जाति-व्यवस्था की विशेषताएं –

जाति-व्यवस्था की विशेषताएं

By Bandey

अनुक्रम



भारत में जाति-व्यवस्था का अध्ययन तीन परिप्रेक्ष्यों में Reseller गया है: भारतशास्त्रीय (Indological), समाज-Humanशास्त्रीय (socio-anthropological) तथा समाज-शास्त्रीय (sociological)। भारतशास्त्रीयों ने जाति का अध्ययन धर्म ग्रंथीय (scriptual) दृष्टिकोण से Reseller है, समाज Humanशास्त्रियों ने सांस्कृतिक दृष्टिकोण से Reseller है तथा समाजशास्त्रयों ने स्तरीकरण के दृष्टिकोण से Reseller है।

भारतशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में भारतशास्त्रियों ने जाति प्रथा की उत्पत्ति, उद्धेश्य And इसके भविष्य के विषय में धर्मग्रन्थों का सहारा लिया है। उनका मानना है कि वर्ण, की उत्पत्ति विराट पुरुष-ब्रम्हा-से हुई है तथा जातियां इसी वर्ण व्यवस्था के भीतर खण्डित (fissioned) इकाइयां हैं जिनका विकास अनुलोम और प्रतिलोम विवाह प्रभाओं के परिणामस्वरुप हुआ। इन इकाइयों या जातियों को वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत Single Second के सम्बन्ध में अपना-अपना दर्जा (तंदा) प्राप्त हुआ। चारों वर्णो द्वारा किए जाने वाले धार्मिक कृत्य व संस्कार (rituals) स्तरीकृत (statusbound) हैं जिनका History ई.सी. 800 वर्ष पूर्व रचित पुस्तक “ब्रम्हाण” में मिलता है, जबकि प्रत्येक जाति पालन किए जाने वाले रीति-रिवाजों तथा नियमों का स्पष्ट History “स्मृतियों” में मिलता है। कालान्तर में जाति सम्बन्धों को क्षेत्र, भाषा तथा मतों में अन्तर ने भी प्रभावित Reseller है। भारतशास्त्रियों के According जाति की उत्पत्ति का उद्धेश्य श्रम का विभाजन करना था। जैसे-जैसे लोगों ने समाज में चार समूहों अथवा क्रमों व वर्गो में विभाजन स्वीकार करना प्रारम्भ Reseller, वे अधिक कठोर होते गए और जाति की सदस्यता तथा व्यवसाय वंशानुगत होते गए। सामाजिक व्यवस्था में ब्रम्हाणों को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया क्योंकि ऐसा विश्वास Reseller जाता है कि ब्रम्हाणों को नियमों की व्याख्या करने तथा उन्हें लागू कराने का दैवी-अधिकार (divine right) प्राप्त है। इस प्रकार जाति व्यवस्था में कठोरता का समावेश कर्म,/(कृत्य) तथा धर्म,/(कर्तव्य व दायित्व) में विश्वास के कारण होता गया जिससे स्पष्ट है कि जाति रुढ़ियों, परम्पराओं व नियमों (dogmas) में विश्वास के पीछे धर्म ही निश्चित रुप से प्रेरक शक्ति रहा है। जाति के भविष्य के विषय में भारतशास्त्री मानते हैं कि क्योंकि जातिंया दैवीय Creation हैं, अत: इनका अस्तित्व बना रहेगा।


