प्रबंध के सिद्धांत

सिद्धान्त Word का प्रयोग प्राय: Single मूलभूत सार्वभौमिक सच्चार्इ अथवा तर्कयुक्त वाक्य से होता है जो कार्य तथा कारण के बीच सम्बन्ध को स्थापित करता है तथा विचार उद्देश्य और कार्य का पथ प्रर्दशन करता है।

इस प्रकार सिद्धान्त समझने तथा किन कार्यों से क्या परिणाम होंगे, का पूर्वानुमान लगाने में सहायक होते हैं। इस प्रकार सिद्धान्त Reseller आधार समस्त कार्यों का सारथी होता है। Single कुशल प्रबन्धक, किसी भी व्यवसाय, उद्योग तथा देश की आर्थिक प्रगति And समृद्धि का सूत्रधार होता है। अत: भावी प्रबन्धकों को कुशल And वैज्ञानिक बनाने के लिए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि वे महान प्रबन्ध गुरूओं के नियमों And सिद्धान्तों से पूर्णतया परिचित हो तथा व्यावसायिक प्रतिस्पर्धियों की प्रकृतिनुसार उनका सुव्यवस्थित सुसंगठित तथा क्रमबद्ध प्रयोग करें।

प्रबन्ध के संबंध में हम कह सकते हैं कि ये मूलभूत सार्वभौमिक सत्य है जो प्रबन्धकीय कार्यों को दिशा देने में, परिणामों की व्याख्या करने में, तथा उनकी भविष्यवाणी करने में सहायक होते हैं । इन सिद्धान्तों का अवतरण आर्थिक क्रियाकलाप के विभिन्न आयामों में प्रबन्धकों के अनुभवों तथा व्याख्या के द्वारा सम्भव हुआ लगता है। इनका प्रमुख उद्देश्य प्रबन्ध सिद्धान्तों को सुव्यवस्थित करना होता है जिससे प्रबन्ध प्रक्रिया में प्रबन्धकों के कार्यों का मार्ग आसान एव लक्ष्योंन्मुख हो सकें। इस प्रकार ये सिद्धान्त वैज्ञानिक प्रक्रिया के Reseller में प्रबन्ध के आधार स्तम्भ के Reseller में कार्य करते रहेंगे। सम्भवत: यही कारण है कि प्रबन्ध सिद्धान्तों का प्रयोग करते समय, भिन्न And परिवर्तनशीलता परिस्थितियों, प्रबन्धक अलग अलग विचार पर ध्यान देते हैं, परिवर्तनशील बाह्य तथा आन्तरिक कारकों का विशेष ध्यान रखते हैं । वास्तव में प्रत्येक प्रबन्धक इन सिद्धान्तों को अपने उद्देश्य तथा अपने चिन्तन के According अलग अलग ढंग से व्याख्यित And प्रयोग करता है। इस प्रकार ये लोचपूर्ण होते हैं तथा Need की पूर्ति हेतु इनको अलग अलग परिस्थितियों के According उपयोग Reseller जा सकता है। वस्तुत: उपरोक्त विश्लेषणानुसार इन सिद्धान्तों की अग्रलिखित विशेषताएं हो सकती हैं –

प्रबंधकीय सिद्धान्तों की उपरोक्त विशेषता के आधार पर सुव्यवस्थित, सुसंगठित तथा श्रेष्ठ सिद्धान्तों के कुछ लक्षणों की प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार से हैं-

प्रबन्ध सिद्धान्तों की सार्थकता उनके उद्देश्य तथा उनके द्वारा प्रबंध के क्षेत्र में प्राप्त किए महत्व पर निर्भर करता है । प्रबन्ध सिद्धान्तों का प्रमुख उद्देश्य प्रबंध शास्त्र में यथाक्रम सिद्धान्तों का सृजन करना होता है जिससे वह प्रबंध व्यवहार, प्रशिक्षण और कार्यालय प्रबंध में उपयोगी बन सकें। इनकी Need इस प्रमुख उद्देश्य के कारण ही उत्पन्न होती है। ये सिद्धान्त प्रबन्ध के लिए व्यवस्थित ज्ञान तथा कार्यात्मक अनुभव का मार्ग खोलते हैं। प्रभावी विधि से अच्छे परिणाम किस प्रकार प्राप्त Reseller जा सकता है। यह सुझाव प्रबंध के सिद्धान्तों से मिलता है तथा ये प्रबन्धकला को सुधारने का प्रयत्न सदैव करते रहते हैं।

ये सिद्धान्त ही प्रबन्ध व्यवहार का सरलीकरण करते हैं। सिद्धान्त के मूल पहलुओं का स्पष्टीकरण करते हैं तथा प्रबन्ध के कार्य व्यवहार में प्रयोग करने के लिए नियमों का प्रतिपादन करने का सुझाव देते हैं तथा आवश्यक आचार विचार की अपेक्षा करने के लिए उचित मापदंडों का निर्माण करते हैं। प्रबंध के सिद्धान्त केवल मूल तथ्यों का स्पष्टीकरण नहीं करते या वे किसी Single परिस्थि के कारणों को ही प्रकार में नहीं लाते वरन किसी विशेष कार्य को करने पर उस व्यवहार अथवा घटना का क्या निष्कर्ष अथवा परिणाम निकलेगा इसका भी पूर्व अनुमान लगाने में सहायक होते हैं। अपनी व्याख्यात्मक तथा पूर्व अनुमान लगाने की विशेषता के कारण ही ये लोचपूर्ण सुझावात्मक तथा व्यवहारात्मक Reseller में प्रबंधकों की विचारशक्ति, निर्णयन तथा कार्यान्वयन में सहयोगी होते हैं। सिद्धान्तों का ज्ञान, नियोजन समस्या समाधान तथा निर्णयन के लिए उद्देश्य साधक तथा सुलझी हुर्इ विधि को विकास करने के लिए प्रबन्धकों को प्रोत्साहित करते हैं। इस प्रकार ये प्रबन्धकों के सहायक होते हैं।

प्रबन्धकों को आंख बन्द कर के इस सिद्धान्त को नहीं अपनाना चाहिए बल्कि उन्हें अपनी चेतन शक्ति तथा अनुभव में वृद्धि के लिए इसका प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार, वे अपने विचारों तथा अनुभवों को और अधिक धनी बना सकते हैं तथा सिद्धान्त And व्यवहार के बीच की दूरी को और कम कर सकते है।

