न्यायिक सक्रियता

न्यायिक सक्रियता की उत्पत्ति

प्रजातन्त्र के तीन प्रमुख स्तम्भों न्यायपालिका, विधायिका And कार्यपालिका में से जब विधायिका तथा कार्यपालिका स्वयं को प्रदत्त कार्यों को करने में शिथिलता प्रकट करें या असमर्थ हो जाये तो प्रजातंत्र के Third स्तम्भ के Reseller में न्यायापालिका इन कार्यों का संपादन करने हेतु आगे आती है। यही अवधारणा न्यायिक सक्रियता कहलाती है। न्यायिक सक्रियता की संकल्पना का त्वरित गति से विकास उच्चतम न्यायालय द्वारा मेनका गांधी बनाम भारत संघ (AIR 1978 SC 597) के मामले में दिये गये निर्णय के उपरान्त हुआ।

न्यायिक सृजनशीलता Single निर्धारित तरीके And मानकों के According न्यायिक विवेक का प्रयोग करके की जाती है। विगत कुछ दशकों से न्यायिक सक्रियता की बात जोर पकड़ रही है। यद्यपि इसका नकारात्मक And रूढ़िवादी स्वReseller अमेरिका में 1930 के दशक में तथा भारत में 1950-60 के दशक में प्रभावकारी रहा है। फिर इसके प्रगतिशील स्वReseller की Discussion विगत अर्द्धशतक से ज्यादा समय से प्रकाश में आयी है। जहाँ तक न्यायिक सक्रियता के प्रासंगिकता की बात है यहाँ पर इस परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक उपबन्ध तथा उसके ऐतिहासिक पृश्ठभूमि का अध्ययन समीचीन होगा।

फ्रांस के राजनीतिक दार्शनिक बैरेन तथा मॉण्टेस्क्यू ने अपनी पुस्तक ‘Spirit de laws’ में किसी भी लोकतंत्रात्मक राज्य में प्रशासन के सम्बन्ध में Single मॉडल प्रतिपादित Reseller जो कि शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त के Reseller में जाना जाता है। यह मॉडल ‘त्रिस्तरीय राजव्यवस्था’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत सरकार के तीन प्रमुख अंग होते हैं, जो कि विधायिका, कार्यपालिका And न्यायपालिका हैं। प्रत्येक अंग का भिन्न-भिन्न कार्य, शक्तियाँ And उत्तरदायित्व होता है। विधायिका का मुख्य कार्य विधि-निर्माण करना, कार्यपालिका का कार्य उस विधि को प्रवर्तित करना है तथा न्यायापालिका अपने समक्ष प्रस्तुत विधि के भंग सम्बन्धी विशिष्ट मामलों को विधि के According निस्तारित करती है।

हमारा संविधान भी Single सुविकसित दस्तावेज है। इसमें सरकार के विभिन्न अंगों को पृथक-पृथक कृत्य सौंपे गये हैं। प्रत्येक अंग की शक्तियोंं, विशेषाधिकारों And कर्तव्यों के सम्बन्ध में कोर्इ अस्पष्टता नहीं है। विधायिका को विधि निर्माण, न्यायापालिका को विधि का निर्वचन तथा कार्यपालिका को विधि के प्रवर्तन का कार्य प्रदान Reseller गया है। तथा इसमें किसी भी प्रकार से अतिक्रमण या अतिव्यापन का सम्भावना नहीं दिखती। इस प्रकार यह सिद्धान्त प्रत्येक अंग द्वारा अपने क्षेत्र में स्वायत्तता बनाये रखने का उदाहरण प्रस्तुत करता है।

किन्तु संविधान उस स्थिति पर मौन है जबकि सरकार का कोर्इ भी अंग संविधान में described शक्ति पृथक्करण की अनदेखी करते हुए कार्य करे या उसका अनुसरण न करे। ऐसे अनेकों दृष्टान्त हैं जबकि कार्यपालिका And न्यायापालिका के मध्य मतभेद की स्थिति उत्पन्न हुयी है।

