प्रबन्ध विकास

प्रबन्ध विकास, वृद्धि एंव विकास की Single व्यवस्थित प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्रबन्धक अपनी प्रबन्ध करने की योग्यताओं का विकास करता है। यह केवल शिक्षण के औपचारिक पाठ्यक्रम में सहभागिता का ही नहीं,बल्कि वास्तविक कार्य अनुभव का भी परिणाम होता है।प्रबन्ध विकास में संगठन की भूमिका, इसके वर्तमान तथा सम्भावित प्रबन्धकों के लिए कार्यक्रमों का आयोजन तथा विकास के अवसर प्रदान करने की होती है।

  1. एच. कून्ट्ज And सीत्र ओ’ के According , ‘‘प्रबन्ध विकास Single प्रबन्धक द्वारा प्रबन्ध करने का ज्ञान करने में प्रगति से सम्बधित होता है।’’ 
  2. माइकल जे. जूसियस के According, ‘‘प्रबन्ध विकास Single ऐसा कार्यक्रम है, जिसके द्वारा वांक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रबन्धकों की क्षमताओं में अभिवृद्धि की जाती है’’। 

    प्रबन्ध विकास कार्यक्रम के उद्देश्य

    प्रबन्ध कार्यक्रम, जिन विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति को ध्यान में रखते हुए आयोजित किये जाते है वे है

    1. संगठन की विद्यमान प्रबन्ध व्यवस्था का जीर्णोद्वार करना। 
    2. प्रबन्ध समूह के सदस्यों की परिवर्तनशीलता में वृद्धि करना। 
    3. संगठन की गतिविधियों के सम्पूर्ण परिदृश्य के विषय में प्रबन्धकों को अवगत कराना तथा उन्हें Single-Second के साथ समन्वयं स्थापित करने के लिए सक्रिय प्रयास करने हेतु सहायता प्रदान करना। 
    4. प्रबन्धकों को सामाजिक, आर्थिक तथा तकनीकी क्षेत्रों से सम्बन्धित अवधारणात्मक पहलुओं का ज्ञान प्रदान करना। 
    5. प्रबन्धकों को Humanीय सम्बन्धों की समस्याओं को समझने में सहायता प्रदान करना तथा उनकी Humanीय सम्बन्धों की निपुणताओं को सुधारना।
    6. प्रबन्ध समूह के सदस्यों के मनोबल को उच्च करना। 
    7. अपेक्षित अन्त: शाक्तियों से युक्त लोगों की पहचान करना तथा उन्हें वरिष्ठ पदों के लिए तैयार करना। 
    8. प्रबन्ध उत्तराधिकार की ऐसी व्यवस्था स्थापित करना, जिससे कि संगठन में योग्य And अनुभवी प्रबन्धकों का कभी भी अभाव न उत्पन्न होने पाये। 