इस प्रकार पर्यवेक्षण व अन्य स्तरों पर प्रबन्धकों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में प्रबन्ध के सिद्धान्तों को पाठ्यक्रम से अलग नहीं Reseller जा सकता। प्रबन्धकों के कार्योें को प्रबन्ध प्रक्रिया तथा सिद्धान्तों का उदाहरण लेकर समझाया जाता है। प्रबंध के सिद्धान्तों का क्षेत्र शोधकार्य करने के लिए भी उपयुक्त माना जाता है चाहे यह शोध अध्ययन सिद्धान्तों का हो अथवा उनको व्यवहार में अपनाने का। उदाहरण के लिए कर्इ शोध अध्ययन कार्य उन दशाओं की पहचान पर किए जाते हैं जिनके अन्तर्गत प्रबंध के विशिष्ट सिद्धान्तो को व्यवहार में प्रभावी बनाया जा सकता है। इसी प्रकार, कर्इ परम्परावादी सिद्धान्तों को प्रयोगाश्रित बल देने वाले विषयों पर शोध कार्य चल रहा है।

विगत शताब्दी में प्रबन्ध गुरूओं ने अनेकानेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन Reseller है। विशेष Reseller से परम्परागत विचारधारा से जुड़े विद्वानों का इनके निर्माण में विशेष योगदान रहा है। इनमें से श्री हेनरी फेयोल ने अपने विस्तृत अनुभवों से कार्यप्रणाली के आधार पर प्रबन्ध के अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन Reseller है।

श्री फेयोल ने अपने कार्यकारी जीवन का प्रारम्भ Single फ्रांसीसी माइनिंग कम्बाइन में मुख्य अधिकारी के Reseller में लम्बे समय तक Reseller तत्पश्चात वे फ्रांस के Single प्रसिद्ध उद्योगपति भी कहलाये। श्री फेयोल ने 14 सामान्य प्रशासनिक सिद्धान्तों की स्थापना की। उन्होंने इस सत्य को स्वीकार Reseller कि उनकी इस सफलता के पीछे अनेक व्यक्तिगत दृष्टिकोण ही नहीं थे बल्कि इस सफलता का कारण उन प्रबन्धकीय विचारधाराओं का भी है जिनको उन्होंने सीखा और सामान्य कार्य दिवसों में प्रयोग Reseller। आइये फेयोल के सिद्धान्तों को समझने का प्रयास करें –

इस सिद्धान्त के According उद्देश्य प्राप्ति हेतु First आवश्यक क्रियाओं का पूर्वानुमान लगाया जाना चाहिए, तत्पश्चात वर्गीकरण, विभागीकरण होना चाहिए और कर्मचारियों में उनकी योग्यता और कुशलतानुसार कार्य का विभाजन सुनिश्चित Reseller जाना चाहिए जिससे कार्य उचित समय पर और मात्रा में सम्पादित हो सके।

अधिकार And दायित्व – 

अधिकार तथा उत्तरदायिता Single ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। प्रत्येक प्रबंधक को भार्रापण करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि यदि किसी व्यक्ति को किसी कार्य को करने का दायित्व सौंपा जाए तो कार्य के सुव्यवस्थित निष्पादन हेतु आवश्यक अधिकार भी दिये जाने चाहिए। बिना अधिकार के कोर्इ भी व्यक्ति कुशलतापूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वाह सुनिश्चित नहीं कर सकता तथा इनमें SingleResellerता रहना भी आवश्यक है।

अनुशासन – 

कर्मनिष्ठा तथा आदेश का पालन करना ही अनुशासन है। समस्त उपक्रम में प्रबन्धकों को अपने कार्यसमूह का नेतृत्व करने के लिए इसका पालन करना चाहिए। फेयोल के According, All स्तरों पर अनुशासन के लिए अच्छे अश्चिाशासियों की Need होती है। उन्होंने उपक्रमों को सुव्यवस्थित Reseller से चलाने के लिए कर्मचारियों के बीच अनुशासन पर बल दिया है तथा अनुशासन तोड़ने पर उन्हें दंड देने की सिफारिश की है।

आदेश की Singleता – 

Single कर्मचारी को समस्त आदेश Single ही अधिकारी से मिलने चाहिए। इससे यह लाभ होता है कि कर्मचारी Single ही अधिकारी के प्रति उत्तरदायी होता है। आदेश की Singleता के अभाव में अनुशासन भंग होने की सम्भावना बनी रहती है तथा संगठन में भ्रान्ति का माहौल रहता है। अत: आदेश को Single ही अधिकारी से आना चाहिए जिससे कि कार्यो का सफल क्रियान्वयन संभव हो सके तथा अनुशासन बना रहे।

निर्देश की Singleता का सिद्धान्त – 

इस सिद्धान्तानुसार यदि संगठन का उद्देश्य Single है तो प्रबन्धक को All क्रियाओं के लिए Single ही निर्देशों का पालन करना चाहिए। इससे संगठन में उद्देश्य की Singleता, कार्य में SingleResellerता तथा समन्वय बना रहता है।

केन्द्रीय हित व्यक्तिगत हित के सवोपरि होना – 

सदस्यों के व्यक्तिगत हितों तथा संकीर्ण विचारों पर उपक्रम के सामूहिक तिहों को, इनको सदैव प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्तिगत स्वार्थ को, यदि वह उपक्रम के हित के विरूद्ध ले तो मान्यता नहीं देनी चाहिए। उपक्रम तथा उसके सदस्यों की भलार्इ के लिए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण निर्णय साबित होता है।

कर्मचारियों का पारिश्रमिक – 

हनेरी फेयोल के मतानुसार, कर्मचारियों का पारिश्रमिक दर तथा भुगतान की विधि उचित व सन्तोषप्रद होनी चाहिए। यदि भुगतान की पद्धति उचित होगी तो कर्मचारी सदैव संतुष्ट रहेंगे And औद्योगिक संबंधों में कभी भी तनावों में नहीं बदलेगी। उन्होंने कर्मचारियों को प्रोत्साहन देने के लिए गैर वित्तीय प्रेरणाएं पर भी बल दिया था।

केन्द्री्रकरण का सिद्धान्त – 

संस्था के प्रशासन में केन्द्रीकरण को अपनाया जाए या विकेन्द्रीकरण को, इसका निर्णय संस्था के हितों, कर्मचारियों की मनोभावनाओं तथा कार्य प्रकृति All बातों का ध्यान रख कर Reseller जाना चाहिए। संस्था में Single ऐसा केन्द्र होना चाहिए जहॉं से समस्त अधिकारो का निर्वहन और समत्स दायित्वों का भार हो।

