सुभाष चन्द्र बोस का जीवन परिचय

सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 र्इ. को उड़ीसा में हुआ था। इनके पिता का नाम जानकी नाथ बोस था और माता प्रभावती थी। इनके पिता वकील थे। सुभाषचंद्र अपने Fourteen भार्इ बहिनों में Sixthं पुत्र और नवीं संतान थे। इनका परिवार Single मध्यमवर्गीय परिवार था। इनके माता-पिता अनुशासन प्रिय थे जिसे सुभाष ने भी आत्मSeven Reseller।

लगभग 5 वर्ष की उम्र में सुभाषचंद्र बोस को स्कूल भेजा गया उस समय वे बहुत खुश हुए। कटक के ही प्रोस्टेन्ट यूरोपियन मिशनरी स्कूल में सुभाष का दाखिला करा दिया गया। वे अपने प्रधानाध्यापक बेनी माधव दास से बहुत प्रभावित हुए। स्वामी विवेकानंद की Creationऐं लगभग 15 वर्ष की उम्र में पढ़ने के कारण सुभाषचंद्र के मन में स्वामी विवेकानंद के विचार की अमिट छाप पड़ गर्इ।

स्कूली शिक्षा समाप्त करने के पश्चात कलकत्ते के प्रसिद्ध प्रेसीडेन्सी कॉलेज में उन्होंने दाखिला लिया। यह सरकारी कॉलेज था साथ इसका बहुत नाम भी था। इस में All प्रकार के छात्र पढ़ते थे। प्रेसीडेन्सी कॉलेज हिन्दू होस्टल के वार्षिकोत्सव कार्यक्रम के दौरान अंग्रेज अध्यक्ष मि. ओटेन से विवाद हो गया। खगेन मित्रा मनोविज्ञान के प्रोफेसर थे उन्होंने इस कार्यक्रम में देशभक्ति गीत गाए तो मि. ओटेन ने असभ्य कह कर उनका मजाक बनाया जिससे Indian Customer छात्र क्रोधित हो गए और विरोधस्वReseller बाहर आकर सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में प्राचार्य को ज्ञापन सौंपा जिसमें इस बात की माँग की गर्इ कि ओटन माफी माँगें और हड़ताल प्रारंभ कर दी गर्इ। किसी सरकारी कॉलेज में छात्रों द्वारा हड़ताल बहुत बड़ी घटना मानी जा रही थी अंतत: मि. ओटेन को माफी माँगनी पड़ी। ओटेन इस अपमान को न भूल सके और महीने भर बाद पुन: विवाद हुआ। इस बार किसी छात्र ने उन्हें थप्पड़ मार दिया। घटना के समय सुभाषचंद्र भी वही थे इस कारण तथा पूर्व में हड़ताल भी इन्हीं के नेतृत्व में हुर्इ थी सो उन्हें ही दोषी मानकर कॉलेज से निकाल दिया गया। इसके बाद उन्हें स्काटिश कॉलेज कलकत्ता में दाखिला मिला और 1919 में उन्होंने First श्रेणी में ठण्।ण् की परीक्षा पास की। सुभाषचंद्र बोस की गतिविधियों से उनके माता-पिता बहुत चिंतित थे और उनके भविष्य निर्माण हेतु उन्होंने सुभाष को इंग्लैण्ड भेजने का विचार Reseller ताकि आर्इ.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर सके।

इंग्लैण्ड गमन व I.C.S में चयन और भारत वापिसी –

अंतत: 15 सितम्बर, 1919 को सुभाषचंद्र बोस इंग्लैण्ड रवाना हो गए। उनकी इच्छा देशसेवा करने की थी न कि ब्रिटिश सरकार की नौकरी। परंतु माता-पिता की इच्छा को शिरोधार्य कर उन्होंने इंग्लैण्ड जाने का मन बना लिया। इंग्लैण्ड का खुला वातावरण सुभाषचंद्र को बहुत रास आया उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला लिया सुभाषचंद्र का मन अभी देश सेवा के लिए ही तड़प रहा था। I.C.S की परीक्षा में जुटने के साथ-साथ भारत की दुर्दशा पर सुभाष का मन रोता। सुभाषचंद्र बोस को आर्इ.सी.एस. की परीक्षा की तैयारी हेतु केवल 8 माह का समय मिला परंतु अपनी प्रतिभा के दम पर कम समय में ही उन्हें चौथा स्थान प्राप्त हुआ। सबसे First उन्होंने अपने माता-पिता को यह सूचना दी।

