धर्म की अवधारणा, विशेषताएं And धर्म की उत्पत्ति के सिद्धान्त
धृति क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह।
धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकम् धर्म लक्षणम्।
धर्म के दस लक्षण धृति, क्षमा, दम, स्तेय, शुचिता, इन्द्रिय निग्रह, धीर, विज्ञा (ज्ञान), सत्य, अक्रोध (भावनात्मक असंतुलन) है।
अंग्रेजी में ‘रिलीजन’ Word की उत्पति लैटिन के दो Wordों से हुयी – री और लीगर । इसका Means है टू बाइन्ड बैक’’ Meansात् ‘‘सम्बन्ध स्थापित करना’’। इस प्रकार, धर्म वह है जो सम्बन्ध स्थापित करता है। गिस्बर्ट ने लिखा है- ‘‘धर्म दोहरा सम्बन्ध स्थापित करता है: पहला मनुष्य और र्इश्वर के बीच दूसरा – र्इश्वर की संतान होने के कारण मनुष्य और मनुष्य के बीच’’। धर्म के दो पक्ष आन्तरिक पक्ष में र्इश्वर से सम्बन्धित मनुष्य के विचार, विश्वास और भावनायें आती है। बाºय पक्ष में प्रार्थनायें और धार्मिक रीति रिवाज आते है। डासन ने स्पष्ट Reseller है -’’जब कभी और जहॉ कही मनुष्य ऐसी बाºय शक्तियो पर निर्भरता अनुभव करता है, जो रहस्यपूर्ण और मनुष्य की शक्तियों से कही अधिक उच्चतम मानी जाती है वही धर्म होता है।’’ गिस्बर्ट के According – ’’धर्म र्इश्वर या सेवाओं के प्रति उसके उपर मनुष्य अपने को निर्भर अनुभव करता है, गतिशील, विश्वास And आत्म समर्पण है।
भावना के Reseller में धर्म –
धर्म का पोषण मनुष्य की भावनाओं से होता है। हाकिंग ने धर्म की ‘‘वह अन्तभाविना या प्रकृति कहा है जो अतं: प्रेरणा के साथ होती है। ‘‘ सालोमन रीनास ने लिखा है कि-’’धर्म इच्छाओं का योग है जो हमारी बौद्धिक शक्तियों के स्वतंत्र प्रयोग में बाधा डालती है।’’ जबकी फ्रायड ने कहा है – ‘‘धर्म को Humanता की दबी हुर्इ भावनाओं से प्रेरित विश्वव्यापी मानस विकार माना जाना चाहिये।’’ भावना ने ही धर्म में कट्टरता उत्पन्न की जो वर्तमान में विश्व समाज के समक्ष अनसुलझी उलझन है और इसने कर्इ बार विश्व की Human जाती को संकट में डाला ।
धर्म Single संस्था के Reseller में –
धर्म को Single सस्ंथा के Reseller में भी देखा जा सकता है क्योंकि इसका निर्माण सम्वेत Reseller से समाज ने ही Reseller है और उनके वैचारिक भावनात्मक, परम्परात्मक And व्यवहारात्मक Singleता पार्इ जाती है जिसका पालन उस धर्म के मानने वाले या संस्था के सदस्य करते है। धर्म को सदैव व्यापक Means में स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वह Humanता के प्रति व्यक्तिगण और सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक तथा सांसारिक लौेकिक तथा पारलौकिक दोनों Resellerों में विभिन्न कर्तव्यों के पालन में होता है। धर्म को धारण कर व्यक्ति का अस्तित्व And व्यक्तित्व दोंनों पुरा हों जाता है। धर्म जीवन के प्रति सर्वव्यापक सर्वदेशीय, सर्वकालिक दृष्टिकोणबनाता है। ग्रैण्डमाइसन लिखते है कि –‘‘धर्म व्यक्तित्व और सामाजिक विश्वासों, स्थायी भावों और अभ्यासों का कुल योग है, जिसका अपना Single उदेश्य होता है, Single शक्ति जिसे मनुष्य सबसे बडा़ मानता है, जिस पर निर्भर रहता है और जिसके साथ वह संम्बन्ध स्थापित कर सकता है अथवा सम्बन्ध स्थपित कर लिया है।’’
धर्म के मुख्य विशेषताएँ
1. अलौकिक शक्ति में विश्वास