पदाधिकारी सम्पर्क श्रृंखला – 

‘पदाधिकारी सम्पर्क’ श्रृंखला’ से आशय सर्वोच्च पदाधिकारियों से लेकर निम्नतम पदाधिकारी के बीच सम्पर्क की व्यवस्था के क्रम से है। Second Wordों में संस्था के पदाधिकारी ऊपर से नीचे की ओर Single सीधी रेखा के Reseller में संगठित होने चाहिए तथा किसी भी अधिकारी को अपनी सत्ता श्रेणी का उल्लेंघन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार की व्यवस्था को लोकप्रिय बनाने के लिए संगठन चार्ट का उपयोग Reseller जा सकता है। पदाधिकारियों की क्रम श्रृंखला में से किसी भी स्तर या अधिकारी की अवहेलना होने की स्थिति से असंतोष बढ़ता है तथा आम भावना में कमी की संभावना हो सकती है।

क्रम व्यवस्था – 

उपक्रम में कर्मचारियों तथा माल को Single विधिवत Reseller में रखना व्यवस्था कहलाता है। माल की व्यवस्था में प्रत्येक वस्तु अपने उचित स्थान पर रखी जाती है तथा प्रत्येक वस्तु के लिए स्थान निर्धारित होता है। ‘‘सामाजिक व्यवस्था’’ में प्रत्येक व्यक्ति (कर्मचारी) के लिए Single स्थान निर्धारित Reseller जाता है तथा प्रत्येक कर्मचारी को स्थान (पद) के According कार्य सौंपा जाता है।

समता – 

कार्य करने में लगे All कर्मचारियों के साथ उचित व्यवहार करने को समता कहा जाता है। उचित व्यवहार का Means है अधिकारी वर्ग द्वारा नर्मी तथा न्याय के साथ अधीनस्थों से व्यवहार करना जिससे वे अपने सौंपे गये कार्य को करने के लिए प्रेरित हो। दूसरी ओर, यह अधिकारी वर्ग व अधीनस्थों के बीच भिन्नता का वातावरण भी उत्पन्न करता है।

कार्र्यकाल मेंं स्थायित्व का सिद्धान्त – 

किसी कर्मचारी को नए कार्य को सीखने तथा कुशलतापूर्वक उसका निर्वहन करने में समय लगना स्वाभाविक है। अत: यदि उसे काम सीखने का समुचित समय न दिया जाय तो यह न्याय न होगा। इस प्रकार कर्मचारियों द्वारा जल्दी जल्दी संस्था को छोड़कर चले जाना भी प्राय: कुप्रबंधन का ही परिणाम होता है। फेयोल के According जहॉं तक संभव हो सके कर्मचारियों के कार्यकाल में स्थायित्व होना चाहिए जिससे कि वे निश्चिन्त होकर अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकें।

पहल का सिद्धान्त –

इसका Means यह है कि All कर्मचारियों को साचे ने तथा योजना कार्यान्वित करने का अधिकार होना चाहिए। प्रत्येक प्रबन्धक को अपने अध् ाीन काम करने वाले व्यक्तियों में पहल की भावना को जाग्रत करना चाहिए। अगर कर्मचारी से सोच विचार कर निर्णय लेने के बाद भी कोर्इ गलती हो जाती है तो उन्हें हतोत्साहित नहीं करना चाहिए। इससे कर्मचारी विकास And पहल को बल मिलेगा, सीखने का अवसर प्राप्त होगा और उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास होगा। 

सगंठन ठन की शक्ति उसकी Singleता, सहयागे और Single सूत्र में बंधे रहने में ही है। यदि All Single सूत्र में बंधकर कार्य नहीं करेंगे तो संगठन शीघ्र ही बिखर जायेगा और सामान्य उद्देश्यों की उपलब्धि कदापि संभव नहीं होगी। इसके लिए आदेश में Singleता, सहयोग तथा संघीय शक्ति की ताकत में अटूट विश्वास आवश्यक है।

फ्रेडरिक डब्ल्यू. टेलर का सिद्धान्त

यद्यपि प्रबन्ध का सामान्य विकास अठारहवीं शताब्दी में यूरोप के देशों में होने वाली औद्योगिक क्रान्ति से लगाया जाता है परन्तु उन्नीसवीं शताब्दी तक प्रबन्ध के क्षेत्र में परम्परागत पद्धतियों का ही प्रयोग होता रहा। बीसवीें शताब्दी के प्रारम्भ में औद्योगिक प्रणाली के ढॉंचे में बढ़ती हुर्इ जटिलताओं And उत्पादन की कारखाना प्रणाली से उत्पन्न अनेक समस्याओं के समाधान के लिए वैज्ञानिक प्रबन्ध का विकास हुआ। First ब्रिटेन के विद्वान चाल्र्स बेवेज ने 1932 में अपनी पुस्तक Economy of Manufacturers में वैज्ञानिक प्रबन्ध Word का प्रयोग Reseller परन्तु वास्तव में वैज्ञानिक प्रबन्ध का मूल विकास अमेरिकन विद्वान एफ. डब्ल्यू. टेलर द्वारा 1911 में रचित पुस्तक Principle of Scientific Management में प्रस्तुत Reseller गया।

फ्रेडरिक विन्सलो टेलर संयुक्त राज्य अमेरिका के निवासी थे। व्यावसायिक प्रबन्ध के क्षेत्र में ये First व्यक्ति थे जिन्होंने प्रबन्ध के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सूत्रपात Reseller इसलिये इन्हें वैज्ञानिक प्रबन्ध के जनक के नाम से सम्बोधित Reseller जाता है। टेलर ने अपना कार्यकारी जीवन 19 वर्ष की आयु में अमेरिका के फिलाडेल्फिया में क्रेम्प शिपयार्ड में Single सामान्य मशीन प्रशिक्षाथ्र्ाी And टर्नर के Reseller में आरम्भ Reseller। 3 वर्ष के उपरान्त इनकी Appointment मिडवैल स्टील वक्र्स में मशीन श्रमिक के Reseller में हुर्इ और 2 वर्ष के उपरान्त इनकी पदोन्नति टोलीनायक के Reseller में हो गर्इ।

अपनी योग्यता, प्रतिभा और लगन के परिणामस्वReseller 4 वर्ष के उपरान्त Meansात 28 वर्ष की आयु में ही इसी संस्था में मुख्य अभियन्ता बन गये। इसी बीच मध्यकालीन स्कूल में अध्ययन करके उन्होंने मास्टर आफ इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त की और 1898 में इस संस्था को छोड़कर बेथलेहन स्टील कम्पनी में 1901 तक कार्यभार सम्भाला। इस कम्पनी को छोड़ने के पश्चात आपने अपना शेष जीवन कारखाना प्रबन्ध के परामर्शदाता ओर प्रबन्ध विज्ञान के मूलभूत विचारों की खोज करने और उनके प्रचार व प्रसार करने में लगाया । आइये टेलर द्वारा दिये गये वैज्ञानिक प्रबन्धन की अवधारणा को और गहरार्इ से समझने का प्रयास करें।