अन्य लोकतांत्रिक देश भी विधायिका And कार्यपालिका के मध्य शक्तियों के संकेन्द्रण की समस्या का सामना कर चुके हैं तथा वहाँ संवैधानिक विकास की प्रक्रिया के दौरान इस प्रकार की समस्याओं का निदान भी कर लिया गया।

इंग्लैण्ड संसदीय प्रणाली के शासन का अतिउत्तम उदाहरण है तथा वहाँ विधायी वर्चस्व को आसानी से स्थापित Reseller गया है। ब्रिटिश मॉडल के शासन में विधायिका की सर्वोच्चता स्थापित होने का Single अन्य कारण संविधान का लिखित न होना भी है।

अमेरिका में संघीय संविधान का गठन संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धान्त पर Reseller गया है। बाद में अमेरिका का संविधान न्यायिक पुनर्विलोकन के सिद्धान्त के प्रतिपादन होने से अन्य अंगों की अपेक्षा और अधिक शक्तिशाली हो गया। अत: अमेरिका में संघीय न्यायालय न्यायिक पुनर्विलोकन की पूर्ण And व्यापक शक्तियों का प्रयोग करता है। अमेरिकन प्रणाली में कोर्इ भी विधि न्यायिक पुनर्विलोकन से परे नहीं है। अत: वहाँ की लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायिक सर्वोच्चता व्याप्त है।

Indian Customer संविधान में इंग्लैण्ड व अमेरिका की लोकतंत्रात्मक व्यवस्था से भिन्न व्यवस्था को अपनाया गया है। हमारे संविधान में संघीय गुणों से युक्त संसदीय प्रणाली की सरकार को अपनाया गया है। ऐसी संसदीय प्रणाली की सरकार जो कि विधायी सर्वोच्चता की ओर संकेत करती है। किन्तु संविधान का संघीय गुण सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का प्रयोग करने हेतु सक्षम बनाता है। अत: वर्तमान समस्या की जड़े हमारे संविधान की परिकल्पना में भी पायी जाती है।

संविधान के अन्तर्गत विधायिका एंव न्यायापालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के लिए अनेकों प्रावधान किये गये हैं। जो कि दोनों के मध्य Single लक्ष्मण रेखा खींचते हैं। संविधान के अनुच्छेद 121 And 211 के अन्तर्गत विधायिका को न्यायाधीशों द्वारा अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किये गये आचरण पर Discussion करने से रोकता है। इसी प्रकार अनुच्छेद 122 व न्यायपालिका को विधानमण्डल की आंतरिक कार्यवाहियों के सन्दर्भ में विचारण करने पर रोक लगाता है। अनुच्छेद 105/194 के अन्तर्गत विधानमण्डल के सदस्यों के भाषण And मत देने की स्वतन्त्रता के सन्दर्भ में न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप पर रोक लगाता है। अनुच्छेद 13, 32 And 226 न्यायपालिका को विधायिका द्वारा अतिक्रमण किये जाने की स्थिति में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करते हैं। प्रारम्भ में Indian Customer उच्चतम न्यायालय ने अनु0 21 के प्रावधानों का शाब्दिक निर्वचन करते हुए विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का Means ऐसी प्रक्रिया जो विधानमण्डल द्वारा निर्धारित की गयी हो, के Reseller में स्पष्ट करते हुए ए0के0 गोपालन बनाम मद्रास राज्य (AIR 1952 SC 27) के मामले में इग्लैण्ड की विधिक प्रणाली की आधार मानते हुए विधि की विश्लेशणात्मक व्याख्या को महत्व दिया। तत्पश्चात मेनका गांधी बनाम भारत संघ के वाद उच्चतम न्यायालय ने विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया की समाजशास्त्रीय व्याख्या करते हुये इसे उचित ऋतु तथा न्यायपूर्ण प्रक्रिया के Reseller में प्रकट Reseller है। इस के According न्यायालय ने अनेक निर्णयों के माध्यम से नागरिकों के हितों में होने वाले संघर्ष में सामंजस्य बैठाकर संविधान के प्रमुख उद्देश्य सामाजिक आर्थिक And राजनीतिक न्याय को पूरा करने का प्रयास Reseller तथा वितरणात्मक And उपचारात्मक, न्याय नागरिकों को प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त Reseller।