धर्म का संबंध अनेक ऐसे विश्वासों से है जो किसी अलौकिक शक्ति से संबंधित होते हैं। इस अलौकिक शक्ति को कुछ समूह साकार Reseller में देखते हैं, जबकि कुछ समूहों में इस शक्ति का Reseller निराकार माना जाता है। व्यक्ति यह विश्वास करते हैं कि यह अलौकिक शक्ति ही उन्हें जीवन में विभिन्न प्रकार के सुख-दुख, लाभ-हानि अथवा सफलताएँ और असफलताएँ देती है।
2. Single सैधान्तिक व्यवस्था
धर्म में केवल विश्वासों का ही समावेश नहीं होता बल्कि इन विश्वासों को अनेक सिद्धान्तों के Reseller में इस तरह विकसित Reseller जाता है जिससे अलौकिक शक्ति के प्रति व्यक्ति के विश्वास अधिक दृढ़ बन सकें। यही सिद्धान्त ‘धार्मिक वैचारिकी’ का आधार होते हैं।
3. धार्मिक क्रियाओं व कर्मकाण्डों का समावेश
प्रत्येक धर्म में पूजा-आराधना की विभिन्न पद्धतियों, पवित्र आचरणों और तरह-तरह के कर्मकाण्डों का समावेश होता है। व्यक्तियों का यह विश्वास होता है कि इन क्रियाओं और कर्मकाण्डों के द्वारा ही अलौकिक शक्ति को प्रसन्न करके इच्छित फल प्राप्त Reseller जा सकता है। र्इश्वर की आराधना, आत्म-संयम, तीर्थ-यात्राएँ, पवित्र कार्य, त्यागमय जीवन तथा संस्कारों की पूर्ति धार्मिक क्रियाओं और कर्मकाण्डों के ही विभिन्न Reseller हैं।
4. प्रतीक व पौराणिक गाथाएँ
All धर्मों में धार्मिक विश्वासों को कुछ प्रतीकों के द्वारा स्पष्ट Reseller जाता है। उदाहरण के लिए, हिन्दू धर्म में मूर्ति अलौकिक शक्ति का प्रतीक है, जबकि र्इसार्इ धर्म में ‘क्रास’ र्इसा मसीह के आश्र्ाीवाद का प्रतीक है। रामायण, बाइबिल तथा कुरान आदि र्इश्वरीय ज्ञान के प्रतीक हैं। रेशमी वस्त्र पवित्रता के सूचक हैं, जबकि फूल और धूपबत्ती आध्यात्मिक सुगन्ध के प्रतीक हैं। पौराणिक गाथाएँ अनेक कहानियों के Reseller में मनुष्य और अलौकिक शक्ति के संबंध को स्पष्ट करती हैं।
5. उद्वेगपूर्ण अभिव्यक्त
धर्म से संबंधित विश्वासों को लोग अनेक उद्वेगपूर्ण व्यवहारों के Reseller में अभिव्यक्त करते हैं। भाव-विºवल होकर प्रार्थना और नृत्य करना, शारीरिक कष्ट के साथ अलौकिक शक्ति में अपनी श्रद्धा दिखाना, किसी धार्मिक त्रुटि के लिए बड़े-बड़े प्रायश्चित करना तथा अलौकिक शक्ति के प्रति भय की भावना को विकसित करना उद्वेगपूर्ण अभिव्यक्ति के ही उदाहरण हैं। ऐसे व्यवहारों का बुद्धि और तर्क से कोर्इ संबंध नहीं होता।
धार्मिक क्रियाएँ
विभिन्न धर्मों के मौलिक सिद्धान्तों के अध्ययन से यह पता चलता है कि इनमें से हर धर्म में अलौकिक, सर्वशक्तिमान शक्ति पर विश्वास निहित होता है। साथ ही इसी शक्ति को प्रसन्न करके लाभ उठाने तथा उसके कोप से बचने के लिए विभिन्न साधनों का विधान होता है। इन्हीं साधनों को धार्मिक क्रियाओं की संज्ञा दी जा सकती है। ये धार्मिक क्रियाएँ मुख्यत: निम्नलिखित होती हैं-
1. प्रार्थना
धार्मिक क्रिया के Reseller में प्रार्थना का स्थान लगभग प्रत्येक धर्म में ही सदा से महत्वपूर्ण रहा है। सभ्यता के उच्च स्तर पर प्रार्थना धार्मिक क्रिया का प्रधान अंग बन जाती है। प्रार्थना अलौकिक शक्ति को प्रसन्न करके उसकी कृपा-दृष्टि प्राप्त करने, उसके कोपों से बचने, अपराधों के लिए क्षमा-भिक्षा चाहने तथा भौतिक सुख, समृद्धि या सफलता को प्राप्त करने के लिए की जाती है।
2. समाधि