वैज्ञानिक प्रबंध का सिद्धान्त

वैज्ञानिक प्रबंध के अपने नियम तथा सिद्धान्त प्रतिपादित है जिसका संस्था में कुशलता प्राप्ति के लिए दृढ़ता से पालन Reseller जाना आवश्यक है जो कि है।

कार्य का वैैज्ञानिक विश्लेषण, अध्ययन तथा मूल्यांकन – 

वैज्ञानिक प्रबन्ध ने प्रत्येक श्रमिक के लिये कार्य प्रतिमानों की स्थापना की है। ये कार्य प्रतिमान प्रबन्धकों द्वारा कर्मचारियों की औसत कार्य क्षमता को ध्यान में रखकर स्थापित किये जाते हैं। इनकी स्थापना करते समय कार्य विश्लेषण, कार्य अध्ययन तथा प्रयोगों को आधार बनाया जाता है।

टेलर ने कार्य- प्रतिमान स्थापित करने के लिए वैज्ञानिक विधि के अनुकरण का सुझाव दिया है जिसके दो पहलू हैं – कार्य अध्ययन And कार्य सुधार।

(1) कार्य अध्ययन – इससे आशय है – प्रत्यके क्रिया को पूर्ण करने की याग्यता पर प्रभाव डालने वाले विभिन्न तत्वों And पक्षों का सुव्यवस्थित,निष्पक्ष तथा आलोचनात्मक अध्ययन करना, जिससे कार्य विधि में सुधार Reseller जा सके। कार्य अध्ययन के दो पक्ष होते हैं – कार्य विधि अध्ययन तथा कार्यमापन ।

(अ) कार्य विधि अध्ययन – इसलिए सबसे First उत्पादन की सम्पूर्ण प्रक्रिया का परीक्षण Reseller जाता है तथा इसके आधार पर Single प्रक्रिया चार्ट का निर्माण Reseller जाता है। तत्पश्चात प्रबन्धक सामग्री के आवागमन की दूरी को कम करने, साज सामान को उठाने रखने, Single स्थान से Second स्थान पर लाने ले जाने, निरीक्षण करने तथा संग्रह करने की विधियों में सुधार करने के लिए विचार Reseller जाता है और इस प्रकार कार्य विधि को सरल, मितव्ययी तथा उपयोगी बनाया जाता है।

(ब) कार्य मापन – इसके अन्र्तगत अग्रलिखित तीन प्रकार के अध्ययन सम्मिलित किये जाते हैं –
(1) समय अध्ययन – यह Single एसे ा परीक्षण है जिसके अन्तर्गत किसी क्रिया को करने में लगने वाले समय को निर्धारित Reseller जाता है And उसका लेखा जोखा रखा जाता है। यह किसी कार्य को करने में उपयोग की जाने वाली विधियों और नीतियों का विश्लेषण करना, उस कार्य को करने का सर्वोत्तम विधि के व्यावहारिक तथ्यों का विकास करना तथा आवश्यक कार्यों की प्रभावोत्पादकता को मापने का प्रमाण प्रस्तुत करता है And उस आधार को बताता है जिस पर पारिश्रमिक निर्धारण की क्रिया निर्भर करनी चाहिए। ऐसा करते समय श्रमिक व नियोक्ता दोनों के हितों को ध्यान में रखना आवश्यक है। यह अध्ययन स्टॉप वाच की सहायता से Reseller जाता है।

(2) गति अध्ययन – गति अध्ययन Single एसे ी विधि है जिसके द्वारा किसी कार्य के सम्भव आधारभूत तत्वों का अलग अलग तथा Single Second केसाथ मिलाकर अध्ययन Reseller जाता है And ऐसे तरीके विकसित किये जाते हैं जिनमें न्यूतम समय लगे तथा न्यूनतम क्षति हो। इसका प्रमुख उद्देश्य कार्यकरने की सर्वश्रेष्ठ विधि का पता लगाना है। गति अध्ययन के लिए निम्नलिखित विधियों को अपनाना चाहिए।

  1. कुछ श्रमिकों का चयन And उनकी कार्य में होने वाली हरकतों का विश्लेषण। 
  2. कैमरे या स्टाप वाच की सहायता से प्रत्येक कार्य में लगने वाले न्यूनतम समय की गणना।
  3. All आवश्यक, त्रुटिपूर्ण, धीमी, और अक्षम्य गतियों को समाप्त करना।
  4. कार्य करने की सर्वोत्तम गतियों तथा न्यूनतम समय का लेखा रखना।

(4) थकान अध्ययन – प्राय: यह दख्े ाा गया है कि Single व्यक्ति की कार्यक्षमता पूरे दिन समान नहीं रहती हैं उसे काम करते करते जितना अधिक समय होता जाता है उसकी कार्य शक्ति उतनी ही क्षीण होती जाती है। इसका कारण यह है कि जैसे जैसे कार्य का समय बढ़ता जाता है उसकी थकान बढ़ती जाती है, उसका उत्साह क्षीण होता जाता है तथा उसकी शारीरिक तथा मानसिक शक्ति, घटती जाती है। इससे उत्पादन की मात्रा कम होती है कार्य की किस्म खराब होती है तथा दुर्घटनाओं की मात्रा में वृद्धि होती है।

‘थकान अध्ययन’ के अन्तर्गत यह पता लगाया जाता है कि थकान कब, कैसे और क्यों होती है? इसके आधार पर थकान कम करने वाली विधियों को खोजा जाता है।

प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धति – 

यह पद्धति श्रमिकों को अधिक कार्य करने के लिए प्रोत्वाहित करती है ताकि उत्पादन की मात्रा में वृद्धि की जा सके। इसके लिए टेलर ने विभेदात्मक मजदूरी पद्धति को अपनाने का सुझाव दिया है। इस पद्धति का उद्देश्य श्रमिकों से उनकी कार्यक्षमता के अनुकूल कार्य कराकर अधिक दर से पारिश्रमिक देना है। दर का निर्धारण वैज्ञानिक आधार पर Reseller जाता है।समय तथा गति अध्ययन करके प्रत्येक कार्य को करने का प्रमापित समय तथा प्रमापित विधि का पता लगाया जाता है। इसे अन्तर्गत कुशल श्रमिकों को ऊॅंची दर से मजदूरी मिलती है। जबकि अकुशल श्रमिक को नीची दर से मजदूरी मिलती है।

योजना बनाना – 

योजना बनाने के लिए Single अलग विभाग (नियाजेन विभाग) की स्थापना की जाती है। औद्योगिक उपक्रमों में नियोजन से अभिप्राय यह निश्चित करना है कि –

  1. क्या कार्य Reseller जाना चाहिए?
  2. कार्य कैसे Reseller जाना चाहिए?
  3. कार्य किस प्रकार Reseller जाना है?
  4. कार्य किस समय Reseller जाना है? तथा,
  5. कार्य किस व्यक्ति के द्वारा Reseller जाना है?

