धर्म का Means And परिभाषा
धर्म की परिभाषा
एडवर्ड टायलर के According धर्म आध्यात्मिक शक्ति का विश्वास है। मैलिनोवस्की के According धर्म क्रिया की Single विधि है और साथ ही विश्वासों की Single व्यवस्था भी। धर्म Single समाजशास्त्रीय घटना के साथ-साथ Single व्यक्तिगत अनुभव भी है। हॉबल के According, धर्म अलौकिक शक्ति में विश्वास पर आधारित है जिसमें आत्मवाद व Humanवाद दोनों सम्मिलित हैं।
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते है कि धर्म किसी न किसी प्रकार की अतिHumanीय या अलौकिक शक्ति पर विश्वास है जिसका आधार भय, श्रद्धा, भक्ति और पवित्रता की धारणा है और जिसकी अभिव्यक्ति प्रार्थना, पूजा या आराधना आदि के Reseller में की जाती है। यह व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन का आधार है, जीवन का शाश्वत सत्य है, जो श्रेष्ठ है। हिन्दू धर्म में त्याग और भोग का आर्दश समन्वय पाया जाता है। व्यक्ति को यहां सांसारिक सुखों का उपभोग और जीवन की वास्तविकता से परिचय प्राप्त करते हुए, अपने इहलोक और परलोक को उत्तम बनाने की ओर अग्रसर Reseller गया है। हिन्दू धर्म में कत्र्तव्य की भावना पर जोर दिया गया है।
धर्म का वर्गीकरण
वर्ण धर्म –
सामाजिक संगठन के आधार पर वर्णों को चार भागों में विभक्त Reseller जाता है। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। धार्मिक Reseller से इन चारों वर्णों के पृथक-पृथक धर्म निर्धारित है जिससे प्रत्येक व्यक्ति Second की तुलना में अपने दायित्वों का उचित Reseller से निर्वाह कर सके। Meansात् ब्राह्मण का धर्म है कि पढ़ाना, आत्मनियंत्रण तथा तप का अभ्यास करना तथा यज्ञ कराना। अध्ययन करना, लोगों की रक्षा करना, युद्व करना आदि क्षत्रियों का धर्म है। उसी प्रकार गाय-बैल आदि पशुओं की रक्षा करना, दान करना, उचित साधनों हेतु धन का उपार्जन करना, व्यापार करना आदि वैश्य का मुख्य कर्तव्य धर्म है। शूद्र की सृष्टि अन्य तीनों वर्णों के सेवक के Reseller में बिना ईष्या के सेवा करना है।
आश्रम धर्म –
समाज में प्रत्येक व्यक्ति के All कर्तव्यों को Second व्यक्ति के प्रति, समाज के प्रति, स्वयं के प्रति पूरा करने के दृष्टिकोण से जीवन को चार भागों में विभाजित Reseller जाता है- ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम तथा सन्यास आश्रम। प्रत्येक आश्रम में व्यक्ति के कुछ विशेष कर्म निर्धारित है जिन्हे मानसिक, शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक गुणों का विकास करके अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की ओर बढता है।
वर्णाश्रम धर्म –
चारों वर्णों के पृथक पृथक वर्ण धर्म में प्राविधान के साथ ही आश्रम धर्म के पालन का विधान Reseller गया था। First तीन वर्ण के व्यक्तियों द्वारा ही आश्रम धर्म का पालन Reseller जाता था। शूद्र वर्ण के लिए आश्रम धर्म नहीं था।
गुण धर्म –