ध्यानमग्न होकर उस अलौकिक शक्ति का चिन्तन करना, प्राणायाम करना, समाधि लगाना, योग साधना इत्यादि क्रियाएँ इस श्रेणी में आती हैं। इन क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य अलौकिक शक्ति का दर्शन पाना और उस अनादि शक्ति में ही लीन होने का प्रयत्न करना आदि होता है। भारत का धार्मिक History इस प्रकार की क्रियाओं के उदाहरणों से भरपूर है। अक्सर यह देखा जाता है कि मन्दिरों, मस्जिदों या गिरजाघरों आदि में अनेक व्यक्ति Singleत्रित होकर सामूहिक Reseller से पूजा-पाठ, कीर्तन, प्रार्थना, आराधना आदि करते हैं। बहुत दिनों तब जब Single सामूहिक धार्मिक क्रिया को बार-बार दोहराया जाता है तो वह Single धर्म विशेष का अंग बन जाती है। इसलिए हम यह पाते हैं कि इस्लाम धर्म को मानने वाले Singleसाथ इकट्ठे होकर नमाज़ पढ़ते हैं तथा र्इसार्इ लोग चर्च में सामूहिक प्रार्थना में सम्मिलित होते हैं।
3. सामूहिक क्रियाए
प्रत्येक धर्म में उचित और अनुचित आचरण के संबंध में निश्चित निर्देशन तथा मापदण्ड होते हैं। प्राय: प्रत्येक धर्म उन क्रियाओं को अनुचित ठहराता है जो समाज तथा र्इश्वर के विरुद्ध होती हैं। कोर्इ भी धर्म चोरी करने, झूठ बोलने, लालच करने, नास्तिक बनने आदि को पुण्य कार्यों के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं करता; सदाचार, र्इमानदारी, निष्कपट आचरण आदि पर अत्यधिक बल देता है, और कुछ ऐसे आचरण अनुकरणीय मानता है जिनके पालन की ओर विशेष Reseller से ध्यान दिया जाता है। दूसरी ओर, कुछ ऐसे निषिद्ध कार्य भी होते हैं जिनके करने पर धर्म में दण्ड तक का विधान होता है।
4. बलि
धर्म के History से अनेक प्रकार की बलियों के विषय में भी पता चलता है। इन बलियों को प्रमुख Reseller से दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- सम्मानात्मक बलि तथा पापनाशात्मक बलि। जब अलौकिक शक्ति को प्रसन्न करने के लिए उसके सम्मान में कोर्इ वस्तु भेंट की जाती है तो उसे ‘सम्मानात्मक बलि’ कहते हैं। प्रसाद चढ़ाना, भोग लगाना, अन्न-वस्त्र आदि भेंट करना ‘सम्मानात्मक’ बलि के अन्तर्गत आता है। इसके विपरीत जब अपने किसी पाप का प्रायश्चित करने या अलौकिक शक्ति के रोष को शान्त करने के लिए किसी पशु, पक्षी अथवा प्राणी की बलि दी जाती है, तो उसे ‘पापनाशात्मक बलि’ कहते हैं। इस संबंध में यह स्मरणीय है कि इस प्रकार की बलि चढ़ाने की प्रथा सभ्यता के विकास के साथ-साथ कम होती जा रही है।
5. तान्त्रिक क्रियाए
तान्त्रिक क्रियाओं द्वारा मनुष्य को कष्ट देने वाले या उसका अनिष्ट करने वाले देवी-देवताओं तथा प्रेतों को वश में करने का प्रयत्न Reseller जाता है। प्राचीन काल में इन क्रियाओं का काफी प्रचलन था। इनमें जादू-टोनों और टोटकों को सम्मिलित Reseller जाता है। मन्त्रों द्वारा बीमारी ठीक करना, पानी बरसना तथा शत्रु को नुकसान पहुँचाना, और तावीज़ या तान्त्रिक अंगूठी द्वारा सन्तान दिला देना आदि तान्त्रिक क्रियाओं की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।
धर्म की उत्पत्ति के सिद्धान्त
Human-समाज में धर्म की उत्पत्ति कैसे हुर्इ, इस संबंध में विद्वानों के अपने पृथक्-पृथक् विचार हैं। विकासवादी लेखकों के According आधुनिक सभ्य समाज जनजातीय या आदिकालीन समाजों का ही क्रमिक विकसित Reseller है, इस कारण धर्म की उत्पत्ति भी First जनजातीय समाजों में हुर्इ होगी। अत: अनेक विद्वान जनजातियों के जीवन का विश्लेषण करके धर्म की उत्पत्ति और उसके प्रारम्भिक Reseller को खोजने का प्रयत्न करते हैं। धर्म की उत्पत्ति के