योजना विभाग निम्नलिखित प्रमुख कार्य करता है –

  1. उत्पादन के लिए आवश्यक सामग्री का आदेश देना।
  2. उत्पादन के लिए आवश्यक मशीनों तथा सुविधाओं की व्य उत्पादन प्रंक्रिया को निर्धारित करना।
  3. प्रयोगों के आधार पर प्रत्येक क्रिया को करने में लगने वाले समय को निध्र्धारित करना।
  4. योजना के According उत्पादन कार्य चलाना तथा यह देखना कि समस्त सुविध् ाायें योजनानुसार उपलब्ध हो जायें।
  5. वास्तविक प्रगति के आंकड़े व रिपोर्ट तैयार करना तथा उन्हें Windows Hosting रखना।

श्रमिको का वैज्ञानिक चुनाव And प्रशिक्षण – 

श्रमिकों के वैज्ञानिक चयन से अभिप्राय ऐसी विधि से है जिसके अन्तर्गत सम्बन्धित कार्य का विश्लेषण करके, निष्पक्ष आधार पर केवल उन योग्यताओं व गुणों को रखने वाले श्रमिकों का ही चयन Reseller जाता है जो उस कार्य को करने की योग्यता रखते हैं। श्रमिकों का चयन कार्य की अपेक्षाओं के अनुReseller होता है।

श्रमिकों के चयन के पश्चात उनकी कार्य के कुशल संचालन के लिए प्रशिक्षण की Need होती है। प्रशिक्षण के द्वारा नये ज्ञान को प्राप्त Reseller जाता है। प्रगति के अवसर बढ़ते हैं संगठनात्मक स्थिति बढ़ती है कार्य करने के सर्वोत्तम तरीकों का प्रयोग Reseller जाता है तथा श्रमिकों की कार्यकुशलता में वृद्धि होती हैं।

वैज्ञानिक प्रशिक्षण से ही जुड़ी हुर्इ Single अन्य समस्या इन श्रमिकों के लिऐ पदोन्नति की उपयुक्त व्यवस्था करना है। पदोन्नति का Means है – उच्च पद पर स्थानान्तरण और यह तभी सफल हो सकता है जब वह व्यक्ति नये पद के उत्तर दायित्व के विषय में अच्छी तरह प्रशिक्षित हो और स्वयं उसका स्थान ग्रहण करने के लिए किसी अन्य व्यक्ति से प्रशिक्षण प्राप्त कर सके।

प्रमापीकरण –

प्रमापीकरण Single ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत Single निश्चित प्रकार, गुण भार आदि के उत्पादों का उत्पादन Reseller जाता है। इसमें तीन तत्वों का प्रमापीकरण महत्वपूर्ण है –

  1. वस्तुओंं का चयन And उपयोग – प्रमापित गुणों के उत्पाद के निर्माण के लिए केवल प्रमापित प्रकार के साधनों की ही व्यवस्था की जानी चाहिए। कच्चा माल अच्छी किस्म का तथा Single सा होना चाहिए क्योंकि यह श्रमिकों की कार्यकुशलता को प्रभावित करता है। इसके साथ साथ प्रयोग की विधि भी वैज्ञानिक होनी चाहिए।
  2. नवीनतम And उन्नत मशीनों, यंत्रों व उपकरणों का प्रयोग – वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि उपर्युक्त तथा नवीनतम मशीनों व यंत्रों का प्रयोग Reseller जाये। इससे श्रमिकों की कार्यकुशलता And उत्पादन में वृद्धि होती है। किस्म में सुधार होता है तथा लागत में कमी आती है। इसके अतिरिक्त Single ही कार्य को करने वाले अलग अलग श्रमिकों की कार्य कुशलता की Single Second से तुलना करने के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक श्रमिक के पास मशीन, यंत्र व अन्य उपकरण Single समान हो। Single ही प्रकार की मशीनें आदि लगाने से प्रशिक्षण की तथा मशीनों की देखभाल की लागत कम रहती है, उनसे प्राप्त उत्पादन की किस्म में SingleResellerता आती है और उत्पादन की प्रक्रिया सरल हो जाती है।
  3. काम करने की दशायेंं – काम के निर्धारित मानकों को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि कारखाने में All स्थानों पर कार्य दशायें तथा वातावरण उपयुक्त, स्वास्थ्यप्रद तथा Single जैसा हो। उत्तम व स्वास्थ्यप्रद काम करने की दशाओं का Means यह है कि कार्य स्थल पर प्रकाश, स्वच्छ वायु, उपयुक्त तापमान तथा स्फूर्तिदायक जलवायु की उचित व्यवस्था हों। मशीनों के साथ काम करने की स्थिति में कारीगरों की Safty तथा उसकी सुविधा दोनों का विचार रखा जाना चाहिए।

प्रKingीय पुर्नगठन – 

वैज्ञानिक प्रबन्ध के क्षत्रे में प्रKingीय पुर्नगठन के लिए क्रियात्मक संगठन प्रणाली आधुनिक प्रबन्ध को टेलर की प्रमुख देन है। व्यावसायिक प्रबन्ध तथा प्रशासन के क्षेत्र में टेलर First व्यक्ति हुए जिन्होंने किसी कार्य के दो मूल अंगों नियोजन तथा निष्पादन’ को अलग-अलग रखने के लिए क्रियात्मक संगठन व्यवस्था को अपनाने पर बल दिया। विशिष्टीकरण पर आधारित इस संगठन में उत्पादन के कार्य को क्रियाओं के According बॉंट दिया जाता है तथा यथासम्भव Single व्यक्ति को ही Single प्रकार का कार्य सौंपा जाता है जिसका वह विशेषज्ञ होता है।

कुशल लागत लेखांकन पद्धति – 

उत्पादन की लागत ज्ञात करने  अपव्ययों को रोकने तथा लागत को कम करने के लिए Single कुशल लागत लेखांकन पद्धति को अपनाना आवश्यक है। लागत लेखकों को तैयार करने के लिए कुशल व्यक्तियों को नियुक्त Reseller जाना चाहिये।