गुण धर्म का संबंध राजधर्म से था जिसका तात्पर्य केवल क्षत्रिय धर्म से नहीं वरन् जो प्रजा की रक्षा करें Meansात् शासनकर्ता के धर्म से है। क्योकि पूजा समाज तथा धर्म का रक्षक है इसलिए सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को संतुलित बनाने के लिए King का कर्तव्य Second व्यक्तियों के धर्मों से बहुत भिन्न है Meansात् राजधर्म भी Single विशेष धर्म है।
निमित्त धर्म –
वर्ण धर्म और आश्रम धर्म के निमित्त जो विधियां है उनको नैमितक धर्म कहते है। उनके पालन में जो भी कुछ त्रुटियां हो जाती हैं उनको दूर करने के लिए प्रायश्चित विधि भी इसके अन्तर्गत आती है।
साधारण धर्म –
सामान्य धर्म का Means धर्म के उस Reseller से है जो All द्वारा अनुसरणीय है। व्यक्ति चाहे किसी भी वर्ण, आयु, लिंग, वर्ग आदि का क्यों न हो सामान्य धर्म का पालन करना All का कत्र्तव्य है। यह धर्म व्यक्ति विशेष का न होकर समस्त Human जाति का होता है।
इसके नैतिक नियम समस्त Human जाति के लिए समान होते हैं इसी कारण इसे ‘Human धर्म’ के नाम से सम्बोधित Reseller जाता है।यदि इसका पालन किसी इच्छा की पूर्ति के लिए Reseller जाय तो इससे लौकिक कल्याण में वृद्धि होगी और निश्काम Reseller से इसका पालन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस धर्म का मुख्य उद्देश्य यह है कि Human में सद्गुणों का विकास करना तथा इस लक्ष्य की प्राप्ति करना कि सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। इस प्रकार सामान्य धर्म का उद्देश्य मनुष्य की इसी श्रेष्ठता को बनाये रखना और उसे सामान्य कल्याण की ओर प्रेरित करना है।
विशिष्ट धर्म –
विशिष्ट धर्म को स्वधर्म भी कहा जाता है क्योकि यह विशेष व्यक्ति का अपना धर्म है। समय, परिस्थिति और स्थान के According All व्यक्तियों के लिए भिन्न भिन्न कर्तव्यों को पूरा करना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न व्यक्तियों के गुण, स्वभाव, व्यवहार, आयु और सामाजिक पद में भी भिन्नता होती है। ऐसी स्थिति में All व्यक्तियों का धर्म अथवा कर्त्तव्य Single दूारे से भिन्न होना आवश्यक है। उदाहरण के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के धर्म अपने अपने वर्ण के According है, स्त्री और पुरूष का धर्म अलग- अलग है, गुरू और शिष्य का Single-Second से भिन्न होता है, सैनिक का धर्म Single तथा King का धर्म दूसरा होता है। इस प्रकार समाज में Second व्यक्तियों की तुलना में Single व्यक्ति की जो स्थिति निर्धारित होती है। और उसके सामने जिस प्रकार की परिस्थितियां होती है, उसके According निर्धारित होने वाले कर्त्तव्यों को ही विशिष्ट धर्म कहते है। इस धर्म की विशेषता यह है कि व्यक्ति का विशिष्ट धर्म चाहे उसे नीची स्थिति प्रदान करता हो अथवा ऊँची लेकिन ऐसा विश्वास Reseller जाता है कि अपने धर्म का पालन करने से ही मोक्ष का अधिकारी होता है।
धर्म का प्रादुर्भाव
धर्म कैसे शुरू हुआ? और धर्म कैसे विकसित हुआ? यह विकासवादी चिन्तन डार्विन के विकासवाद सिद्धांत से प्रभावित था। कालांतर में इन सवालों ने दो मुख्य सिद्धांतों आत्मवाद और प्रकृतिवाद को जन्म दिया।
आत्मवाद –