कुछ सिद्धान्त इस तथ्य को और भी स्पष्ट कर देंगे-
1. टायलर का आत्मवाद
टायलर के According, ‘‘आत्मा की धारणा ही आदिम मनुष्यों से लेकर सभ्य मनुष्यों तक के धर्म के दर्शन का आधार है।’’ यह आत्मावाद दो वृहत् विश्वासों में विभाजित है- First तो यह है कि मनुष्य की आत्मा का अस्तित्व मृत्यु या शरीर के Destroy होने के बाद भी बना रहता है और द्वितीय यह है कि मनुष्यों की आत्माओं के अतिरिक्त शक्तिशाली देवताओं की अन्य आत्माएँ भी होती हैं। टायलर के According आत्माएँ प्रेतात्माओं से लेकर शक्तिशाली देवताओं की श्रेणी तक की होती हैं। ये पारलौकिक आत्माएँ केवल अमर ही नहीं हैं, वरन् वे इस भौतिक संसार की All घटनाओं तथा मनुष्यों के जीवन की दिशा को भी नियन्त्रित व निर्देशित करती हैं। इसके अतिरिक्त, इन आत्माओं को प्रसन्न रखने से मनुष्य को लाभ और इसके अप्रसन्न होने पर हानि हो सकती है। इसीलिए इनकी विनती या आराधना करना आवश्यक है, जिससे वे हमारा अनिष्ट न करें। इसी विश्वास को लेकर आदिम मनुष्यों ने पितरों आदि की विनती और आराधना प्रारम्भ की, और यही आगे चलकर धर्म के Reseller में विकसित हुर्इ।
2. मैक्स मूलर का प्रकृतिवाद
मैक्स मूलर के According प्रकृति के विभिन्न Resellerों को देखकर आदिकाल में Human के मन में भय, आतंक, आश्चर्य आदि होना स्वाभाविक ही था। इन मानसिक भावनाओं के कारण वह प्रकृति से ऐसे डरने लगा, जैसे किसी प्राणी से डरता हो और इसीलिए उसके प्रति उनके दिल में श्रद्धा, भक्ति आदि की भावनाएँ आर्इं। इसी के आधार पर संस्कृति और भाषाशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान् मैक्स मूलर ने यह निष्कर्ष निकाला कि धर्म की उत्पत्ति का First चरण प्रकृति के विभिन्न पदार्थों जैसे Ultra site, चन्द्रमा, अग्नि, वायु आदि की आराधना थी। मिस्र में तथा अन्यत्र हुर्इ खुदाइयों से इस विचार को पुष्टि मिली। मिस्र में सबसे बड़ा देवता ‘रा’ Meansात् Ultra site था। यह कहा जाता है कि प्रकृति के विभिन्न पदार्थों को सजीव समझना और उनके प्रति श्रद्धा, प्रेम या भय की भावना का जन्म दोषपूर्ण भाषा के कारण हुआ। प्राय: यह कहा जाता है कि Ultra site उदय या अस्त होता है’, ‘आँधी चल रही है’, इत्यादि। परन्तु वास्तव में Ultra site न तो उदय ही होता है और न अस्त ही होता है। कुछ भी हो, आदि Human प्रकृति की इस विशालता के सम्मुख नतमस्तक होता है और धर्म की First नींव पड़ती है।
3. फ्रेज़र का सिद्धान्त
फ्रेज़र के मतानुसार First आदिम मनुष्यों ने जादू-टोने (magic) के द्वारा प्रकृति पर नियन्त्रण करके अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने का प्रयत्न Reseller और असफल होने पर यह मान लिया कि ‘संसार’ में उनसे भी कोर्इ अधिक शक्तिशाली है जो उनके प्रयत्नों को व्यर्थ करता है और इस कारण उस शक्ति पर जादू-टोने के द्वारा शासन करना कदापि सम्भव नहीं। इस धारणा के फलस्वReseller ही वह उस शक्ति पर शासन करने की इच्छा त्यागकर उसकी आराधना करने लगा और इसी से धर्म की उत्पत्ति हुर्इ। संक्षेप में, फ्रेज़र के According धर्म की प्राथमिक अवस्था (initial primacy) जादू-टोना था। जादू-टोने से निराश होकर ही लोगों ने धर्म की शरण ली थी। इस प्रकार धर्म प्रकृति के द्वारा पराजित मनोवृत्ति का ही परिणाम है।