हट्टन, रिज़्ाले, होबेल, क्रोबर, आदि सामाजिक Humanशास्त्रियों ने सांस्कृतिक दृष्टिकोण को चार दिशाओं में स्पष्ट Reseller है: संगठनात्मक (Organisation), संCreationत्मक (Structual), संस्थात्मक (Institutional), तथा सम्बन्धात्मक (Relational)। हट्टन आदि की संगठनात्मक And संCreationत्मक विचारधारा के According जाति प्रथा केवल भारत में ही पाई जाने वाली अद्वितीय व्यवस्था है। दोनों विचारों (संगठनात्मक व संCreationत्मक) में अन्तर केवल इतना है कि First विचार जाति व्यवस्था की उत्पत्ति पर केन्द्रित है और दूसरा विचार जाति व्यवस्था के विकास And संCreation में आने वाले परिवर्तन की प्रक्रियाओं से सम्बद्ध है। रिजले And क्रोबर जैसे विद्वानों का संस्थात्मक दृष्टिकोण जाति को केवल भारत के प्रसंग में ही अनुकूल नहीं मानता, बल्कि प्राचीन मिश्र, ममयकालीन यूरोप और वर्तमान दक्षिण संयुक्त राज्य अमेरिका में भी इसे अनुकूल मानता है। सम्बन्धात्मक दृष्टिकोण वाले विद्वानों का मानना है कि जाति जैसी स्थितियां सेना, व्यापार-प्रबन्ध, फैक्टीं आदि में भी पाई जाती है तथा समाज में जाति व्यवस्था की उपस्थिति या अनुपस्थिति समूहों में गतिशीलता की उपस्थिति या अनुपस्थिति से सम्बद्ध होती है। यदि गतिशीलता सामान्य होगी तो जाति व्यवस्था नहीं होगी किन्तु यदि इसमें रुकावट हो तो जाति व्यवस्था होती है।

जाति-व्यवस्था की विशेषताएं

जाति की संCreation का अध्ययन इसकी प्रमुख विशेषताओं के विश्लेषण द्वारा Reseller जा सकता है। बूगल ने जाति के तीन तत्व बताये हैंμवंशानुगत विशेषज्ञता, श्रेणीबद्धता, And आकर्षक व विरोध होकार्ट ने धार्मिक क्रिया-कलापों की पवित्रता और अपवित्रता पर बल दिया है, जबकि रिजले ने अन्तर्विवाह (endogamy) तथा वंशानुगत पेशे (occupation) पर बल दिया है। माुर्ये, केलकर, एन.के.दन, आदि, ने भी इन्हीं विशेषताओं की ओर संकेत Reseller है। इन विशेषताओं को बताते समय इन सब विद्वानों ने जाति को Single इकाई तथा Single व्यवस्था के रुप में अन्तर नहीं Reseller है। इस अन्तर को ध्यान में रखते हुए यह माना जा सकता है कि Single इकाई के रुप में जाति की ये विशेषताएं हैं: वंशानुगत सदस्यता, अन्तर्विवाह, निश्चित व्यवसाय, तथा जाति समितियां, जबकि व्यवस्था के रुप में जाति की विशेषताएं हैं:श्रेणीक्रम, खानपान पर प्रतिबन्ध, तथा शारीरिक व सामाजिक दूरियों पर प्रतिबन्ध। हम जाति की इन व्यवस्था व इकाई की विशेषताओं की अलग-अलग विवेचना करेंगे।

व्यवस्था के रुप में जाति की विशेषताएं

(अ) जन्म पर आधारित श्रेणीक्रम (Hierarchy based on birth)- किन्ही भी दो जातियों की Single समान प्रस्थिति नहीं होती। Single जाति का दूसरी जाति से सम्बन्ध का स्तर उंचा या नीचा होता है। जाति श्रेणीक्रम व्यवस्था में प्रत्येक जाति का निश्चित या अनुमानित स्तर या प्रस्थिति का निर्धारण करना यदि असम्भव नहीं तो मुश्किल अवश्य है। श्रेणीक्रम के निर्धारण में दो तरीके अपनाये गये हैं: अवलोकन विधि और मत-मूल्यांकन विधि। अवलोकन विधि मे जाति की प्रस्थिति निर्धारण के लिए या तो संकेतनात्मक (attributional) विधि या अन्त: क्रियात्मक (interactional) विधि प्रयोग की गयी है। संकेतनात्मक विधि जाति की प्रस्थिति का निर्धारण उसके व्यवहार से करती है उदाहरणार्थ, अपमानजनक व्यवसाय करना, इसकी प्रथाएं, शाकाहारी होना, तथा मद्यपान आदि आदतें। अन्त: क्रियात्मक विधि दो जातियों के Single Second के सम्बन्ध में प्रस्थिति का मूल्यांकन उनके खान-पान की अन्त:क्रियाओं तथा विवाह सम्बन्धों का अवलोकन द्वारा करती है। यदि अ, जाति ब, जाति की लड़की से विवाह करना स्वीकार कर लेती है, लेकिन उस जाति में अपना लड़की नहीं देती तो अ, का स्तर ब, के स्तर से उंचा होगा। यह अनुलोम (hypergamy) विवाह नियम के कारण है जिसके According निम्न जाति की लड़की उच्च जाति में विवाह कर सकती है, किन्तु इसके विपरीत नहीं। इसी प्रकार यदि अ, जाति के सदस्य ब, जाति के सदस्यों का भोजन स्वीकार नहीं करते, लेकिन ब, जाति के सदस्य अ, जाति से भोजन स्वीकार करते हैं तो यह फ्ब, जाति के उपर अ, जाति के श्रेष्ठ स्तर को प्रकट करता है।