आत्मवाद के According आत्मा की धारणा धर्म के मूल में है Meansात् आत्माओं में विश्वास। इसीलिए इसका नाम आत्मवाद है। टायलर के According आदिम आत्मा के विचार को गलती से अपनाता था। आत्मा का विचार मनुष्यों के सामान्य जीवन की जाग्रत और सुप्त दो अवस्थाओं के दृश्यों के विषय में भ्रामक ज्ञान उत्पन्न हुआ है। आदिम मनुष्य स्वप्न में दिखाई देने वाले दृश्यों को जाग्रत अवस्था में दिखाई देने वाले तथ्यों के समान ही सत्य और महत्वपूर्ण समझता है। अत: व्यक्ति को यह अनुभव होने लगा कि व्यक्ति के शरीर में दो आत्मा है। Single सोते समय शयन स्थान पर विद्यमान रहता है, और Single शरीर को छोड़कर बाहर विचरण करता है। शरीर से पृथक शून्य में स्वतन्त्र विचरण करने वाली यह आत्मा ही पूर्वात्मा या सामान्य Wordों में ये प्रेतात्मा बन जाती है। अत: आदिम मनुष्य प्रत्येक घटना की व्याख्या इन प्रेतात्माओं के आधार पर करता है। बीमारी, पागलपन इत्यादि All प्रेतात्माओं का फल मान लिया जाता है। इस प्रकार मनुष्य के द्वारा प्रेतात्माओं को प्रसन्न करने के लिए की पूजा करने लगे जबकि आत्मा अमूर्त होती है और मनुष्य के द्वारा आत्मा में शक्ति का विश्वास मानकर पूर्वजों की पूजा करना आरम्भ कर देते हैं।
आत्मवाद की विशेषताएं
- आत्मवाद अपने आप में कर्म नहीं है। यह तो Single आदर्श प्राReseller है जिसे द्वारा धर्म के उद्विकास का अध्ययन Reseller जाता है।
- आत्मवाद में जीवात्मा की अवधारणा है। जीवात्मा वह है जो जीवित व्यक्तियों के शरीर में निवास करती है। मृत्यु के बाद या शरीर Destroy हो जाने के बाद भी जीवात्मा बनी रहती है।
- प्रेतात्मा और जीवात्मा दोनों अलौकिक शक्ति के Reseller है और इन्हे पेड़-पौधों, पत्थर इत्यादि में देखा जा सकता है।
- मनुष्य प्रकृति के साथ होने वाले अपने संघर्ष में जीवात्मा की पूजा करके Windows Hosting रहना चाहता है।
प्रकृतिवाद –
टोटमवाद
यह उस सामाजिक व्यवहार का बोध कराता है जिसके अंतर्गत सांकेतिक Reseller से Humanीय और गैर Humanीय वस्तुओं प्राय: जीव जंतु या बनस्पति के बीच तादात्म्य स्थापित Reseller जाता है। दुर्खीम के According आस्ट्रेलिया के आदिवासियों में टोटमवाद सरलतम और सबसे बुनियादी धर्म-Reseller है। इन लोगों के बीच टोटम की वस्तु न केवल धर्म से बल्कि कुल की सदस्यता से भी जुड़ी है। हर कुल का Single टोटम होता है जो प्राय: कोई जानवर या पौधा होता है। दुर्खीम किसी गोत्र समूह की दो प्रमुख विशेषताओं का History करता है।
- गोत्र का सदस्य परस्पर नातेदारी के सम्बन्धों के आधार पर संगठित होता है।
- गोत्र का नाम किसी भौतिक वस्तु के नाम पर होता हे जिसे टोटम कहते है।
अत: टोटम की विवेचना में गोत्र की विवेचना अत्यन्त आवश्यक है।
टोटमवाद की विशेषताएं –
- इसके साथ Single गोच के सदस्य अपना कई प्रकार का गूढ़, अलौकिक तथा पवित्र संबंध मानते है।
- टोटम के साथ इस अलौकिक तथा पवित्र संबंध के आधार पर ही यह विश्वास Reseller जाता है कि टोटम उस शक्ति का अधिकारी है जो उस समूह की रक्षा करती है, सदस्यों को चेतावनी देती है और भविष्यवाणी करती है।