    प्रबन्ध विकास की Need 

    1. सामान्यत: प्रबन्धकों को संगठनात्मक संCreation, संगठन की संस्कृति, उसके आर्थिक And विपणन सम्बन्धी पक्षो, सामाजिक प्रणालियों, औद्योगिक परिवेश, उद्योग And वाणिज्य पर प्रौद्योगिकी के उपयोग के प्रभावों Humanीय मूल्यों And सामाजिक जटिलताओं, श्रम आन्दोलनों, औद्योगिक प्रबन्ध विषयक मामलों में राज्य के हस्तक्षेप के क्षेत्रों तथा Humanीय And प्रजातात्रिक दृष्टिकोणों आदि के विषय में विशिष्ट ज्ञान की Need होती है, जिसकी प्राप्ति प्रबन्ध विकास कार्यक्रम के द्वारा ही हो सकती है। 
    2. प्रबन्धकों को अपने उत्तरदायित्वों के कुशलतापूर्वक निर्वहन हेतु कुछ विशिष्ट निपुणताओं की भी अपेक्षा होती है। इसके अतिरिक्त आज के प्रबन्धकों में ऐसी योग्यताओं And निपुणताओं का होना भी अत्यन्त आवश्यक है, जो कि प्राचीन And नवीन मूल्यों, भौतिकवाद And Humanतावाद तथा प्राविधिक And सांस्कृतिक अनिवार्यताओं के मध्य सन्तुलन स्थापित कर सके। इन All निपुणतओं की प्राप्ति प्रबन्ध विकास कार्यक्रमों के द्वारा ही हो सकती है। 
    3. प्रबन्धक अपने संगठन के नेता होते हैं। उन्हीं के नेतृत्व में चलकर कर्मचारी संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होते हैं। यद्यपि, नेतृत्व के गुण की प्राप्ति प्रशिक्षण के द्वारा पूर्ण Reseller से सम्भव नहीं है, फिर भी प्रबन्ध विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत अभ्यास And अनुभव प्रदान किये जाने के द्वारा इसकी काफी हद तक प्राप्ति होती है। 
    4. प्रबन्धन, Single विचारशीलता की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में नवीन लक्ष्यों And मूल्यों का सदैव ध्यान रखना पड़ता है। वर्तमान प्रबन्धन के लिए Creationत्मक क्रियाओं का अत्यधिक महत्व होता है। इसलिए प्रबन्धकों में प्रत्येक स्तर पर Creationत्मक कार्य करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, नवीन सामाजिक, आर्थिक, प्रौद्योगिक तथा सांस्कृतिक परिवतर्न ों के परिपेक्ष््र य में उन्हैं। अपने दृष्टिकोणों And मनोवृि त्तयों में भी परिवर्तन लाना अनिवार्य हो गया है। 

    प्रबन्ध विकास के क्षेत्र

    1. संगठनात्मक सूचनायें : इसके अन्तर्गत संगठन के उद्देश्य, नीतियाँ, संगठनात्मक संCreation, प्रक्रियायें, गतिविधियाँ, उत्पाद And सेवायें, संयन्त्र व्यवस्था, वित्तीय पहलू, जैसे- पूँजी And बजट, विनियोग, नियोजन And नियन्त्रण तथा कर्मचारी-प्रबन्ध सम्बन्ध आदि सम्मिलित होते हैं। 
    2. प्रबन्ध के सिद्धान्त And तकनीकें: इसमें संगठन के सिद्धान्त, प्रबन्ध तकनीकें, वित्तीय तकनीकें, उत्पादन योजना And नियन्त्रण, विधि-विश्लेषण, कार्य-आबंटन, कार्य अध्ययन, लागत विश्लेषण And नियन्त्रण, सांख्यिकी, पब्र न्धकीय सम्प्रेषण, कम्प्यूटर प्रणाली, क्रियात्मक अनुसंधान विपणन प्रबन्ध And अनुसंधान तथा निर्णयन आदि सम्मिलित होते हैं। 
    3. Humanीय सम्बन्ध: इसकें अन्तर्गत Humanीय व्यवहार की समझ, अभिपेर्र ण, समूह गतिविधियाँ, अधिकार, विचार, धारणायें प्रशिक्षण And विकास, नेतृत्व उत्तरदायित्व, भर्ती प्रक्रियायें And चयन प्रणालियाँ, कार्य And निष्पादन मूल्यांकन, सम्प्रेषण, सलाह And सुझाव योजनायें, शिकायतें And परिवेदना निवारण पद्धति, अनुशासनात्मक प्रक्रिया, श्रम Meansशास्त्र, सामूहिक सौदेबाजी तथा औद्योगिक सम्बन्ध आदि सम्मिलित होते हैं। 
    4. तकनीकी ज्ञान And निपुणतायें: इसमें कार्य संचालन तकनीक, क्रिया, शोध, कम्प्यूटर तकनीक, आधारभूत गणित, साधन-नियन्त्रण तथा कार्य संचालन सम्बन्धी नवीन तकनीक आदि सम्मिलित होते हैं। 
    5. सामाजिक, आर्थिक And राजनीतिक वातावरण : इसके अन्तर्गत व्यवसाय का ज्ञान, आर्थिक प्रणाली, सरकार-उद्योग सम्बन्ध, उद्योगों के सामुदायिक सम्बन्ध, उद्योगों के सामाजिक उत्तरदायित्व तथा राजनीतिक प्रणाली आदि सम्मिलित होते हैं। 
    6. Humanीय निपुणतायें: इसमें भाषण, प्रतिवेदन-लेखन, सम्मेलन-नेतृत्व तथा दैनिक-कार्य संचालन आदि सम्मिलित होते हैं। 

