श्यामाचरण लाहिड़ी का जीवन परिचय
श्यामाचरण लाहिड़ी का जीवन परिचय
अनुक्रम
लाहिड़ी महाशय का जन्म 30 सितम्बर, 1828 ई. में नदिया सिले के धुरणी गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री गोरेमोहन लाहिणी था। गोरेमोहन लाहिड़ी ने अपनी पहली पत्नी के निधन के बाद दूसरा विवाह Reseller था। पहली पत्नी से दो पुत्र And Single पुत्री की प्राप्ती हुई थी। दूसरी पत्नी से श्यामाचरण लाहिड़ी का जन्म हुआ।
लाहिड़ी के पैतृक निवास स्थान में जंलगी नामक नदी बहती थी, जिसके अचानक मार्ग बदलने के कारण इनका घर बह गया। अत: इनका परिवार काशी चला गया और वहीं पर बंगाली टोला स्थित Single घर में वे परिवार सहित रहने लगे। लाहिड़ी जी बचपन से ही अतुलनीय प्रतिभा के धनी थे। महाKing जयनारायण घोषाल द्वारा स्थापित हाईस्कूल में इन्होंने अंग्रेजी, बंगला, हिन्दी And फारसी भाषा का ज्ञान प्राप्त Reseller। इसके बाद इन्होंने संस्कृत भाषा का अध्ययन प्रारम्भ Reseller। संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान नागोली भट्ट से आपने उपनिषद And शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त Reseller।
विवाह And गृहस्थ जीवन
सन् 1846 में लाहिड़ी जी का विवाह श्री देवनारायण सान्याल की पुत्री काशीमणि देवी के साथ हुआ। लाहिड़ी महाशय जी के दो पुत्र And दो पुत्रियां हुई।
सन् 1851 में लाहिड़ी की Appointment ब्रिटिश सरकार के सैनिक इंजीनियरिंग विभाग में Singleाउण्टेट के पद पर हुई। अनेक जगह इनका तबादला होता रहा और अन्तत: आपकी बदली दानापुर में हुई।
कुछ समय बाद सम्पर्क को लेकर इनके परिवार में झगड़ा होने लगा। धन के प्रति लाहिड़ी जी को कोई विशेष मोह नहीं था। इन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति सौतेले भाई को दे दी और गरूड़ेश्वर में अपने लिये नया घर ले लिया।
कुछ समय बाद दानापुर से इनकी बदली रानीखेत हो गई। अपना परिवार काशी में ही छोड़कर ये रानीखेत के लिये रवाना हो गये। वहां अपना कार्य संभाल लेने के बाद ये प्रतिदिन हिमालय की आभा को देखने के लिये कई मील पैदल चले जाया करते थे।
गुरूदीक्षा
Single दिन हिमालय दर्शन के दौरान ये पैदल चलते हुए द्रोणगिरि तक जा निकले। जैसे ही लाहिड़ी जी वहां पर पहुंचे तो इनको लगा कि जैसे कोई आवाज देकर इन्हें बुला रहा है। पुकारने वाले व्यक्ति ने शायद Single-दो बार ही उनका नाम पुकारा होगा। किन्तु वह पुकार पहाड़ों से टकराकर बार-बार गूंजने लगी। लाहिड़ी अत्यन्त आश्चर्य से पुकारने वाले व्यक्ति को ढूंढने लगे। सहसा उन्होंने पर्वत के शिखर पर Single युवा व्यक्ति को देखा, जो उन्हें अपने पास आने के लिये संकेत कर रहा था।
उस युवक ने उनसे पूछा कि क्या वह उन्हें पहचान पा रहे हैं तथा साथ ही Single गुफा में उन्हें ले जाकर पूछा कि इस कमण्डल और कंबल को पहचान रहे हो।? लाहिड़ी महाशय जी ने प्रत्ययुत्तर में कहा कि वे न तो उन्हें और न ही इन सामग्रियों को पहचान रहे हैं।
उस युवक ने कहा कि मैंने तुम्हें Single विशेष कार्य से तुम्हें यहां बुलाया है और मैं 40 वर्षो से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। जब वह कार्य पूरा हो जायेगा तो तुम्हें यहां से जाना पड़ेगा।
इतना कहने के बाद उन्होनें लाहिड़ी जी के ललाट को स्पर्श Reseller। ऐसा करते ही लाहिड़ी जी के शरीर में Single प्रकार की विद्युत दौड़ गई और उन्हें अपने पिछले जन्म की सारी घटनाऐं याद आ गई। उन्होंने उस युवक को साष्टांग प्रमाण करते हुए कहा कि मैं आपको पहचान गया। आपे मेरे गुरूजी हैं और ये कमंडल और कम्बल मेरी ही है। मैं इसी गुफा में तपस्या करता था।