पारस्परिक सहयोग – 

टेलर ने श्रमिकों और प्रबन्धकों के पारस्परिक सम्बन्ध् ाों में मानसिक क्रान्ति की Need पर जोर दिया है। टेलर का विचार है कि ‘‘वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत दोनों पक्षों के मानसिक व्यवहार में जो महान क्रान्ति होती है वह यह है कि दोनों पक्ष ही अति उपार्जन के विभाजन को सार्वजनिक महत्व का विषय मानना छोड़ देते हैं और मिलकर अपना प्रयास इस अति उपार्जन को इतना अधिक बढ़ाने की तरफ लगा देते हैं जिससे कि यह अति उपार्जन स्वयं इतना बड़ा हो जाये कि यह विवाद हो कि इसको कैसे बॉंटा जाये, अनावश्यक बन जाये।’’ इसका कारण यह है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध के परिणामस्वReseller संस्था की उत्पादकता कर्इ गुना अधिक बढ़ जायेगी और फलस्वReseller प्रबन्धकों के लाभ का अंश और श्रमिकों की मजदूरी का अंश दोनों ही बढ़ जायेंगे।

मानसिक क्रान्ति –

श्रम तथा प्रबन्ध के बीच मधुर सम्बन्धों की स्थापना के लिए टेलर ने मानसिक क्रान्ति पर जोर दिया है। प्राय: यह देखने में आता है प्रबन्ध वर्ग का यह विचार होता है कि श्रमिक कार्य से जी चुराते हैं और कम कार्य करके अधिक पारिश्रमिक प्राप्त करना चाहते हैं और दूसरी ओर श्रमिकों का यह विचार होता है कि प्रबन्ध अथवा नियोक्ता वर्ग सदैव उनका शोषण करता है, उनसे कार्य अधिक कराया जाता है और पारिश्रमिक कम दिया जाता है। प्रबन्ध अथवा नियोक्ता वर्ग और श्रमिक वर्ग के मस्तिष्क में बैठे हुए Single Second के प्रति गलत And विरोधी विचारों में परिवर्तन करके, दोनों को Single Second के निकट लाना और उद्देश्यों तथा हित की Singleता पर बल देना ही मानसिक क्रान्ति कहलाती है।

मैरी पार्कर फोलेट का योगदान

मैरी पार्कर फोलेट यू.एस.ए. की Single प्रसिद्ध सामाजिक, राजनैतिक दार्शनिक थी। उन्होंने समन्वय पर अपना ध्यान केन्द्रित Reseller और इस प्रक्रिया से संबंधित कुछ सिद्धान्तों को प्रतिपादित Reseller, जो इस प्रकार है –

प्रत्यक्ष संपर्क का सिद्धान्त  

किसी भी प्रकार का समन्वय करने में प्रबन्धकों व अन्य व्यक्तियों को Single Second के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क करना चाहिए। उन्हें प्रबन्धकों के द्वारा अपनार्इ जाने वाली पदानुक्रमिका को त्याग देना चाहिए। इससे देरी करने तथा अधिक समय लेने वाले संवहन की विधियों से छुटकारा मिल जाता है।

प्रारम्भिक चरणोंं मेंं ही समन्वय करने का सिद्धान्त  

कार्य शुरू होने के प्रारम्भ में ही समन्वयन कार्य को अपनाकर अंत तक उस पर कार्यान्वयन करने में निश्चित ही सफलता प्राप्त होती है। अन्य Wordों में प्रबन्धक तथा निचले स्तर पर कार्यरत कर्मचारियों को कार्य प्रारम्भ होने के समय से ही समन्वय प्रक्रिया में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित Reseller जाना चाहिए।

All कारकों के पारस्परिक संबंधोंं वाला सिद्धान्त –

प्रत्येक संगठन व्यवस्था में उद्देश्य, कार्य प्रक्रियाएं, भूमिकाएं तथा सम्बन्ध आपस में जुड़े हुए होते हैं। संगठन के प्रत्येक भाग का आपस में गहरा संबंध होता है। विपरीत प्रक्रियाओं, निपुणता, व्यवहार तथा उपक्रम के सदस्यों के व्यवहार में SingleResellerता लाना ही समन्वय है।

समन्वयन की सतत् प्रक्रिया का सिद्धान्त –

समन्वयन न तो Single ही बार करने की प्रक्रिया है और न ही निर्धारित समय के बाद। यह तो Single सतत् प्रक्रिया है। प्रबंधकों को तो उपक्रम के कार्यों को सुचारू Reseller से चलाने के लिए सदैव ही सतर्क रहना पड़ता है।

परिस्थिति के अनुुसार अधिकार का सिद्धान्त 

उपक्रमों में अधिकार के उद्देश्य को सही ढंग से समझने की Need पर फोलेट ने बल दिया था। उनके According अधिकार का उद्देश्य अन्य व्यक्ति पर शासन नहीं होता। बल्कि इसका उद्देश्य तो उपक्रम के कार्यों में Singleीकरण तथा सामंजस्य स्थापित करना होता है। विभिन्न परिस्थितियों को अपने ढंग से सुलझाने के लिए ही प्रबन्धकों को अधिकार दिया जाता है। क्या करना है और कैसे करना है, परिस्थिति के According ही निर्णय लेना होता है। प्रबंधकों तथा अन्य व्यक्तियों को परिस्थितियों से ही आदेश लेना चाहिए, Single Second से नहीं।

    अन्य महत्वपूर्ण सिद्धान्त

    उद्देश्योंं की Singleता का सिद्धान्त – 

    संगठन के All घटकों को इस प्रकार संयोजित Reseller जाना चाहिए जिससे कि उसके निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त Reseller जा सके। हर विभाग या अधिकारी को अपने अपने लक्ष्य प्रस्तुत नहीं करना चाहिए, बल्कि विभागीय कार्यों और उद्देश्यों की Creation संगठन के अंतिम उद्देश्यों की प्राप्ति के अनुReseller ही करनी चाहिए। विभागीय उद्देश्य स्वयं में उद्देश्य नहीं होते अत: संगठन के उद्देश्यों से उनका कोर्इ विरोध नहीं होना चाहिए।

    पर्यवेक्षण के विस्तार का सिद्धान्त – 

    Single अधिकारी के पर्यवेक्षण क्षेत्र में अधिकतम उतने ही कर्मचारी दिये जाने चाहिए जिनको वह सुव्यवस्थित Reseller से नियंत्रित कर सके। पर्यवेक्षण के विस्तार की सीमा, कार्य का स्वभाव, गुण, इमारतों की बनावट, पर्यवेक्षण की लागत, निरीक्षकों और अधीनस्थों की उपलब्ध संख्या और कुशलता आदि अनेकों बातों को ध्यान में रखकर निश्चित की जानी चाहिए।