    विभिन्न स्तरों के प्रबन्धकों के लिए प्रबन्ध विकास कार्यक्रम की विषय-वस्तु 

    विभिन्न स्तरों के प्रबन्धकों के लिए प्रबन्ध विकास कार्यक्रम की विषय-वस्तु Single समान नहीं हो सकती है। प्रबन्ध विकास कार्यक्रम का प्राReseller प्रबन्धकों के स्तर, उनकी योग्यताओं तथा उनके कार्य-क्षेत्र आदि पर निर्भर करता है। इनको ध्यान में रखते हुए ही विभिन्न स्तरों के प्रबन्धकों के लिए विकास कार्यक्रमों को निर्धारण Reseller जाना उपयुक्त होता है। प्रबन्ध विकास कार्यक्रम को प्रभावी बनाने हेतु प्रबन्धकों के तीन प्रमुख स्तरों से सम्बन्धित कार्यक्रमों की विषय-वस्तु है:

    1. उच्च स्तरीय प्रबन्धकों के लिए: इस स्तर के प्रबन्धकों के लिए विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत Meansशास्त्र, वित्त, संगठन के सिद्धान्त, नीति निर्धारण, प्रKingीय नियन्त्रण, व्यवसाय के क्रियाकलाप, व्यवसास के सामाजिक उत्तरदायित्व, Humanीय सम्बन्ध तथा श्रम-सम्बन्ध आदि विषय सम्मिलित किये जाते हैं। 
    2. मध्य स्तरीय प्रबन्धकों के लिए: मध्य स्तरीय प्रबन्धकों के लिए तकनीकी And प्रबन्धकीय ज्ञान आवश्यक होता है। इसलिए उनके विकास कार्यक्रम में उत्पादन योजना And नियंत्रण, मजदूरी And वेतन सम्बन्धी समस्यायें, Humanीय सम्बन्ध, नेतत्ृ व, अभिपेर्र ण, कार्य संचालन तथा लागत-विश्लेषण आदि से सम्बन्धित समस्यायें सम्मिलित की जाती है। 
    3. अवर स्तरीय प्रबन्धकों के लिए : इस स्तर के प्रबन्धकाो के लिए विकास कार्यक्रम व्यवसाय क्रियाओं Humanीय सम्बन्धों, उत्पादन नीति तथा Humanीय निपुणताओं आदि विषयों तक ही सीमित रहते हैं, क्योंकि उन्हें अपेक्षाकृत कम प्रKingीय कार्य करना होता है। चूँकि, इनका कार्य मूल Reseller से अधीनस्थ कर्मचारियों से निर्धारित नीतियों के अनुReseller कार्य करवाना होता है, इसलिए इनके विकास कार्यक्रम का स्वReseller अन्य स्तरों के प्रबन्धकों की अपेक्षा सीमित होता है। 

    प्रबन्ध विकास की विधियाँ 

    प्रबन्ध विकास की विधियों को प्रमुख Reseller ये दो वर्गों में विभाजित Reseller जा सकता है, जिनके द्वारा किसी संगठन के प्रबन्धक ज्ञान, निपुणतायें And मनोवृत्तियों को अर्जित करते हैं तथा स्वयं को सक्षम प्रबन्धकों के Reseller में स्थापित करते हैं इन विधियों का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है:

    1. कार्य पर प्रयुक्त विधियाँ 
    2. कार्य से पृथक प्रयुक्त विधियाँ 

    1. कार्य पर प्रयुक्त विधियाँ 

    इन विधियों के अन्तर्गत, प्रशिक्षार्थियों को नियमित कार्यों पर नियुक्त करके उचित मार्गदर्शन, पर्यवेक्षण And परामर्श के द्वारा कार्य की बारीकियों And प्रणालियों के विषय में व्यापक जानकारी प्रदान करते हुए उन्हें दक्ष बनाया जाता है। कार्य के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी केवल सुनने अथवा अवलोकन करने अथवा पुस्तकों And पाठ्य-सामग्री का अध्ययन करने से ही प्राप्त नहीं हो सकती है, बल्कि इसके लिए वास्तव में कार्य सम्पादन का अनुभव भी आवश्यक है। कार्य के वास्तविक अभ्यास के द्वारा कार्य सम्बन्धी व्यावहारिक कठिनाइयों की जानकारी तथा उन्हें दूर करने के उपायों के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है। यही कारण है कि प्रबन्ध विकास के प्रत्येक कार्यक्रम में कार्य पर प्रयुक्त विधियों को व्यवस्था की जाती है। कार्य पर प्रयुक्त होने वाली कुछ प्रमुख विधियाँ इस प्रकार है:

    1. कोचिंग : इस विधि के अन्तर्गत प्रशिक्षाथ्र्ाी को उसके वरिष्ठ अधिकारी के अधीन नियुक्त कर दिया जाता है, जो Single प्रशिक्षक के Reseller में कार्य करता है तथा प्रशिक्षाथ्र्ाी को कार्य सम्बन्धों ज्ञान And निपुणतायें सिखाता है। वह प्रशिक्षाथ्र्ाी को यह स्पष्ट करता है कि वह उससे क्या करने की अपेक्षा करता है तथा वह कार्य किस प्रकार सम्पादित Reseller जा सकता है। इसके अतिरिक्त वह प्रशिक्षाथ्र्ाी द्वारा काय्र सम्पादित करने के दौरान उसका अवलोकन भी करता है। इसका उद्देश्य अध्यापक ही नहीं, बल्कि प्रशिक्षाथ्र्ाी को इस प्रकार कार्य से परिचित कराना होता है कि वह शीघ्र ही उस विशिष्ट क्षेत्र में विकास कर सके। 
    2. कार्य चक्रानुक्रमण : इस विधि में प्रबन्धकों का Single पद से Second पद तथा Single विभाग से Second विभाग में व्यविस्थत ढंग से स्थानान्तरित Reseller जाता है जब किसी प्रबन्धक हो इस प्रकार के Single कार्यक्रम में भाग के Reseller में नये पद पर नियुक्त Reseller जता है, तो यह केवल Single कार्य-परिचय नहीं होता है। उसे उस पद का पूर्ण उत्तरदायित्व ग्रहण करना होता है। तथा उसके All प्रकार के कर्तव्यों का निर्वाह करना होता है इसका उद्देश्य उनके प्रबन्धकीय अनुभव में वृद्धि करना तथा उसनकी सामान्य पृष्ठभूमि को सुदृढ़ करना होता है। इस विधि से प्रबन्धकों को विभिन्न पदों And विभागो का कार्यकारी ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उनमें प्रबन्धकीय परिपक्वता विकसित होती है। उनका दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है तथा उनमें प्रबन्धन की बहुआयामी समस्याओं को हल करने की योग्यता का विकास होता है। 
    3. बहुपद प्रबन्धन : इस विधि में दो प्रबन्ध मण्डलों का गठन Reseller जाता है, Single कनिष्ठ प्रबन्ध मण्डल तथा दूसर वरिष्ठ प्रबन्ध मण्डल कनिष्ठ प्रबन्ध मण्डल में मध्य And अवर स्तरीय प्रबन्धक तथा वरिष्ठ प्रबन्ध मण्डल में उच्च स्तरीय प्रबन्धक सम्मिलित होते हैं। कनिष्ठ प्रबन्ध मण्डल, संगठन And कार्य सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन करके वरिष्ठ प्रबन्ध मण्डन को अपने सुझाव भेजता है। वरिष्ठ प्रबन्ध मण्डल उन सुझावों पर विचार करके अन्तिम निर्णय लेता है। कनिष्ठ प्रबन्ध मण्डल में प्रबन्धकों का चयन Single निश्चित समयावधि के लिए ही Reseller जाता है तथा तत्बाद उसके स्थान पर Second प्रबन्धकों का चयन Reseller जाता है। इस प्रकार कनिष्ठ प्रबन्ध मण्डल के सदस्य समस्याओं के अध्ययन विश्लेषण, समाधान तथा निर्णयन में दक्षता प्राप्त करते रहते हैं। 

