किशोरावस्था में मानसिक विकास

किशोरावस्था बचपन And वयस्कावस्था के बीच की अतिमहत्वपूर्ण अवस्था होती है, And प्रत्येक व्यक्ति को इस अवस्था से गुजरना पड़ता है। संज्ञानात्मक विकास के पियाजे द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त की चतुर्थ अवस्था से यह ज्ञात होता है कि किशोरावस्था में किशारों में तर्कपूर्ण विचार करने की क्षमता विकसित हो जाती है। लेकिन किशोर द्वारा विचार करने की इस क्षमता की अभिव्यक्ति हो ही जाये यह आवश्यक नहीं है। स्टैनोविक द्वारा 1993 में किशोरों की औपचारिक संक्रियात्मक चिन्तन की क्षमता की जॉंच के लिये किये गये Single अध्ययन के According वास्तव में पियाजे द्वारा बतायी गयी समस्याओं को केवल 40 प्रतिशत किशोरों ने ही हल Reseller। इससे यह ज्ञात होता है कि पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त की जॉंच हेतु और अधिक अनुसंधान की Need है। किशोरों के सोचने-विचारने And निर्णय करने के तौर तरीकों को समझने के लिए उनके मन की कार्यशैली को समझना आवश्यक है। इस संदर्भ में थ्योरी ऑफ माइण्ड का विश्लेषण उपयुक्त रहेगा। निम्नांकित पंक्तियों में लेखक द्वारा किशोरों के मन की कार्यशैली की बचपन से वयस्क होने के प्रगति के दौरान सोच में बदलावों पर ध्यान रखते हुए व्याख्या की गयी है।

किशोरों के मन की कार्यशैली (Adolescents theory of mind) – मन की कार्यशैली से तात्पर्य किशोरों की उस समझ से है जो कि उन्हें स्वयं उनके सोचने And साथ ही दूसरों के सोचने के तरीकों के संबंध में ज्ञान प्रदान करती है तथा जिसमें निरन्तर बदलाव And विकास होता रहता है। बच्चों से लेकर किशोरावस्था की पराकाष्ठा तक निरन्तर बदलती आयु के साथ ही मन की कार्यशैली में निरन्तर बदलाव आते हैं। इन बदलावों को बालकों And किशोरों द्वारा अलग-अलग आयु में अपनाये जाने वाले विभिन्न उपागमों की व्याख्या द्वारा समझा जा सकता है।
बालकों And किशोरों द्वारा अलग-अलग आयु में अपनाये जाने वाले चिन्तन संबंधी विभिन्न उपागम

  1. यथार्थ उपागम (Realist approach) 
  2. संबंधात्मक उपागम (Relativist approach) 
  3. रक्षात्मक वास्तविकता उपागम (Defended realism approach) 
  4. डॉग्मेटिज्म-स्केप्टिसिज्म (Dogmatism-skepticism approach) 
  5. संशयोपरान्त तर्कवाद (Postskeptical rationalism approach)

आइए अब इन उपागमों के बारे में विस्तार से जानें कि किस प्रकार And किस आयु के बच्चे अथवा किशोर अपनी चिन्तन प्रक्रिया को अपनाते हैं, और क्यों? आइये यथार्थ उपागम से इसकी शुरूआत करें।

1. यथार्थ उपागम- 

इस उपागम को अपनाते हुए उन बच्चों को पाया गया है जो कि शैशवावस्था से अभी हाल ही में बचपनावस्था में प्रविष्ट हुए हैं तथा जिनकी आयु प्राय: चार-पॉंच वर्ष से प्रारम्भ होकर 6-7 वर्ष के मध्य होती है। इन्हें विश्वास होता है कि ज्ञान वास्तविक दुनिया की संपत्ति है And इस दुनिया में निश्चित Reseller से सही तथ्य And सार्वभौमिक सत्य भरा पड़ा है जिसे कि इच्छा होने पर प्रयासों द्वारा जाना जा सकता है। इस विश्वास का Means यह है कि बच्चे को उसकी दृश्य सीमा में आने वाला जो वातावरण अथवा संसार दिखलार्इ पड़ता है जिसमें वस्तुओं से लेकर उसके रहने का कमरा, कमरे में रहने वाले लोग, माता-पिता And पड़ोसी आदि। उनके द्वारा कही गयी बातों And किये गए कार्यों उनकी धारणाओं को वह Single न बदलने वाले सच के Reseller में स्वीकार करता है। वह यह मानता है कि कि किसी Single व्यक्ति द्वारा किसी वस्तु विशेष के संबंध में की गयी अनुभूति अथवा समझ गयी सूचना अन्य व्यक्तियों के द्वारा भी उसी Reseller में अनुभूत And समझी जाती है। वह यह नहीं समझता है कि Single ही प्रकार की सूचना का विश्लेषण करने पर लोगों की उस वस्तु विशेष के संदर्भ में भिन्न राय हो सकती है। तथापि वह यह समझता है कि वातावरण में उपस्थित वस्तुओं -व्यक्तियों से संबंधित तथ्यों And सत्यों को वह प्रयासों द्वारा जान सकता है। आइये अब अगले उपागम के बारे में जानें।

