सार्वजनिक ऋण के उद्देश्य And वर्गीकरण

सार्वजनिक ऋण के उद्देश्य And वर्गीकरण

By Bandey

अनुक्रम

सार्वजनिक ऋण, राज्य द्वारा आय प्राप्त करने का Single साधन है। लोक अथवा सार्वजनिक ऋण उस ऋण को कहते हैं जिसे कि राज्य (state) अपनी प्रजा से अथवा अन्य देशों के नागरिकों से लेता है। सरकार जब उधार लेती है तो उससे लोक ऋण का जन्म होता है। सरकार बैंकों, व्यावसायिक संगठनों, व्यवसाय गृहों तथा व्यक्तियों से उधार ले सकती है। सरकार देश के अन्दर से उधार ले सकती है और देश के बाहर से भी, अथवा दोनों जगहों से भी। लोक ऋण आमतौर पर बॉण्डों के Reseller में (अथवा यदि ऋण थोड़े समय के लिए चाहिए, तो राजकोषीय-पत्र के Reseller में) होता है। इन बॉण्डों में सरकार यह वायदा करती है कि वह निर्धारित समय में मूलधन की वापिसी के साथ ही, बॉण्डों के धारकों को पूर्ण निर्धारित दर से भी नियमित समयान्तरों पर अथवा अन्त में Singleमुश्त धनराशि के Reseller में ब्याज की भी अदायगी करेगी। ऋण सरकार की आय का अन्तिम स्रोत होता है। डाल्टन के According, सार्वजनिक अधिकारियों की आय प्राप्त करने का Single ढंग सार्वजनिक ऋण भी है।

प्रो. जे. के. मेहता के According, सार्वजनिक ऋण अपेक्षाकृत आधुनिक घटना है तथा विश्व में जनतान्त्रिक सरकारों के विकास के साथ व्यवहार में आया है। एडम स्मिथ का कथन था कि सार्वजनिक ऋण से Fight And फिजूलखर्ची जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। परन्तु आधुनिक Meansशास्त्री इसे बुरा नहीं मानते।


उधार लेने के कारण

सरकार इसलिए उधार ले सकती है क्योंकि हो सकता है कि चालू आय उन के खर्चों को पूरा करने के लिए पर्याप्त न पड़ती हो। कुल आकस्मिक And असम्भावित खर्च सामने आ जाने के कारण भी सरकार को उधार लेना पड़ सकता है क्योंकि कर-आय में उस सीमा तक वृद्धि कर सकना Singleदम सम्भव नहीं होता। सरकार पूँजीगत खर्चों की वित्तीय व्यवस्था के लिए भी उधार ले सकती है क्योंकि चालू आय (current revenue) इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगी। मन्दी की अवधि में, जब निजी माँग (private demand) अपर्याप्त होती है तो सरकार लोगों की बेकार पड़ी हुई बचतों को आधार के Reseller में ले लेती है और समर्थ माँग (effective demand) में वृद्धि करने के लिए उन्हें खर्च करती है और इस प्रकार समाज में अतिरिक्त आय तथा रोजगार पैदा कर देती है। इसके विपरीत, मुद्रा-स्पफीति की स्थिति में जब समर्थ माँग चालू मूल्यों पर उपलब्ध वस्तुओं व सेवाओं की पूर्ति से अधिक होती है तो सरकार अपनी Need से अधिक कर लगाती है और उसे खर्च करती है ताकि पफालतू क्रय-शक्ति के सम्पूर्ण अथवा आंशिक भाग का Reseller-परिवर्तन कर के शुद्धिकरण हो सके। सरकार करों से प्राप्त इस फालतू राशि Single-Second के पूरक हैं। इस कारण राजकोषीय नीति को सफलतापूर्वक क्रियान्वित नहीं Reseller जा सकता है।