    2. कार्य से पृथक प्रयुक्त विधियाँ –

    कार्य पर प्रयुक्त विधियों के माध्यम से प्रबन्धकों द्वारा प्राप्त Reseller गया विकास सदैव ही पर्याप्त नहीं हो सकता है। ऐसे अनेक पहलू शेष रह सकते हैं जिनके ज्ञान के बिना प्रबन्धकों का पूर्ण विकास नहीं कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त इन विधियों के कुछ अपने दोष भी होते हैं इसी कारण से, कार्य से पृथक प्रयुकत विधियों का उपयोग Reseller जाता है। इन विधियों के अन्तर्गत प्रशिक्षार्थियों को कार्य से पृथक कुशल प्रशिक्षकों की देख रेख में Single पूर्व नियोजित कार्यक्रम के According विकसित Reseller जाता हैं। ऐसी कुछ महत्वपूर्ण विधियाँ इस प्रकार से है:

    1. केस स्टडी : इस विधि के अन्तर्गत वास्तविक व्यावसायिक समस्याओं अथवा परिस्थितियों के आधार पर केस को तैयार Reseller जाता है, जो कि विभिन्न संगठनों में घटित होती है। इस केस को प्रशिक्षार्थियों के समूह के सम्मुख विचार-विमर्श करने तथा उसके विषय में किसी निर्णय पर पहुँचने के लिए रखा जाता है। प्रशिक्षाथ्र्ाी केस के विषय में विचार-विमर्श करते हैं, उसके समाधान के लिए विकल्पों को प्रस्तुत करते है, उसका विश्लेषण करते हैं, उनकी तुलनात्मक उपयुक्तता का निर्धारण करते है, तथा अन्तत: सर्वसम्मति से श्रेष्ठ विकल्प के सम्बन्ध में निर्णय करते है। इसमें प्रशिक्षक विचार-विमर्श का निर्देशन करता है जिससे कि कोर्इ असंगतता न उत्पन्न हो तथा कोर्इ महत्वपूर्ण बिन्दु विचार-विमर्श से छूटने न पाये। यह विधि प्रशिक्षार्थियों में विश्लेषणात्मक चिन्तन तथा समस्या समाधान की योग्यता को विकसित करती है। साथ ही यह खुले चिन्तन, सकारात्मक दृष्टिकोण धैर्यपूर्वक सुनने दूसरों के दृष्टिकोण के प्रति सम्मान तथा विभिन्न विषयों के ज्ञान के Singleीकरण पर बल देती है। 
    2. घटना विधि : यह विधि ‘केस स्टडी’ का Single भिन्न Reseller है। इस विधि में विशेषज्ञ प्रशिक्षक, प्रशिक्षाथ्र्ाी को किसी घटना का description देता हैं। तथा उससे यह घटना से सम्बन्धित Single समस्या का हल पूछता हैं। प्िर शक्षाथ्र्ाी उस घटना के तथ्यों के आधार पर समस्या का समाधान करने का पय्र ास करता हैं। इसके बाद प्रशिक्षक स्वयं भी उस समस्या का हल प्रस्तुत करता है। प्रशिक्षाथ्र्ाी, प्रशिक्षक के समाधान के आधार पर अपने समाधान का मूल्यांकन करके अपनी त्रुटियों को दूर कर लेता है। इसका उद्देश्य विशिष्ट परिस्थितियों में प्रबन्धकीय योग्यता And व्यावहारिक निर्णय क्षमता का विकास करना होता है। 
    3. भूमिका निर्वाह विधि : इस विधि के अन्तर्गत प्रबन्ध प्रशिक्षाथ्र्ाी को Single निर्धारित भूमिका का निर्वाह करने का अवसर प्रदान Reseller जाता है। इसमें उन्हें Single विशिष्ट प्रकार का कार्य सांपै ा जाता हैं। Humanीय सम्बन्धों के प्रति प्रयोगात्मक जानकारी दी जाती हैं। तथा विभिन्न परिस्थितियों को अपने स्तर पर समझने, समस्याओं का निवारण करने तथा निर्णय करने का अवसर प्रदान Reseller जाता है। प्रबन्धकीय भूमिका निर्वाह के अन्तर्गत कर्मचारी चयन, परिवेदना निवारण, अभ्यर्थियों का साक्षात्कार करना तथा कर्मचारियों का निर्देशन And अभिप्रेरण आदि कार्य हो सकते हैं। 
    4. इन-बास्केट विधि :यह विधि प्रबन्धकीय तथा निर्णय करने की निपुणताओं का विकसित करने के लिए प्रयोग की जाती है। इसमें प्रशिक्षाथ्र्ाी को संगठन के विषय में आधारभूत सूचनायें And सामग्री उपलब्ध करा दी जाती हैं यह सूचनायें संगठन, इसके उत्पादों अथवा सेवाओं कर्मचारियों तथा संगठनात्मक संCreation से सम्बन्धित होती हैं। इसके बाद प्रशिक्षाथ्र्ाी को अनेक प्रशासनिक कार्य, जैसे- स्मरण-पत्र तैयार करना, टिप्पणी बनाना, कायांर् े का प्रत्योजन करना, सभायें बुलानर पत्रों का उत्तर देना तथा अन्य प्रशासनिक कार्यों को निपटाना आदि करने होते हैं। तथा साथ ही विभिन्न निर्णय लेने होते हैं। इस विधि के द्वारा जिन योग्यताओं का विकास Reseller जाता है, वे हैं: (i) परिस्थितिगत निर्णय लेना, जिसमें description And प्राथमिकतायें निर्धारित करना, विभिन्न कार्यों में अन्र्तसम्बन्ध स्थापित करना तथा सूचनाओं की Need का निर्धारण करना सम्मिलित है; (ii) सामाजिक संवेदनशीलता (iii) निर्णय लेना And उसे कार्यान्वित करना 
    5. सम्मेलन विधि : सम्मेलन विधि में सामूहिक विचार-विमर्श के द्वारा सूचनाओं And विचारों का आदान-प्रदान Reseller जाता है। इसका उद्देश्य Single समूह के ज्ञान And अनुभव से All को लाभान्वित करना होता है। इसमे विभिन्न विषयों पर आपसी विचार-विमर्श के द्वारा सीखने पर बल दिया जाता है। सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रशिक्षाथ्र्ाी अपने विचारों, ज्ञान And दृष्टिकोणों को प्रकट करने के लिए स्वतंत्र होते हैं इसमें प्रशिक्षाथ्र्ाी केवल सुनने वाले नहीं होते हैं, बल्कि विचार विमर्श में सक्रिय Reseller से भाग लेते हैं। 
    6. व्याख्यान विधि : यह अत्यन्त ही प्राचीन विधि है। इस विधि के अन्तर्गत विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ प्रशिक्षार्थियों के Single समूह को व्याख्यान देकर किसी विषय अथवा विषयों का सैद्धान्तिक ज्ञान करवाते है। विशेषज्ञ, जो कि प्रशिक्षक होते है, उन्हे व्याख्यान कला And विषय-वस्तु का अच्छा ज्ञान होता है। कर्इ बार व्याख्यान का सार-संक्षेप अथवा उसके मूल बिन्दुओं को लिखित Reseller में श्रोताओं को First से ही उपलब्ध करवा दिया जाता हैं। व्याख्यान के मध्य में कभी-कभी चित्रों And आरेखों के प्रदर्शन द्वारा भी समझाने का प्रयास Reseller जाता है। 