Historyनीय है कि यह फैसला स्वयं सुभाष का नहीं था अत: वे प्रसन्न नहीं थे। पुन: उनके मन में उथल-पुथल चल रही थी अब किस विकल्प को चुना जाए। यह फैसला अत्यंत महत्वपूर्ण भी था। ब्रिटिश सरकार की नौकरी करें या देश सेवा जिसका स्वप्न बचपन से ही सुभाषचंद्र के मन में बसा था। कर्इ तरह से पारिवारिक, ऐशो आराम की जिंदगी आदि का दबाव बनाया गया परंतु All प्रयास असफल रहे और अंतत: सुभाषचंद्र बोस ने I.C.S से त्यागपत्र देकर भारत आने का निर्णय Reseller।

1921 में सुभाषचंद्र बोस ने त्यागपत्र देकर भारत आने का फैसला Reseller। भारत आने से पूर्व उन्होंने देशबंधु चितरंजन दास से संपर्क Reseller। इस प्रकार अब भारत में आकर उन्होंने राष्ट्र सेवा का मन बना लिया और इस तरह Indian Customer राजनीति में आने की उनकी भूमिका तैयार हो गर्इ।

सुभाषचन्द्र बोस का Indian Customer राजनीति में प्रवेश 

1. मुंबर्इ आगमन व गाँधी जी से भेंट –

सुभाषचंद्र बोस विदेश में रहते हुए भी स्वदेश की तत्कालीन राजनैतिक उथल-पुथल से अनभिज्ञ न थे। उनका मन-मस्तिष्क हर समय देश की समस्याओं के प्रति जागरूक और उत्सुक बना रहता था। अंतत: I.C.S की परीक्षा में सफलता के पश्चात त्यागपत्र दे देना देशप्रेम व मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य पालन का अद्वितीय उदाहरण था। I.C.S में चयन के बाद उन्हें Indian Customer राजनीति में प्रवेश करना था। इसी दौरान वे भारत वापिस आ गए। राजनीतिक प्रवेश से पूर्व संपूर्ण Indian Customer राजनीति की जानकारी अर्जित करना आवश्यक था इसके लिए उन्होंने विभिन्न Indian Customer नेताओं से संपर्क करने का निश्चय Reseller। उस समय Indian Customer राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे महात्मा गाँधी। अत: उन्होंने सबसे First उन्हीं से मिलना उचित समझा।

16 जुलार्इ, 1921 को सुभाषचंद्र बोस बंबर्इ पहुँचे। इसी दिन उन्होंने महात्मा गाँधी से मुलाकात की। वे गाँधी जी के विचारों से अवगत होना चाहते थे। अपनी पहली मुलाकात पर बोस ने कुछ इस तरह विचार व्यक्त किए हैं। “मुझे बस दोपहर की अच्छी तरह याद है जब मैं गाँधी जी से मिलने मणि भवन गया, जहाँ वह बंबर्इ आने पर सदैव ठहरते थे। जिस कमरे में वह बैठे थे उसमें फर्श पर कालीन बिछी हुर्इ थी और गाँधी जी दरवाजे की ओर अपना मुख किये अनेक शिष्यों के साथ कमरे के बीच में बैठे हुए थे। कमरे में खादी से बने सामान थे। मैं जब कमरे में घुसा तो मुझे इस बात से बड़ी ग्लानि हुर्इ कि मैं विदेशी वस्त्र पहने हुए हूँ। इसके लिए मैं स्वयं अपने को क्षमा नहीं कर सकता था। गाँधी जी ने मुस्कान के साथ मेरा स्वागत Reseller और मुझे बैठने को कहा। उन्होंने मुझसे बात की मैंने उनसे भारत में विदेशी प्रभुत्व समाप्त करने की योजना के बारे में पूछा और कहा कि इस संबंध में वे कौन सा रास्ता अपनायेंगे। मैंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर उन्होंने बड़े धैर्य के साथ मेरे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दिया।”

महात्मा गांधी ने सुभाषचंद्र बोस के All प्रश्नों का उत्तर दिया परंतु बोस संतुष्ट न हो सके। उस समय महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन संपूर्ण वेग पर था। असहयोग आंदोलन से संबंधित प्रश्न भी उन्होंने पूछे किस प्रकार वे Single वर्ष में स्वराज दिला देंगे आदि प्रश्नों के उत्तर उन्होंने चाहे गांधी जी के जबाबों से वे संतुष्ट न हो सके। Historyनीय है कि सुभाषचंद्र बोस ने भारत में और विदेश में रहते हुए क्रांतिकारियों के विचारों को पढ़ा, क्रांतिकारी आंदोलनों, उनके कार्य कार्य प्रणाली, और विचारों का अध्ययन Reseller। वैसे भी सुभाषचंद्र बोस का झुकाव अहिंसा की नीति में नहीं था अत: स्वाभाविक है कि वे अहिंसा के पुजारी के जबावों से असंतुष्ट रहे। बोस ने अपनी आत्मकथा The Indian Struggle में लिखा है जिस समय वे गांधी जी से मिले उस समय उनकी आयु 24 वर्ष थी और गांधी जी 52 वर्ष के थे लगभग 28 वर्ष का भारी अंतर भी था। सुभाषचंद्र का मानना था कि स्वयं गांधी जी के मन में अपने ही कार्यक्रम की कोर्इ स्पष्ट Resellerरेखा नहीं थी। गांधी जी भी यह बात भांप गए कि बोस उनसे संतुष्ट नहीं है अत: उन्होंने सुभाषचंद से देशबंधु चितरंजन दास से भेट करने कि सलाह दी।