- टोटम के प्रति भय, श्रृद्धा और भक्ति की भावना रखी जाती है। वह इस बात पर निर्भर नहीं होती कि कौन सी वस्तु टोटम है या वह कैसी है, क्योंकि टोटम तो प्राय: अहानिकारक पशु या पौधा होता है। टोटम सामुदायिक प्रतिनिधित्व का प्रतीक है तथा टोटम की उत्पत्ति उसी सामुदायिक Reseller में समाज के प्रति श्रद्धाभाव के कारण हुई। यही श्रद्धाभाव पवित्रता को जन्म देती है।
- टोटम के प्रति भय, श्रृद्धा और भक्ति की भावना रखी जाती है। टोटम को खाना, मारना, हांनि पहुचाना वर्जित होता है। उसके चित्र रखे जाते हैं और उससे सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु को पवित्र माना जाता है।
- टोटम के संबंध में जो निशेध होते हैं उनका कड़ाई से पालन Reseller जाता है और मर्यादा भंग करने पर दंड का प्रावधान होता है।
- टोटम Single प्रकार की ऐसी रहस्यमयी सर्वशक्ति वस्तु समझी जाती है जो समूह के सम्पूर्ण जीवन को निर्देशित और नियंत्रित करती है।
धार्मिक व्यवहार
धार्मिक व्यवहारों के द्वारा समाज व धर्म के संबंध को रेखांकित होते हैं प्रत्येक धर्म में कुछ तत्व समान होने के साथ ही कुछ विशिष्ट तत्व पाए जाते हैं जिनसे व्यक्ति का व्यवहार प्रभावित होता है। ये तीन प्रकार के होते हैं।
अनुष्ठान अथवा कर्मकाण्ड-
अनुष्ठान, विशिष्ट संस्कारें के अवसरों पर बार-बार दोहराया जाने वाल वाला कार्य है जिसके माध्यम से हर समुदाय अपनी आस्था मूर्त Reseller में अभिव्यक्त करता है।यह Single निश्चित विन्यास वाला क्रियाकलाप है जिसका उद्देश्य Humanीय परिस्थितियों को नियंत्रित करना होता है। प्रत्येक धर्म में भिन्न-भिन्न अनुष्ठान किये जाते है जैसे पूजा-पाठ, प्रार्थना, यज्ञ, हवन, नमाज आदि विभिन्न Humanीय समाजों में अनुष्ठानों के अलग-अलग Reseller और प्रकार मिलते है। कुछ अनुष्ठान सरल होते है और कुछ जटिल। त्याग करना यह All धर्मों में पाया जाता है।
वालेस के According अलौकिक शक्ति को सक्रिय बनाने के लिए धर्म के मूलभूत घटक के Reseller में अनुष्ठान को प्रयोग में लाया जाता है। यह परम्पराओं को स्थायित्व प्रदान करने का कार्य करता है।
हर अनुष्ठान में समूह के सदस्यों के बीच भावनात्मक Singleता भी कायम करते है और इस तरह ऐसे अवसरों पर व्यक्ति और समूह दोनों के लिए Single नैतिक निर्देश/ नियम में विश्वास मजबूत होते हैं। इस प्रकार के नैतिक नियम अप्रत्यक्ष Reseller में सामाजिक व्यवस्था के संगठन में सहायता करते है। लोगों या व्यिक्त्यों का विश्वास है कि त्याग करने में दैवीय शक्ति प्रसन्न होगी। इन दैवीय शक्ति की कृपा जीवन पर्यन्त बनी रहेगी। इसीलिए लोग दान करते हैं। उदाहरण सिक्ख धर्म में आय का कुछ प्रतिशत भाग दान या लंगर के Reseller में लगाया जाता है। अनुष्ठान द्वारा किसी भी सामाजिक रीति से पवित्र बनाया जा सकता है और जो कुछ भी पवित्र होता है उसे अनुष्ठान का Reseller दिया जा सकता है।
आस्था-
डेविस के According आस्थाएं धर्म का ज्ञानात्मक पक्ष होता है। ये अनुभव पर आधरित न होकर विश्वास पर आधारित होती हैें। प्रत्येक धर्म में कुछ कथन होते है जिन्हे अनुयायी मानते है। प्रत्येक धर्म में ये कथन भिन्न भिन्न होते हैं। आस्थाएं मनुष्य या व्यक्तियों को अच्छा जीवन जीने का मार्गदर्शन देती है इस उद्देश्य के बिना आस्थाओं का कोई अस्तित्व नही होता तथा इन्हे नैतिक प्रभावी को मूल्यांकित करना चाहिए न संज्ञात्मक वैधता के लिए नही। इन्हे दो भागों में विभक्त Reseller जाता है।
