पंच प्रणाली व पंचायतों का स्वReseller
पंच परमेश्वर प्रणाली
प्राचीन काल में पंचायतों का स्वReseller कुछ और था। यद्यपि इन संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा नही प्राप्त था लेकिन गांवों से जुड़े विकास व न्याय सम्बन्धित निर्णयों के लिए ये संस्थाएं पूर्ण Reseller से जिम्मेदार थीं। प्राचीन काल में गांवों में पंच परमेश्वर की प्रणाली मौजूद थी। गांव में सर्वAgreeि से चुने गये पाँच गणमान्य व बुद्धिमान व्यक्तियों को गांव में न्याय व्यवस्था बनाने व गांव के विकास हेतु निर्णय लेने का अधिकार था। उन्हें तो पंच परमेश्वर तक कहा जाता था। पंच परमेश्वर द्वारा न्याय को सरल और सुलभ बनाने की प्रथा काफी मजबूत थी। उस समय ये पंच Single संस्था के Reseller में कार्य करते थे। गांव के झगड़े, गांव की व्यवस्थायें सुधारना जैसे मुख्य कार्य पंच परमेश्वर संस्था Reseller करती थी। उसके कायदे कानून लिखित नहीं होते थे फिर भी उनका प्रभाव समाज पर ज्यादा होता था। पंचों के फैसले के खिलाफ जाने की कोर्इ सोच भी नही सकता था। पंचों का सम्मान बहुत था व उनके पास समाज का भरोसा और ताकत भी थी। लोग पंचों के प्रति बड़ा विश्वास रखते थे और उनका निर्णय सहज स्वीकार कर लेते थे। पंच परमेश्वर भी बिना किसी पक्षपात के कोर्इ निर्णय Reseller करती थी। मंश्ु ाी प्रेमचन्द ने अपनी कहानी पंच परमेश्वर द्वारा प्राचीन काल में स्थापित इस पंच प्रणाली को काफी सरल तरीके से समझाया है। प्राचीन काल में जातिगत व कबाइली पंचायतों का भी जिक्र भी मिलता है। इन पंचायतों के प्रमुख गांव के विद्वान व कबीले के मुखिया हुआ करते थे। इन पंचायतों में कोर्इ भी निर्णय लेने हेतु तब तक विचार विमर्श Reseller जाता था जब तक कि सर्वAgreeि से निर्णय न हो जाये।
स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के Reseller में पंचायत व्यवस्था
King-महाKing काल में स्थानीय स्वशासन को काफी महत्व दिया गया। उनके द्वारा भी जनता को सत्ता सांपै ने की प्रथा को अपनाया गया। भारत जसै े विशाल देश को Single केन्द्र से शासित करना Kingओं व सम्राटों के लिए सम्भव नहीं था। अत: राज्य को सूबों, जनपद, ग्राम समितियों अथवा ग्राम सभाओं में बांटा गया। वेदों, बौद्ध ग्रन्थों, जातक कथाओं, उपनिषदों आदि में इस व्यवस्था के Reseller में पंचायतों के आस्तित्व के पूर्ण साक्ष्य मिलते हैंं। मनुस्मृति तथा महाभारत के शांति पर्व में ग्राम सभाओं का History है। रामायण में इसका वर्णन जनपदों के नाम से आता है। महाभारत काल में भी इन संस्थानों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। वैदिक कालीन तथा उत्तर वैदिक कालीन History के अवलोकन में यह बात स्पष्ट हो गर्इ है कि प्राचीन भारत का प्रत्येक ग्राम Single छोटा सा स्वायत्त राज्य था। इस प्रकार के कर्इ छोटे-छोटे गांवों छोटे-छोटे प्रादेशिक संघ मिलकर बड़े संघ बन जाते थे। संघ पूर्णत: स्वावलम्बी थे तथा Single-Second से बड़ी अच्छी तरह जुड़े हुए तथा सम्बन्धित थे। कौटिल्य के Meansशास्त्र में भी गांव के छोटे छोटे गणराज्य की बात कही गर्इ है। सर चाल्र्स मेटकाफ ने तो पंचायतों के लिये गांव के छोटे छोटे गणतन्त्र कहा था जो स्वयं में आत्मनिर्भर थे। बौद्ध व मौर्य काल के समय पंचायतों के आस्तित्व की बात कही गर्इ है। बौद्ध काल के संघों की कार्य पद्धति ग्राम राज्य की प्रथा को दर्शाती है। बौद्ध संघों के शासन की प्रणाली वस्तुत: भारत की ग्राम पंचायतों तथा ग्राम संघों से ही ली गर्इ थी। गुप्त काल में भी ग्राम समितियां पंचायतों के Reseller में कार्य करती थीं। चन्द्रगुप्त के दरबार में रहने वाले यूनानी राजदूत मैगस्थनीज के वृतान्त से उसके बारे मं काफी सामग्री मिलती है। मैगस्थनीज के वृतान्त से उस समय के नगर प्रशासन तथा ग्राम प्रशासन पर खासा प्रकाश पड़ता है। नगरों का प्रशासन भी पंचायती प्रणाली से ही होता था और पाटलिपुत्र का प्रशासन उसकी सफलता का सूचक है। मैगस्थनीज के According नगर प्रशासन भी ग्राम प्रशासन की भांति ही होता था। नगर का शासन Single निर्वाचित संस्था के हाथ में होता था जिसमें 30 सदस्य होते थे। सदस्य 6 समितियों में विभक्त होते थे। प्रत्येक समिति अलग-अलग विषयों का प्रबन्धन करती थी। कुछ विषय अवष्य ऐसे थे जो सीधी राजकीय नियंत्रण में होते थे।