कुल लोगों का यह भी मत है कि बाद में न्यायालय ने विधि की यर्थाथवादी विचारधारा का मार्ग अपनाकर न्यायिक अतिरेकवाद की स्थिति को जन्म दे दिया जो स्वीकार्य नहीं है क्योंकि इससे संविधान के मुख्य उद्देश्य लोकतंत्र तथा विधि के शासन के आहत होने की सम्भावना उत्पन्न हो गयी है।

न्यायिक सक्रियता And अनुच्छेद 21

वर्तमान समय में Indian Customer संविधान का अनुच्छेद 21 का व्यापक स्वReseller Indian Customer उच्चतम न्यायालय की क्रियाशीलता को प्रतिविम्बित करता है। न्यायिक सक्रियता का आधार अनु0 21, न्यायिक पुर्नविलोकन अनु0 13-(1), अनु0 13 (2), अनु0 32 तथा 142 है। इसकी उत्पत्ति इसी के आधार पर हुयी तथा इसी का अति विकसित Reseller ही न्यायिक अतिसक्रियता है। अनु0 21 को संविधान में सम्मिलित करते समय संविधान सभा में काफी विचार विमर्ष हुआ और इसके लिए विभिन्न प्रचलित संविधानों का अध्ययन Reseller गया, परन्तु इसके बाद भी स्थिति स्पष्ट न होने के कारण डॉ0 बी0एन0राव को अमेरिका भेजा गया ताकि वह वहाँ प्राण And दैहिक स्वतन्त्रता की स्थिति का अवलोकन कर सके।

डॉ0 बी0एन0राव ने इस सम्बन्ध में न्यायाधीश फ्रैन्कफर्टर से बातचीत की उन्होंने कहा कि भारत Single नव निर्मित लोकतान्त्रिक देश है। अत: स्थिति को नियन्त्रित रखने के लिए किसी भी सरकार के निकाय को इतना शक्तिशाली नहीं बनाया जा सकता जितना कि अमेरिका में उच्चतम न्यायालय है। जहाँ तक न्यायिक सक्रियतावाद की Need का प्रश्न है तो इससे इन्कार करना उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि यदि कोर्इ फैसला या कार्य कार्यापालिका के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत है और वह उसका उचित नियोजन नहीं करता है तो उसके उचित नियोजन के लिये न्यायापालिका प्रभावी भूमिका निभा सकती है।

न्यायिक अतिसक्रियता अथवा न्यायिक अतिरेकवाद

Indian Customer लोकतन्त्र में विधायिका And न्यायपालिका के मध्य टकराव की घटना कोर्इ नर्इ नहीं है। दोनों के मध्य मतभेद किसी संवधि को प्रयोगात्मक Reseller से लागू करने में उत्पन्न नहीं होते बल्कि ऐसा कभी-कभी Single अंग द्वारा Second अंग के क्षेत्र में अतिक्रमण से होता है। यह Single Second के प्रति ऐसा विरोध होता है जो कि शीघ्रता से गम्भीर Reseller प्राप्त कर लेता है। पहला प्रत्यक्ष मतभेद 1965 में सामने आया जो कि केशव सिंह के मामले में उत्पन्न हुआ था इस मामले में जो विधिक And संवैधानिक प्रश्न अन्र्तवलित था वह संसद के अपने प्राधिकारियों के ऊपर अनन्य क्षेत्राधिकार के सम्बन्ध में था जिसके द्वारा वह अपने विशेषाधिकारों का वर्णन तथा संरक्षण तथा उन्हें बनाए रख सकती है।