- धार्मिक मूल्य- ये वे धारणाएं है जो क्या अच्छा है , क्या वांछनीय है तथा क्या उचित है आदि से संबंधित होती हैं ये उस धर्म के मानने वाले समस्त लोग मान्य करते हैं ये मूल्य व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करते हैं तथा सामाजिक संस्थाओं में अमिट छाप छोड़ते हैं।
- ब्रह्मण्डिकी- इसके अंतर्गत उन धारणाओं का समावेश होता है जिसमें स्वर्ग, नरक, जीवन मृन्यु आदि का वर्णन होता है। प्रत्येक धर्म इनका वर्णन भिन्न प्रकार से करता है तथा व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करता है। उइाहरण व्यक्ति समाज में बुरे कार्य इसलिए नहीं करता कि उसे मरने के बाद नरक प्राप्त होगा।
अनुभव-
धार्मिक अनुभव से तात्पर्य उस अनुभव से है जब व्यक्ति दैवी शक्ति से Single Reseller में हो जाता है तथा इन अनुभवों द्वारा व्यक्ति शांति प्राप्त करता है। किसी विशिष्ट धर्म की आस्थाएं व अनुष्ठान धार्मिक अनुभवों के लिये सौहार्दपूर्ण अथवा प्रतिकूल वातावरण का निर्माण कर सकते हैं।
धर्म तथा सामाजिक नियंत्रण
धर्म मनुष्य के जीवन का Single अनिवार्य तत्व है यह Human जीवन के अनेक पक्षों And आयामों को प्रभावित करती है साथ ही Human के व्यवहारों को नियंत्रित करता है। इसलिए धर्म सामाजिक नियंत्रण का महत्वपूर्ण साधन है।
- धर्म समाज द्वारा मान्य व्यवहार न करने पर समाज के साथ-साथ भगवान भी नाराज हो जायेगा। इस विचार से नियंत्रण में सहायता देते है।
- धर्म की संस्थाएं और उनके संगठन मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और उनसे संलग्न धार्मिक व्यक्ति विभिन्न स्तर पर अपने सदस्यों के व्यवहार को नियंत्रण करते रहते हैं।
- संस्कारों, समारोह, प्रार्थना, पुजारियों की सत्ता, धार्मिक प्रवचनों, उपदेशों के माध्यम से भी सदस्यों के व्यवहारों पर संस्थागत नियंत्रण रखते हैं।
- प्रत्येक धर्म में किसी न किसी Reseller में पाप और पुण्य की धारणा का समावेश होता है। पाप और पुण्य उचित और अनुचित, अच्छाई और बुराई तथा सद्कर्म और दुश्कर्म की धारणाएं शैशवकाल से ही व्यवहार के अंग बन जाती है जो जीवनपर्यन्त व्यक्ति का निर्देशन करती रहती है। धर्म व्यक्ति में पाप और पुण्य की भावना को विकसित कर व्यक्तियों में यह प्रेरणा भरता है कि धर्म के According आचरण करने से उसे पुण्य होगा और धर्म के विरूद्ध आचरण करने से उसे पाप होगा। इसलिए व्यक्ति धार्मिक आचरणों का उल्लघंन नही करते। अत: यह कहा जा सकता है कि धर्म के द्वारा भी समाजीकरण होता है।
- धर्म व्यक्तियों में नैतिकता की भावना तथा आत्म नियंत्रण पैदा करता है क्योंकि धार्मिक नियमों का पालन करने से यह होता है। इसका फल उनको अच्छा मिलेगा।