2. देशबंधु चितरंजन दास से भेंट व राजनीतिक गुरू बनाना –

Historyनीय है कि सुभाषचंद्र कॉलेज के विवाद के समय भी चितरंजन दास से मिल चुके थे। उन्होंने इग्लैण्ड से भी उन्हें पत्र I.C.S से त्यागपत्र देने की बात से अवगत करा कर भारत आने पर कार्य करने कि इच्छा प्रकट की थी। देशबंधु ने सुभाषचंद्र को यह आश्वासन भी दिया था कि उन्हें भारत आने पर काम की कमी नहीं होगी। सुभाषचंद्र बोस ने यह समाचार भी सुन रखा था कि देशबंधु ने अपनी चलती वकालत छोड़कर अपना सारा समय व जीवन देश के नाम कर दिया है और अपनी सारी संपत्ति उन्होंने राष्ट्र के नाम कर दी। इससे बोस बहुत प्रभावित हुए। सुभाषचंद्र जब देशबंधु चितरंजन से मिलने पहुंचे तो उनसे भेंट न हो सकी परंतु उनकी पत्नी वासंती देवी से मिल कर उनके व्यवहार से बहुत प्रभावित हुर्इ जिस का वर्णन सुभाषचंद्र ने कुछ इस तरह से Reseller “यह वह मि. दास नहीं थे, जिनके पास मैं परामर्श के लिए तब गया था जब वे कलकत्ता के बैरिस्टर थे और मैं राजनीतिक कारणों से कॉलेज से बहिष्कृत Single छात्र। यह वह मि. दास नहीं थे जो दिन भर में हजारों Resellerये लुटाते और घंटों में हजारों Resellerये कमाते थे। हालांकि यह वहीं मि. दास थे जो सदा ही युवाओं के मित्र बने रहे, उनकी आकाक्षांओं और तकलीफों को समझते रहे और उनके प्रति हमदर्दी से पेश आते रहे। उनके साथ वार्ता के क्रम में मुझे यह एहसास होने लगा था कि ये Single ऐसे इंसान हैं जिन्हें अपना मकसद बखूबी मालूम था, जो अपना सर्वस्व अर्पण कर सकते थे और दूसरों से भी अपना सब कुछ मांग सकते थे। जब हमारी बातचीत समाप्त हुर्इ तो मेरा मन तैयार हो चुका था। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे मुझे वह आदमी मिल गया जिसे में अपना नेता मान सकता हू। मैंने उनका Accordingण करने का पक्का इरादा बना लिया।”

इस तरह चिरंजन दास से मिलने पर सुभाषचंद्र को अपना रास्ता मिल गया जिस पर चल कर उन्हें आजादी का रास्ता तय करना था। अब यह निश्चित हो गया था कि राजनीति में वे गांधीवादी विचार धारा के अनुReseller कार्य न करके क्रांतिकारी रास्ता ही अपनायेंगे। अपने विचारों को कार्यReseller में परिणित करने हेतु Indian Customer राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रवेश हेतु अध्ययन प्रारंभ Reseller।

कांग्रेस अध्यक्ष के Reseller में सुभाषचन्द्र बोस

1. कांग्रेस अध्यक्ष के Reseller में हरिपुरुरा अधिवेश्ेशन 1938 र्इ. और त्रिपुरुरी अधिवेशन 1939 र्इ.

सुभाष्ाचन्द्र बोस के विचारों से युवा वर्ग बहुत प्रभावित होता जा रहा था। गैर समझौतावादी नेता के Reseller में वे प्रसिद्ध होते गए। अपने कार्यों को करने के लिए उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद स्वीकार Reseller। इस समय सुभाषचन्द्र बोस ने अध्यक्ष पद सुशोभित Reseller। इस समय सुभाषचंद्र के विचार परिपक्व हो चुके थे और कांग्रेस के मंच पर पहुंच चुके थे। 28 जनवरी, 1938 को कांग्रेस के महामंत्री जे.बी. कृपलानी ने घोषणा की कि सुभाषचंद्र कांग्रेस के 51 वें अधिवेशन के अध्यक्ष निर्वाचित किए गए हैं। यह अधिवेशन गुजरात के हरिपुरा में संपन्न हुआ। यह अधिवेशन 1938 में हुआ। सुभाषचंद्र ने अपने अध्यक्षीय भाषण में ेदेश के शहीदों को श्रद्धांजलि दी और इस बात पर बल दिया कि कोर्इ भी साम्राज्य स्थायी नहीं है। रोमन, तुर्की, आस्ट्रिया, हंगरी आदि साम्राज्य पश्चिम के महान साम्राज्य थे लेकिन वे भी नहीं रहे। इसी तरह स्वयं भारत में शक्तिशाली मौर्य, गुप्त और मुगल साम्राज्य धूल में मिल गए। अत: यह निश्चित है कि ब्रिटिश साम्राज्य का अंत भी होगा।