श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने न्यायपालिका के ऊपर संसदीय सर्वोच्चता को स्थापित करने के लिए 24 वें, 25वें तथा 42वें संविधान संशोधन के Reseller में श्रृंखलाबद्ध प्रयास किए। यहाँ तक कि उन्होंने Single अवर न्यायाधीश को वरिश्ठ न्यायाधीश पर वरीयता देते हुए मुख्य न्यायाधीश के Reseller में Appointment देकर न्यायपालिका के मनोबल को गिराने का प्रयास Reseller। यह मामला केशवानन्द भारती के मामले में आधारित संCreation के सिद्धान्त के प्रतिपादन के बाद ही सुलझ सका। इस निर्णय के द्वारा संविधान के मूलभूत लक्षणों के आधार पर उसकी सर्वोच्चता स्थापित की गर्इ।

दूसरा विवाद 1990 के बाद मध्य के वर्शो में उत्पन्न हुआ जबकि उस समय विधमान शक्तियों के संतुलन को संविधान के चार महत्वपूर्ण निर्वेचनों द्वारा उलट दिया गया विभिन्न उच्च न्यायालयों में अनुच्छेद 356 का पुर्ननिर्वचन Reseller जिससे की राज्यपाल की राज्य सरकारों को बर्खास्त करने की अपवाद रहित शक्तियाँ कम कर दी गर्इ। न्यायालय की अपनी अवमानना को दंडित करने की अनुच्छेद 142 के अन्तर्गत शक्ति का विस्तार Reseller गया तथा उच्चतम न्यायालय की अन्र्तनिहित शक्तियों के दायरे में अनेकों विस्तृत सीमाओं वाले विषयों को शामिल Reseller गया।

अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों में आरक्षण नीति से सम्बन्धित निर्णय के कारण अपेक्षाओं से परे राजनीतिक गर्माहट उत्पन्न हुर्इ किन्तु महत्वपूर्ण परिवर्तन 1994 में अनुच्छेद 124 तथा 217 के अन्तर्गत न्यायाधीशों की Appointment प्रक्रिया में आया। जबकि कार्यपालिका के अनन्य अधिकारो को कम करके उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीशों की Appointment के सम्बन्ध में ब्श्रप् तथा चार वरिश्ठ न्यायाधीशों का Single कॉलेजियम निर्मित करने का निर्णय लिया गया। विवाद के Third मुद्दे में शीघ्रता से गम्भीर Reseller 2006 में धारण Reseller जो कि आज तक विद्यमान है।

उच्चतम न्यायालय द्वारा केन्द्रीय शिक्षण संस्थाओं में पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण, लाभ के पद का मामला, धन लेकर संसद में प्रश्न पूछने का मामला, नवीं अनुसूची का न्यायिक पुर्नविलोकन तथा दिल्ली में लैण्ड सीलिंग कुछ ज्वलन्त मामले हैं। जिनके सम्बन्ध में विधायिका से विवाद की स्थिति उत्पन्न हुर्इ। जब तक कि ये निस्तारित नहीं हो जाते ये प्रशासन के लिए गम्भीर And अप्रत्यक्ष प्रभाव उत्पन्न करेंगे।

कुछ मामलों में जब न्यायालय इस सक्रियतावाद के सिद्धान्त का अधिक प्रयोग करते हुए विधायी या कार्यपालिकीय विषयों में घुसपैठ या बलात प्रवेश करता है तो यही न्यायिक अतिसक्रियतावाद या न्यायिक अतिरेकवाद का Reseller धारण कर लेता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुये भारत संघ बनाम संकल चन्द्र सेठ (ए0आर्इ0आर0 1977) सु0को0 के वाद में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर तथा न्यायमूर्ति फ़ज्लअली ने स्पष्ट Reseller था कि संविधानिक संहिता को समझते समय तथा इसका निर्वचन करते समय गत समय की जड़े, विद्यमान समय की आपत्तियों तथा भविष्य के बीज कर्मण्यतावादी न्यायाधीश की निगाह में होने चाहिए।