मत-मूल्यांकन (opinion-assessing) विधि में सामूहिक श्रेणीक्रम में विभिन्न जातियों की प्रस्थिति के निर्धारण में विविमा जातियों के उत्तरदाताओं के मत पर ध्यान दिया जाता है। मत-मूल्यांकन विधि का अवलोकन विधि की तुलना में यह लाभ है कि पहली विधि में श्रेणीक्रम और अन्त:क्रिया को दो अलग-अलग चर (variables) मानना तथा उनके सम्बन्धों का अध्ययन सम्भव है। ए. सी. मेयर, एम. एन. श्रीनिवास, डी. एन. मजूमदार, एस. सी. दुबे, पालिन महार, आदि विद्वानों ने जाति श्रेणीक्रम में जाति की स्थिति के विश्लेषण में अवलोकन विधि का प्रयोग Reseller था, जबकि मैकिम मेरियट व स्टैनले प्रफीड ने मत-मूल्यांकन विधि का प्रयोग Reseller है। एस.सी.दुबे ने जाति श्रेणीक्रम व्यवस्था में तेलंगाना में तीन गांवों में जाति प्रस्थिति निर्धारण के लिए Single ही आधार प्रयोग Reseller, जिसमें उन्होंने बताया कि कौन-कौन सी जातियां किन-किन जातियों के साथ भोजन कर सकती हैं। मेयर ने दूसरी ओर सहभोज के आधार को प्रयोग Reseller, जिसके अन्तर्गत खाना-पानी तथा विभिन्न जातियों के बीच हुक्का, प्रयोग का आदान-प्रदान सम्मिलित है। पालिन महार ने बहु-अनुमाप (multiple-scaling) प्रविधि द्वारा जातियों की स्थिति निर्धारण उनकी धार्मिक (कर्मकांड) पवित्रता तथा अपवित्रता के आधर पर Reseller।