सुभाषचंद्र बोस का मानना था कि ब्रिटिश सरकार पर मुसीबत के समय हमला करना चाहिए और ब्रिटिश सरकार के शत्रुओं को अपना मित्र मानना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि “अगर हम किसी और समय लड़ार्इ प्रारंभ करेंगे तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद आंदोलन के दमन के लिए अपनी सारी सैनिक ताकत झौंक देगा। मगर अभी चूंकि वह विभिन्न मोर्चों पर उलझा हुआ है, इसलिए वह ऐसा नहीं कर पायेगा। शत्रु जब कमजोर हो, तभी उस पर हमला कर उसे पराजित करना आसान होता है।” सुभाषचंद्र के अध्यक्ष बनने से गांधीवादी चिंतित थें दूसरी ओर सुभाषचंद्र बोस पुन: अध्यक्ष बनना चाहते थे साथ ही युवा वर्ग व अन्य नेताओं का भी मत था कि सुभाष चंद्र पुन: अध्यक्ष पद पर आसीन हों। सुभाषचंद्र बोस को पराजित करने हेतु Second उम्मीदवार को खड़ा Reseller गया।

21 जनवरी, 1939 को अपनी उम्मीदवारी घोषित करते हुए उन्होंने कहा कि वे नए विचारों और नर्इ विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा उन समस्याओं और कार्यक्रमों का भी, जिनका आविर्भाव भारत में साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के क्रमश: तेज होने से हुआ है। Historyनीय है कि पट्टाभिसीता रमैया का नामांकन बगैर उनकी जानकारी में हुआ। पट्टाभिसीता रमैया महात्मा गांधी के उम्मीदवार थे। सरदार वल्लभ भार्इ पटेल और राजेन्द्र प्रसाद जैसे कर्इ नेताओं ने सुभाषचंद्र को अपना नाम वापिस लेने को भी कहा परंतु बोस अपने विचार पर दृढ़ रहे। सुभाषचंद्र बोस 1377 के मुकाबले 1580 मतों से जीत गए। समस्त गांधी वादियों में निराशा छा गर्इ दूसरी ओर सुभाषचंद्र बोस के पक्ष मे खुशियां का माहौल बन गया। महात्मा गांधी ने डॉ. पट्टाभिसीता रमैया की हार को अपनी हार माना। इस समय गांधी जी और बोस के मध्य मतभेद बना रहा। इन सब के बाद भी सुभाषचंद्र ने बयान दिया कि “गुलामी और गरीबी ये दोनों आज देश के समक्ष मुख्य समस्या के Reseller में हैं। अब गुलामी की बेड़ियां टूटेंगीं और उसके स्थान पर स्वाधीनता की बुनियाद का निर्माण होगा। राजनीतिक स्वराज के साथ-साथ हमें आर्थिक स्वराज भी चाहिए।”

2. गाँधीवादियों से मतभेद और पंत प्रस्स्ताव –

सुभाषचंद्र का विरोध लगातार बढ़ता ही जा रहा था। गाँधीवादी किसी तरह से बोस का सहयोग नहीं कर रहे थे जबकि सुभाषचंद्र चुनाव तो जनता के सहयोग से ही जीते परंतु उन्हें अपनी नीतियों को कार्य Reseller में करने के लिए किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं मिल रहा था। सुभाषचंद्र ने कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में यह प्रस्ताव रखा कि Indian Customer राष्ट्रीय कांग्रेस को छ: महीने के भीतर स्वतंत्रता की माँग करते हुए सरकार को Single अल्टीमेटम भेजना चाहिए व संघर्ष हेतु तैयारी भी प्रारंभ करनी चाहिए। लेकिन गाँधीवादियों ने इसका प्रबल विरोध Reseller और इसे अस्वीकार दिया।

इसी दौरान गाँधीवादियों ने पंत प्रस्ताव पारित Reseller। कांग्रेस के संविधान के According कार्यसमिति के सदस्यों के मनोनयन का अधिकार Only निर्वाचित अध्यक्ष को ही था। मगर इस अधिवेशन में गोविन्द वल्लभ पंत ने यह प्रस्ताव पेश Reseller कि कांग्रेस का अध्यक्ष चाहे कोर्इ भी हो, कार्यसमिति के मनोनयन से First उन्हें गाँधी जी की अनुमति लेनी होगी। Second Wordों में, चाहे अध्यक्ष कोर्इ भी हो, कार्यसमिति गाँधीवादियों के ही कब्जे में होगी। अंतत: ‘पंत प्रस्ताव’ पारित हो गया। अब सुभाषचंद्र बोस के समक्ष दो ही मार्ग थे या तो वे गाँधीवादियों की कठपुतली बन कर कार्य करें या फिर अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दें।

कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र और फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना 

1. गांधीवादियों का असहयोग, अस्वस्थता व त्याग-पत्र –

इस प्रकार दृष्टिगोचर होता है कि सुभाषचंद्र बोस को अपने सिद्धांतों से समझौता करने के लिए बाध्य Reseller जा रहा था, परंतु सुभाष जैसे व्यक्तित्व हिमालय कि भांति होते हैं जिन्हें अनैतिक तरीके से झुकाया नहीं जा सकता। स्वाभाविक Reseller से सुभाषचंद्र को दूसरा रास्ता Meansात् कठपुतली अध्यक्ष कि अपेक्षा त्याग-पत्र देना अधिक उचित प्रतीत हुआ और अंतत: उन्होंने इस्तीफा दे दिया। सुभाषचंद्र बोस यदि चाहते तो अध्यक्ष पद कि लालसा में देश सेवा को अनदेखा कर सकते थे, परंतु राष्ट्र सेवा से बढ़ कर उनके लिए कुछ नहीं था। सुभाषचंद्र बोस ने कहा कि “त्रिपुरी में वाकर्इ हमारी हार हुर्इ थी। परंतु यह बारह प्रभावशाली व पुराने नेताओं, Seven प्रांतीय मंत्रियों, जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी के नाम प्रभाव और प्रतिष्ठा के खिलाफ बिस्तर पर पड़े Single अकेला बीमार व्यक्ति का संघर्ष था।” Historyनीय है कि उस समय बोस तीव्र ज्वर से पीड़ित थे। बोस ने बार-बार गांधी जी से अनुरोध भी Reseller कि इस संकट में हस्तक्षेप कर इसे समाप्त करें, परंतु उन्होंने किसी प्रकार की बात नहीं सुनी।

2. देश सेवा के लिए फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना –

गांधीवादियों कि अटकलों से बोस को लगने लगा कि कांग्रेस से अधिक उम्मीद करना अब ठीक नहीं होगा। इसलिए कांग्रेस के अंदर All वामपंथी ताकतों को Singleजुट करने के मकसद से सुभाषचंद्र ने कांग्रेस के अंदर Single और प्रगतिशील And क्रांतिकारी पार्टी तैयार करने के बारे में सोचा। इस तरह ‘फॉरवर्ड ब्लाक’ की स्थापना हुर्इ। इस नये संगठन के निर्माण के बाद सुभाष ने अंग्रेजों के विरूद्ध Single समझौताहीन आंदोलन चलाने का आहवान Reseller। फलस्वReseller उन पर अनुशासन भंग करने का आरोप लगाया गया और उन्हें छ: वर्षों के लिए निलंबित कर दिया गया। अजीब बात तो यह रही कि कांग्रेस में सुभाष का अध्यक्ष पद पर चुनाव ही इसलिए हुआ था कि वे अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष को नेतृत्व प्रदान कर सकें आज उसी कांग्रेस से उन्हें उसी संघर्ष को तेज करने के ‘अपराध’ में निकाला जा रहा है।

Single बात Historyनीय है कि सुभाषचंद्र बोस का व्यक्तित्व विपरीत परिस्थितियों में विचलित नहीं हुआ बल्कि इस संघर्ष ने उन्हें और मजबूत बना दिया। तमाम किस्म के दबाव, द्वन्द और विरोध के बीच Single निडर, निभ्र्ाीक और अदम्य व्यक्तित्व के Reseller में उनका चरित्र और व्यक्तित्व खिल उठा। उन्होंने स्वयं कहा है, “अध्यक्ष पद का चुनाव और उसका परिणाम यद्यपि दुर्भाग्यपूर्ण था पर इससे मेरी राजनीतिक चेतना को तेज होने में काफी मदद मिली। आगे बढ़ने के लिए आखिरकार यह Single प्रेरणा स्त्रोत के Reseller में ही सिद्ध हुआ।”

इस प्रकार सुभाषचंद्र बोस के लिए कांग्रेस अध्यक्ष पद कांटों के ताज के समान रहा। गांधीवादियों के असहयोग के कारण उन्हें कार्य करने में कर्इ मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसी स्थिति में गतिरोध से राष्ट्र का भी अहित ही हो रहा था। और ब्रिटिश सरकार पुन: हमारी फूट का लाभ उठाने को तैयार थी। अत: सुभाष चंद्र बोस ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर कुछ हद तक गतिरोध दूर करने का प्रयत्न Reseller। सुभाषचंद्र बोस ने समस्त असहयोगियों की मदद से फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की और देश की आजादी के लिए प्रयास करने लगे।

सुभाषचन्द्र बोस व आर्इ.एन.ए.