    संतुलन का सिद्धान्त – 

    यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि संघटित कार्य के लिए विभिन्न विरोधी वार्ता हितों और विचारों में अधिक संतुलन बनाये रखना चाहिए। उदाहरण के लिए अधिकार और दायित्व में विभिन्न पक्षों के हितों में, कार्य निष्पादन और उसके प्रतिफल में, प्रतिष्ठान के सामान्य हित और कर्मचारियों के व्यक्तिगत हितों में सन्तुलन बनाए रखना, Single अच्छे संगठन के लिए आवश्यक है क्योंकि संगठन Single जटिल कार्य समझा जाता है

    समन्वय की सुविधा का सिद्धान्त – 

    संगठन का विकास इस ढंग से Reseller जाना चाहिए जिससे विभिन्न क्रियाओं और विभागों के कार्यों में समन्वय, नियंत्रण और निर्देशन की सुविधा रहे।

    प्रबन्ध विकास का सिद्धान्त – 

    इस सिद्धान्त के According संगठन ऐसे Reseller जाना चाहिए जिससे कि कर्मचारियों में प्रबन्ध क्षमता का विकास हो सके। किसी बड़ी संस्था में संगठन द्वारा प्रबन्धकीय क्षमता, योग्यता और अनुभव का विकास बहुत आवश्यक होता है। यह संगठन में उचित प्रशिक्षण के द्वारा ही संभव है। प्रबन्धकों को उनके अनुभवों में वृद्धि के लिए विभिन्न स्थितियों में कार्य करने का अवसर देना चाहिए, साथ ही प्रबन्धकों को अपनी बुद्धि तथा विवेक के प्रयोग तथा स्वतंत्र विचार विमर्श का अवसर भी मिलना चाहिए।

    निरन्तरता का सिद्धान्त – 

    संगठन में उचित स्थान उपलब्ध कराए जाने चाहिए जिससे कि प्रतिष्ठान का अस्तित्व निरन्तर अक्षुण्ण रह सके। संगठन में आधुनिकता बनाए रखने के लिए सदैव नए विचारों और प्रयोगों को बढ़ावा देते रहना चाहिए, अन्यथा प्रतिष्ठान गतिहीन हो जाएगा। प्रतिष्ठान के उद्देश्यों, नीतियों और संCreation का समय-समय पर पुनरावलोकन होते रहना चाहिए तथा नर्इ और आवश्यक नीतियों का प्रतिस्थापन Reseller जाना चाहिए। इससे संगठन सदैव प्रगतिशील बना रहता है।

    कुशलता का सिद्धान्त – 

    संगठन ऐसा होना चाहिए जिसमें समय, शक्ति और धन का अपव्यय न हो, और उनका सर्वोत्तम उपयोग संभव हो सके। प्रतिष्ठान के All Humanीय और भौतिक साधनों के विवेकपूर्ण उपयोग से ही कार्य कुशलता बढ़ती है। अत: संगठन में कार्य कुशलता के सिद्धान्त को प्रभावी Reseller से अपनाया जाना चाहिए।

    सहभागिता का सिद्धान्त – 

    यह सिद्धान्त प्रबन्धकीय निर्णयों में अधीनस्थ अधिकारियों And कर्मचारियों की सहभागिता, सहयोग And उसके परामर्श को सुनिश्चित करने पर बल देता है। इससे निर्णयों की स्वीकार्यता बढ़ती है और कर्मचारियों के मनोबल में निरन्तर वृद्धि होती है।

    अपवाद का सिद्धान्त – 

    इस सिद्धान्त के According प्रबन्धकों को अपना ध्यान केवल महत्वपूर्ण मामलों पर केन्द्रित रखना चाहिए And दैनिक कार्यों को कार्यरत कर्मचारियों पर छोड़ देना चाहिए। इससे उच्चाधिकारियों को चिन्तन And नियोजन का अधिक समय मिल सकेगा

    समर्थनात्मक सम्बन्ध का सिद्धान्त – 

    इसके According प्रबन्ध को चाहिए कि वह अपने अधीनस्थों को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और नैतिक सहारा दे। उनके कार्यों And निर्णयों की सराहना करें और उनके मनोबल को उठाने में सहयोग दें।

      सार्वभौमिकता पर विचार

      परम्परावादी लेखकों की निरंतर चली आने वाली विषम वस्तुओं में Single विषय वस्तु यह भी है कि क्या उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त सार्वभौमिक है। सार्वभौमिकता के सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि प्रबन्ध सिद्धान्त विश्व के All स्थानों के All उपक्रमों में लाभपूर्ण Reseller से अपनाए जा सकते हैं चाहे उपक्रमों की भिन्नता तथा कार्य करने का वातावरण कितना ही भिन्न क्यों न हो। प्रबन्ध सिद्धान्त की सार्वभौमिकता पर विचार करते समय हम प्रबन्ध सिद्धान्तों के पक्ष में निम्नलिखित तर्कों को प्रस्तुत कर सकते हैं।

      परम्परावादी प्रबन्ध सिद्धान्तों को ‘‘मूलभूत सत्य’’ का नाम दिया गया है।

      विज्ञान के क्षेत्र में जिस प्रकार समय तथा अवधि से न प्रभावित होने वाले ‘‘मूलभूत सत्य’’ हैं जिनकी सार्वभौमिकता चुनौती से परे है। द्वितीय, सम्पूर्ण विश्व में All उपक्रमों का उद्देश्य Single सा ही है उदाहरण के लिए समाज द्वारा मांगे जाने वाले उत्पादो/सेवाओं की पूर्ति करना। इन उद्देश्यों की भली प्रकार से प्राप्ति के लिए प्रबंध सिद्धान्त उपक्रमों की योग्यता में वृद्धि करते हैं, अत: वे All उपक्रमों पर Single ही Means में लागू होते हैं Third, किसी भी प्रकार के उपक्रम में प्रबंध सिद्धान्तों को लागू Reseller जा सकता है क्योंकि वे लोचपूर्ण होते हैं। फिर, प्रबंध सिद्धान्तों की सर्वोत्कृष्ट विवेकता तथा व्यावहारिक उपयोगिता के कारण विश्व भर के उपक्रम अपने ढॉंचे तथा प्रक्रिया के निर्धारण में इन सिद्धान्तों का प्रयोग करते हैं