2. संबंधात्मक उपागम- 

छ: से Seven वर्ष की आयु से अधिक And पूर्व किशोरावस्था के बालकों में प्राय: सोच संबंधी संबंधात्मक उपागम को अपनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है। ये बालक यर्थावादी सोच से उलट चिंतन प्रक्रिया का उपयोग अपने निष्कर्षो पर पहुॅंचने के लिए करते हैं। ये बालक यह भली प्रकार जानते हैं कि किसी Single विषय पर उस विषय के विशेषज्ञ भी अनेकमत हो सकते हैं। Meansात् यदि कोर्इ Single वस्तु अथवा घटना कर्इ विशेषज्ञों के सम्मुख यदि विचार हेतु प्रस्तुत की जाये तो उनकी राय And मत अलग-अलग भी आ सकते हैं, उन सबकी राय का Single जैसा होना आवश्यक नहीं है। यह समझ इस आयु के बच्चों का यह धारणा बनाने को प्रेरित करती है कि यदि अलग-अलग लोगों को Single समान सूचनाये यदि दी जाये तो वे उसकी विपरीत विवेचनायें प्रस्तुत कर सकते हैं। आगे कि पंक्तियों में पूर्वकिशोरवय बच्चों द्वारा अपनायी गयी सोच संबंधी नजरिये पर प्रकाश डाला गया है।

3. रक्षात्मक-वास्तविकता उपागम – 

पूर्वकिशोरावस्था वाले बच्चों द्वारा इस उपागम को अपनाते पाये जाते हैं। पूर्वकिशोरावस्था से तात्पर्य ऐसी आयु से होता है जो कि बचपनावस्था की परिपक्वावस्था And किशोरावस्था के आरंभ से First की अवस्था होती है। इस अवस्था के बच्चे संबंधात्मक उपागम को अपनाने वाले बच्चों से Single कदम आगे निकल जाते हैं। ये बच्चे संबंधात्मक उपागम को अपनाने वाले बालकों की भॉंति यह तो मानते हैं कि Single ही प्रकार की सूचना का विवेचन अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा किये जाने पर भिन्न-भिनन हो सकता है परन्तु वे तथ्यों And मान्यताओं में फर्क करना जानते हैं। Meansात् ये बच्चे यथार्थ उपागम And संबंधात्मक उमागम को अपनी सोच का आधार बनाने वाले बच्चों के विपरीत, सूचनाओं के तथ्यों And मान्यता के Reseller में अलग अलग श्रेणियों के Reseller में व्यक्त करना सीख जाते हैं। हालॉंकि वे अभी भी यह विश्वास करते हैं कि संसार के बारे में बहुत सारे ऐसे तथ्य विद्यमान हैं जो कि All के लिए Single समान सच होते हैं And जो कि पूर्ण Reseller से सत्य हैं And लोगों की मान्यताओं में जो मतभिन्नता होती है अन्तर होता है वह उपलब्ध सूचनाओं में व्याप्त अन्तर की वजह से उत्पन्न होता है। इससे अधिक उम्र के किशोरवय बालकों में Single अलग ही प्रकार की सोच संबंधी कार्यशैली देखने को मिलती है जिसे कि डॉगमेटिज्म And स्केप्टिसिज्म के नाम से जाना जाता है।

