकन करने के लिए All विनियोजन परिचालन लाभ के सम्बन्ध में समान प्रत्याशा रखते हैं।
- पूंजी बाजार पूर्ण है Meansात विनियोजक प्रतिभूतियों को ऋण And विक्रय करने के लिए स्वतंत्र होते हैं । विवेकशील विनियोजकों को All प्रकार की सूचनायें समान Reseller से उपलब्ध होती है।
- संस्था अपने समस्त लाभों का वितरण अंशधारियों को कर देती है Meansात संस्था का लाभाश भुगतान अनुपात 100 प्रतिशत है, कोर्इ प्रतिधारित आय नहीं है।
- संस्था को कोर्इ निगम कर का भुगतान नहीं करता।
- All संस्थाओं को सजातीय जोखिम वर्गों (Homogenous Risk Class) में विभाजित Reseller जा सकता है तथा प्रत्येक वर्ग में वर्गीकृत की गयी संस्था में व्यापारिक जोखिम का स्तर समान होता है।
ii. निगम कर की विद्यमानता में मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धान्त –मोदीगिलयानी व मिलर का यह सिद्धान्त है कि संस्था की पूंजी संCreation में परिवर्तन से संस्था की समस्त पूंजी लागत And संस्था का कुल मूल्य अप्रभावित रहता है, निगम कर की विद्यमानता में सही नहीं है। व्यावसायिक जगत में निगम कर Single वास्तविकता है। अत: वर्ष 1993 से उन्होंने अपनी मूल अवधारणा में संशोधन करते हुए यह स्वीकार Reseller कि कर निर्धारण के उद्देश्य से ब्याज की कटौती योग्य व्यय मानने से ऋण पूंजी के प्रयोग की लागत कम हो जाती है। अत: यदि कोर्इ संस्था अपनी पूंजी संCreation में ऋण पूंजी का प्रयोग करती है तो उस संस्था की समस्त पूंजी लागत कम हो जाती है तथा संस्था का मूल्य बढ़ जाता है इस प्रकार उन्होंने स्वीकार Reseller कि उत्तोलक (Levered) वाली संस्था का कुल मूल्य बिना उत्तोलक वाली (Unlevered) संस्था के कुल मूल्य से अधिक होगा निगम करों की विद्यमानता में किसी संस्था के कुल मूल्य की गणना इस प्रकार की जाती है –
Value of Levered Firm (VL) : VL = Vu + D x T
Value of Unlevered Firm (Vu)
here VL = Value of levered Firm
Vu = Values of Unlevered Firm
D = Amount of Debt
T = Tax rate applicable to companies
EBIT = Earnings before Interest and
Tax Ke = Equity capitalization rate
मोदीगिलयानी व मिलर सिद्धान्त की सीमाएँ –
- निगम कर की अनुपस्थिति –इस सिद्धान्त की सीमा यह है कि इसमें निगम कर को ध्यान में नहीं रखा जाता है। ऋणपत्रों पर देय ब्याज कर के लिये कटौती योग्य व्यय है जबकि समता अंशों पर भुगतान Reseller गया लाभांश कर के लिये कटौती योग्य नहीं होता है। ऐसे स्थिति में लीवर्ड कम्पनी अपने विनियोजनाओं को अनलीबर्ड कम्पनी की तुलना में अधिक प्रत्याय दर से भुगतान करते हैं। इसके फलस्वReseller लीवर्ड कम्पनी का बाजार मूल्य अनलीवर्ड कम्पनी से सदैव अधिक होता है।
- कारोबार लागत की अनुपस्थिति – एम.एम. सिद्धान्त के According कारोबार Meansात क्षतिपूर्तियों के लेन-देन की कोर्इ लागत नहीं होती है लेकिन वर्तमान व्यावसायिक जगत में यह सम्भव नहीं है प्रतिभूतियों के लेन देन की लागत होती है। व्ययों के कारण प्रतिपूर्तियों के विक्रय पर प्राप्त शुद्ध राशि वास्तविक राशि से कम हो जाती है। इस प्रकार विनियोग योग्य राशि के कम हो जाने के कारण अन्तरपणन प्रक्रिया भी दूषित हो सकती है।
- जोखिम तत्व – यह सिद्धान्त इस विचारधारा पर आधारित है कि Single कम्पनी व व्यक्तिगत विनियोक्ता बाह्य स्रोतों से Single निश्चित राशि Single ही दर पर प्राप्त कर सकते हैं लेकिन व्यवहार में जोखिम तत्व से भी बहुत भिन्नता होती है। अंशधारी के Reseller में Single विनियोक्ता का दायित्व उसके द्वारा धारित अंशों के अनुपात तक ही सीमित होता है परन्तु व्यक्तिगत ऋण की दशा में उसका दायित्व असीमित होता है।
- सस्थागत प्रतिबंध – एम.एम. सिद्धान्त अन्तरपणन प्रक्रिया के सफल संचालन पर आधारित है परन्तु अनलीवर्ड कम्पनी से लीवर्ड कम्पनी में परिवर्तन All विनियोक्ताओं के लिए सम्भव नहीं होता है। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत लीवरेज निगम लीवरेज का पूर्ण स्थानापन्न नहीं हो सकता जो कि अन्तरपणन प्रक्रिया के लिये आवश्यक है।
4. परम्परागत सिद्धान्त-
परम्परागत सिद्धान्त शुद्ध आय सिद्धान्त And शुद्ध परिचालन सिद्धान्त के बीच का सिद्धान्त है इस कारण इसे मध्यवर्ती सिद्धान्त भी कहते हैं। जहाँ शुद्ध आय सिद्धान्त यह कहता है कि पूंजी संCreation में ऋण का प्रयोग संस्था के मूल्य को बढ़ाता है और पूंजी की लागत कम करता है, वहीं शुद्ध परिचालन आय सिद्धान्त यह कहता है कि ऋण का प्रयोग संस्था के मूल्य और पूंजी की संयुक्त लागत को प्रभावित नहीं करता है और पूंजी संCreation निर्णय का कोर्इ औचित्य नहीं है। परम्परागत सिद्धान्त में इन दोनों विचारध् ााराओं की अनेक विशेषतायें समाहित हैं ऋण पूंजी की लागत समता पूंजी की लागत की तुलना से कम होती है। इस सिद्धान्त के According Single संस्था अपनी पूंजी संCreation में Single सीमा तक ऋण पूंजी में वृद्धि करके अपने समस्त पूंजी की लागत को कम कर सकती है परन्तु पूंजी संCreation में Single सीमा से अधिक ऋण बढ़ाने पर संस्था की समस्त पूंजी लागत में वृद्धि होती है And संस्था का कुल मूल्य कम हो जाता है। अत: इस सिद्धान्त के According ऋण पूंजी And समता पूंजी के विवेकपूर्ण मिश्रण द्वारा Single संस्था अपनी समस्त पूंजी की लागत को कम करके अपने कुल मूल्य को बढ़ा सकती है।
इस प्रकार यह सिद्धान्त संस्था के अन्दर अनुकूलतम पूंजी संCreation की अवधारणा को स्वीकार करता है। इस सिद्धान्त के According किसी संस्था की पूंजी संCreation में परिवर्तन का पूंजी की लागत And कुल मूल्य पर पड़ने वाले प्रभाव को निम्न तीन चरणों से विभाजित करके स्पष्ट Reseller जा सकता है।