उन्होंने 13 बिन्दु वाली Single प्रश्नावली जारी की जिसमें धार्मिक (कर्मकांड सम्बन्ध पवित्रता और अपवित्रता से सम्बद्ध विषय पर जातियों के बीच All प्रकार की अन्त:क्रिया के सम्बन्ध में प्रश्न थे। एम. एन. श्रीनिवास (1955) डी. एन. मजूमदार (1959) ने जाति श्रेणीक्रम की अपनी अलग तस्वीर बनाई। श्रीनिवास इस बात से Agree हैं कि इस प्रकार के मूल्यांकन (श्रेणीक्रम की अपनी तस्वीर बनाना) कुछ-कुछ व्यक्तिपरक होते हैं। मैकिम मेरियट तथा प्रफीड दोनों ने ही जाति श्रेणीक्रम में प्रत्येक जाति की प्रस्थिति के निर्धारण में मामय पद (median rank) निश्चित करने के लिए कार्ड व्यवस्था (card system) का प्रयोग Reseller। दोनों ने ही पनों (cards) का Single सैट (set) प्रस्तुत Reseller तथा प्रत्येक पने/कार्ड पर Single जाति का नाम लिख दिया गया। उत्तरदाताओं में से प्रत्येक से निवेदन Reseller गया कि वह इन पनों को पद-स्थिति में व्यवथित कर दे। दोनों के तरीकों में इतना ही अन्तर था कि मैकिम मेरियट ने कार्ड Single-Single करके दिए जबकि प्रफीड ने उन्हें Single साथ ही दे दिए। श्रीनिवास और मेयर का कहना है कि व्यक्ति की स्वयं की जाति में सदस्यता जाति श्रेण्ीक्रम के बारे में उसके विचार को प्रभावित कर सकती है या कम से कम श्रेणीक्रम में उसकी अपनी जाति की स्थिति को तो अवश्य करेगी। परन्तु प्रफीड ने ऐसा नहीं पाया। उसने दिल्ली के निकट शान्ति नगर गांव में सन् 1957-58 में 12 जातियों में से छांटे गए 25 उत्तरदाताओं के अध्ययन से पता लगाया कि अधिकतर ने अपनी जाति की प्रस्थिति का निर्धारण उसी स्थिति के आस-पास Reseller जो दूसरों ने उन्हें दी। इसी प्रकार उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि किसी व्यक्ति के जाति श्रेणीक्रम के विषय पर समस्त दृष्टिकोण का जाति सदस्यता का थोड़ा ही प्रभाव होता है।

हाल के वर्षो में जाति व्यवस्था के कुछ लक्षणों में परिवर्तन आया है लेकिन श्रेणीक्रम विशेषता में कोई परिर्वतन नहीं आया है।

(ब) सहभोज पर प्रतिबन्ध (Commensal restrictions)-Single व्यक्ति के विभिन्न जातियों के सदस्यों के साथ खान-पान सम्बन्धी अनेक व विस्तृत नियम प्रचलन में हैं। इस विषय पर ब्लन्ट (Blunt) के According Seven महन्वपूर्ण निषेध (taboos) प्रचलित हैं: (i) सहभोज निषेध, जो व्यक्ति के अन्य व्यक्तियों के साथ भोजन खाने के नियम निर्धारित करता है (ii) रसोई निषेध, जिसमें रसोई बनाने सम्बन्धी नियम हैं कि कौन-कौन व्यक्ति किन-किन व्यक्तियों के खाने योग्य के निषेध, जिसमें भोजन के समय अपनाए जाने वाले धार्मिक कृत्यों के description And नियम है (iv) पीने के निषेध, जो Second व्यक्तियों के हाथ से पीने का पानी लेने के नियम बताते हैं (v) भोजन निषेध, जो यह बताता है कि किस प्रकार का भोजन (कच्चा, पक्का, हरी सब्जी, आदि) Single जाति का सदस्य दूसरी जाति के सदस्यों के साथ खा सकता है (vi) तम्बाकू या धूम्रपान संबंधी निषेध, जो यह बताता है कि किस व्यक्ति का हुक्का किस जाति का व्यक्ति प्रयोग कर सकता है (vii) बर्तन निषेध, जो यह बताता है कि किस प्रकार के बर्तन व्यक्ति को अपवित्रता से बचने के लिए प्रयोग करना या बचना चाहिए।