पुन: द पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबार्टीज बनाम भारत संघ (1995 SCC 138) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने दूरभाष से सम्बन्धित Singleान्तता के Humanाधिकारों को स्वीकार Reseller है, परन्तु इसका आधार Humanाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा, 1948 के अनु0 12 और नागरिक तथा राजनैतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा के अनु0 17 को माना गया। इस वाद में यह मत व्यक्त Reseller गया है कि ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदायें अथवा अभिसमय जो Indian Customer संविधान द्वारा प्रत्याभूत मूल अधिकारों की व्याख्या करते हैं या प्रभावकारी बनाते हैं उन्हें मूलाधिकारों की लघु मुखाकृति मानकर प्रभावी माना जा सकता है।

इसी प्रकार ऐपरेल Single्सपोर्ट प्रमोशन काउसिंल बनाम ए0के0 चौपड़ा (AIR 1999 SC 625) के मामले में सक्रियतावादी रूख अपनाकर उच्चतम न्यायालय ने कामकाजी महिलाओं के यौन उत्पीड़न के सन्दर्भ में महिलाओं के विरूद्ध All प्रकार के उत्पीड़न को अमान्य करार दिया And विभेदीकरण उन्मूलन अभिसमय, 1979 तथ बीजिंग घोशणा के मानकों को लागू Reseller। पुन: गीता हरिहरन बनाम रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया [(1999) 2 SCC 228, के मामले में न्यायालय ने स्पष्ट Reseller कि देश की नागरिक विधि का Meansान्वयन करते समय न्यायालयों का दायित्व है कि वे अन्तर्राष्ट्रीय मानकों का सम्यक् सम्मान करें।

न्यायिक सक्रियता का Single Reseller यह भी है कि न्यायालय विधायिका को विधि निर्माण हेतु अभिप्रेरित करें। बैंग्लोर वाटर सप्लार्इ कं0 एण्ड सीवरेज बोर्ड बनाम ए0 राजप्पा [(1978 1 me0 fu0ia0 1051)] के वाद में उच्चतम न्यायालय ने औद्योगिक विवाद अधि0, 1947 के अन्तर्गत परिभाषित उद्योग विस्तार And अनिश्चितता के बिन्दुओं को उजागर करते हुये अपेक्षा की कि अब समय आ गया है जबकि विधानमण्डल में संदिग्धता हटाने And सन्देहों को दूर करने के लिये तथा All विवादों को सदा के लिए शान्त करने हेतु स्थापक विधेयक प्रस्तुत करना चाहिए। न्यायिक सक्रियता के अग्रिम चरण के Reseller में उच्चतम न्यायालय ने वैकल्पिक व्यवस्था के Reseller में भी कदम उठाया है।

इसी प्रकार Single अन्य वाद विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (AIR 1997 SCC 3011) के मामले में तीन सदस्यी पीठ ने निर्णय सुनाते हुये कहा कि कामकाजी महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकने तथा यौन समता को सुनिश्चित करने के लिए विधानमण्डल को समुचित विधि का निर्माण करना चाहिए। डी0के0 वसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य [(1997) 1 SCC 416), के वाद में न्यायाधीश डॉ0 आनन्द ने पुलिस अभिरक्षा में हुर्इ मृत्यु पर नाराजगी जाहिर करते हुये निण्र्ाीत Reseller कि गिरफ्तारी के सम्बन्ध में जब तक विधायी उपबन्ध नहीं बना दिये जाते तब तक के लिये ग्यारह विधायी प्रकृति के निर्देश लागू रहेंगे।