      इस तर्क के आधार पर इन सिद्धान्तों के अपनाए जाने के कारण उनके विवेक तथा व्यावहारिक मूल्य हैं उपक्रमों की विविधता तथा जटिलता नही। Fourth, प्रबन्धक जो इन सिद्धान्तों तथा प्रबंध के सैद्धान्तिक प्रयोग में पूर्णत: प्रशिक्षित हैं तथा अन्यथा भी विविध प्रकार से अनुभवी And कुशाग्र हैं । इन सार्वभौमिक प्रबंध के सिद्धान्तों का प्रयोग किसी भी प्रकार के उपक्रम में तथा किसी भी परिस्थिति में कर सकते हैं। अंतिम यह भी संभव है कि कुछ प्रबंध सिद्धान्त परिस्थितियों में कुछ उपक्रमों में लागू न हो पाएं। वे तब अफवाह ही कहलाएंगे तथा वे प्रबंध सिद्धान्तों की सार्वभौमिकता को अमान्य नहीं कर सकते। इसका Means यह है कि प्रत्येक नियम की ही भांति प्रत्येक सिद्धान्त के अपने ही अपवाद होते हैं।

      सार्वभौमिकता के सिद्धान्त के समर्थन में यह कहा जा सकता है कि उपक्रमों की Single बड़ी संख्या सम्पूर्ण विश्व में, अमीर तथा गरीब पश्चिम से पूरब तक, पूंजीगत और सामाजिक All देशों में परम्परावादी सिद्धान्तों के आधार पर डाले गये हैं। यह भी कहा जा सकता है कि नवीनतम तथा सर्वाधिक आधुनिक उपक्रम मील अपना ढॉंचा तंत्र तथा प्रक्रियाओं को निर्धारित करने के लिए परम्परागत प्रबंध सिद्धान्तों की ओर निहारते रहते है। उस संदर्भ में कहा जा सकता है कि अनुक्रम अधिकार (आदेश की श्रृंखला) केन्द्रीयकरण तथा विकेन्द्रीयकरण, अधिकारों का हस्तांतरण नियंत्रण की सीमा, कार्यात्मक अंतर आदि के आधार पर ही दन उपक्रमों की Resellerरेखा बनार्इ जाती है।

      किन्तु इस सिद्धान्त को समस्त विश्व से समर्थन नहीं मिल पाया है। इस सिद्धान्त के आलोचक अपने तर्क की पुष्टि के लिए फैयाल का भी उदाहरण देते हैं जबकि फैयोल प्रबंध प्रक्रिया सिद्धान्तों तथा उनकी सार्वभौमिकता के प्रबल समर्थक थे। फैयोल ने कहा था, ‘‘मै सिद्धान्त Word का प्रयोग करूॅंगा, किन्तु इसकी अनम्यता अथवा कठोरता से पृथक रहना चाहूॅंगा क्योंकि प्रबन्ध में निरपेक्षता अथवा अनम्यता (कठोरता) का कोर्इ स्थान नहीं है, यह सब तो केवल अंश का प्रश्न है। विभिन्न तथा बदलती हुर्इ परिस्थितियों के लिए स्थान रखना ही चाहिए। परिस्थितियों के विभिन्न समूह में प्रबंध के सिद्धान्तों की Single सीमित सार्थकता रहती है। परिस्थितियों के विभिन्न समूह में वह अपनी सार्थकता खो बैठते हैं अथवा कम कर लेते हैं। यह भी तर्क दिया जाता है कि उपक्रम तथा प्रबंध की परिस्थितियॉं इतनी परिवर्तनशील And जटिल है कि वे पूर्व सिद्धान्तों द्वारा नियंत्रित नहीं की जा सकती है।

      सिद्धान्तों की सीमाएँ

      बड़ी संख्या में प्रबंधकों का मत है कि प्रबंध के सिद्धान्त कर्इ सीमाओं से ग्रसित हैं। Single उम्र वर्ग तो प्रबंध के सिद्धान्तों के बिल्कुल ही विपरीत है तथा ‘‘सिद्धान्तों द्वारा प्रबंध की विचारधारा’’ को अनुपयोगी, भ्रमात्मक और हानिकारक बनाता है। आइये प्रबंध सिद्धान्तों की सीमाओं को समझने का प्रयास करें –

      (1) अधिकतर सिद्धान्त इस शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में प्रतिपादित किए गये थे जब उपक्रम अपेक्षाकृत सरल थे तथा अपेक्षाकृत स्थायी परिस्थितियों में कार्य करते थे। अत: इन सिद्धान्तों में अपने समय की सरलता तथा स्थायित्व दिखार्इ देती है। तब से इन दश कों तथा वर्षों में तकनीकी तथा आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य परिस्थितियों में तीव्रता के साथ होने वाले परिवर्तनों के कारण उपक्रम तथा वातावरण दोनों ही अत्यधिक जटिल And प्रतियोगात्मक बन चुके हैं। वर्तमान समय के बदलते हुए वातावरण में कार्यरत आधुनिक जटिल उपक्रमों पर लागू इन प्रबंध के सिद्धान्तों की सार्थकता तथा उपयोगिता पर गंभीर शंकाएं उठार्इ जा रही हैं।आधुनिक प्रबंध सिद्धान्त समर्थकों में से कुछ इन सिद्धान्तों में सुधार करने के पक्ष में हैं जिससे ये वर्तमान परिस्थितियों के अनुReseller ढाले जा सकें जबकि अन्य अधिक उपयुक्त सिद्धान्तों द्वारा इनके मूलत: प्रतिस्थापन के पक्ष में हैं।

      (2) परम्परावादी प्रबंध के सिद्धान्तों का परीक्षण करने से मन में यह विचार उठता है कि उपक्रम बंद तंत्र व्यवस्था में कार्य कर रहे हैं, बाह्य वातावरण तथा घटनाओं और उनसे होन वाले परिवर्तन से उनका कोर्इ संबंध नहीं हैं । संभवत: परंमपरावादी लेखकों में प्रबंध के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने का कार्य सरलीकरण करने के लिए इन मान्यताओं को अपनाया। वास्तविकता यह है कि उपक्रम अपेक्षाकृत खुला तंत्र है। वे अपने वातावरण में कार्य करते हैं तथा पर्याप्त Reseller से इससे प्रभावित होते हैं। यह बात जो परम्परावादी प्रबुद्ध युग में थी वह अब भी पार्इ जाती है। खुले तंत्र वाली प्रकृति के उपक्रमों को परम्परावादी प्रबंध सिद्धान्तों में जिस सीमा तक अनदेखा Reseller है, उसके लिए उनको अवास्तविक कहना सही होगा।

      (3) प्रबंध के सिद्धान्तों का आधार बहुत कम वैज्ञानिक है तथा उन्हें बहुत कम अनुभव सिद्ध सहायता प्राप्त हैं।

      You may also like...

      Leave a Reply

      Your email address will not be published. Required fields are marked *