परामर्श की प्रक्रिया

मिस ब्रेगडन ने इन परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर परामर्श की Need को इंगित Reseller है-

  1. वह परिस्थिति जब कि व्यक्ति न केवल सही सूचनायें चाहता है वरन् अपने व्यक्तिगत समस्याओं का भी समाधान चाहता है।
  2. जब विद्याथ्री अपने से अधिक बुद्धिमान श्रोता चाहता है जिससे वह अपनी समस्याओं का समाधान और भविष्य के लिये परामर्श व सुझाव चाहता हो।
  3. जब परामर्शदाता ऐसी सुविधाओं का आकलन करता है जो विद्यार्थियों की समस्याओं को सुलझाने में सहायक होती है पर विद्याथ्री उनका आकलन नही कर पाते है।
  4. जब विद्याथ्री को समस्या हो पर उसे इस समस्या का आभास न हो रहा हो तो उसे इस अवस्था का आभास दिलाने के लिये परामर्श प्रक्रिया संचालित की जाती है।
  5. जब बच्चों को समस्या की जानकारी हो परन्तु उसे समझने, परिभाषित करने और समाधान करने में वह अपने को असमर्थ पाते हों या वह आकस्मिक तनाव के कारण इसे सुलझा नहीं पाते हैं।
  6. जब बच्चे कुसमायोजन के प्रभाव में हो और इसके लिये निदान व उपचार की Need हो।
  7. जब जीवन के किसी पक्ष में हो रहे बदलाव को समझने में बच्चे/व्यक्ति अपने को असमर्थ पाते है।
  8. समाज के ढाँचे में बदलाव के साथ मनुष्य की भूमिका में जबरदस्त बदलाव तथा परिवर्तन ने उसके सामने समायोजन की समस्या खड़ी कर दी है।

परामर्श की प्रक्रिया के अंग

परामर्श प्रक्रिया में अनेक तत्व सम्मिलित होते है। विलियम कोटल ने परामर्श में Seven तत्वों के सम्मिलित होने की Need बतायी है जो कि है-

  1. दो व्यक्तियों में परस्पर सम्बन्ध आवश्यक है।
  2. परामर्शदाता व परामर्श प्राथ्री के मध्य विचार-विमर्श के अनेक साधन हो सकते हैं।
  3. प्रत्येक परामर्शदाता अपना कार्य पूरे लगन से करे ।
  4. परामर्श प्राथ्री की भावनाओं के According प्रक्रिया के स्वReseller में परिवर्तन हो। 
  5. प्रत्येक परामर्शदाता अपना ज्ञान पूरे ज्ञान से करता है।
  6. परामर्शदाता की भावनाओं के According परामर्श के स्वReseller में परिवर्तन हो। 
  7. प्रत्येक परामर्श साक्षात्कार निर्मित होता है।

परामर्श प्रक्रिया में शिक्षाथ्री Single प्रशिक्षित व्यक्ति के साथ कुछ विशिष्ट उद्देश्यों को स्थापित करने के लिये कार्य करता है तथा ऐसे व्यवहारों को सीखता है जिसका अर्जन उद्देश्यों तक पहुँचने के लिये आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक है।

  1. परामर्शदाता प्रशिक्षित व अनुभवी होना चाहिये। 
  2. परामर्श के लिये उचित वातावरण होना चाहिए। 
  3. परामर्श द्वारा व्यक्ति की वर्तमान व भविष्य की Needओं की पूर्ति होनी चाहिये।
  4. संघर्षमय अवस्था का आभास-यह वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति अपने को उपस्थित समस्या के प्रति जागरूक हो जाता है और वह उस परिस्थिति से निकलने के लिये संघर्ष करता है और फिर उसके समक्ष वह परिस्थिति भी आती है कि वह अपनी समस्या किसके समक्ष रखे।
    1. अचेतन की स्वीकृति-इस अवस्था में वह परिस्थिति जब अचते न मन की स्वीकृति परामर्श के लिये हो जाती है और व्यक्ति अन्दर से अपनी समस्या के समाधान हेतु Second से परामर्श लेने को तैयार हो जाता है।
    2. दमन की भूमिका-अपने आपके परामर्श के लिये तैयार करने के साथ भी अपनी भावनाओं के दमन की स्थिति बनी रहती है। व्यक्ति अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करने में हिचकिचाहट का अनुभव करता है।
    3. परनिर्र्भरता And हस्तान्तरण-इस समय तक प्राथ्री अपनी समस्याओं के साथ उसके समाधान हेतु परामर्शदाता पर आश्रित हो जाता है और फिर वह सूचनाओं का हस्तान्तरण करने के लिये तैयार हो जाता है।
    4. अन्र्तदृष्टि की उपलब्धि-इसके बाद परामर्शदाता व प्राथ्री को प्राप्त सचू नाओं के आधार पर अन्र्तदृष्टि का अनुभव होता है।
    5. उचित संवेगो पर बल-आपसी वार्ता से प्राप्त अनुभव से उचित संवेगों पर बल दिया जाता है।
    6. स्वीकारात्मक अभिरूचि-इसके बाद प्राथ्री स्वीकार करते हुये परामर्श का आवश्यक अंग बन जाता है।