  1. राष्ट्रीय आय में करों का कम हिस्सा-स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत की राष्ट्रीय आय में चार गुनी से ज्यादा वृद्धि हुई है जबकि राष्ट्रीय आय में कर से होने वाली आय के प्रतिशत में उस अनुपात से कम वृद्धि हुई है। वर्तमान में राष्ट्रीय आय में कर का 20 प्रतिशत से भी कम हिस्सा है जबकि यह प्रतिशत अमेरिका में 22.42 प्रतिशत, स्वीडन में 26.3 प्रतिशत, आस्ट्रेलिया में 27.9 प्रतिशत, नीदरलैंड में 29.2 प्रतिशत तथा इंग्लैंड में 30.4 प्रतिशत रहा है। इसके अतिरिक्त इन देशों में करों से प्राप्त आय का अधिकांश हिस्सा प्रत्यक्ष करों से प्राप्त होता है जबकि भारत में कर आय का ज्यादातर हिस्सा अप्रत्यक्ष करों का होता है। इस प्रकार की स्थिति में राजकोषीय उपाय Meansव्यवस्था में विकास को बढ़ाने में अधिक सहायक सिद्ध नहीं हो सकते।
  2. अप्रत्यक्ष करों की अधिकता-Indian Customer कर प्रणाली में अप्रत्यक्ष करों की अधिकता है जो न्यायसंगत नहीं है। योजनाकाल में अप्रत्यक्ष करों में इतनी तेजी से वृद्धि हुई है कि सम्पूर्ण कर व्यवस्था असंतुलित And अन्यायपूर्ण बन गई है। अप्रत्यक्ष करों का ज्यादातर भार धनी वर्ग की अपेक्षा निर्धनों को वहन करना पड़ता है जिससे समाज में आर्थिक विषमताएँ बढ़ी हैं। इस सम्बन्ध में प्रो. के. टी. शाह ने ठीक ही कहा है, फ्यद्यपि धनी वर्ग में कर क्षमता अधिक होती है जबकि उन पर कर-भार बहुत कम है। इसके विपरीत निर्धन वर्ग पर कर का भार शेर के हिस्से के बराबर है जबकि वहन करने की क्षमता भेड़ के बच्चे के बराबर है।
  3. अकुशल कर प्रणाली-Indian Customer कर प्रणाली कार्यकुशल नहीं है। भारत में कर वंचना आम है क्योंकि हमारी कर-प्रणाली दोषपूर्ण है। प्रो. केल्डोर के अनुमान के According भारत में 200 से 300 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष कर वंचना होती है। इसके अतिरिक्त आय-कर का सम्पूर्ण हिस्सा वसूल नहीं Reseller जाता है। भारत में आयकर का 70 प्रतिशत से कम हिस्सा ही वसूल Reseller जाता है।
  4. सार्वजनिक आय का अपव्यय-भारत में सार्वजनिक व्यय का काफी भाग अपव्यय होता है। गैर-विकास परियोजनाओं पर काफी व्यय Reseller जाता है, इसके अतिरिक्त कुछ परियोजनाएँ केवल प्रतिष्ठा के आधार पर शुरू कर दी जाती हैं। उनमें बड़ी मात्रा में व्यय कर दिया जाता है जबकि जनता को इससे कोई लाभ नहीं प्राप्त होता है। सरकारी विभागों पर काफी मात्रा में व्यय Reseller जाता है जबकि वहाँ भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी And लालपफीताशाही का राज्य कायम है और काम विलम्ब से होते हैं जिसके कारण उत्पादकता में गिरावट आती है।
  5. बढ़ता हुआ सार्वजनिक ऋण-भारत में पंचवष्र्ाीय योजनाओं को सफल बनाने के लिए बड़ी मात्रा में वित्तीय साधनों की Need पड़ती है। इसकी पूर्ति के लिए सार्वजनिक ऋण का सहारा लिया जाता है। विगत वर्षों में इसके भार में निरन्तर वृद्धि हुई है। विदेशी ऋणो पर अत्यधिक निर्भरता के कारण आर्थिक विकास की योजनाओं में अनिश्चितता पैदा हो गई है। विदेशी ऋणो के भार बढ़ने से कुछ राजनैतिक खतरे भी उत्पन्न हो सकते हैं। अत: यह आवश्यक है कि विदेशी ऋणो से जल्दी से जल्दी मुक्ति पाकर आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो।

निजी (व्यक्तिगत) और सार्वजनिक ऋण की तुलना

निजी अथवा गैर-सरकारी ऋण और सरकारी ऋण के बीच अनेक समानताएँ तथा असमानताएँ पाई जाती हैं। प्राइवेट व्यक्ति और व्यवसाय-गृह उधार लिए गए धन का उपयोग कुछ साधनों की प्राप्ति के लिए करते हैं। अत: निजी ऋण धन को Single उपयोग से हटाकर Second उपयोग की ओर स्थानान्तरित कर देता है। इसी प्रकार, लोक ऋण से आशय है कि उन उत्पादकीय उपयोगों (productive uses) का जिन्हें कि गैर-सरकारी क्षेत्र पसन्द करता है, उन उपयोगों के लिए बलिदान (sacrifice) करना जिन्हें कि सरकार पसन्द करती है। इस प्रकार सरकारी तथा गैर-सरकारी ऋण, दोनों में ही मूलत: धन का Single उपयोग से Second उपयोग की ओर को स्थानान्तरण होता है। लोक तथा निजी ऋण के बीच पाये जाने वाले मुख्य अन्तर निम्न प्रकार हैं-

  1. सरकार के पास ऋण लेने के आन्तरिक और बाह्य दोनों ही प्रकार के स्रोत होते हैं किन्तु व्यक्तियों को ऐसे स्रोत (sources) उपलब्ध नहीं होते।
  2. सरकार द्वारा लिए गये ऋणो का उपयोग सम्पूर्ण समाज के लिए Reseller जाता है किन्तु निजी ऋणो के द्वारा प्राप्त धन का उपयोग केवल उधार लेने वाले व्यक्ति के लाभ के लिए ही Reseller जाता है।
  3. सरकार लोगों को उधार देने के लिए बाध्य कर सकती है किन्तु व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता।
  4. चूँकि राज्य की साख अच्छी होती है, अत: निजी ऋणो के मुकाबले सरकारी ऋणो पर ब्याज की दर नीची होती है, यद्यपि यह होता है कि कुछ निगम (corporations) सरकार जैसी ही सरल दरों पर ऋण प्राप्त कर लें।
  5. सरकार तो साधारणतया उत्पादकीय कार्यों के लिए ही उधार लेती है किन्तु व्यक्ति उपभोग के लिए भी उधार ले सकता है।
  6. लोक ऋणो की वापिसी अदायगी लोक आय से, जिसमें कि लोक उद्यमों की आय भी सम्मिलित होती है, की जाती है किन्तु व्यक्ति अपनी निजी कमाई में से ऋणों को अदायगी करता है। अत: लोक ऋण से भार की प्रकृति निजी ऋण के भार की प्रकृति (nature) से भिन्न होती है।
  7. अन्त में, सरकार Single नीति (policy) के Reseller में उधार (borrowing) का आश्रय ले सकती है, भले ही उसको धन की Need हो या न हो। हो सकता है कि उधार से आर्थिक जीवन में कुछ स्थिरता लाने में मदद मिले। मुद्रा-स्फीति के दिनो में यह लोगों के हाथों में क्रय-शक्ति की मात्रा कम कर देता है जिससे कीमतों को नीचे लाने में मदद मिलती है। मन्दी के दिनों में सरकार उधार द्वारा कुछ किस्म के खर्चे करने में समर्थ हो जाती है जिससे व्यावसायिक क्रियाओं व रोजगार का स्तर ऊँचा उठाने में मदद मिलती है। परन्तु व्यक्ति को यदि धन की Need न हो, तो वह उधार नहीं लेता।

सार्वजनिक ऋण के उद्देश्य

  1. आय तथा राजस्व (Revenue)—लोक ऋण का उद्देश्य सामान्यत: उस खाई को पाटना होता है जो कि किसी वर्ष में प्रस्तावित खर्च तथा प्रत्याशित आय (expected revenue) के बीच उत्पन्न हो जाती है। जब कभी भी बढ़े हुए प्रशासनिक व्यय के कारण अथवा बाढ़, अकाल, भूचाल, व छूत के रोग जैसे अप्रत्याशित आकस्मिक संकटों से निपटने के कारण सरकार की आय उसके व्यय से कम पड़ जाती है तो सरकार देशी अथवा विदेशी स्रोतों से धन उधार लेकर काम चलाती है। यह सरकार की वह आय होती है जो कि All करों तथा अन्य राजस्व स्रोतों से पृथक् होती है।
  2. मन्दी के दिनों में (In times of Depression)—मन्दी उस दशा को कहते हैं जबकि कीमतें गिर रही होती हैं, लोगों में धन उद्यमों में लगाने के साहस का अभाव होता है और भविष्य में लाभ प्राप्ति की आशा नहीं होती। यह स्थिति तब दूर की जा सकती है जबकि वस्तुओं व सेवाओं की माँग में वृद्धि कर दी जाए और ऐसा तब हो सकता है जबकि देश में सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर अथवा अत्यावश्यक जनोपयोगी तथा अवस्थापना सेवाओं (infra structure services) पर किये जाने वाले लोक खर्च में वृद्धि कर दी जाए। पर, सरकारी खर्च में वृद्धि तो तभी हो सकती है जबकि सरकारी आय में वृद्धि हो और लोक आय में वृद्धि कराधान के द्वारा नहीं की जा सकती क्योंकि इसके प्रभाव में काम करने तथा निवेश करने की प्रेरणा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जो कि समर्थ माँग में और कमी कर देता है। अत: सरकार के सामने उधार लेने का ही रास्ता बचता है। सरकार विशेष Reseller से बैंकों से उधार लेती है ताकि निवेश के लिए वित्त प्राप्त कर सके और आय व रोजगार में तथा उसके फलस्वReseller समर्थ माँग में वृद्धि कर सके। इस प्रकार गिरती हुई कीमतों को रोका जा सकता है और सरकार Meansव्यवस्था को मन्दी की स्थिति में उभारने में तथा समृद्धि लाने में समर्थ हो जाती है।
  3. मुद्रा-स्पफीति को समाप्त करना (To Curb Inflation)—मुद्रा-स्फीति बढ़ती हुई कीमतों की स्थिति का नाम है। अत: सरकार ऋण लेकर लोगों के हाथों में से काफी मात्रा में क्रय-शक्ति वापिस ले सकती है और इस प्रकार कीमतों को बढ़ने से रोक सकती है। किन्तु आधुनिक Meansशास्त्री यह मानते है कि सरकारी ऋण के मुकाबले कराधान मुद्रा-सफीति दूर करने का अधिक महत्त्वपूर्ण उपाय सिद्ध होता है, क्योंकि सरकारी उधार द्वारा प्राप्त धन को यदि उत्पादकीय उपयोग में न लगाया जाए, तो सरकार पर उसकी वापसी का उत्तरदायित्व अलग से बढ़ जाता है। परन्तु फालतू कर-आय को राजकोष में बड़ी आसानी से बेकार डाले रखा जा सकता है ताकि Meansव्यवस्था में उत्पन्न स्फीतिजनक दबावों को समाप्त Reseller जा सके।
  4. विकास योजनाओं के लिए धन जुटाना (To Finance Development Plans)—अल्प-विकसित Meansव्यवस्था में सदा ही धन की कमी बनी रहती है। ऐसे देशों में चूँकि लोगों की करदेय क्षमता कम होती है, अत: सरकार भारी कराधान का भी आश्रय नहीं ले सकती। परन्तु देश से गरीबी दूर करने के लिए यह भी अत्यन्त आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण होता है कि विकास योजनाओं के वित्त की व्यवस्था की जाए। ऐसी स्थिति में, Only रास्ता लोक ऋण का ही बचता है। अत: अल्पविकसित देशों की सरकारें विकास योजनाओं की वित्तीय व्यवस्था के लिए देश के अन्दर से अथवा विदेशों की सरकारों अथवा व्यक्तियों से उधार लेती है।
  5. सरकारी उद्यमों के लिए धन प्राप्त करना (To Finance Public Enterprises)—सरकार अपने द्वारा चलाये जाने वाले वाणिज्यिक उद्यमों की वित्तीय व्यवस्था के लिए भी धन उधार लेती है। ऐसे उद्यम आमतौर पर उत्पादकीय उद्यम होते हैं और उन्हें कुशलता के साथ संचालित करने का दायित्व सरकार का ही होता है।
  6. शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार (Expansion of Education and Health Services)— सरकार शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं And ऐसी ही अन्य सेवाओं के निर्माण व विस्तार के लिए भी उधार ले सकती है जो कि सामान्य सामाजिक कल्याण में तो वृद्धि करती है किन्तु उनसे कोई प्रत्यक्ष वित्तीय प्रतिफल प्राप्त नहीं होता और जो मौद्रिक दृष्टि से उत्पादक (productive) भी नहीं होती।
  7. Fight के लिए धन प्राप्त करना (To Finance War)—सरकार प्रतिरक्षा कार्यों के लिए भी उधार ले सकती है। बढ़ते हुए अन्तर्राष्ट्रीय तनाव तथा आणविक Fight के वर्तमान युग में किसी भी विदेशी आक्रमण से अपनी रक्षा करने के लिए प्रतिरक्षा सेवाओं तथा आधुनिकतम साज-सज्जा की व्यवस्था हेतु बड़ी मात्रा में धन की Need होती है। किन्तु केवल कराधान (taxation) के द्वारा ही आधुनिक Fightों के लिए धन जुटाना बड़ा कठिन होता है। क्योंकि भारी कराधान का उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अत: इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार देश के अन्दर से तथा देश के बाहर से लोक ऋणो का आश्रय ले सकती है।
  8. सामाजिक समाज की स्थापना के लिए-समाजवादी समाज की स्थापना के लिए वर्तमान समय में सरकार उद्योग व व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर रही है और उनका संचालन भी स्वयं कर रही है, लेकिन आधुनिक उद्योगों के संचालन के लिए बड़ी मात्रा में पूँजी की Need होती है, जिनकी पूर्ति सरकार केवल ऋणो द्वारा ही करती है।
  9. आय प्राप्त होने तक प्रशासनिक कार्यों का व्यय पूरा करने हेतु-सरकार को करों से जो आय प्राप्त होती है वह वर्ष के अन्त में उपलब्ध हो पाती है परन्तु व्यय तो वर्ष के प्रारम्भ से ही करना पड़ता है। अत: वर्ष के शुरू में धन के अभाव में सरकार ऋण लेकर व्यय कर देती है तथा वर्ष के अन्त में आय प्राप्त होने पर उसका भुगतान कर देती है।
  10. लोकमत को अनुकूल बनाने के लिए-जब नागरिकों को कर देने की सामथ्र्य नहीं होती है तो सरकार को ऋण लेना पड़ता है। कभी-कभी जनता की करदान क्षमता अधिक होने पर भी सरकार जान-बूझकर करों में वृद्धि इसलिए नहीं करती है कि लोकमत अनुकूल बना रहे। अत: सरकार भारी कर लगाकर करदाताओं को कष्ट नहीं देती है।

सार्वजनिक ऋण का वर्गीकरण

Meansशास्त्रियों ने ऋण के उपयोग, उद्देश्य, अवधि, भुगतान की शर्तों आदि के आधार पर इसे अनेक प्रकार से वर्गीकृत Reseller है। सार्वजनिक ऋण की विभिन्न किस्में हैं-

आन्तरिक तथा बाह्य ऋण

आन्तरिक ऋण उन लोक ऋणो को कहते हैं जो देश के अन्दर से ही लिए जाते हैं, जबकि बाह्य ऋण विदेशी सरकारों, विदेशी व्यक्तियों, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रति देश की देनदारियों का प्रतीक होता है। डाल्टन के Wordों में, कोई ऋण आन्तरिक है यदि उन व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा दिया जाता है जो उस क्षेत्र में रहते हैं जो ऋण लेने वाले सार्वजनिक अधिकारी द्वारा नियन्त्रित Reseller जाता है, ऋण बाह्य है, यदि उन व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा दिया जाता है जो उस क्षेत्र से बाहर रहते हैं। विदेशी ऋण पर ब्याज की अदायगी से ऋणी देश (debtor country) की निबल आय कम हो जाती है क्योंकि उसकी आय का Single भाग विदेशों को चला जाता है, किन्तु आन्तरिक ऋणो के ब्याज की अदायगी करने से ऐसा कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आन्तरिक ऋणो पर ब्याज चाहे करदाताओं पर छोड़ दिया जाए अथवा उनसे ले लिया जाए और Fight-कर्जों के ब्याज के Reseller में अदा कर दिया जाए, देश की राष्ट्रीय आय पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह तो पूर्ववत् ही बनी रहती है। यह तो Single ऐसा गोल माल तरीका है जिसके द्वारा करदाता की Single जेब से धन लेकर उसी की दूसरी जेब में रख दिया जाता है। अत: ऐसे ब्याज की अदायगी का सम्पूर्ण Reseller में देश की उत्पादन-क्षमता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, हाँ, यह अवश्य हो सकता है कि उत्पादन पर उसके कुछ परोक्ष प्रभाव पड़ें, तथापि, विदेशी कर्जों का उपयोग यदि उत्पादकीय कार्यों (productive purposes) के लिए Reseller जाए और यहाँ तक कि चाहे Fight कार्यों के लिए ही क्यों न Reseller जाए, तो उन्हें बुरा नहीं माना जा सकता। पहली स्थिति में तो उसकी अदायगी वहीं से की जा सकती है जहाँ कि उनका निवेश Reseller जायेगा और दूसरी स्थिति में वे देश की प्रतिष्ठा को बचाने में सहायक सिद्ध होंगे जिसके लिए कि किसी भी त्याग या बलिदान को बड़ा नहीं कहा जा सकता।

उत्पादक तथा अनुत्पादक ऋण

यह वर्गीकरण सार्वजनिक ऋणो के उपयोग पर आधारित है। ऋणो का उपयोग उत्पादक कार्यों के लिए भी Reseller जा सकता है और अनुत्पादक कार्यों के लिए भी। उत्पादक ऋण उन ऋणो को कहते हैं जिनका उपयोग ऐसी परियोजनाओं में Reseller जाता है जिनसे आय प्राप्त होती है, जैसे कि रेलवे, बिजली की योजनायें तथा ¯सचाई की योजनायें। इन परियोजनाओं से होने वाली आय का उपयोग वार्षिक ब्याज को अदा करने में और अन्तत: मूलधन का भुगतान करने में Reseller जा सकता है। अत: उत्पादक अथवा पुनरुत्पादक (productive or reproductive) ऋण उन ऋणो को कहते हैं जिन के पीछे उतने ही मूल्य की अथवा अधिक मूल्य की परिसम्पत्तियाँ (assets) रखी जाती हैं। इस प्रकार, उत्पादक ऋण सरकार तथा करदाता पर कोई भार नहीं डालते।

दूसरी ओर, अनुत्पादक ऋण उन ऋणो को कहते हैं जो ऐसी परियोजनाओं में लगाये जाते हैं जिनसे कोई आय प्राप्त नहीं होती, उदाहरण के लिए, Fight (war)। अत: फलहीन या अनुत्पादक ऋण (debt weight of unproductive debt) वे ऋण होते हैं जिन के पीछे कोई परिसम्पत्तियाँ नहीं होतीं। अनुत्पादक ऋण का मुख्य कारण Fight ही नहीं होता किन्तु कुछ सीमा तक बजट के घाटे भी इसका कारण होते हैं।