ब्लन्ट का विश्वास है कि भोजन आदि के प्रतिबन्ध, विवाह प्रतिबन्धों का फल हैं, लेकिन हट्टन का दावा है कि ये दोनों ही ओर से सम्भव है। भोजन निषेधों के आधार पर ब्लन्ट ने जातियों को पांच भागों में वर्गीकृत Reseller है: (i) वे जातियों जो कच्चा भोजन (पानी से पकाया) तथा पक्का भोजन (घी से पकाया) केवल अपने ही अन्तर्विवाही समूहों के सदस्यों के द्वारा पकाया हुआ लेती हैं (ii) वे जातियां जो अपनी ही जाति के सदस्यों द्वारा ब्रम्हाणों द्वारा बनाया भोजन लेती है (iii) वे जातियां जो अपनी जाति के सदस्यों या ब्रम्हाणों या राजपूतों द्वारा बनाया भोजन लेती हैं (iv) वे जातियां जो अपनी जाति, ब्रम्हाणों व राजपूतों के अलावा उन निम्न जाति के लोगों द्वारा बनाया भोजन लेती है जिन्हें वे कम से कम अपने स्तर का समझती है और (v) वे जातियां जो किसी के द्वारा भी बनाया गया भोजन लेती हैं। लेकिन हट्टन (1963:75) ने इस वर्गीकरण की आलोचना इस आधार पर की है कि कच्चे और पक्के भोजन पर प्रतिबन्ध अलग-अलग लगाये गये हैं। कुछ जातियां ऐसी हैं जिनको कच्चे भोजन के आधार पर Single समूह में रखा जाता है लेकिन जब पक्के भोजन पर प्रतिबन्ध लागू करने की बात आती है, जिसके बारे में वे कठोर नहीं होती, तो उन्हें Second समूह में रखा जाता है। उदाहरणार्थ, कुछ ब्राहम्ण जातियां, काघी (सब्जी बेचने वाली) व कुम्हार जातियां समूह Single में आएंगी, लेकिन कुछ जातियां जैसे कलाल (शराब बेचने वाले) कच्चे भोजन के लिए समूह Single में गिनी जायेंगी और पक्के भोजन के लिए समह तीन में। इसी प्रकार हलवाई जाति कच्चे भोजन के लिए समूह Single में और पक्के के लिए समूह चार में आयेगीऋ कायस्थ दोनों प्रकार के प्रतिबन्ध के आधार पर समूह दो मे आयेंगे। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक जाति के अपने लिए अपने ही नियम होते हैं। विभिन्न जातियां Single से समूहों मे नहीं आती। कुछ पिछले दशकों से यह देखा जा रहा है कि खानपान के प्रतिबन्ध कठोरता से नहीं माने जा रहे हैं। Second Wordों में, जाति प्रथा की इस लक्षण में परिवर्तन होते जा रहे हैं।

(स) सामाजिक भागीदारी पर धार्मिक मान्यताओं की बाध्यता (Compelling religious sanctions on social participation)- सामाजिक अन्तविर््रफया कलापों पर प्रतिबन्ध लगाने का कारण यह विश्वास है कि शारीरिक सम्पक्र से अपवित्रता (pollution) का सम्प्रेषण होता है। इसी प्रकार के विश्वासों के कारण ही जो निम्न जाति के लोग निकृष्ट मान्धों मे लगे होते हैं, उन्हें उच्च जाति के लोग अपने से दूर ही रखते हैं। इसी प्रकार गोमांस खाने वाले अनेक निम्न जाति के लोग तथा चमार, धोबी, डोम, आदि सामान्यतया अस्पृश्य माने जाते हैं, और उन्हें लोगों द्वारा पृथक ही रखा जाता है। इसी प्रकार उच्च जाति तथा ममय जाति के लोगों के साथ अन्त:क्रिया के लिए, आदर-सत्कार के लिए, दैनिक व्यवहार के लिए, तथा धार्मिक क्रिया-कलापों से सम्बिन्मात निश्चित व भिन्न-भिन्न नियम बने हुए हैं।

(द) जातिबांहा अथवा अस्पृश्य उपस्तर (The Out Cast substratum)- जो जातियां निकृष्ट व मलिनता फैलाने वाले पेशों में लगी होती हैं, उन्हें अस्पृश्य माना जाता है। उन्हें बां जातियां (दलित वर्ग), या अनुसूचित जातियां भी कहा जाता है। इन जातियों के विषय मे माना जाता है कि वे आर्यो के आगमन से पूर्व भारत मे रहने वाली प्रजातियों से अवतीर्ण हुई। बाद में उन्होंने हिन्दू समाज के निम्नतम स्थितियों को स्वीकार कर लिया। इन जातियों के सदस्य आमतौर पर गांव या बस्ती के बाहर की ओर रहते हैं और मैला साफ करने, जूता बनाने, चमड़ा शोमान, आदि कार्यो से जीविका चलाते हैं। उन्हें उन कुओं से पानी लेने की अनुमति नहीं होती जिनसे उच्च जातियों के लोग पानी लेते हैं। उन्हें जन-सड़कों, स्कूलों, मन्दिरों, शवदाह स्थलों, होटलों तथा चाय की दुकानों, आदि के प्रयोग से भी वन्चित रखा जाता है। वे उन दैत्यों को प्रसन्न करने के लिए पशु-बलि भी देते हैं जो उनके जीवन पर अधिकार रखते हैं। उनकी उपस्थिति व स्पर्श भी दूसरों को दूषित/अपवित्र कर देंगे, ऐसा माना जाता है।

