नौलि क्रिया के प्रकार, क्रिया की विधि और उसके लाभ
नौलि क्रिया के प्रकार, क्रिया की विधि और उसके लाभ
अनुक्रम
नौलि (लौलिकी) षटकर्मो में शुद्धिकरण की चौथी प्रक्रिया है। नौलि क्रिया अग्निसार का ही Single प्रकार है या यूँ कहे कि नौलि क्रिया अग्निसार अन्त: धौति की उच्च अभ्यास है। जठराग्नि को बढ़ाने वाली इस क्रिया में उदरगत मॉसपेशियों की मालिश होती है या पेट की समस्त मांसपेशियों की क्रियाशीलता त्वरित गति से बढ़ती है।
नौलि क्रिया के प्रकार
सामान्य या मध्यनम नौलि
इस नौलि में सामान्य Reseller से पेट की मॉसपेशियों को समेट कर कुछ देर सिकोड कर रखते है।
क्रियाविधि –
- दोनों पैरो में कन्धे की दूरी के बराबर जगह बनाये।
- दोनों हाथों को घुटने पर रखकर थोड़ा झुक जाये।
- पूरा “वास का रेचक कीजिए।
- पेट को अन्दर की ओर खींच लीजिए।
- दोनों हाथों से घुटने पर हल्का दबाब डाले उदर की मांसपेशियॉं बीच में स्वत: हो जायेगी।
- यह मध्यम या सामान्य नौलि की Single आवृति है।
वाम नौलि
वाम Meansात बायी और उदरगत मॉंसपेशियों के समूह को ले जाना वाम नौलि कहलाती है।
क्रियाविधि –
- दोनों पैरों में कन्धों की दूरी के बराबर जगह बनाये।
- दोनों हाथों को घुटनों या जांघों पर रखकर थोड़ा झुक जाइये।
- फिर उपरोक्त मध्यम नौलि कीजिए।
- उदर की दाहिनी मॉसपेशियों को ढ़ीला कर दीजिए।
- तदबाद उदर की बायीं ओर की मांसपेशियों को संकुचित करें।
- उदरगत मॉंसपेशियों का पिण्डी बायी और स्वत: आ जायेगा।
- यह बाम नौलि की Single आवृति है।
दक्षिण नौलि
दक्षिण Meansात दाहिने ओर उदरगत मांसपेशियों के समूह को ले जाना दक्षिण नौलि कहलाता है।
क्रियाविधि-
- दोनों पैरों में कन्धों की दूरी के बराबर जगह बनाइये।
- दोनों हाथों की घुटनों पर या जंघाओं पर रख लीजिए।
- सामान्य नौलि की अवस्थाओ में आये।
- उदरगत बाये भाग की मांसपेशियों की अन्दर की ओर संकुचित करें।
- स्वगत मांसपेशियों का पिण्डी संकुचित होकर पेट के दाहिने ओर आ जायेगा।
- यह दक्षिण नौलि की Single आवृति है।
भ्रमर नौलि
जब उपरोक्त तीनों नौलियों सामान्य, वाम व दक्षिण को Single साथ जोड़ देते है तो वह भ्रमर नौलि कहलाती है। इस नौलि की प्रक्रिया में गुरू के निर्देशानुसार 5-6 बार घड़ी की सुई की दिशा में व 5-6 बार उसकी विपरीत दिशा में उदरगत मांसपेशियों को घुमाते है। इसलिए इसे भ्रमर नौलि के नाम से जाना जाता है।
क्रियाविधि –
- First सामान्य (मध्यम) नौलि कीजिए।
- तद्पश्चात वाम नौलि कीजिए।
- फिर दक्षिण नौलि कीजिए।
- जब वेगपूर्वक उपरोक्त क्रिया करेंगे तो भ्रमर नौलि स्वत: ही होने लगेगी।
लाभ –
- नौलि क्रिया से कुण्डलीनी शक्ति जागृत होती है।
- उदरगत मांसपेशियों की क्रियाशीलता बढ़ती है तथा वहॉं रक्त् का संचार तीव्र होता है।
- मणिपुर चक्र की जागृति होती है।
- तन्त्रिका तन्त्र के साथ-साथ शिराओं पर इस नौलि क्रिया का प्रभाव पड़ता है।
- रक्त् परिसंचरण संस्थान पर इसका सार्थक प्रभाव पड़ता है।
- भूख बढ़ती है जठराग्नि बढ़ती है।
- अग्नाशय पर इसका सार्थक प्रभाव पड़ता है इसलिए मधुमेह में भी लाभकारी है।
सावधानियॉं-
- नौलि का अभ्यास अगर पेट में दर्द हो तो न करें।
- हार्निया, पथरी में यह अभ्यास वर्जित है।
- उच्च रक्त चाप, पेप्टिक अल्सर, एसिडिटी के रोगी इस अभ्यास को नहीं करें।
- गर्भवती महिलाये इस अभ्यास को बिल्कुल न करें।
- वस्तुत: यौगिक षटकर्म गुरू के निर्देश में ही किये जाते है। इस बात का विशेष ध्यान रखे।
- भोजन के बाद इस अभ्यास को नहीं करें।
- नौलि क्रिया से First उड्डयान बन्ध और अग्निसार का अभ्यास कर लीजिए।