शोध्य तथा अशोध्य ऋण

शोध्य ऋण तथा अशोध्य ऋण उन ऋणो को कहते हैं जिन के बारे में सरकार यह वायदा करती है कि वह उन्हें Single निश्चित भावी तिथि पर अदा कर देगी। इन ऋणो को मियादी ऋण (terminable debt) भी कहा जाता है और जिन ऋणो के बारे में ऐसा कोई वायदा नहीं Reseller जाता, उन्हें अशोध्य या बेमियादी (irredeemable or perpetual debt) कहा जाता है। जब ऋण प्रतिदेय होता है तो सरकार को उसकी अदायगी की कुछ न कुछ व्यवस्था करनी होती है। यदि सरकार यह निश्चित करती है कि ऐसे ऋणो का भुगतान कर-आय में से Reseller जाना है, जो कि अधिकांश स्थितियों में भुगतान का सर्वोत्तम उपाय माना जाता है, तो इस कार्य के लिए नये कर लगाने होते हैं। अत: शोध्य या मियादी ऋणो की स्थिति में सरकार को ब्याज तथा मूलधन दोनों की ही अदायगी किसी भविष्य की तिथि में करनी होती है। परन्तु अशोध्य या बेमियादी ऋण की स्थिति में सरकार को केवल ब्याज की ही अदायगी नियमित Reseller से करनी होती है।

शोध्य या मियादी ऋणो को अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन ऋणो के Reseller में पुन: वर्गीकृत Reseller जा सकता है। अल्पकालीन ऋण (short term debts) 3 से 9 माह की अवधि के बीच परिपक्व ;उंजनतमद्ध हो जाते हैं, जैसे राजकोष पत्र (Treasury Bills)। ऐसे ऋणो पर ब्याज की दर सामान्यत: कम ही होती है। दीर्घकालीन ऋण (long term debts) आमतौर पर 10 वर्ष की अवधि के बाद देय या परिपक्व होते हैं और इन पर ब्याज की दर ऊँची होती है। मध्यकालीन ऋण (medium term debts) अल्पकालीन और दीर्घकालीन अवधि के बीच Meansात् लगभग 5 वर्ष बाद परिपक्व होते हैं और इनकी ब्याज की दर भी मध्यम दर्जे की होती है, Meansात् न बहुत अधिक और न बहुत कम।

निधिजन्य तथा अनिधिजन्य ऋण

सरकारी ऋणो को निधिजन्य तथा अनिधिजन्य अथवा अस्थायी ऋण (funded and unfunded of floating debts) के Reseller में भी वर्गीकृत Reseller जाता है। निधिजन्य ऋण दीर्घकालीन ऋण होते हैं। इन ऋणो की अदायगी या तो कम से कम Single वर्ष बाद की जा सकती है अथवा यह भी हो सकता है कि इस सम्बन्ध में बिल्कुल ही वायदा न Reseller जाए। अन्य Wordों में, निधिजन्य ऋण वे ऋण होते हैं, जो या तो Single वर्ष बाद प्रतिदेय (redeemable) होते हैं अथवा बिल्कुल ही प्रतिदेय नहीं होते। अनिधिजन्य ऋण वे ऋण होते हैं, जिनका भुगतान Single वर्ष के अन्दर-अन्दर कर दिया जाता है। राजकोषीय बॉण्ड (treasury bonds) अनिधिजन्य ऋण होते हैं, क्योंकि ये तीन या छ: माह के लिए दिये जाते हैं और इनकी अवधि Single वर्ष से अधिक तो होती ही नहीं। तथापि, यहाँ यह बात Historyनीय है कि निधिजन्य ऋणो की स्थिति में, सरकार पर इस बात का दायित्व होता है कि वह ऋणदाता को ब्याज की Single निश्चित रकम नियमित Reseller से अदा करती रहे हाँ उन के मूलधन की अदायगी की बात पूर्णतया सरकार की इच्छा पर छोड़ दी जाती है। अत: इन ऋणो की स्थिति में ऋणदाता या बॉण्ड के धारक को इसके अतिरिक्त और कोई अधिकार नहीं होता कि वह धनराशि पर ब्याज लेता रहे, जो कि उसने सरकार को उधार दी है।