1. सुभाषचन्द्र बोस द्वारा भारत छोड़ना –

सुभाषचंद्र बोस का मानना था कि यदि आजादी प्राप्ति हेतु विदेशी सहायता की Need पड़े तो बिना संकोच विदेशी मदद लेनी चाहिए चाहे वह मदद ऋण के Reseller में ही क्यों न हो। सुभाषचंद्र बोस कि गतिविधियों से ब्रिटिश सरकार अत्यंत भयभीत रहती थी इसी कारण उनकी प्रत्येक गतिविधि पर सरकार कि पैनी दृष्टि रहती थी। कांग्रेस का अधिवेशन रायगढ़ में हुआ। सुभाषचंद्र ने ‘समझौता विरोधी सम्मेलन’ का आयोजन Reseller। इससे कांग्रेस के नेता और असंतुष्ट हो गए। द्वितीय विश्व Fight के बादल घिर चुके थे। महात्मा गांधी व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारंभ करने पर विचार कर रहे थे। दूसरी तरफ सुभाषचंद्र बोस ने बंगाली जनता को हालवेल-स्मारक को हटा देने And सामूहिक आंदोलन प्रारंभ करने के लिए Singleजुट कर लिया था। ब्रिटिश सरकार को समझते देर नहीं लगी कि सुभाषचंद्र किसी तूफान की तैयारी कर रहे हैं। इस कारण उन्हें जेल में डालना ही उचित था। सुभाषचंद्र जेल में रहकर नहीं जीना चाहते थे अत: उन्होंने अनशन प्रारंभ कर दिया और उन्हें रिहा कर दिया गया। परंतु उनके घर पर सरकार की कड़ी निगरानी थी। लेकिन फिर भी वे भागने में सफल रहे।

सुभाषचंद्र बोस द्वारा उपवास प्रारंभ किए जाने के कारण उनकी हालत खराब होती जा रही थी। सरकार को भय था कि सुभाषचंद्र बोस को यदि कुछ हो गया तो Indian Customer जनता को काबू करना कठिन हो जायेगा और सरकार के लिए यह खतरनाक साबित हो सकता है। अत: 1940 में उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। वे कलकत्ता में अपने पूर्वजों के मकान में ही रहने लगे। सरकार उन पर नजर रखे हुए थी परंतु पठान का वेश बना कर वे भाग गए। सुभाषचंद्र को घर से भागने में सहायता उनके भतीजे शिशिर कुमार बोस ने की थी। बोस कि कलकत्ते से बर्लिन तक की यात्रा महत्वपूर्ण थी। इस घटना की तुलना हम शिवाजी द्वारा औरंगजेब की कैद से भाग निकलने से कर सकते हैं। दाढ़ी बड़ी करके सुभाषचंद्र कभी बस तो कभी रेल यात्रा करते हुए पेशावर पहुंच गए। दाढ़ी ने पुलिस की आंखों में खूब धूल झोंकी और पठान जियाउद्दीन के वेश में उन्होंने Single काफिले के साथ सीमा पार की और काबुल पहुंच गए। अंत में Single व्यक्ति के पासपोर्ट का उपयोग करके सुभाषचंद्र जर्मनी पहुंच गए।

2. सुभाष द्वारा INA का नेतृत्व संभालना –

जून, 1943 में सुभाषचंद्र टोकियो आ गये। 4 जुलार्इ को श्री रासबिहारी बोस ने सविधि उन्हें ‘आजाद हिंद फौज’ का सेनापति बना दिया। इसके बाद सुभाष की अद्भुत संगठन शक्ति को सारे विश्व ने सराहा। वस्तुत: आजाद हिंद फौज का गठन 1941 में प्रसिद्ध क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने Reseller था। सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज को संगठित कर दिल्ली चलो का नारा दिया। सुभाष बिग्रेड, गांधी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड और आजाद ब्रिगेड- इस प्रकार चार ब्रिगेडों में सेना का वितरण Reseller गया था। कैप्टन लक्ष्मी सहगल की देख-रेख में महिलाओं की अलग ‘झांसी रानी रेजीमेंट’ का गठन Reseller गया। सुभाषचंद्र बोस ने ‘दिल्ली चलो’ और ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा’ का नारा दिया। सुभाष की अदुभुत नेतृत्व क्षमता से INA सुसज्जित हो गर्इ थी।