परामर्श प्रक्रिया के चरण

परामर्श प्रक्रिया में परामर्शदाता व प्राथ्री समस्या समाधान हेतु लक्ष्य निर्धारित करके Single चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ते है। विलियम And डारले ने परामर्श प्रक्रिया के चरण उल्लिखित किये हैं-

  1. विश्लेषण-इस चरण में विविध तरीकों से प्राथ्री से सम्बन्धित सूचनायें Singleत्र की जाती हैं जिससे कि प्राथ्री को पूरी तरह से जाना जा सके।
  2. संश्लेषण-इस चरण मे प्राप्त सूचनाओं को व्यवस्थित तरीके से रखा जाता है। 
  3. प्राक्कथन-व्यवस्थित आकंडें के आधार पर समस्या को Single समग्रता के Reseller में देखा जाता है।
  4. परामर्श –इसमें परामर्शदाता व प्राथ्री दोनो मिलकर समायोजन के लिये प्रयास करते हैं। इसमें परामर्शदाता व प्राथ्री मिलकर समस्या समाधान हेतु भविष्य की ओर कदम बढ़ाते हैं।
  5. अनुवर्ती सेवायें-इस चरण में संचालित परामर्श के विविध चरणों के प्रयासों का मूल्यांकन Reseller जाता है। इसके अतिरिक्त इस बात पर भी बल दिया जाता है कि प्राथ्री भविष्य में किन समस्याओं को सुलझाने का प्रयास कर पायेगा। रोजर के द्वारा विविध चरणें के इस प्रकार से व्याख्यायित Reseller गया।
    1. Single व्यक्ति Single आकस्मिक निर्णय लेते हुये सहायता के लिये आता है।
    2. परामर्श दाता यह स्थिति उत्पन्न करता है कि प्राथ्री अपनी समस्या को समझे और समाधान करने की दक्षता उत्पन्न कर ले।
    3. परामर्शदाता स्वतन्त्र प्रतिक्रिया को प्रोत्साहित करता है यह स्वतन्त्र प्रतिक्रिया किसी समस्या के सन्दर्भ में ही होगी। यह उत्तेजना व सजगता उत्पन्न करेगी। प्राथ्री को यह बताने का प्रयास नही Reseller जाता कि वह सही है या गलत। परामर्शदाता प्राथ्री को वैसा ही स्वीकार कर लेता है जैसा वह है।
    4. परामर्शदाता नकारात्मक प्रतिक्रिया को भी स्वीकृति देता है और उनमें विविधता लाने का प्रयास करता है।
    5. इसके बाद अप्रत्याशित सत्य ऊपर आता है जो कि नकारात्मक प्रतिक्रिया के बाद उद्भव होता है।
    6. परामर्शदाता सकारात्मक अनुभवों का विश्लेषण कर स्वीकृति देता है।
    7. फिर स्वानुभव व आत्मज्ञान का उद्भव होता है।

    परामर्श प्रक्रिया का लक्ष्य

    परामर्श प्रक्रिया का लक्ष्य सर्वथा प्राथ्री को पूर्ण सहयोग And सक्षम बनाना होता है। परन्तु परामर्श की प्रकृति के According लक्ष्यों को परिभाषित अलग से Reseller जाता है। ब्वाय And जी0 जे0 पाहन ने प्राथ्री केन्द्रित परामर्श की प्रकृति पर विचार दिया कि विशिष्ट Reseller से माध्यमिक स्तर पर विद्याथ्री को ‘‘अधिक परिपक्व And स्वयं क्रियाशील बनने, विधेयात्मक And Creationत्मक दिशा की ओर अग्रसर होने में सहायता प्रदान करने तथा अधिकाधिक परिपक्व ढंग से विचार-विमर्श में सहायता प्रदान करना परामर्श प्रक्रिया का लक्ष्य है।’’