ऐच्छिक और अनिवार्य ऋण

सरकारी ऋण सामान्यत: ऐच्छिक प्रकृति के होते हैं और व्यक्तियों तथा संस्थाओं को ऐच्छिक Reseller से सरकारी बॉण्ड खरीदने के लिए नियन्त्रित Reseller जाता है। आजकल अनिवार्य ऋणो का कोई विशेष प्रचलन नहीं हैं परन्तु Fight जैसे संकटकाल के अवसर पर सरकार ऋण देने के लिए लोगों पर दबाव डाल सकती है। सरकार मुद्रा-स्पफीति की स्थिति में भी ऐसा कर सकती है, ताकि लोगों के हाथों में से क्रय-शक्ति की मात्रा कम हो सके और बढ़ती हुई कीमतों को रोका जा सके। अधिकांश मामलो में सरकार द्वारा लिए जाने वाले ऋण अतिदत्त (over-subscribed) होते हैं, क्योंकि सरकार की साख (credit) प्राइवेट व्यक्तियों अथवा कम्पनियों की अपेक्षा काफी अच्छी होती है और यही कारण है कि अन्य प्रकार के ऋण-पत्रों के मुकाबले सरकारी प्रतिभूतियों या ऋण-पत्रों (government securities) पर ब्याज की दर नीची होती है। सरकारी ऋण-पत्रों को निवेश (investment) के लिए सर्वोत्तम ऋण-पत्र या प्रतिभूति माना जाता है। किन्तु सरकारी प्रतिभूतियों पर जब ब्याज की दर बहुत कम होती है तो सरकार को जनता से ऐच्छिक Reseller से ऋण मिलना कुछ कठिन हो जाता है और इस स्थिति में उसे अपने प्रभाव का उपयोग करना होता है।

सूद सहित व सूद रहित ऋण

सूद सहित ऋणो पर सरकार निश्चित अवधि के बाद ऋणदाताओं को निश्चित दर से ब्याज देती है, जबकि सूद-रहित ऋणो पर सरकार को कोई ब्याज नहीं देना पड़ता।

क्रय योग्य व अक्रय योग्य ऋण

क्रय योग्य ऋणो में सरकारी प्रतिभूतियों को सम्मिलित Reseller जाता है, जिनको स्वतन्त्रतापूर्वक खरीदा व बेचा नहीं जा सकता। इसके विपरीत अक्रय योग्य ऋणो में वे प्रतिभूतियाँ सम्मिलिति की जाती हैं, जिनको बाजार में स्वतन्त्रतापूर्वक खरीदा व बेचा नहीं जा सकता और केवल पूर्व निश्चित दरों पर सरकार को ही लौटाया जा सकता है।

कुल ऋण And शुद्ध ऋण

किसी भी समय विशेष पर सरकार के जितने ऋण होते हैं, उन सब के योग को कुल ऋण कहा जाता है। यदि सरकार ऋण का भुगतान करने के लिए कोई कोष Singleत्रित करती है तो उस कोश की राशि को कुल ऋण की राशि में से निकालकर जो कुछ शेष बचता है, वह शुद्ध ऋण कहलाता है।

अल्पकालीन व दीर्घकालीन ऋण

जब सरकार थोड़े समय के लिए ऋण लेती है, तो उसे अल्पकालीन ऋण कहते हैं। इन ऋणो को Single वर्ष की अवधि में वापस कर दिया जाता है, जो कि बजट की अस्थायी कमी को पूर्ण करने हेतु प्राप्त किये जाते हैं। जब सरकार बहुत लम्बे समय के लिए ऋण लेती है तो उसे दीर्घकालीन ऋण कहते हैं। इन के लौटाने का समय निश्चित नहीं होता है। जब तक ऋण का भुगतान नहीं Reseller जाता, तब तक ऋणदाता को ब्याज मिलता रहता है।

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