प्राचीन काल में King लोग महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय इन पंचायतों से पूर्ण विचार विमर्श करते थे। स्थानीय स्वशासन की ये संस्थाएं स्थानीय स्तर पर अपना शासन खुद चलाती थी। लोग अपने विकास के बारे में खुद सोचते थे, अपनी समस्यायें स्वयं हल करते थे And अपने निर्णय स्वयं लेते थे। वास्तव में जिस स्वशासन की बात हम आज कर रहे हैं, असली स्वशासन वही था। यह कह सकते हैं कि हमारे गांव का काम गांव मे और गांव का राज गांव मे था। पंचायत हमारे गांव समाज की ताकत थी। ग्रामों के इस संगठनों की सफलता का रहस्य केवल यह था कि ग्रामीण अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों की अधिक चिंता करते थे। इस तरह भारत के ग्रामों के संगठन की परम्परा उत्पन्न हुर्इ, पनपी ओर इसमें दीर्घकाल तक सफलता से देश के ग्रामीणों को समृद्ध, सुसम्पन्न तथा आत्मनिर्भर बनाया। पंचायतों के कारण ही काफी समय तक विदेशी अपना आर्थिक प्रभुत्व जमाने में असमर्थ रहे।
मध्य काल में पंचायतों के विकास पर खास ध्यान नहीं दिया गया। इस दौरान समय-समय पर विदेषियों के आक्रमण भारत में हुए। मुगलों के भारत में आधिपत्य के साथ ही शासन प्रणाली में नकारात्मक बदलाव आये। लोगों की अपनी बनार्इ हुर्इ व्यवस्थाएं चरमराकर धराशायी हो गर्इ। समस्त सत्ता व शक्ति बादशाह व उसके खास कर्मचारियों के हाथों में केन्द्रित हो गयी। यद्यापि मुगल बादशाह अकबर द्वारा स्थानीय स्वशासन को महत्व दिया गया और उस समय ग्राम स्तरीय समस्त कार्य पंचायतों द्वारा ही Reseller जाता था। लेकिन अन्य “ाासकों के शासनकाल में पंचायत व्यवस्था का धीरे-धीरे विघटन का दौर शुरू हुआ, जो ब्रिटिश काल के दौरान भी अंग्रेजों की केन्द्रीकरण की नीति के कारण चलता रहा। पंच-परमेश्वर प्रथा की अवहेलना से पंचायतों व स्थानीय स्वशासन को गहरा झटका लगा। जिसके परिणाम स्वReseller जो छोटे-छोटे विवाद First गांव में ही सुलझ जाया करते थे अब वह दबाये जाने लगे व सदियों से चली आ रही स्थानीय स्तर पर विवाद निपटाने की प्रथा का स्थान कोर्ट कचहरी ने लेना शुरू Reseller। जिन प्राकृतिक संसाधनों की Safty व उपयोग गांव वाले स्वयं करते थे वे सब अंग्रेजी शासन के अन्र्तगत आ गये और उनका प्रबन्धन भी सरकार के हाथों चला गया। स्थानीय लोगों के अधिकार समाप्त हो गये। कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि स्थानीय स्वशासन की परम्परा प्राचीन काल में काफी मजबूत थी। स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं जन समुदाय की आवाज हुआ करती थी। वर्तमान की पंचायत व्यवस्था का मूल आधार हमारी पुरानी सामुदायिक व्यवस्था ही है। यद्यपि मध्यकाल व ब्रिटिश काल मे पंचायती राज व्यवस्था लडखड़ा गर्इ थी लेकिन भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात स्थानीय स्वशासन को मजबूत बनाने के लिए पुन: प्रयास शुरू हुए और पंचायती राज व्यवस्था भारत मे पुन: स्थापित की गर्इ ।
पंच-परमेश्वर (कहानी) मुन्शी प्रेमचन्द
जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। Single को Second पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गये थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खान-पान का व्यवहार था, न धर्म का नाता, केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूल मंत्र भी यही है। … और पढ़ें