    सामान्य नैदानिक परामर्श पर विचार- विमर्श प्रकट करते हुये ब्वाय And पाइन ने लिखा कि- यह ‘‘प्राथ्री को अधिक अच्छा करने में सहायता देने Meansात् प्राथ्री को स्वयं के महत्व को स्वीकार करने, वास्तविक ‘स्व’ And आदर्श ‘स्व’ के बीच के अन्तर को मिटाने में सहायता देने तथा स्वयं की व्यक्तिगत समस्याओं में अपेक्षाकृत सफलतापूर्वक विचार करने में सहायता प्रदान करने से सम्बन्धित है।’’ अमेरिकन मनोवैज्ञानिक संघ ने दूसरी ओर परामर्श के तीन उद्देश्य बताये-

    1. प्राथ्री को इस योग्य बनाना कि वह स्वयं के अभिप्रेरकों, आत्म दृष्टिकोणों व क्षमताओं को यर्थाथ Reseller में स्वीकार कर ले।
    2. प्राथ्री को सामाजिक, आर्थिक And व्यावसायिक वातावरण के साथ तर्कयुक्त सामंजस्य स्थापित करने में सहयोग देना।
    3. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के प्रति समाज को जागरूक करना जिससे कि रोजगार व सामाजिक सम्बन्धों में भी प्रश्रय मिले।
      इसके आधार पर परामर्श के तीन उद्देश्य मुख्य Reseller से स्पष्ट हुये-

      1. आत्मज्ञान/आत्मविश्लेषण- परामर्शदाता प्राथ्री को दक्षता उत्पन्न करने में सहायता देता है कि सेवार्थी स्वयं का मूल्यांकन कर सके। स्वयं की क्षमता, योग्यता And रूचि को वास्तविक Reseller में जानने के लिये ही परामर्श की Need होती है और परामर्श का यही लक्ष्य होता है कि वह प्राथ्री को आत्मविश्लेषण के लायक बना दें। लियोना टायलर ने लिखा कि-’परामर्श को Single सहायक प्रक्रिया के Reseller में समझा जाना चाहिये जिसका उद्देश्य व्यक्ति को परिवर्तित करना नही है वरन् उसके उन स्रोतों के उपयोग में सक्षम बनाना है जो उसके पास इस जीवन का सामना करने हेतु उपलब्ध है। तब परामर्श से इस उपलब्धि की अपेक्षा करेंगे कि प्राथ्री स्वयं Creationत्मक कार्य करने लगे।’’
      2. आत्म स्वीकृित- परामर्श का दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है प्राथ्री को स्वयं को स्वीकृत करने में सहयोग देना है। आत्म स्वीकृति का अभिप्राय अपने प्रति आदरभाव रखते हुये उचित दृष्टिकोण का निर्माण करना है। आत्म स्वीकृति की अवस्था तब आती है जबकि प्राथ्री अपनी सीमाओं, कमियों व योग्यताओं के विषय में उचित ज्ञान पा जाता है। आत्मविश्लेषण के बाद आत्मस्वीकृति व्यक्ति को हताशा व निराशा से बचाती है।
      3. सामाजिक सामंजस्य- परामर्श प्रक्रिया का Single प्रमुख लक्ष्य व्यक्ति का समाज And वातावरण से सामंजस्य बैठाना भी है। प्राथ्री समायोजन न कर पाने के कारण समस्याग्रस्त होता है। सामाजिक जीवन व Needओं को समझना And उसके अनुकूल स्वयं को ढालने की दक्षता उत्पन्न करना परामर्श का ही कार्य है।

      परामर्श प्रक्रिया के सिद्धान्त

    परामर्श की सम्पूर्ण प्रक्रिया Single निश्चित सिद्धान्त पर आधारित है। मैकेनियल और शैफ्टल ने इन सिद्धान्तों की Discussion की है-

    1. स्वीकृति का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के According प्राथ्री के पूरे व्यक्तित्व को समझा जाता है और उसके अधिकारों का पूरा सम्मान Reseller जाता है और प्राथ्री के भावनाओं को स्वीकार कर सही दिशा दी जाती है।
    2. सम्मान का सिद्धान्त-इसमें प्राथ्री के विचारें भावनाओं व समस्याओं को स्वीकृति दी जाती है और उसे पूरा आदर दिया जाता है।
    3. उपयुक्तता का सिद्धान्त-परामर्श में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि प्राथ्री को ऐसा अनुभव हो जाये कि परामर्श प्रक्रिया पूरी तरह से उसके लिये उपयुक्त है।
    4. सहसम्बन्ध का सिद्धान्त-परामर्श प्रक्रिया में परामर्शदाता प्राथ्री के विचारों व भावनाओं के साथ सहसम्बन्ध बनाने का प्रयास करता है और उसके साथ तारतम्यता बनाकर चलता है।
    5. सोश्यता का सिद्धान्त-सम्पूर्ण परामर्श प्रक्रिया सोद्देश्य होती है।
    6. लोकतन्त्रीय आदर्शे का सिद्धान्त-सम्पूर्ण परामर्श प्रक्रिया, लोकतान्त्रिक आदर्शो से संचालित होती है इसमें व्यक्तिगत भिन्नताओं को सम्मान करते हुये All के व्यक्तित्व का आदर Reseller जाता है और प्राथ्री को महत्व देते हुये उसे निर्णय लेने के योग्य बनाया जाता है।
    7. लचीलेपन का सिद्धान्त-परामर्श प्रक्रिया लचीली होती है वह प्राथ्री की Need के According परिवर्तित की जाती है और उसका सम्पूर्ण स्वReseller प्राथ्री के हित पर निर्धारित होता है।

    परामर्श प्रक्रिया में ध्यान देने योग्य बातें

    परामर्श प्रक्रिया उद्देश्यों पर आधारित होती है। इसका संचालन बहुत ही सावधानीपूर्वक करना पड़ता है। अन्यथा उद्देश्यों की प्राप्ति में कठिनार्इ आती है। अत: इस बात की Need है कि परामर्श की प्रक्रिया निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए सावधानी पूर्वक संचालित की जाए-

    1. परामर्श बहुत ही शांत And अनुकूल वातावरण में संचालित होनी चाहिए। 
    2. परामर्श के लिए परामर्श प्राथ्री स्वयं उत्साहित हो And प्रतिभाग के लिए तैयार हो। 
    3. परामर्श प्रक्रिया के संचालन हेतु यह प्रयास Reseller जाए कि विश्वसनीय सूचनायें Singleत्र हो जिससे कि विश्लेशण कर उचित मार्गदर्शन दिया जा सके। 
    4. प्रक्रिया में प्राथ्री को अपनी बात रखने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। जिससे कि उचित And अवसरानुकूल जानकारियाँ मिल सकें। 
    5. परामर्श प्रक्रिया परामर्श प्राथ्री को मानसिक Reseller से पूरी तरह से तैयार करके ही प्रारम्भ की जाए।
    6. परामर्श प्रक्रिया बहुत ही सहज वातावरण And प्रकृति के साथ प्रारम्भ की जानी चाहिए जिससे कि प्राथ्री अपने आप को पूरी तरह से सहज अनुभव कर सकें। 
    7. परामर्श प्रक्रिया परामर्श दाता को प्राथ्री के साथ पूरी तरह से सामंजस्य बिठाकर ही संचालित करना चाहिए जिससे कि प्राथ्री को अपनी गति से तथ्यों को समझने में सहायता मिले। 
    8. परामर्श प्रक्रिया में यह आवश्यक है कि परामर्शदाता का दृष्टिकोण सकारात्मक हो जिससे कि प्राथ्री की सोच And समझ सकारात्मक मार्ग की ओर ही जाए। 
    9. परामर्श प्रक्रिया में कुछ आवश्यक तथ्यों की गोपनीयता बनायी रखी जानी चाहिए जिससे कि प्राथ्री उन तथ्यों को भी परामर्श के समय रखने में सरलता का अनुभव करें। 
    10. इस प्रक्रिया में यह आवश्यक होता है कि प्राप्त तथ्यों का पर्याप्त And सही विश्लेशण करने के बाद ही उनका संश्लेशण करके सही निष्कर्ष की ओर पहँुचा जाए। 
    11. परामर्श प्रक्रिया में यदि आवश्यक हो तो परामर्श प्राथ्री से सम्बन्धित लोगों से अवश्य ही सम्बन्ध स्थापित Reseller जाए जिससे कि पूर्ण जानकारी मिल सकें। 
    12. समस्या से सम्बन्धित पूर्ण तथ्यों के जानकारी के बाद ही परामर्श की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाए। 
    13. परामर्शदाता को यह ध्यान में रखना चाहिए कि वह अपने किसी भी विचार And प्रतिक्रिया को प्राथ्री को मानने के लिए बाध्य ना करें। वह प्राथ्री को स्वतन्त्रता दे कि वह परामर्शदाता की विचारों And प्रतिक्रिया से Agree या अAgree हो सकता है। 

    इन बिन्दुओं को ध्यान में रखकर यदि परामर्श प्रक्रिया संचालित की जाती है तो अवश्य ही वह लक्ष्योन्मुखी होगी।

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