संत रैदास का जीवन परिचय
संत किसी देश या जाति में नहीं, अपितु पूरे Human समाज की अमूल्य संपत्ति होते हैं। हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे देश के महापुरूष और संत अपने विषय में प्राय: मौन रहे। इससे उनकी गरिमा में सदैव वृद्धि ही हुर्इ। यह संसार क्षण भंगुर है, अत: तू माया मोह के जाल में मत फँस। यह तो सैमल के फूल के समान है, जो कुछ दिन खिलकर मुरझा जाएगा। कभी उनके परवर्ती शिष्यों ने उनके विषय में कुछ लिखा, तो कभी जनमानस में प्रचलित जनश्रुतियों से ही उनके जीवन और मूल्यों का कुछ बोध होता है। अनेक ग्रंथों में इनके अनेक नाम प्रचलित हैं, किंतु अधिकतर विद्वानों की मान्यतानुसार इनका नाम रैदास था। कुछ पदों के आधार पर उनकी जाति, कुल, परिवार और निवास की स्थिति का कुछ description मिलता है। भक्तिकाल के According रैदास रामानंद के शिष्य थे। कर्इ साक्ष्यों के According कबीर और रैदास समकालीन थे। कबीर उम्र में रैदास से कुछ छोटे थे। अत: ये पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य में हुए होंगे ऐसा माना जाता है।
रैदास की भक्ति से प्रतिपादित अनेक जनश्रुतियाँ हैं। जैसे मान्यता है कि मीराबार्इ ने उन्हें अपना गुरू माना था। वे जीवनभर पर्यटन करते रहे और अंत में 1684 में चित्तौड़ में उन्होंने अपनी देह का त्याग Reseller। संत रैदास ने कुल कितनी Creationएँ की यह भी ठीक से ज्ञात नहीं। फिर भी जो उपलब्ध हैं, उनमें-रैदास बानी, ‘रैदासजी की साखी तथा पद’, ‘प्रहलाद लीला’ आदि प्रमुख हैं।
सामूहिक जन-
चेतना को जाग्रत करके, शोषित Humanता में नवीन स्फूर्ति का संचार करने वाले उच्चकोटि के विनम्र संतों में रैदास का महत्वपूर्ण स्थान है। आपने उस समय के धार्मिक आडंबरवादियों के प्रति क्षमा-भाव भी प्रकट Reseller। भक्ति-भाव में प्रतिक्षण आत्मविभोर रहते हुए भी रैदास ने दिव्य-दृष्टि से समय और समाज की आवश्यक माँगों को पहचान कर अपनी बात कही। संत रैदास की Creationओं में भक्ति-भाव के दर्शन होते हैं।
केन्द्रीय भाव-
संत रैदास Indian Customer अद्वैत वेदांत के समर्थक थे जिनके According आत्मा और ब्रहा्र दोनों ही हैं दोनों में कोर्इ अंतर नहीं है। आत्मा माया में लिप्त होने के कारण ही जीव कहलाती है। जीव माया में लिप्त रहता है और नाशवान है, चंचल है, अस्थिर है। ब्रहा्र निर्गुण है, अचल है, अटल है। संत रैदास अत्यंत सहिष्णु संत थे, अत: जिस बात को बुरा भी मानते थे, उसे बड़ी सहिष्णुता से समझाते थे। जैसे भक्ति के क्षेत्र में जाति-पाँति का भेदभाव वे भ्रमपूर्ण मानते थे। फिर भी वर्णाश्रम व्यवस्था पर टीका-टिप्पणी न करके, उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भक्ति-मार्ग पर चलने वाला हर व्यक्ति बराबर है, चाहे वह किसी जाति या व्यवसाय का हो। नीच से नीच व्यक्ति भी अपनी अनन्य भक्ति के कारण परम पद को प्राप्त कर सकता है। यद्यपि जाति व्यवस्था की जड़ें Indian Customer समाज के बहुत नीचे स्तर तक व्याप्त हैं। किंतु स्वातंयोत्तर भारत में अनेक संवैधानिक प्रयासों से ये जड़ें हिलार्इ जा चुकी हैं और वर्तमान स्थिति में जाति की सीमा नगण्य है- वस्तुत: मनुष्य का कर्म ही महत्वपूर्ण है। दृष्टव्य है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व रैदास जैसे संत कवि ने मनुष्य को इस संकीर्णता से ऊपर उठ कर र्इश्वर प्रेम का पाठ पढ़ाया था, जो मूल Reseller से हमें नैतिकता की ओर ले जाता है।
यहाँ संत रैदास ने स्वयं को भगवान का दास माना है। इसे दास्य भाव की भक्ति कहते हैं। जहाँ भक्त अपना सर्वस्व अपने प्रभु को समर्पित कर देता है, वहाँ उसका कुछ भी नहीं रह जाता। वह अपने पास जो कुछ भी श्रेष्ठ और सुंदर पाता है, वह सब उसी ज्योतिमान का प्रकाश और प्रसाद है। रैदास ने अपनी काव्य Creationओं में ब्रजभाषा का प्रयोग Reseller है। जिसमें यत्र-तत्र अवधी की Wordावली भी है। वैसे आपने जगह-जगह अरबी और फारसी भाषा के Wordों का प्रयोग भी Reseller है।
रैदास ने काव्य की Creation पदों और दोहों के Reseller में की। दोहे में दो-दो चरणें के दो-दो दल Meansात चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों Meansात् First और Third चरण में 13-13 तथा सम चरणों Meansात Second और Fourth चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं।