लोक व्यय के नियम

इसमें एडोल्फ वैगनर तथा वाइजमैन पीकॉक के नियमों को आप अच्छी तरह से समझ सकेंगे जो लोक व्यय के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखते है तथा लोक व्यय के विभिन्न पक्षों को वास्तविकता के साथ स्पष्ट करते है। इसके साथ वैगनर तथा वाइजमैन पीकॉक के नियमों की भी समीक्षा से आप परिचित हो सकेंगे।

काफी लम्बे समय से लोक व्यय Meansव्यवस्थाओं को अनेक पहलुओं से प्रभावित करता रहा है। ये दोनों नियम Single बड़ी सीमा तक वर्तमान Meansव्यवस्थाओं के लिए भी अत्यन्त उपयोगी And सार्थक सिद्ध होते रहे हैं। वर्तमान में भारत जैसे विकासशील देशों के लिए सार्वजनिक व्यय की प्रांसगिकता की समीक्षा भी अत्यन्त आवश्यक है। उपयोगी तथा गैर उपयोगी मदों पर लोक व्यय वर्तमान में Single अत्यन्त गम्भीर विषय है जो इस इकाई के द्वारा आप आसानी से समझ सकेंगे।

लोक व्यय के नियमों की Need

Meansव्यवस्था में लोक व्यय के लिए नियमों की Need है या नहीं? इस प्रश्न के उत्तर के लिए आपको दो बिन्दुओं पर गहराई से विचार करना होगा। Firstत: Meansव्यवस्था की प्रकृति क्या है Meansात् Meansव्यवस्था को संचालित करने वाली विभिन्न शक्तिया कौन-कौन सी है तथा वे लोक व्यय से किस प्रकार प्रभावित होती है। द्वितीयत: लोक व्यय करने वाली सत्ता या सरकार की स्थिति तथा उददेश्य क्या है Meansात् लोक व्यय करने वाली सत्ता का चयन या चुनाव किसके द्वारा किस प्रकार होता है तथा उसे चलाने वाले तत्व लोक व्यय द्वारा किस सीमा तक प्रभावित है। लोक सत्ताओं का उददेश्य केवल सरकार चलाना है या विकास को अग्रसर करना। सरकार को लोक आगम की अपेक्षा लोक व्यय के लिए बड़े ही सतर्कता के साथ कार्य करना होता है। इसके प्रभाव अत्यन्त ही गम्भीर तथा विस्तृत होते है। सरकार की प्रकृति से सम्बन्ध इस आधार पर लगाया जाता है कि लोक कल्याणकारी समाजवादी सरकारी तथा पूंजीवादी सरकारों के लोक व्यय के मार्ग अलग-अलग है अत: इनके लिए अलग-अलग प्रकार के नियमों की Need है ताकि पूर्व निर्धारित उददेश्यों को प्राप्त Reseller जा सके। वही दूसरी ओर सरकार का चुनाव करने वालों के हितों की Safty या उन पर अनावश्यक अपव्यय आदि के लिए भी सरकार के सामने लोक व्यय सम्बन्धी अनेक प्रकार की समस्याऐं आती है। लोक व्यय के नियमों की Need इस बात पर जोर देती है कि बिना अपव्यय के लोक हितों को Windows Hosting Reseller जाय तथा आर्थिक स्थिरता को प्राप्त Reseller जाय। लोक व्यय के नियम की उपयोगिता इस तथ्य को स्पष्ट करती है कि लोक व्यय के लिए लोक आगम की नीतियों भी प्रभावित होती है।

लोक व्यय के नियम

लोक व्यय की नियमों की Need को देखते हुए सरकारों द्वारा कुछ नियमों को भी ध्यान में रखना होता है जो नियमों की Need की तीव्रता पर निर्भर करता है। लोक व्यय के लिए अलग-अलग कार्य शक्तियों द्धारा अनेक नियम प्रतिपादित किये गये है जिसमें लाभ का नियम, मितव्ययता का नियम तथा स्वीकृति के नियमों को सामान्य Reseller से जाना जाता है। लाभ के नियम के बारें में प्रो0 पीगू का यह कथन अत्यन्त ही महत्वपूर्ण प्रतीत होता है-’’All दशाओं में व्यय को उस बिन्दु तक बढ़ाया जाय जिस पर कि व्यय की गयी मुद्रा की अन्तिम इकाई से प्राप्त होने वाली संतुष्टियाँ इस अन्तिम इकाईयों की संतुष्टियों के बराबर हों जो सरकार सेवा प्रदान करने पर व्यय करती है। यह नियम स्पष्ट करता है कि सार्वजनिक व्यय के समाज के All व्यक्तियों को लाभ प्राप्त होना चाहिए न कि व्यक्तिगत स्तर पर अत्यधिक लाभ।

Meansव्यवस्था के लिए मितव्ययता का नियम अत्यन्त ही उपयोगी And लम्बे समय के लिए आवश्यक है। सरकारी अपव्यय को रोकने के लिए स्वीकृति का नियम विकासशील देशों के लिए बड़ा ही उपयोगी सिद्ध होता है।

लोक व्यय का सही Reseller में प्रयोग करने के साथ लोक व्यय के नियमों से सम्बन्धित ग्लेडस्टोन का यह कथन अत्यधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। आय प्राप्त करने से इसको व्यय करना अधिक कठिन है। सैद्धान्तिक –ष्टिकोण से तो राज्य के लिये सबसे उत्तम सिद्धान्त यह है कि सामाजिक लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य को सामने रखकर व्यय करे। Meansात विभिन्न मदों पर व्यय किये हुए धन के सीमान्त लाभ को बराबर रखने का प्रयत्न करे लोक व्यय से सम्बन्धित मितव्ययता नियम भी अत्यन्त उपयोगी And महत्वपूर्ण हैं भारत जैसे विकासशील देश में लोक तान्त्रिक सत्ताओं के लिये इस नियम की उपयोगिता और अधिक बढ़ जाती है। इस नियम के According सरकार को चाहिए कि व्यय उसी मद में Reseller जाए जहां पर उसकी Need अत्यधिक हो । लोक व्यय से Means व्यवस्था में उत्पादन शक्ति का विकास हो सके जिससे लोगों की कार्य कुशलता And कार्य क्षमता में वृद्धि हो सके। लोक व्यय के सम्बन्ध में समय का अपव्यय न हो ताकि फिजूल खर्ची पर रोक लगाकर जनता को सन्तुष्ट Reseller जा सके ।

लोक व्यय से सम्बन्धित स्वीकृति का नियम भी अपना अलग स्थान बनाये हुए है इस नियम के According लोक व्यय उस स्थिति में ही Reseller जाये जब उच्च अधिकारी या लोक संस्थाओं से इसकी सामान्य स्वीकृति प्राप्त हो जाऐ। लोक व्यय से सम्बन्धित बचत के सिद्धान्त पर शिराज का निम्न कथन भी आपके लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा “ सार्वजनिक अधिकारियों को अपनी आय की प्राप्ति व उसका व्यय सामान्य नागरिकों के समान करना चाहिए । व्यक्तिगत व्यय के समान सन्तुलित बजट की सामान्य नीति होनी चाहिए ।

प्रस्तुत इकाई में लोक व्यय से सम्बन्धित वाइजमैन पीकॉक तथा वैगनर के नियम को आप मुख्य Reseller से समझ सकेंगे जो All प्रकार की प्रगतिशील सरकारों के संचालन में तथा विकास के लिए अत्यन्त ही उपयोगी है।

लोक व्यय का वैगनर नियम

आपको शायद ज्ञात हो कि लोक व्यय के क्षेत्र में जर्मन Meansशास्त्री वैगनर का नियम महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस नियम को राजस्व के कार्यकलाप में वृद्धि का नियम (Law of The Increase of State Activities) के नाम से जाना जाता है। इस नियम के According लोक व्यय में वृद्धि आर्थिक विकास के साथ-साथ बढ़ती जाती है Meansात् लोक व्यय तथा आर्थिक विकास में धनात्मक व कार्यात्मक सहसम्बन्ध पाया जाता है। वैगनर ने अपने इस नियम को स्पष्ट करते हुए लिखा कि – ‘‘विभिन्न देशों और विभिन्न कालों की व्यापक तुलनाओं से पता चलता है कि प्रगतिशील राष्ट्रों में केन्द्रीय और स्थानीय दोनेां सरकारों के कार्यकलापों में बृद्धि होती रहती है। यह बृद्धि विस्तृत और गहन दोनों प्रकार की है। केन्द्रीय और स्थानीय सरकारें निरन्तर नये कार्य हाथ में लेती जाती है और पुराने कार्यो को अधिक कुशलता और पूर्णता के साथ करती है। इस प्रकार केन्द्रीय और स्थानीय सरकारें जनता की आर्थिक Needऐं Single से अधिक परिमाण में और अधिक संतोषजनक ठंग से पूरा करती हैं।’’

लोक व्यय के वैगनर के इस नियम का सम्बन्ध समाज कल्याण की प्राप्ति से होने के साथ लोक आगम के साथ भी स्थापित Reseller गया है। इन्होने लोक वित्त को धन के पुनर्वितरण के साधन के Reseller में माना जिसमें लोक व्यय की अपनी अलग अहम् भूमिका बतायी गयी है।

वैगनर के According प्रस्तुत की गयी लोक व्यय में वृद्धि की संकल्पना Meansव्यवस्था को Single बड़ी सीमा तक प्रभावित करती है। यह सार्वजनिक व्यय निम्न तीन प्रकार से अपने प्रभाव को प्रसारित करता है। लोक सत्ताओं के पास देश से सम्बन्धित अनेक प्रकार की आर्थिक तथा गैर आर्थिक मदें लोक व्यय के लिए मौजूद रहती हैं। इन मदों के मध्य सरकार को मांग-पूर्ति सम्बन्धी संतुलन स्थापित भी करना होता है जिसके सम्बन्ध में सरकार को अपने कार्यों को कुशलता के साथ करना होता है And गहनता के साथ में क्रिया कलापों का निश्पादन करना होता है। सरकार के पास पूंजी की पर्याप्तता होती है इस लिए विस्तृत And गहनता के साथ लोक राजस्व को व्यय करना आवश्यक होता है। अपव्यय तथा अनावश्यक व्यय सरकारों के लिए खतरनाक सिद्ध होता है।

इसके साथ आपको यह भी ध्यान देना होगा कि सरकार लोक व्यय को व्यक्तिगत लाभ देने के आधार पर व्यय नहीं कर सकती है। समाज के सम्पूर्ण हितों के आधार पर लोक व्यय अत्यन्त उपयोगी And फलदायक होता है। अत: लोक व्यय लोक कल्याणकारी होता है। अनेक कारणों से लोक कल्याण का क्षेत्र बढ़ता है जिससे लोक व्यय में बृद्धि होती है।

लोक कल्याण से ही Added Single अन्य पहलू यह भी है कि सरकार उन All समाज हित वाले कार्यो पर लोक व्यय आसानी से कर सकती है जिन पर व्यक्तिगत व्यय की सम्भावना नहीं है। व्यक्तिगत व्यय निजी लाभों से प्रेरित होता है। सामाजिक न्याय की दृष्टि से निजी व्यय या निवेश उपयोगी नहीं रह जाता है। सरकार उन All बृहद योजनाओं And परियोजनाओं पर भी लोक व्यय करती है जो निजी क्षेत्र द्वारा किये जाने वाले व्यय की सीमा से वाहर होती है।

इससे पूर्व आपने पढ़ा होगा कि सरकारों की प्रकृति And Meansव्यवस्था की प्रकृति के आधार पर भी लोक व्यय प्रभावित होता है। इसी आधार पर सरकार की लोकप्रियता And आर्थिक विकास की Need के महत्व सामन्जस्य स्थापित करने में लोक व्यय में विस्तृत And गहन दोनों स्तरों पर उचित निर्णय लिये जाना अत्यन्त आवश्यक है।

आपको यहां पर यह भी जानना अत्यन्त आवश्यक है कि डाल्टन ने वैगनर के नियम को लागू होने के पीछे तीन मुख्य कारण स्पष्ट किये। जो इस प्रकार है

  1. आधुनिक आर्थिक विकास के कार्यो के कुछ क्षेत्र ऐसे होते है, जिनमें निजी संस्थाओं की तुलना में सरकारी संस्थाएं अधिक कुशलता के साथ कार्य कर सकती है। डाल्टन का कथन है कि निजी एजेसिंयों की तुलना में सरकारी एजेसिंयों का चयन बुद्धिमत्तापूर्ण हो सकता है।
  2. विकास की प्रक्रिया के कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं, जिसमें निजी क्षेत्र निवेश करने में रूचि नहीं दिखाते। इन क्षेत्रों में जो जनोपयोगी तथा आवश्यक होते है, सरकार को अनिवार्य Reseller से व्यय करना पड़ता है। इसका Single उपयुक्त उदाहरण बड़े नगरों में जन स्वास्थ्य सेवाओं से सम्बन्धित कार्य है।
  3. लोक व्यय का सम्बन्ध मुख्यत: सामूहिक उपयोगी वस्तुओं And सेवाओं से होता है, जबकि निजी व्यय का सम्बन्ध वस्तुओं And सेवाओं के व्यक्तिगत उपयोग से सम्बन्धित होता है। पार्क, अजायबघर, सार्वजनिक, पुस्तकालय आदि जो सार्वजनिक उपयोग से सम्बन्धित है, पर व्यय सरकार द्वारा Reseller जाता है।

वैगनर नियम की समीक्षा

19वीं शताब्दी में बढ़ते लोक व्यय की प्रवृत्ति पर आधारित एडोल्फ वैगनर का नियम जर्मनी की Meansव्यवस्था के साथ अन्य Meansव्यवस्थाओं के लिए भी अत्यधिक प्रासंगिक रहा। विभिन्न Meansव्यवस्थाओं की आन्तरिक तथा वाह्य विशेषताओं में अन्तर के कारण इस नियम को अनेक दृष्टिकोणों से आलोचनाओं का भी समाना करना पड़ा है। मसग्रेव ने अपने आनुभाविक अध्ययन के आधार पर स्पष्ट Reseller कि लोक व्यय के हिस्से तथा प्रति व्यक्ति आय में सकारात्मक सम्बन्ध स्थापित नहीं Reseller गया। प्रतिव्यक्ति आय बढ़ाने के साथ लोक व्यय में बृद्धि का जारी रहना आवश्यक नहीं हैं इसके साथ वैगनर की समयावधि को लेकर भी आलोचना की गयी। लोक व्यय तथा विकास के मध्य सम्बन्धों में समय तत्व को स्थान नहीं दिया गया है। समय तत्व आर्थिक नियमों का महत्वपूर्ण घटक है। इसके साथ लोक व्यय में होने वाली बृद्धि की आन्तरिक वृद्धियों का जिक्र वैगनर के नियम में नहीं Reseller गया है। वर्तमान में वैश्विक Meansव्यवस्था के अन्तर्गत निजीकरण के दौर में लोक व्यय तथा विकास के मध्य सम्बन्ध को स्पष्ट नहीं Reseller जा सकता है। निजी क्षेत्र द्वारा भी बड़ी-बड़ी परियोजनाओं तथा बृहद क्षेत्रों में भी निवेश Reseller जा रहा है तथा लोक व्यय में बृद्धि के कारणों में भी बहुदिशीय परिवर्तन नजर आ रहा है।

उपर्युक्त विश्लेषण के बाद भी वैगनर का नियम प्रगतीशील कल्याणकारी राज्यों के सम्बन्ध में अत्यधिक प्रासंगिकता रखता है।

विकासशील राष्ट्रों में विकास व्यय बढ़ने के कारण

विकासशील राष्ट्रों के सामने आर्थिक समस्याओं के साथ-साथ सामाजिक तथा अन्य चुनौतियाँ भी समय-समय पर पैदा होती रहती हैं। इस समस्याओं And चुनौतियों को दूर करने के लिए सरकारों को आवश्यक कदम उठाने होते हैं। ‘‘विकासशील राष्ट्रो की मुख्य समस्या आर्थिक विकास की गति को बढाना होता है ताकि शेष विश्व के राष्ट्रो के साथ आर्थिक मुद्दों पर सामन्जस्य स्थापित Reseller जा सके। इस राष्ट्रों में आर्थिक विकास की दर को तीव्र करने के लिए अत्याधिक मात्रा पूंजी निवेश की Need होती है। इन देशों में बड़ी-बड़ी परियोजनाओं And उपक्रमों को स्थापित करना होता है निजी क्षेत्र के पास इतनी अत्याधिक मात्रा में निवेश कर पाने की क्षमता नहीं है। इस निवेश में निजी क्षेत्र को प्रेरित करने के लिए भी अन्य Second सहायक क्षेत्रों में सरकार को ही निवेश करना होता है। इसीलिए आर्थिक विकास का प्रयास चाहे प्रत्यक्ष सरकार द्वारा हो चाहे निजी क्षेत्र द्वारा अन्तत: परोक्ष Reseller से सरकार द्वारा ही Reseller जाता है। इसके लिए सरकार को अनेक प्रकार की योजनाऐं भी संचालित करनी होती है। जो पूंजी निवेश को संरक्षित करती है।

आर्थिक विकास की अलग-अलग अवस्थाओं में जनता का जीवन स्तर भी परिवर्तित होता रहता है तथा सामूहिक लोक कल्याणकारी सुविधाओं के उपभोक्ताओं की संख्या आदि में भी बदलाव आता है। इसी लिए सरकार को इस क्षेत्र पर भी भारी मात्रा में कल्याणकारी लोक व्यय करना होता है। इसका दूसरा पहलू भी अत्यन्त ही रोचक है जनसंख्या वृद्धि जो स्वयं अशिक्षा, परम्परागत समाज जैसी समस्याओं से ही Single समस्या पैदा हुई है। लोक तांत्रिक राष्ट्रों में जनसंख्या सम्बन्धी अनेक Needओं की पूर्ति के उपाय करना सरकार की मजबूरी बन जाती है। जो लोक व्यय में वृद्धि का कारण बन जाती है।

बढ़ती जनसंख्या के कारण राष्ट्रों में आन्तरिक अशान्ति, बेरोजगारी गरीबी, असन्तुलित विकास, आर्थिक विषमता जैसी अनेक समस्याऐं पैदा हो रही है। इन All समस्याओं को दूर या कम करने के लिए सरकार को निवेश And प्रत्यक्ष कल्याणकारी व्यय भारी मात्रा में करना पड़ता है। विकासशील राष्ट्रों की ये समस्याऐं इस प्रकार की हैं कि लोक व्यय के अभाव में इनका समाधान सम्भव नहीं होता है। और न ही निजी क्षेत्र द्वारा किये जाने वाले व्यय से इन समस्याओं को दूर Reseller जा सकता है। यहां आपको ध्यान देने की अत्यन्त Need है कि बढ़ती जनसंख्या की समस्या लोक व्यय की प्रवृत्ति दो तरफ से प्रभावित होती है Firstत: बढ़ती जनसंख्या को रोकने के लिए केवल सरकारी प्रयास अत्यन्त सार्थक सिद्ध होते है। चूंकि बढ़ती जनसंख्या के लिए मुख्य Reseller से जनता ही जिम्मेदार है अत: निजी क्षेत्र द्वारा इस दिशा में व्यय Reseller जाना सम्भव नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, जागरूकता कार्यक्रम आदि के प्रचार प्रसार द्वारा लोक व्यय की प्रवृत्ति प्रभावित होती है दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याओं के निराकरण हेतु भी लोक व्यय का ही सहारा लिया जाना प्रासंगिक है। इसी तथ्य के समानान्तर गरीबी तथा बेरोजगारी की समस्या से भी लोक व्यय में वृद्धि की प्रवृत्ति पैदा होती है तथा समयानुसार गरीबी व बेरोजगारी के स्वReseller से लोक व्यय की प्रवृत्ति में परिवर्तन उत्पन्न होते है जो वैगनजर के नियम का भी अनुसरण कर सकते हैं।

लोक व्यय के वाइजमैन का नियम

लोक व्यय के एडौल्फ वैगनर के नियम को आप भंली भांति समझ गये होंगे। लोक व्यय के Second पक्ष से Added Single अन्य महत्वपूर्ण वाइजमैन पीकॉक का नियम अपना अलग महत्वपूर्ण स्थान रखता है। वाइजमैन पीकॉक ने अपनी पुस्तक **The Growth of public Expenditure in the United Kingdome** जो 1961 में प्रकाशित हुई, में अपने देश में 1890 से 1955 तक के लोक व्यय सम्बन्धी आंकड़ों के अध्ययन के पश्चात इस नियम को स्पष्ट Reseller। इस नियम के According लोक व्यय के बारे में निर्णय राजनैतिक आधार पर लिए जाते हैं। सार्वजनिक विचारधारा, लोक व्यय सम्बन्धी राजनैतिक निर्णयों को प्रभावित करती है। यह परिकल्पना लोक व्यय की वृद्धि के स्वReseller तथा ढॉचे में परिवर्तन के विश्लेषण से सम्बन्धित है।