पेशवा काल में पूना नगर में डोम जाति के लोगों को शाम छ: बजे से प्रात: नौ बजे तक नगर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी क्योंकि यह मान्यता थी कि उन्की छाया भी (जो इस काल में सूरज डूबने व उगने के कारण लम्बी हो जाती है) उच्च जाति के लोगों को दूषित कर सकती है। इसी कारण से दक्षिण भारत में डाक्टर लोग अपने शूद्र रोगियों की नब्ज देखने से पूर्व अपने हाथों को रेशमी कपड़े से ढ़क लिया करते थे। इसी प्रकार, टोकरी बनाने वाले फ्पानम, तोड़ी के पेड़ से तोड़ी निकालने वाले तियान, फलयान, शानन, आदि दक्षिण भारत की निम्न जाति के लोगों को उच्च जाति के लोगों के सामने Single निश्चित दूरी तक आने की अनुमति नहीं थी। उच्च जाति के लोगों से उन्हें अपनी स्थिति के According कदमों की दूरी बनाये रखनी ही पड़ती थी। जाति रुढ़ियों ने इन अस्पृश्य लोगों को सदैव अज्ञान और पतन के अन्मोरे में माकेला है क्योंकि मान्यता के According वे अपने पूर्व जन्म के पापों को भोग रहे हैं। लेकिन वर्तमान में इन जातिवादी लोगों द्वारा थोंपे गए निषेध काफी कम हो गए हैं। यद्यपि ये निषेध वैधानिक रुप से हटा दिए गये हैं और अधिकतर उच्च जातियों के हिन्दुओं द्वारा अपवित्रता के डर को भी सामाजिक रुप से नहीं माना जा रहा है, फिर भी कुछ धार्मिक क्रिया-कलापों में प्रतिबन्ध जारी हैं, यद्यपि लौकिक दैनिक जीवन में इन्हें लागू नहीं Reseller जाता है।

इकाई के रुप में जाति की विशेषताएं

(अ) प्रदन प्रस्थिति (Ascribed Status)- जाति में व्यक्ति की सदस्यता उसके जन्म से निर्धारित होती है। प्रत्येक जाति का अन्य जातियों की तुलना में क्योंकि Single निश्चित दर्जा (rank) होता है, अत:व्यक्ति की उच्च व निम्न प्रस्थिति इस पर निर्भर करती है कि जिस जाति में उसका जन्म हुआ है उसकी कर्मकांडीय प्रस्थिति क्या है। वास्तव में, Single परम्परानिष्ठ हिन्दू के जीवन का प्रत्येक पहलू उसके जन्म पर अठका होता है। उसके घरेलू संस्कार व रीति-रिवाज, उसकी मन्दिर आदि में पूजा, उसकी मित्र मण्डली, और उसका व्यवसाय, All कुछ उस जाति के स्तर पर आधारित होते हैं जिसमें उसने जन्म लिया है।

(ब) अन्तर्विवाह (Endogamy)- प्रत्येक जाति के सदस्यों को अपनी ही जाति या उपजाति में विवाह करना होता है। इस प्रकार अन्तर्विवाह जाति समूहों के बीच Single स्थायी बाध्य स्थिति है।