4. डॉगमेटिज्म-स्केप्टिसिज्म – 

पूर्वकिशोरावस्था के उपरान्त बालक किशोरावस्था में प्रवेश करता है। इस अवस्था में उसे यह भान होता है कि दुनिया में ज्ञान प्राप्त करने का कोर्इ Single मात्र सीमित आधार व मार्ग नहीं है, And जो आधार दिखलार्इ पड़ते हैं जरूरी नहीं है कि वे पूर्ण Reseller से विश्वसनीय And वैध हों। इसके अलावा किशोर के मन में यह समझ भी विकसित हो जाती है कि हमारे द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों के लिए कोर्इ Windows Hosting मार्ग्ा वस्तुत: नहीं होता है, निर्णय का सही होना या न होना परिस्थितियों And संयोग आदि पर निर्भर करता है। निर्णय लेने And ज्ञान प्राप्ति के लिए कोर्इ Windows Hosting आधार नहीं खोज पाने की स्थिति में उसका चिन्तन डॉंवाडोल होने लगता है जिसमें वह इसके लिए डॉग्मेटिज्म-स्केप्टिसिज्म के उपागम को अपना लेता है। इसके अन्तर्गत किशोर कभी तो किसी अधिकारी व्यक्ति या संस्था की धारणाओं पर अंधविश्वास करने लगता है और कभी हर चीज की सत्यता पर उसे संशय होने लगता है। सार Reseller में किशोर इन दोनों स्थितियों Meansात् पूर्ण अंधविश्वास And संशय के बीच भटकने लगता है। सोच संबंधी मन की यह कार्यशैली किशोर के लिए बहुत ही बेचैनी And तनाव भरी होती है। इस अवस्था से उबरने पर वह अंतत: चिन्तन संबंधी मन की Single अन्य कार्यशैली को अपना लेता है जिसे कि संशयोपरान्त तर्कवाद कहा जाता है।

5. संशयोपरान्त तर्कवाद- 

किशोरावस्था की परिपक्वावस्था में किशोर सोच-विचार संबंधी जिस कार्यशैली को अपने भीतर विकसित पाता है उसे संशयोपरान्त तर्कवाद कहते हैं। इसके नाम से ही स्पष्ट होता है कि विभिन्न प्रकार के अनुभवों And मन की कार्यशैलियों पर संशय करने के बाद तर्कपूर्ण विचार द्वारा प्राप्त सही दिशा में जाना ही इस संशयोपरान्त तर्कवाद का Means है। इस अवस्था में किशोर को यह बोध होता है कि हालॉंकि इस संसार में निरपेक्ष सत्य का सर्वथा अभाव प्रतीत होता है, परन्तु उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह जानना है कि विशेष प्रकार के दृष्टिकोण के धारण के पीछे अच्छे And बुरे अपने-अपने कारण विद्यमान होते हैं। यह उपागम यह समझ विकसित करता है कि दुनिया में घटने वाली हर प्रकार की घटना को देखने का प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना नजरिया होता है जो कि नितान्त व्यक्तिगत होता है। And यह दृष्टिकोण अपनी-अपनी सोच के केन्द्र बिन्दु से सर्वथा सही प्रतीत होता है। इसलिए हम लोगों को केवल अपने दृष्टिकोण को पूर्णत: सही न मानते हुए अन्यों के दृष्टिकोण को उनके नजरिये जॉंचपरख कर ही किसी निष्कर्ष अथवा निर्णय पर पहुॅंचना चाहिए। मनोवैज्ञानिकों ने इस अंतिम उपागम को किशोर के विकास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया है And कहा कि इस तरह का दृष्टिकोण ही वर्तमान लोकतांत्रिक समाज के लिए लाभदायक हो सकता है जिसमें कि All को अपनी-अपनी बात रखने का अधिकार होता है And जिस बात पर अधिकांश लोग Agree होते हैं उसे ही समाज के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।

सार Reseller में यदि कहा जाये तो क्लाक्जिन्सकी नामक विद्वान के Wordों में मानसिक विकास की यात्रा बचपन में ही समाप्त नहीं होती है बल्कि इसके विपरीत यह पूरी किशोरावस्था में जारी रहती है And परिणामस्वReseller विचारों के उन्नत Reseller में विकसित होती है।

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