पीकॉक वाइजमैन विश्लेषण सार्वजनिक व्यय निर्धारण के राजनैतिक सिद्धान्त पर आधारित है। उनके According, लोक व्यय के बारे में निर्णय राजनैतिक आधार पर लिए जाते है। सार्वजनिक विधारधारा जो मतपेटी के माध्यम से व्यक्त होती है, लोकव्यय के सम्बन्ध में लिए गए राजनैतिक निर्णयों को प्रभावित करती है। अन्य Wordों में, लोक व्यय का स्तर जनमत अथवा मतदान द्वारा प्रभावित होता है, यह कथन यथार्थपरक है, क्योंकि वास्तविक जीवन में हम देखते है कि लोक व्यय को नागरिक अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से प्रभावित करते है चुनाव के पश्चात गरीबी उन्मूलन हेतु किए जाने वाले व्यय कार्यक्रम तथा किसी प्रतिनिधि विशेष के चुनाव क्षेत्र का विकास इसके उदाहरण है। प्रजातन्त्र में नागरिक उन प्रतिनिधियों का चयन करना चाहता है जिनसे उन्हें अधिकतम लाभ मिल सकता हो, प्रतिनिधि भी राज्य के व्यय कार्यक्रम को इस तरह प्रभावित करना चाहते है ताकि उनका प्रतिनिधित्व सरकार में बना रहे। पीकॉक And वाइजमैन की धारणा है कि मतदाता सार्वजनिक वस्तुओं And सेवाओं का लाभ तो लेना चाहता है लेकिन उनके बदले में कुछ भी चुकाने को सामान्य Reseller से तैयार नहीं होता है। इस आधार पर लोक व्यय का निर्धारण करते समय सरकार द्वारा इस तथ्य को ध्यान में रखा जाता है कि सम्बन्धित कराधार के प्रस्ताव पर मतदाताओं की क्या प्रतिक्रिया है क्योंकि सरकार से जुडे जनप्रतिनिधियों को Single निर्धारित समय के बाद उन्हें मतदाताओं के क्षेत्र में जाना होता है इसी लिये उनका विचार है कि कराधान का Single सहन स्तर होता है इस स्तर से अधिक कर लगाने पर करदाता सरकार के फैसलों का विरोध करने लगते हैं।

आपको यहां ध्यान देना होगा कि कुछ विशेष परिस्थितियों में शारीरिक व्यय में वृद्धि हो जाती है जैसे Fight के समय निजी And राष्ट्र की Safty से प्रेरित होकर जनता कराधान के ऊचें स्तर को सहन करने के लिये तैयार हो जाती है। Fight की समाप्ति के बाद शारीरिक व्यय में कुछ कमी आ जाती है लेकिन कुछ समय के बाद बडे हुये कराधान के Single बडे भाग को सहन करने के लिये जनता भविष्य में भी तैयार बनी रहती है।

वाइजमैन पीकॉक ने अपने अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि Fight के बाद ब्रिटेन के सरकारी व्यय में कमी आई परन्तु यह कमी घटकर Fight के पूर्व के स्तर पर नहीं आई तथा राष्ट्रीय आय में लोक व्यय का अनुपात Fight के तुरन्त First के स्तर की तुलना में बहुत अधिक रहा। इस प्रकार लोक व्यय में यह वृद्धि स्थायी Reseller में रही। इस स्थायी वृद्धि की आन्तारिक प्रवृत्ति को देखने पर स्पष्ट होता है कि यह स्थायी वृद्धि स्थिर वृद्धि के Reseller में नहीं होती है बल्कि यह पेड़ीदार Meansात् अनियमित Reseller में सीढ़ीदार होती है। आपको यहां ध्यान देना होगा कि लोक व्यय का आकार And प्रवृत्ति लोक आगम द्वारा भी प्रभावित होती है। आपातकाल में जनता पर अधिक करों की वसूली की जाती है। राष्ट्रीय Safty आदि कारणों से जनता इस अधिक कर के भार केा सहन करने के लिए तैयार हो जाती है और Single निश्चित समय अवधि के बाद जनता इस कर राशि को सहन करने की आदी हो जाती है जिससे सरकार के आय में स्थिर वृद्धि हो जाती है जिसे लोक व्यय के द्वारा संतुलित Reseller जाता है। सामान्य स्थितियों में कर का यह स्तर मौजूद रहता है तथा Fight जैसी आपातकालीन स्थिति में लोक आगम इसी बढ़े हुए स्तर से आगे ही बढ़ता है। Fight स्थिति तथा सामान्य स्थिति या मन्दी की स्थितियों के पैदा होने पर इस लोक आगम में स्थायी वृद्धि के कारण लोक व्यय में भी स्थायी लेकिन पेड़ीदार वृद्धि होती है। Fightोत्तर काल में लोक व्यय में स्थायी वृद्धि होती है लेकिन Fight काल की तुलना में कम होगी।

वाइजमैन पीकॉक ने अपने लोक व्यय सम्बन्धी नियम को भली-भांति स्पष्ट करने के लिये कुछ अवधारणाओं का भी सहारा लिया जिसमें प्रतिस्थापन प्रभाव, निरीक्षण प्रभाव, कर सहनशीलता तथा केन्द्रीयकरण प्रभाव को मुख्य Reseller से जाना जाता है।

प्रतिस्थापन प्रभाव के अन्तर्गत यह स्पष्ट Reseller गया कि Fight काल के बढते हुये लोक व्यय की पूर्ति के लिये लोक सत्तायें करों को बढा लेती हैं। तथा Need पडने पर लोक ऋण का भी सहारा लेती हैं। क्योंकि करों के बढाने And लोक ऋणों की व्यवस्था करने के कारण निजी क्षेत्र द्वारा Reseller जाने वाला व्यय सार्वजनिक क्षेत्र में होने वाला व्यय के Reseller में प्रतिस्थापित हो जाता है। Fight की समाप्ति के बाद सरकार के पास जो अतिरिक्त आगम होता है वह Fight पर खर्च न होकर सामान्य लोक व्यय के Reseller में प्रतिस्थापित हो जाता है।

निरीक्षण प्रभाव के अन्तर्गत Fight तथा अन्य किसी संकट काल में लोक व्यय में बढोत्तरी होने पर लोक सत्ताओं द्वारा समीक्षा की जाती है और बढते लोक व्ययों की वित्त व्यवस्था के समायोजन के लिये Agreeि की जाती है।

संकट के समय लोकव्यय में वृद्धि होने पर जनता पर करारोपण का भार बढ़ जाता है लेकिन जनता द्वारा करारोपण के अधिक भार को सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है। जिसे कर सहनता के Reseller में उल्लिखित Reseller गया।

देश में प्रत्येक संकटकाल के पश्चात Meansव्यवस्था में लोक सत्ताओं की भूमिका बढ जाती है। इस वृद्धि को भी केन्द्रीयकरण प्रभाव कहा जाता है। जहां पर यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि स्थानीय तथा राज्य सरकारों की तुलना में केन्द्र सरकार के लोक व्यय में तीव्र वृद्धि होती है।

वाइजमैन पीकॉक के नियम की सीमाए

वाइजमैन पीकॉक के नियम को आप समझ गयें होंगे लेकिन इस नियम के सरल And विश्लेषणपूर्ण होने के साथ-साथ यह व्यवहारिक Reseller से पूर्ण खरा नहीं उतरता है। यह तर्क ठीक है कि आपातकाल में लोक व्यय में वृद्धि के साथ लोक आगम की व्यवस्था आसानी से हो जाती है लेकिन लोक व्यय की वृद्धि की प्रवृत्ति इस प्रकार इस नियम के According नहीं पायी जाती है। इस नियम में लोक व्यय में वृद्धि का कारण आपातकाल को बताया है लेकिन आपातकाल के साथ अन्य विकाSeven्मक व संस्थागत सुधारों के कारण भी लोक व्यय में वृद्धि हो जाती है। सरकार के चुनाव तथा शासन सत्ताओं पर लगातार कब्जा बनाये रखने के कारण भी लोक आगम तथा लोक व्यय में लगातार वृद्धि होती है। जो इस नियम के लागू होने के आधार नहीं है।