न्यायिक सक्रियता के ग्राह्यता के आयाम को स्पष्ट करते हुए धन्नालाल बनाम कालावतमी बार्इ (1996) सु0को0 के मामलें में न्यायाधिपति आर0सी0 लाहोटी ने स्पष्ट Reseller कि न्यायिक पूर्वोक्ति के आभाव में न्यायलय को सशक्त तर्क तार्किक सोच सामान्य प्रज्ञा तथा लोक कल्याण के लिये कार्य करने की प्रबल धारणा पर आधारित होना चाहिए। न्यायिक सक्रियता जब उपरोक्त सीमांओं का अतिक्रमण करने लगती है तो वह न्यायिक अति सक्रियता का रूख अख्तियार लेती है। उदाहरण स्वReseller पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय द्वारा इतने निर्देश जारी किये गये कि निर्देशों के अम्बार का अनुपालन उनके अननुपालन में ही सम्भव है।

उदाहरण स्वReseller बैल्लोर सिटी बेलफेयर फोरम बनाम भारत संघ (1997) सु0को0 के मामलें में तमिलनाडू चर्मशेाधन शलाओं में उत्पन्न पर्यावरण समस्या के सन्दर्भ केन्द्र सरकार, पुलिस अधीक्षक तथा जिलाधिकारियों आदि को निर्देश, एम0सी0 मेहता बनाम भारत संघ (1992) सु0को0 के मामलें में केन्द्रीय प्रदूशण नियन्त्रण बोर्ड को निर्देश रामकृश्ण बनाम केरल राज्य में धूम्रपान वर्जित करने हेतु जिला कलेक्टरों पुलिस महानिर्देशक And परिसर मालिकों को निर्देश, एम0सी0मेहता बनाम भारत संघ (1988) सु0को0 में कानपुर महानगर पालिका को निर्देश तथा इसी प्रकार अन्य न्यायालय द्वारा इस सम्बन्ध में अनेक निर्देश जारी किये गये है।

न्यायिक सक्रियता And विधिक अस्थिरता

कभी-कभी न्यायिक अति सक्रियता द्वारा विधि के स्थायित्व And लोकतांत्रिक Indian Customer व्यवस्था को भी खतरा उत्पन्न हो जाता है। Indian Customer संविधान के अनु0 142 में प्रदत्त शक्ति को प्रयोग करने में उच्चतम न्यायलय द्वारा इतनी नम्यता And वैस्तारिक दृष्टिकोण अपनाया गया है कि डा0 जी0पी0 सिंह ने यहांँ तक कह डाला कि अनु0 142 का प्राय: प्रयोग And सामान्य मार्गदर्शक निर्देश जारी करने से इस उपबन्ध का अवशिष्ट न्यायिक शक्ति की जगह विधायी शक्ति के Reseller में प्रयोग हो रहा है जो न्यायिक सक्रियता का गलत प्रयोग है। इन री विनय चन्द मिश्रा (1995) सु0को0 के वाद में अधिवक्ता को दण्डित करने तथा लाइसेन्स निलम्बित करने के आदेश के उपरान्त सुप्रीम कोर्ट बार एशोसियेसन के बाद में इन्हे रद्द करने से विधि में अनिश्चतता के उत्पन्न होती है। यही स्थिति कामनकाज ए रजिस्टर्ड सोसायटी बनाम भारत संघ के वाद में कैप्टन सतीश शर्मा द्वारा जारी अवैध लाइसेंस के सम्बन्ध अपने ही दो पूर्व निर्णयों को अपास्त करना तथा कैप्टन सतीश शर्मा को अपराध से मुक्त करना विधि में अनिश्चितता का बुलावा देता है। इसी प्रकार एम0सी0 मेहता बनाम कमलनाथ के वाद में अनु0 142 के अन्र्तगत Meansदण्ड लगाना तथा पुनर्विलोकन याचिका में अपनी अधिकारिता से इन्कार करना विधि की अनिश्चितता को बढ़ावा देना है।