(स) निश्चित व्यवसाय (Fixed Occupation)- प्रत्येक जाति का निश्चित वंशानुगत पेशा होता है। Single फरानी कहावत है कि ब्रम्हाण सदैव ब्रम्हाण होता है और चमार सदैव चमार होता है। कुछ व्यवसाय गन्दे (unclean) समझे जाते हैं जिस कारण जो व्यक्ति इनमें लगे होते हैं वे अस्पृश्य हो जाते हैं और यदि कोई अन्य इन व्यवसायों को अपनाता है, तो उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है ताकि वह जाति को दूषित न कर सके। लेकिन इसका यह Means भी नहीं है कि ब्रम्हाण जाति में All ब्रम्हाणों को पंडिताई व्यवसाय में ही सदैव लगा रहना है या फिर All राजपूतों को रक्षा कार्य में लगने के कारण सेना में ही शामिल होना है। कुछ परिस्थितियों वश Single जाति के सदस्य को दूसरा व्यवसाय करने की अनुमति मिल जाती थी। इसी प्रकार Single ही जाति की विभिन्न उपजातियां विविमा व्यवसाय अपना लेती है। उदाहरणार्थ, खटिक (कसाई) जाति की चार उन-जातियां उत्तर प्रदेश में कसाई, (बेकनवाला), राजगीर (राजगर), रस्सी बनाने वाले (सोमबट्ट) तथा फल बेचने के व्यवसाय में मेवाफरोष लगे हैं। इसी प्रकार बंगाल में तेली जाति के दो भाग है: फ्तिली, और तेली,। तिली, तेल निकालने तथा तेली, तेल बेचने के काम में लगे हैं। तेल निकालने का काम हेयदृष्टि से देखा जाता है क्योंकि इसमें बीज से तेल निकलता है, अत: उसमें जीवन (बीज) की हानि होती है। इस कारण फ्तिली, लोगों को अस्पृश्य माना जाता है, जबकि तेली, अस्पृश्य नही माने जाते। यदि तेली, जाति में से कोई तेल निकालने का काम करने लगे तो उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। व्यवसाय परिवर्तन से जाति परिवर्तन आवश्यक नहीं होता था जब तक कि स्थिति में परिवर्तन न हो। ब्लन्ट के According जब प्रस्थिति में इस प्रकार का परिवर्तन होता है तब वह तीन Reseller धारण कर लेती है: (i) Single नई जाति में पृथक होना (ii) नये समूह का First से अस्तित्व वाली जाति में विलय (iii) मौलिक जाति के भीतर ही Single अन्तर्विवाही उपजाति की Creation।

जाति द्वारा थोपे गए व्यवसायिक प्रतिबन्धों के पीछे सामान्यत: धार्मिक उद्धेश्य होता है, लेकिन कभी-कभी उनका विशुद्ध आर्थिक उद्धेश्य भी होता है। उदाहरण के लिए, ओमैले ने ममयप्रदेश के Single जिले के सुनारों के सन्दर्भ में कहा है कि वे लोग Single दावत का आयोजन करते हैं जिसमें वे कसम खाते हैं व उन लोगों को जाति से बाहर निकालने का डर दिखाते हैं जो यह रहस्य खोलेंगे कि सोने में कितनी अन्य धातुएं किस मात्रा में मिलाई जाती हैं।