स्वाधीनता आंदोलन में आर्इ.एन.ए. की भूमिका

1. आर्इ.एन.ए. की कार्यवाही –

सुभाषचंद्र बोस मे लोगों को संगठित करने की विशेष क्षमता थी। इसका परिचय आर्इ.एन.ए. को संगठित करने में मिलता है। आजाद हिंद सेना में अधिकांश वे सैनिक शामिल थे जो ब्रिटिश सेना के सदस्य थे और जिन्हें जापानियों ने पराजित करके बंदी बना लिया था। ब्रिटिश सेना से लड़ने के लिए जापान सरकार ने इन Indian Customer सैनिकों को स्वतंत्र करके उन्हें ब्रिटिश विरोधी संगठन बनाने की अनुमति दे दी थी। सैनिक दृष्टि से कुशल न होने के बावजूद सुभाषचंद्र बोस के प्रभावशाली व्यक्तित्व, संगठन क्षमता And ओजस्वी भाषण से प्रेरित होकर आजाद हिंद फौज के सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ार्इ लड़ी। ये सैनिक वर्मा को विजित करते हुए असम तक पहुंच गये। उन्होंने मणिपुर को भी अपने प्रभाव में ले लिया। अण्डमान-निकोबार द्वीप भी स्वतंत्र किए जा चुके थे। अण्डमान द्वीप का नाम ‘शहीद द्वीप’ व निकोबार द्वीप का नाम ‘स्वराज द्वीप’ रखा गया। 21 अक्टूबर, 1943 को सुभाषचंद्र बोस ने सिंगापुर में आजाद भारत की अस्थार्इ सरकार की घोषणा कर दी। जापान, जर्मनी, इटली, चीन आदि विभिन्न सरकारों ने आजाद हिंद सरकार की स्वतंत्र सत्ता को Singleमत से स्वीकार कर लिया। आजाद हिंद सेना के सैनिक स्वयं को हिन्दू-मुस्लिम, सिख-र्इसार्इ नहीं मानते थे बल्कि स्वयं को Indian Customer मानकर कार्य कर रहे थे। आजाद हिंद सेना के पास साधनों की कमी थी हौसले की नहीं। सुभाषचंद्र बोस भाषणों द्वारा धन Singleत्र करते उपहार में आर्इ चीजों को नीलाम करके जो धन प्राप्त होता उसे आजाद हिंद सेना पर खर्च करते। वस्तुत: यह पर्याप्त नहीं होता था।

सुभाषचंद्र बोस सेना में उत्साह भर देते थे। आपस में अभिवादन के लिए वे Single Second से ‘जय हिंद’ का प्रयोग करते। जिससे राष्ट्रीय भावना का प्रचार बढ़ता। सेना में नवीन उत्साह का संचार होता। सुभाषचंद्र बोस ने ‘दिल्ली चलो’ ‘तुम मुझे खून दो में तुम्हें आजादी दूंगा’ ‘जय हिंद’ का नारा दिया। आजाद हिंद सेना ने सुभाषचंद्र बोस के अनेक ऐसे गुणों पर भी प्रकाश डाला है जो अब तक छिपे ही रहते। उनकी संगठन शक्ति का ऐसा परिचय First कभी नहीं मिला था उनके द्वारा 18-18 घंटे तक निरंतर काम करने की क्षमता का ज्ञान भी सबको न हो पाया था। यह बात सत्य है कि यदि सुभाषचंद्र को आजाद हिंद फौज का नेतृत्व करने का अवसर प्राप्त न होता तो उनके व्यक्तित्व के विशिष्ट पहलू से हम अनभिज्ञ ही रहते।

2. आर्इ.एन.ए. की हार व सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु –

आजाद हिंद फौज की वीरता को कम नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिन परिस्थितियों में उसने कार्य Reseller उनका प्रयास सराहनीय था। आजाद हिंद फौज की प्रासंगिकता और उसकी कार्यप्रणाली तथा सफलता, असफलताओं पर विभिन्न मत प्रकट किये गए हैं। Historyकार सुमित सरकार के According ‘केवल सैन्य दृष्टि से तो आजाद हिंद फौज का महत्व अधिक नहीं रहा और यदि वह अधिक प्रभावी रही भी होती तो उसका आगमन बहुत देर से हुआ था, क्योंकि 1944 तक धुरी शक्तियां सर्वत्र पीछे हटने लगी थी।’ Historyकार ताराचंद्र ने आजाद हिंद फौज के महत्व पर कर्इ प्रकार से प्रकाश डाल है उनके According -”भारत का प्रबल ब्रिटिश साम्राज्य के संकुचित दायरे से निकल कर अंतराष्ट्रीय राजनीति के विस्तृत क्षेत्र में चला गया।” आजाद हिंद फौज के कार्यों को सदैव History में विशिष्ट स्थान प्राप्त रहेगा। जिस प्रकार आजाद हिंद सेना का प्रयास रहा संभवत: वैसा प्रयास दूसरा दृष्टिगोचर नहीं होता है।