विधि में निश्चितता न्यायिक पूर्व निर्णय का मूलाधार है तथा सम्यक न्याय प्रशासन हेतु आवश्यक Reseller से अपेक्षित है। परन्तु उच्चतम न्यायालय ने स्वयं के निर्णयों की अन्तिमता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। कुछ वर्ष First उच्चतम न्यायलय द्वारा दिये गये Single विवादास्पद फैसले में बुद्विजीवियों को न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के कार्यक्षेत्रों And अधिकारों का तुलनात्मक अध्ययन करने को विवश Reseller यह फैसला तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल से Added था तमिलनाडु सरकार ने कुछ सरकारी कर्मचारियों And शिक्षकों को पी0 एफ0 के भुगतान पर असमर्थता व्यक्त की परिणाम स्वReseller 12 लाख से अधिक शिक्षक तथा कर्मचारी जुलार्इ 2003 की शुरूआत में हड़ताल पर चले गये।

तमिलनाडु सरकार ने उनसे काम पर वापस आने की अपील की तथा All हड़ताली कर्मचारियों पर एस्मा लागू कर दिया। इस घटनाक्रम में 1700 से अधिक लोगों की गिरफ्तारी हुर्इ तथा 2 लाख से ज्यादा हड़ताली कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया गया। मजदूर संगठनों तथा अन्य सरकारी संगठनों ने सरकार के इस रवैये के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की, उच्चतम न्यायलय ने सरकार विशेष के निर्णयों को ही नहीं बल्कि All सरकारी कर्मचारियों के सन्दर्भ में यह फैसला दिया कि हड़ताल कर्मचारियों के मौलिक अधिकार के अन्र्तगत नहीं आती है और न ही इसे नैतिक आधार पर मान्यता दी जा सकती है।

इसी फैसले के बाद विवाद And बहस शुरू हुर्इ जिसमें कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा इस फैसले को कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण तो कुछ के द्वारा लोकतन्त्र के वर्चस्व की चुनौती के Reseller में देखा गया। इस वाद विवाद से यह तो स्पष्ट हे कि जहाँ न्यायपालिका ने न्यायिक सक्रियता दिखाकर वाहवाही लूटी इस प्रकार के फैसले से स्वंय को कठघरे में खड़ा कर लिया।

इसी प्रकार Single अन्य मामलें में अर्जुनमुडा बनाम झारखण्ड राज्य में उच्चतम न्यायालय ने झारखण्ड विधान सभा में बहुमत सिद्ध करने की कार्यवाही के सम्बन्ध में इसकी वीडियों रिकार्डिंग करने तथा इस कार्यवाही को सचिव तथा पुलिस महानिदेशक के देखरेख में कराने के फैसले से काफी ऊहापोह मची तथा संसद में इस विषय पर काफी हंगामा हुआ तथा सोमनाथ चटर्जी ने तो इस निर्णय को विधायिका के कार्य में हस्तक्षेप तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रतिकूल बताया।

इस प्रकार के कर्इ मामलों में न्यायिक सक्रियता प्रदर्शित करते हुये जो निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रस्तुत किये जाते है वे सर्वदा ही सही नहीं होते तथा कभी-कभी तो इसे न्यायपालिका बनाम संसद या विधानमण्डल के Reseller में देखा जाने लगता है।

न्यायिक सक्रियता पर आपत्तियाँ

इस प्रकार की न्याययिक सक्रियता या न्यायिक आतंकवाद के प्रयोग को विभिन्न विद्वानों ने आपत्तिजनक माना है। इन लोगों ने उन परिणामों को व्यक्त Reseller हैं जो न्यायिक अतिसक्रियता से उत्पन्न होते है –