    प्रबन्ध विकास की प्रक्रिया 

    1. विकास की Need का विश्लेषण : प्रबन्ध विकास प्रक्रिया चरण विकास की Need का विश्लेषण करना है। इसके अन्तर्गत संगठनात्मक संCreation का अध्ययन कर यह ज्ञात Reseller जाता है। कि समस्त कार्य भली भाँति किये जा रहे हैं अथवा नहीं। इसके साथ ही भावी औद्योगिक विकास नीति उत्पादन तकनीकों तथा संगठन के सम्भावित आकार आदि के विषय में पूर्वानुमान लगाया जाता है। इसके बाद Single वृहदृस्तरीय कार्य-description, काय्र विशिष्टता तथा कार्य विश्लेषण तैयार Reseller जाता हैं, जो कि व्यवस्था तथा प्रत्येक कार्य के सम्पादन के लिए आवश्यक शैक्षिक योग्यता, अनुभव प्रशिक्षण तथा विशिष्ट ज्ञान And तकनीक आदि की जानकारी प्रदान कर सके। 
    2. वर्तमान प्रबन्ध प्रतिभाओं का मूल्यांकन: प्रबन्ध विकास प्रक्रिया का दूसरा संगठन में कार्यरत प्रबन्धकों की कार्यक्षमताओं And कार्य-निष्पादन का मूल्यांकन करना है। इसमें प्रत्येक उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थ प्रबन्धकों का मूल्यांकन करता है। वह उनके कार्य-निष्पादन का निर्वचन करता है, उनके कार्य की तुलना पूर्व निर्धारित मानकों से करता है तथा उनकी विकास करने की क्षमताओं का अनुमान भी लगाता है। 
    3. प्रबन्धकों की सूची का निर्माण: प्रबन्ध विकास प्रक्रिया के इस चरण में प्रत्येक प्रबन्धक के विषय में विस्तृत जानकारी जैसे- नाम, आयु, लिंग, शैक्षिक योग्यता, प्रशिक्षण, पूर्व का कार्य अनुभव, वर्तमान कार्य अनुभव, स्वास्थ्य, मनोवैज्ञानिक And अन्य लिखित परीक्षणों के परिणाम तथा निष्पादन मूल्यांकन के आँकडे़ आदि के साथ सूची का निर्माण Reseller जाता है। यह सूचनायें सामान्यत: व्यक्तिगत काडों पर तैयार की जाती है। 
    4. व्यक्तिगत विकास कार्यक्रमों का नियोजन: इस चरण में व्यक्तिगत विकास कार्यक्रमों को नियोजन Reseller जाता है। चूँकि, प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहार, मानसिक And शारीरिक स्थिति तथा भावात्मक गुण Second से भिन्न होते हैं। अत:, प्रत्येक प्रबन्धक के कार्य-व्यवहार का गहन, अध्ययन करना आवश्यक होता है। इसके साथ, यह भी ज्ञात करने का प्रयास Reseller जाता है। कि व्यक्ति विशेष की त्रुटियाँ अथवा कमियाँ क्या-क्या हैं? इसके बाद ही उनके अनुकूल विकास कार्यक्रम निर्धारित Reseller जाता हैं इस प्रकार प्रबन्ध के विकास के लिए उनकी Needओं तथा संगठन में उपलब्ध सुविधाओं के बीच समन्वय स्थापित Reseller जाता है। 
    5. विकास कार्यक्रमों का कार्यान्वयन: विकास कार्यक्रमों का कार्यान्वयन का उत्तरदायित्व Human संसाधन विभाग पर होता हैं। Human संसाधन विभाग को विभिन्न प्रबन्धकों के ज्ञान And निपुणताओं के विद्यमान स्तरों की पहचान करते हुए उनकी सम्बन्धित कार्य अपेक्षाओं के साथ तुलना करनी होती है। इसके साथ ही वह विकाSeven्मक Needओं की पहचान करता है तथा उसके आधार पर ही सुस्थापित विशिष्ट विकास कार्यक्रमों, जैसे- बिजनेस गेम्स, संवेदनशीलता विकास तथा व्याख्यान आदि को संचालित करता है। 
    6. विकास कार्यक्रमों का मूल्यांकन: प्रबन्ध विकास प्रक्रिया का अन्तिम चरण विकास कार्यक्रमों का मूल्यांकन करना होता है। यह ज्ञात करना अत्यन्त आवश्यक है। कि प्रबन्ध विकास कार्यक्रमों का वास्तव में क्या परिणाम प्राप्त हो रहा है। प्रबन्ध विकास कार्यक्रमों का मूल्यांकन सामान्यत: इस आधार पर Reseller जाता है कि उनके द्वारा प्रबन्धकों के ज्ञान, निपुणताओं, तकनीकों And व्यवहारों में किस सीमा तक परिवर्तन उत्पन्न हुआ है तथा संगठन की अपेक्षाओं And हितों की पूर्ति किस मात्रा में हुर्इ है। विकास कार्यक्रमों के मूल्यांकन का उद्देश्य उनकी सफलता को ज्ञात करना होता है। तथा साथ ही यह भी जानकारी प्राप्त करना होता हैं। कि कार्यक्रमों में क्या त्रुटियाँ रहीं, जिससे कि भविष्य में उन्हें दूर Reseller जा सके।

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