वस्तुत: हमें दृष्टिगोचर होता है कि लगातार विपरीत परिस्थितियों में कार्य करते हुए भी आजाद हिंद फौज प्रयासरत थी परंतु जापानी सेना के पीछे हटने से आजाद हिंद फौज को भी पीछे हटना पड़ा और उनका प्रयास असफल हो गया। सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज के प्रयासों को सफलता-असफलता से जोड़ कर देना अनुचित होगा। सेना के सामने कर्इ तरह कि दिक्कतें थीं जिससे निश्चित Reseller में उनका कार्य व प्रयास प्रभावित हुआ। Single तरफ साधनों से सुसज्जित सेना थी तो दूसरी ओर साधनहीन सैनिक। आजाद हिंद सेना के पास धन, परिवहन, चिकित्सा, हथयारों, बंदूकों, तोपखानों आदि की कमी थी। रसद संबंधी परेशानियों से भी दो चार होना पड़ा। Historyकार ताराचंद ने इस बात पर प्रकाश डालते हुए कहा “आजाद हिंद फौज के पास न तो वायुयान था न तोपखाना था उसके पास मोर्टर Meansात् छोटी बंदूक भी नहीं थी जिनसे बड़े गोले फेंके जा सकें। इसकी मशीनगनें मध्यम आकार की थी और उनकी मरम्मत के लिए अतिरिक्त पुर्जे नहीं थे। अत्यंत आवश्यक संचार व्यवस्था के साधन नहीं थे और चिकित्सा की सुविधायें भी नहीं थे।” अत्यन्त आवश्यक संचार व्यवस्था के साधन नहीं थे और चिकित्सा की सुविधायें भी नहीं थी। “इस प्रकार आजाद हिंद सेना के पास देश भक्ति और देश पर मर मिटने का हौसला था परंतु Fight में विजय श्री का वरण करने के लिए केवल इतना ही काफी नहीं था।”

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज के संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता। संघर्ष करने का जो मनोवैज्ञानिक असर आजाद हिंद फौज ने छोड़ा उसका प्रभाव स्पष्ट Reseller से विपरीत से विपरीत समय में धैर्य रखकर कार्य करना अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्ति तक प्रयास करने की प्रेरणा हमें देता है। आजाद हिंद फौज और सुभाषचंद्र बोस के प्रयासों की प्रशंसा उनके आलोचक भी करते हैं। जापानी सेना के पीछे हटने के कारण आजाद हिंद सेना भी पीछे हटने लगी व उसकी पराजय हुर्इ। ऐसी स्थिति में सुभाषचंद्र बोस ने स्थान छोड़ने का निर्णय Reseller।

आजाद हिंद सेना की शौर्य गाथा समाप्ति पर थी कि अचानक सबको चौका देने वाली बात सामने आर्इ। सिंगापुर से जापान जाते हुए 18 अगस्त, 1945 को फारमोसा में विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी। बोस की मृत्यु पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। यह सब इतनी तीव्र गति से हुआ कि अकल्पनीय ही था। Indian Customer जनता अपने प्यारे नेता के विषय में ऐसी खबर सुन कर विसमित थी।

सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु किस प्रकार हुर्इ इस विषय पर जानकारी मिली कि बोस को हवार्इ जहाज द्वारा मंचूरिया के डेरिन नगर ले जाने का विचार Reseller गया क्योंकि अभी भी वह जापान के कब्जे में था। लेकिन समस्या इस बात की थी कि यह यात्रा Single छोटे बमवर्षक यान से करनी थी। जो आपत्तिपूर्ण था। विमान चालक ने भी विरोध Reseller पर फिर भी बोस ने यात्रा प्रारंभ कर दी। जापान के विरूद्ध स्थिति थी। जहाज ने पेट्रोल के तीन टैंकों के साथ उड़ान भरने का प्रयत्न Reseller और उड़ान भरते ही दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इसी दुर्घटना में बोस की मृत्यु हो गयी।

सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु : Single रहस्य –

सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु Single रहस्य बनी रही है। सुरेश बोस के According 18 अगस्त, 1946 को ताइवान में किसी भी प्रकार की विमान दुर्घटना नहीं हुर्इ। समय-समय पर अखबारों और पत्र पत्रिकाओं में उनके जीवित होने की खबर छपती रही। उनकी मृत्यु कि जांच हेतु ‘शहनवाज समिति’ को भी गठित Reseller गया। उत्तर-बंगाल में शालापारी आश्रम में किसी साधू को देखा गया जो बोस की तरह ही दिखते थे। इस तरह सुभाषचंद्र बोस के जीवित होने पर कर्इ सार्वजनिक सभाएं आयोजित की गर्इ और कर्इ अंग्रेजी और बंगाली पत्र-पत्रिकाओं में इस संबंध में लेख छपते रहे हैं। वर्तमान समय तक बोस की मृत्यु Single अनसुलझा प्रश्न बना हुआ है, परंतु अब समय इतना अधिक निकल चुका है कि सुभाषचंद्र बोस को जीवित होना असंभव ही है।

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