4. दुर्खीम का सिद्धान्त
दुर्खीम ने अनेक विद्वानों की कमियों का History करते हुए धर्म की उत्पत्ति के संबंध में Single सम्पूर्ण सामाजिक व्याख्या को प्रस्तुत Reseller। आपके According ‘समाज’ ही धर्म की उत्पत्ति का मूल कारण है। धर्म ‘समाज’ की ही प्रतिछाया है।
दुर्खीम के मतानुसार सामूहिक जीवन की समस्त वस्तुओं को, चाहे वे सरल हों या जटिल, वास्तविक हों या आदर्शत्मक, दो प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है- (1) साधारण, (2) पवित्र। समस्त धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं से होता है। परन्तु इसका Means यह नहीं है कि All पवित्र वस्तुएँ र्इश्वरीय या धर्म से संबंधित होती हैं, यद्यपि धर्म-संबंधी प्रत्येक वस्तु या विचार पवित्र अवश्य ही होते हैं। ये पवित्र वस्तुएँ समाज की प्रतीक या सामुदायिक प्रतिनिधि हैं। आदिम समाजों में व्यक्ति सामूहिक शक्ति के सम्मुख अपनी शक्ति को सर्वथा Meansहीन पाता है और इसीलिए उसके सम्मुख नतमस्तक होता है। यह सामूहिक शक्ति सार्वजनिक संस्कारों तथा उत्सव आदि के समय अनुभव की जाती है। इस सामूहिक शक्ति को आदिम Human पवित्र मानता है और इसी कारण उससे प्रभावित रहता है। समाज के लोग जिन्हें पवित्र समझते हैं उन्हें अपवित्र और साधारण से सदा दूर बचाकर रखने का प्रयत्न करते हैं और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे अनेक विश्वासों, आचरणों, संस्कारों और उत्सवों को जन्म देते हैं। धर्म इन्हीं प्रयत्नों का फल है। चूँकि इन प्रयत्नों से संबंधित विश्वासों, आचरणों संस्कारों आदि के पीछे समस्त समाज की अभिमति और दबाव होता है इस कारण समाज की उस सामूहिक सत्ता के समक्ष मनुष्य को नतमस्तक होना पड़ता है। धर्म की नींव वहीं से पड़ती है। यदि सूक्ष्म Reseller से विश्लेषण Reseller जाए तो स्पष्ट होगा कि धर्म की उत्पत्ति किसी Single विशेष कारण से नहीं हुर्इ, इसकी उत्पत्ति में तो Singleाधिक कारणों का योगदान रहा है।
- पवित्रता की भावना-दुर्खीम ने इस तथ्य पर विशेष बल दिया कि धर्म का संबंध उन All विश्वासों, वस्तुओं और आचरणों से होता है जिन्हें पवित्र माना जाता है। यही कारण है कि धर्म से संबंधित All वस्तुओं और क्रियाओं को अपवित्र वस्तुओं और अपवित्र आचरणों से अलग रखा जाता है। पवित्रता की यही धारणा उन All व्यक्तियों को Singleता के सूत्र में बाँधती है जो समान धार्मिक विश्वासों में आस्था रखते हैं।
- तर्क का अभाव-धर्म का संबंध अलौकिक विश्वासों से होने के कारण इन्हें किसी परीक्षण अथवा वैज्ञानिक ज्ञान के द्वारा प्रमाणित नहीं Reseller जा सकता। विश्वास ही धर्म की नींव है। यही कारण है कि धर्म का संबंध Human जीवन के तार्किक पक्ष से न होकर भावनात्मक पक्ष से होता है।
- नियमों व निषेधो का समावेश- प्रत्येक धर्म में व्यवहार के कुछ विशेष नियमों का समावेश होता है। यह नियम पवित्रता, र्इमानदारी, दया, न्याय, त्याग तथा सत्यता से संबंधित होते हैं। धार्मिक नियम यह स्पष्ट करते हैं कि विभिन्न दशाओं में व्यक्ति को किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए। निषेध का तात्पर्य उन नियमों से है जो व्यक्ति को छल, कपट, अनैतिकता, बेर्इमानी और दुराचरण से रोकते हैं। व्यक्तियों के व्यवहारों को नियन्त्रित करने में इन नियमों और निषेधों की Single महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