- धर्म Single ऐसा तरीका है जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ के स्थान पर सामूहिक स्वार्थ का महत्व हो जिस कारण सामाजिक Singleीकरण को बढावा मिलता है। वे परस्पर सहयोग करते हैं, उनमें समान भावनाए, विश्वास And व्यवहार पाए जाते है। धर्म व्यक्ति को कर्तव्यों के पालन की प्ररेणा देता है। All व्यक्ति अपने कर्तव्यों कापालन करके सामाजिक संगठन And Singleता को बनाये रखने में योग देते हैं।
धर्म और विज्ञान
धर्म और विज्ञान का भी Human जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनों ही संस्कृति के अभिन्न अंग है और दोनों का ही प्रयोग Human Needओं की पूर्ति के लिये Reseller जाता है। धर्म और विज्ञान किसी अस्तित्व को देखने समझने और परखने की शैली है। विज्ञान परिस्थितियां की समीक्षा करता है जबकि धर्म जीवन जीने की कला सिखाता है। धर्म नाश्वान और श्रणिक वस्तुओं के प्रति उदासीन रहता है किन्तु विज्ञान उन्ही वस्तुओं का निरीक्षण, परीक्षण और सामान्यीकरण करता है। जहां धर्म ईश्वर और पारलौकिक शक्ति के सहारे Humanीय समस्याओं का समाधान खोजता है वहीं विज्ञान वास्तविकता के आधार पर कार्य And कारण के सहारे समस्याओं का तार्किक हल प्रस्तुत करता है वही धर्म का अतार्किक स्वReseller समाज तथा व्यक्ति दोनों के लिए महत्वपूर्ण हैं। रूढ़िवादी धर्म ने विज्ञान का विरोध Reseller है। गैलिलियों ने सिद्ध Reseller था कि Earth Ultra site के चारों और घूमती है यह धार्मिक विश्वास के विरूद्ध था उसी कारण गैलिलियों को फांसी पर लटकना पड़ा।
धर्म और विज्ञान परस्पर विरोधी होने के बावजूद Single-Second से परस्पर सम्बन्धित है। विज्ञान जीवन में स्वतन्त्र चिन्तन, परिष्कृत विचार उत्पन्न करता है और धर्म जीवन में शुद्धता, प्रेम और त्याग की भावना उत्पन्न करता है। अत: दोनों Single-Second पर निर्भर है इसलिए आंइसटीन ने कहा है कि विज्ञान धर्म के बिना लंगडा है और धर्म विज्ञान के बिना अंधा। धर्म और विज्ञान के बीच द्वन्द्व तब तक उपस्थित होता है जब धर्म प्राकृतिक प्रघटनाओं को व्याख्यायित करने लगता है और ऐसी व्याख्यायें Meansहीन होती हैं। विज्ञान जोर देता है कि कोई सिद्धांत केवल तभी जीवित रह सकता है जब वह अपनी अनुकूलता और भविष्य सूचक शक्ति की कठिन परीक्षाओं से गुजरे। इस प्रकार जब विज्ञान की परिधि व्यापक हो जाती है तब धर्म और विज्ञान के बीच द्वन्द्व होता है। विज्ञान उन्ही चीजों पर भरोसा करता है जो कार्यकारण संबंधों पर आधारित और अलौकिक है। विज्ञान ने व्यक्ति की सोच को यथार्थपरक बनकर स्वर्ग-नरक के चक्र से मुक्त कर दिया है। First लोग नरक के भय से बुरे कर्मों से दूर रहते थे, इससे जहां तक समाज में व्यवस्था बनी रहती है। इस प्रकार हम देखते है कि विज्ञान ने धर्म से अविभूत परंपरागत स्थिर Indian Customer समाज को गतिशील समाज मे परिणत कर दिया है जिससे समाज का संगठित ढांचा विघटित हुआ है। मैक्स वेबर ने विज्ञान और धर्म की पृष्ठभूमि का विश्लेषण करते हुए आर्थिक व्यवस्था से जुड़े हुए तर्क का प्रयोग Reseller विज्ञान और टैक्नोलाजी का उन देशों में अधिक विकास नहीं हुआ जहां लोगों की आस्था धर्म पर आधारित थी। विकसित समाजों में धर्म की अपेक्षा विज्ञान का महत्व अधिक है।