(द) जाति पंचायत (Cast Panchayats)- प्रत्येक जाति की अपनी समिति होती है जिसे जाति पंचायत कहते हैं। हाल ही के समय तक इन पंचायतों का अपने सदस्यों पर काफी प्रभाव था। यद्यपि आज कुछ जाति पंचायतों की समूचे देश में शाखाएं भी हैं क्योंकि संचार मामयमों का समुचित विकास हुआ है, परन्तु कुछ दशाब्दियों पूर्व तक इन (शाखाओंद्ध का कार्यक्षेत्र इतना सीमित था कि सदस्य आसानी इकट्ठे हो सके और Single Second के प्रति जानकारी रख सके। संचार सुविधा तथा अन्य स्थानीय दशांए इन पंचायतों का कार्य क्षेत्र निर्धारित करती हैं। इस प्रकार क्योंकि समूची जाति या उप-जाति के लिए Single ही पंचायत होने के आदर्श को प्राप्त करना असम्भव है, अत: Single जाति या उप-जाति के सदस्य Single संबंधित समूह का निर्माण करते हैं जिसे बिरादरी, (नातेदारों की समिति) कहा जाता है। यह बिरादरी Single बहिर्विवाही (exogamous) इकाई के रुप में अन्तर्विवाही जाति या उप-जाति की तरह कार्य करती हैं। यह समूह (बिरादरी) जाति या उपजाति के लिए कार्य करता है तथा अपने सदस्यों को अपनी कार्य परिधि के भीतर ही मान्यताओं को मनवाने के लिए बामय करता है। कुछ समय पूर्व तक इन पंचायतों ने जो अपराध के मामले अपने कार्य-क्षेत्र में लिए थे उनमें से प्रमुख थे दूसरी जाति व उपजाति में भोजन के मामले, जिनके साथ निषेध था, दूसरी जाति की स्त्री को रखैल के रुप में रखना, विवाहित महिला के साथ अवैमा सम्बन्ध रखना, विवाह के वायदे को तोड़ना, अदायगी से इनकार करना, छोटे-मोटे झगड़े, रीति-रिवाजों का उल्लंघन आदि। ऐसा करने पर जो दण्ड का विधान अपनाया जाता था उसमें जाति से निकालना, Meansदण्ड, जाति के लोगों को दावत देना, या शारीरिक दण्ड आदि प्रमुख थे। जाति के All सदस्य पंचायत के निर्णय को मानने के लिए बामय होते थे। ब्रिटिश काल में भी ये पंचायतें इतनी शक्तिशाली होती थीं कि न्यायालय द्वारा निर्णय किए गए मामलों को भी फनर्विचार के लिए ले लेती थीं। इस प्रकार जाति पंचायत Single अर्मा-प्रभुता सम्पन्न (semi sovereign) संस्था थी। पंचायत के कार्यकारी पदाधिकारी या तो वंशानुक्रम से होते थे या उनका नामांकन होता था या चुनाव। ब्लन्ट, स्लीमेन, ओमैले, और हट्टन ने बताया है कि सामाजिक मानदण्ड में जाति जितनी छोटी होती थी उतना ही मजबूत उनका संगठन होता था। मुकदमे के लिए अपनाया गया तरीका बहुत सरल व अनौपचारिक होता था।

इन जाति पंचायतों के अधिकारों के सन्दर्भ में कापड़िया ने सन् 1962, 1912 तथा 1861 तक के कुछ उदाहरण दिया है जिन्होंने Single विमावा से विवाह Reseller, किन्तु उनकी जाति पंचायत ने उनको बहुत अपमानित Reseller और अन्तत: पति-पत्नी दोनों को ही आत्महत्या करनी पड़ी। उदाहरण Single ऐसे व्यक्ति का है जो लन्दन जाने के कारण जाति से बहिष्कृत कर दिया गया और वापस आने पर 1500 रु. का दण्ड देकर जाति मे सम्मिलित हुआ। 50 वर्ष बाद 1912 के आस-पास के समय के सन्दर्भ में कापड़िया ने Single रमन भाई नामक व्यक्ति का उदाहरण दिया है जिसको अपने से निम्न जाति में खाना खाने के कारण जाति से निकाल दिया गया था और दूसरा उदाहरण जयसुखलाल मेहता का दिया है जिसे अपनी विमावा बहिन की शादी कराने के कारण बहिष्कृत कर दिया गया था। 1962 की समय अवधि का सन्दर्भ देते हुए कापड़िया ने यह माना है कि जब पंचायत को कानूनी आधार पर जाति-निष्कासन द्वारा अपने सदस्यों पर परम्परागत आदर्शो के According चलने के अधिकार प्रयोग से वंचित कर दिया गया, तब भी ये (जाति पंचायत) उनके मन व मस्तिष्क तथा व्यवहार को नियमित किए रहती हैं। 1994-95 में गांवों में जाति पंचायतों का कुछ प्रभाव हो सकता है, किन्तु नगर क्षेत्रों में उनका कोई प्रभाव नजर नहीं आता।

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