- धार्मिक संस्तरण- संसार के All धर्मों में विभिन्न व्यक्तियों के बीच उच्चता और निम्नता का Single स्पष्ट संस्तरण होता है। इस संस्तरण में उन व्यक्तियों को सर्वोच्च स्थान मिलता है जिन्हें अपने धर्म का विशेष ज्ञान होता है। धर्माचार्य, पोप, इमाम तथा ओझा आदि इसी श्रेणी के व्यक्ति हैं। इन धार्मिक प्रतिनिधियों के समीप रहने वाले व्यक्तियों का धार्मिक संस्तरण में दूसरा स्थान होता है। धार्मिक नियमों के According संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले लोगों को तीसरा स्थान मिलता है। इस संस्तरण में वे व्यक्ति सबसे नीचे होते हैं जिन्हें या तो पवित्र नहीं समझा जाता अथवा जिनका धर्म में कोर्इ विश्वास नहीं होता।
धर्म की उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर (Anderson) ने यह निष्कर्ष दिया है कि ‘‘धर्म Single नैतिक-आध्यात्मिक संस्था अनेक विचारों, विश्वासों और उद्वेगों की Single संयुक्तता है जिसे किसी अलौकिक शक्ति के प्रति अभिव्यक्त Reseller जाता है।’’
Human जीवन मे धर्म का महत्व
1933 में महात्मा गाँधी ने Human जीवन में धर्म को Single महान शक्ति बताया है और कहा-’’धर्म वह शक्ति है जो व्यक्ति का बड़े-बड़े संकट में र्इमानदार बनाये रखती है और यह इस संसार में Second में भी व्यक्ति की आशा का अन्तिम सहारा है।’’ Human जीवन में धर्म के निम्न कार्य बताये जा सकते है-
- धर्म व्यक्ति का व्यक्तित्व एव अस्तित्व को सुनिशिचत करता है।
- धर्म जीवन को आधार प्रदान करता है।
- यह Human मस्तिष्क को शान्ति देता है और हृदय में आशा का संचार करता है।
- धर्म Human जीवन कों मानसिक दृढता प्रदान कर नैतिक रखता है।
- यह Human समूह को व्यवहारात्मक, विचारात्मक, परम्परात्मक And भावात्मक Reseller से जोडें रहता है।
- धर्म मनुष्य को संस्कृति And सभ्यता के निर्माण And निर्वाह का आधार प्रदान करता है।
- यह व्यक्ति को परिवार, समाज And देश से जोडता रहता है।
- धर्म ने Human जीवन के सम्पूर्ण History को नया Reseller देकर संजोया।
- धर्म मनुष्य को अध्यात्मिकता एव नैतिकता का मार्ग दिखाता है।
- धर्म मनुष्य को वास्तविक जीवन की परिस्थितियों से संधर्ष करने की शक्ति का संचार करता है।
- जीवन के अन्तिम सत्य (मोक्ष) को प्राप्त करने हेतु First सीढी़ धर्म का ही है।
- धर्म व्यक्ति की भैातिक एंव आध्यात्मिक उन्नति को आधार प्रदान करता है। कहा भी गया है- यतो अभ्युदय-निश्श्रेयस सिद्धि: स धर्म:। (जिससे व्यक्ति की शारीरिक और आध्यात्मिक उन्नति हो वही धर्म है)
- Human के सम्पूर्ण History पर धर्म की छाप है इसकी पुष्टि करते हुये गिस्र्बट ने लिखा है-’’अमरीकी और फ्रान्सीसी क्रांन्तियों पर धर्म की छाप थी और 09 जनवरी 1905 तक रूसी क्रान्तियों पर भी प्रबल धर्मिक प्रभाव था। आधुनिक समय में महात्मागाँधी और आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में होने वाले महान सामाजिक और आथिक आन्दोलनो का आधर धर्म है।’’
हम संक्षेप में कह सकते है की धर्म Single सर्व व्यापक शक्ति है जो व्यक्ति और समाज को अनेक प्रकार से प्रभावित करती है। हुमायुॅ कबीर ने सत्य लिखा -’’धर्म अनेक संघर्षो का अन्त करता है। यह उन शक्तियों का संचार करता है जो कठिनाइयों और पराजयों कों स्वीकार नही करती है।’’