  1. न्यायिक अति सकिय्रतावाद न्यायालय की राजनीतिक निष्पक्षता में सतत लोक विश्वास को खतरे में डाल देते है। जो विधि के शासन के Sevenत्य के लिये आवश्यक है। 
  2. इस प्रकार कार्य करने से न्यायालय अपनी प्रमाणिकता का समर्पण कर सकता है। क्योंकि इस प्रकार कार्य करके न्यायालय अपनी सींमाओं का अतिक्रमण करता है तथा अपनी प्रारम्भिक भूमिका को पूरा करने में अक्षम हो जाता है। 
  3. यह लोगों को नैतिक And राजनैतिक दायित्वों को पूरा करने में पंगु बना देता है। तथा वे न्यायालय पर अवलम्बित हो जाते है। 
  4. न्यायिक अतिसक्रियता विधि में अनिश्चिता उत्पन्न करती है, जबकि विधि में निश्चितता तथा स्थायित्व न्याय प्रशासन के लिये आवश्यक है। 
  5. यह नहीं कहा जा सकता कि न्यायिक अतिसक्रियता न हो तो शक्ति संतुलन में असंतुलन होगा। क्योंकि ऐसे बहुत से क्षेत्र है जहॉ न्यायलय हस्तक्षेप नहीं करते है। 
  6. कुछ का विश्वास है कि न्यायालय का सरकार के दोनों अंगो द्वारा इस्तेमाल Reseller जा सकता है। तथा अलोकप्रिय कार्यो के लिये न्यायालय को अप्रत्यक्ष Reseller में प्रयोग कर सकते है।

न्यायालय के अतिसक्रियतावाद से उत्पन्न विधि के स्थायित्व के खतरे, संस्थागत सम्मान पर प्रश्नचिन्ह तथा विधि में ग्राह्यता की कमी के प्रश्न पर न्यायालय चिन्तित नजर आने लगे है। इसी कारण एम0आर्इ0 विल्डर्स लि0 बनाम भारत संघ में न्यायालय ने स्पष्ट Reseller कि न्यायालय का कार्य विधान निर्मित करना नहीं हैं और दाण्डिक विधानों का निर्माण करना कठोर Reseller से न्यायालय की परिधि के बाहर है।

यूनियन ऑफ इण्डिया एसोसियेशन फार डिमोक्रेटिक रिफार्म के बाद में उच्चतम ने अनु0 324 का निर्वचन करने में अत्यन्त संतुलित रुख अपनाया है। न्यायालय ने कहा कि उच्चतम न्यायालय किसी अधिनियम अथवा संविधिक नियम को संशोधित करने हेतु निर्देश जारी नहीं कर सकता है। यह संसद का कार्य है। परन्तु यह भी समान Reseller से सुस्थापित है कि यदि किसी विशेष प्रकरण पर अधिनियम या परिनियम चुप है और प्रवर्तन करने वाले प्राधिकारी के पास लागू करने की संविधानिक अथवा संविधिक शक्ति उपलब्ध है तो जब तक उचित विधि निर्मित नही हो जाती तब तक उक्त विषय की रिक्तता अथवा शून्यता को पूरा करने हेतु न्यायालय आवश्यक Reseller से निर्देश अथवा आदेश जारी कर सकता है।

जीजेफ पीटर बनाम गोवा राज्य के वाद में यह कहा गया कि न्यायिक सक्रियता को संविधिक निर्वचन के सन्दर्भ में सीमित सृजनशीलता के साथ स्वीकार करना होगा। न्यायिक सक्रियता वहीं तक ग्राह्य मानी जा सकती है। जहाँ तक वह संतुलित न्यायिक सृजनशीलता And लोक स्वीकृति को आमंत्रित करती है।

बी0 बनर्जी बनाम अनीता पान के वाद में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को तृतीय सदन के Reseller में कार्य नहींं करना चाहिए। न्यायालय यदि अति संवेदन शील And राजनीतिक मामलों में सक्रियता दिखायेगा तो उसे राजनीतिक आलोचना का भी शिकार होना पड़ेगा।

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