इसके बाद उनके गुरू ने पूरे विधान से उनके First के जन्म के All कर्म संस्कारों को हटाते हुए उन्हें क्रिया योग की दीक्षा दी। यह क्रियायोग का अभ्यास कई दिनों तक लगातार चलता रहा।
इसके बाद 8वें दिन उनके गुरू ने कहा कि उनका कार्य समाप्त हो गया है और अब तुम Single सन्यासी के Reseller् में नहीं वरन् गृहस्थ के Reseller् में जनकल्याण का कार्य करो तथा उपयुक्त व्यक्तियों को जो ईश्वर के लिये अपना सब कुछ समर्पित कर सकते हैं, उन्हें क्रियायोग में दीक्षित करना।
जब अपने गुरू से अलग होते हुए लाहिड़ी जी रोने लगे तो उन्होंने कहा कि ‘‘तुम चिन्ता मत करो। मैं हमेशा तुम्हारे साथ ही रहूंगा।’’
लाहिड़ी महाशय जी द्वारा क्रियायोग की साधना का उपदेश
अपने गुरू से क्रियायोग की दीक्षा लेने के बाद लाहिड़ी महाशय जब ऑफिस पहूंचे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि ऑफिस की गलती के कारण भूलवश उनका तबादला रानीखेत हो गया था उन्हें पुन: दानापुर भेज दिया गया।
अत: वे पुन: दानापुर में आकर अपना कार्य देखने लगे। इसी के साथ नियमित Reseller से उनकी साधना भी चलती रही। लाहिड़ी जी ने सन् 1880 तक सरकार की सेवा में रहने के बाद अवकाश प्राप्त कर लिया था।
अवकाश लेने के बाद लाहिड़ी के सामने धन सम्बन्धी कठिनाई बढ़ गई। पेंशन के Resellerयों से उनका घर खर्च ठीक ढंग से नहीं चल पाता था। अत: उन्होंने काशी के King ईश्वरीनारायण सिंह के सुपुत्र प्रभुनारायण सिंह को शास्त्रादि का ज्ञान प्रदान करने के लिये तीस Resellerये मासिक वेतन के हिसाब से गृह शिक्षक के Reseller में पढ़ा प्रारम्भ Reseller।
लाहिड़ी जी की प्रतिभा और ज्ञान से प्रभावित होकर ईश्वरीनारायण सिंह And उनके पुत्र दोनों ने उनसे दीक्षा ली।
इस प्रकार लाहिड़ी जी सत्पात्रों को समायानुसार अपने गुरू द्वारा बताये गये विधान के According क्रियायोग की दीक्षा देने लगे।
‘‘क्रियायोग वस्तुत: Single विशिष्ट And अत्यन्त उच्च स्तरीय योगदाभ्यास है। इसके सन्दर्भ में स्वामी योगानंद का कथन है कि क्रियायोग Single सरल मन:कायिक प्रणाली है जिसके द्वारा Human रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से प्रयूरित हो जाता है। इसके अतिरिक्त ऑक्सीजन के अणु जीवन-प्रवाह में Resellerान्तरित होकर मस्तिष्क और मेरूदण्ड के चक्रों को नवशक्ति से पुन: पूरित कर देते हैं।’’
लाहिड़ी महाशय के गुुरू ने उनसे कहा – ‘‘इस 19वीं सदी में जिस क्रियायोग को मैं तुम्हारे द्वारा विश्व को दे रहा हूँ वह उसी विज्ञान का पुनरू जीवन है जिसे सहस्राब्दियों पूर्व भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रदान Reseller था। बाद में जिसका ज्ञान पतंजलि, ईसा मसीह, सेण्ट जान, सैण्ट पाल आदि उनके अनेक शिष्यों को प्राप्त हुआ था।’’
धीरे-धीरे लाहिड़ी महाशय की ख्याति चारों ओर फैलने लगी और उनका घर श्रद्धालुओं के लिये Single तीर्थस्थल बन गया।
लाहिड़ी महाशय का शिष्य समुदाय
लाहिड़ी की अपने शिष्यों And भक्तों पर निरन्तर अपने अनुदानों की वर्षा करते ही रहते थे। लाहिड़ी जी के अनेक शिष्य थे, जिनमें से कुछ के नाम Historyनीय हैं। जैसे कि पंचानन बनर्जी, वरदाचरण, रामदयाल मजूमदार इत्यादि।
लाहिड़ी हमेशा अपने शिष्यों को निष्काम भावनो कम करते हुए पवित्र जीवन जीवने का उपदेश देते थे। उनका कहना था कि -’’ईश्वर की उपस्थिति का विश्वास ध्यान में रखते हुए अपने आनन्ददायक सम्पर्क से उन्हें जीतो। अगर तुम्हारी कोई समस्या हो तो क्रियायोग से हल करो। क्रियायोग के द्वारा तुम मुक्ति पथ पर अनवरत आगे बढ़ते जाओ। इसकी शक्ति इसके अभ्यास पर निर्भर है। मैं, स्वयं यह मानता हूँ कि मनुष्य के स्वत: प्रयास से मुक्ति पाने की सबसे प्रभावोत्पादक विधि यही है जिसकी उत्पत्ति मनुष्य द्वारा ईश्वर प्राप्ति के लिये अब तक पायी जाती है।