आर्थिक सुधारों के दौर में इस नियम के मुख्य आधारों को अधिक जोर से समर्थन नहीं Reseller जा सकता है। औद्योगीकरण, शहरीकरण तथा राजघरानों के विकास के कारण भी इस नियम को गहरा धक्का लग रहा है। जनसंख्या And जनसंख्या की बढ़ती आदतें, Needओं के कारण भी सरकारों को अत्यधिक लोक व्यय का सहारा लेना पड़ रहा है। पूंजीवादी Meansव्यवस्थाओं में सरकार की घटती भूमिका के सम्बन्ध में भी इस नियम की क्रियाशीलता के ठोस कारण या आधार नहीं ठूंढे जा सकते है। सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्तों का अध्ययन करने के पश्चात यह विश्लेषण उचित होगा कि इन सिद्धान्तों का भारत में कहां तक पालन Reseller जा रहा है-

लाभ का सिद्धान्त- भारत में सार्वजनिक व्ययों में लाभ के सिद्धान्त का अधिकतम पालन करने का प्रयास Reseller जा रहा है। इस दृष्टि से व्ययों को विभिन्न विकाSeven्मक, प्रशासनिक और Saftyत्मक कार्यो में इस प्रकार विभाजित Reseller जाता है कि समाज को अधिकाधिक लाभ मिल सके। मितव्ययिता का सिद्धान्त- भारत में सैद्धान्तिक Reseller से तो मितव्ययिता के सिद्धान्त को अपनाने पर जोर दिया जाता रहा है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से प्रशासनिक शिथिलता और अकुशलता के कारण इस सिद्धान्त का नाममात्र को ही पालन हो पाता है।

स्वीकृति का सिद्धान्त- भारत में वैधानिक दृष्टि से स्वीकृति के सिद्धान्त को पूर्ण Reseller से अपनाया गया हैं इसके अन्तर्गत संसद अथवा विधानसभा से व्ययों की स्वीकृति के पश्चात उनके सम्बन्ध में प्रKingीय स्वीकृति और तकनीकी स्वीकृति पर भी जोर दिया जाता है। स्वीकृति के सिद्धान्त के पालन की जांच के लिए अकेक्षण का प्रावधान भी है।

बचत का सिद्धान्त- भारत Single विकासशील राष्ट्र है और आर्थिक नियोजन के माध्यम से विकास योजनाओं में संलग्न है। इस दृष्टि से भारत में बचत के सिद्धान्त का पालन नहीं हो पाया है और प्राय: All राज्यों और केन्द्रीय सरकार द्वारा घाटे की वित्त व्यवस्था की नीति अपनायी जा रही है।

लोच का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त को आंशिक Reseller से ही अपनाना सम्भव हो सका है, क्योंकि सरकारी कार्य क्षेत्र और उत्तरदायित्वों में वृद्धि होने के कारण व्यय निरन्तर बढते रहे है। और आय कम होने पर व्ययों को उसी के According कम करने में कठिनाइयां रही है।

उत्पादन का सिद्धान्त- सरकार ने नीति के Reseller में उत्पादकता के सिद्धान्त को अपनाया है लेकिन मितव्ययिता के सिद्धान्त का पूरा पालन न होने के कारण उत्पादकता के सिद्धान्त का भी पूरी तरह पालन नहीं हो पाता।

समान वितरण का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त का Single बडी सीमा तक पालन Reseller गया है और पिछड़े, अविकसित तथा पहाड़ी क्षेत्रों और निर्धन वर्गो पर बड़ी मात्रा में व्यय Reseller जा रहा है।

समन्वय का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त को भी लगभग पूरी तरह अपनाया गया है। केन्द्रीय, राज्य और स्थानीय सरकारों के मध्य आय और व्ययों के स्रोतों के स्पष्ट विभाजन तथा उचित समायोजन की व्यवस्था है।

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