न्याय दर्शन क्या है? –

न्याय दर्शन क्या है?

By Bandey

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Indian Customer दर्शन के प्राणस्वReseller न्यायशास्त्र का दूसरा नाम प्रमाणशास्त्र भी है। जिस प्रकार साहित्य आदि अन्य शास्त्रों के ज्ञान में व्याकरण की अपेक्षा है, उसी प्रकार अन्य दर्शनशास्त्र के ज्ञान में न्याय की अपेक्षा है। सम्भवत: इसी कारण लघुकौमुदी तथा तर्क संग्रह को द्वार-ग्रन्थ की संज्ञा दी गयी है, क्योंकि इन दोनों के बिना संस्कृत वाड्ंमय में प्रवेश असम्भव है। न्याय दर्शन के महत्व को स्पष्ट करते हुए स्वयं भाष्यकार वात्स्यायन कहते हैं आन्वीक्षिकी (न्याय शास्त्र) सम्र्पूण विद्याओं का प्रकाशक, समस्त कर्मों का साधक और समग्र धर्मों का आश्रम है। यथा-

प्रदीप: सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम्।


आश्रम: सर्वधर्माणां सेयमान्वीक्षिकी मता।।

किसी कवि ने अक्षपाद (गौतम) की आन्वीक्षिकी (न्याय शास्त्र) को तृतीय नेत्र की उपलब्धि माना है। Meansात् इसके ज्ञान से Single नयी ज्याति प्राप्त होती है। स्पष्ट है कि न्याय का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। दर्शन के किसी भी क्षेत्र में न्याय के बिना गति नहीं हो सकती’, Meansात् न्याय बोध से All शास्त्रों में सरलता पूर्वक प्रवेश हो जाता है।

न्याय शास्त्र का History-तर्कविद्या का श्री गणेश इस देश में कब से हुआ इसे निश्चित Reseller से नहीं कहा जा सकता। Indian Customer दर्शन के परिशीलन से पता चलता है कि यह अत्यन्त प्राचीन शास्त्र है। प्रसिद्व Fourteen विद्याओं में न्याय शास्त्र को श्री याज्ञवल्क्यजी ने दूसरा ही स्थान दिया है। महर्षि मनु ने यहॉ तक बतलाया है कि धर्म का मर्म न्याय के बिना नहीं अवगत हो सकता’, Meansात् आर्किक दृष्टि से वेदादि का अध्ययन करने वाला ही धर्म का मर्म समझ सकता है। यथा-

आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना।

यस्तर्केणानुसन्धत्तो स धर्मं वेद नेतर:।। मनुस्मृति 12/106

श्री कौटिल्य के Meansशास्त्र में चार प्रमुख विद्यायें बतलायी गयी हैं। जिनमें आन्वीक्षिकी, Meansात् न्यायशास्त्र की गणना भी है।

त्रयीविद्येम्यस्त्रयीं विद्या दण्डनीतिस्च शाश्वतीम्,

आन्वीक्षिकीमामविद्यां वार्त्तारम्भाश्च लोकत: ।। मनु0 7/43

रामायण में भी प्रकारान्तर से गौतमी विद्या, Meansात न्यायविद्या का स्पष्ट History है। महाभारत के आदिपर्व में भी न्याय की Discussion है। न्याय शास्त्र के प्रवत्र्तक महर्षि गौतम माने जाते हैं। इसके ग्रन्थ ‘न्याय सूत्र‘ न्यायशास्त्र का सर्व First ग्रन्थ है। इस महर्षि का दूसरा नाम अक्षपाद30 या अक्षचरण भी है। इनका तीसरा नाम ‘मेघातिथि’ भी है। यथा-

मेधातिथिर्महाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थित:।

विमृश्य तेन कालेन पल्या: संस्थाव्यतिक्रमम् ।। महाभारत शान्ति पर्व

न्याय दर्शन में पांच अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में दो आह्रिक हैं। First अध्याय में 11 प्रकरण तथा 61 सूत्र, द्वितीय अध्याय में 13 प्रकरण सूत्र, तृतीय अध्याय में 16 प्रकरण 145 सूत्र तथा चतुर्थ अध्याय में 24 प्रकरण 66 सूत्र हैं। न्याय सूत्र में प्रमाण प्रमेह आदि 16 पदार्थ स्वीकार किये गये हैं। यथा-

प्रमाण, प्रमेय:, संशय,, प्रयोजन , दृष्टान्त, सिद्वान्त, तर्क, निर्णय, वाद, जल्य, वितण्डा, छल, जाति, निग्रहस्थानानां तत्वज्ञानाग्निश्रेयसाधिगम:।

न्याय-सूत्रों पर महर्षि वात्स्यायन द्वारा विरचित वात्स्यायन भाष्य है, इसका दूसरा नाम न्यायभाष्य भी है। भाष्यकार को भी Single दूसरा नाम पक्षिल स्वामी है।

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