विधिशास्त्र तथा विधिक सिद्धान्त का Means, परिभाषा

मनुष्य Single सामाजिक प्राणी है तथा समूह में रहना उसकी नैसर्गिक प्रवृत्ति है। यह नैसर्गिक प्रवृत्ति मनुष्य को अन्य मनुष्यों से सम्बन्ध रखने को बाध्य करती है। सामाजिक जीवन इन्हीं संबंधों पर आधारित है। इन सामाजिक संबंधों को व्यवस्थित रखने के लिए मनुष्य के व्यवहार पर नियंत्रण रखना आवश्यक होता है। यही कारण है कि विधि या उन नियमों का जन्म हुआ जो मनुष्य के आचरण को नियंत्रित And सुव्यवस्थित रख सकें तथा समाज में शान्ति व्याप्त हो सके। विधि के नियम मनुष्य के पारस्परिक हितों की रक्षा के लिए आवश्यक है। विधिक नियमों का जन्म किस प्रकार हुआ इस पर व्यापक मतान्तर हैं। कुछ विधिशास्त्री विधि के नियमों को दैवीय मानते हैं तथा कछु इनको प्राकृतिक की संज्ञा देते हैं। आधुनिक यगु में विधिक नियमों का निर्माण राज्य द्वारा Reseller जाता है। राज्य, विधिक नियमों के माध्यम से नागरिकों को उनके कर्तव्यों And अधिकारों का बोध कराते हैं तथा अनुचित आचरण And व्यवहार के लिए दंडित करते हैं। तात्पर्य है कि विधि Single ऐसा माध्यम है जिसकी सहायता से राज्य नागरिकों के आचरण, संव्यवहार तथा क्रिया कलाप पर नियंत्रण रखते हुए समाज में शान्ति व्यवस्था, की स्थापना तथा न्याय प्रदान करता है।

उपरोक्त विधिक नियमों को, विधि के अध्ययन के अन्तर्गत Single पृथक विषय के Reseller में स्थान दिया गया है जिसको विधिशास्त्र कहा जाता है।

विधिशास्त्र And विधिक सिद्धान्त का Means 

‘विधिशास्त्र‘ Word की उत्पत्ति दो लैटिन Wordों ‘ज्यूरिस’ (Juris) और ‘प्रूडेंशिया’ (Prudentia) के योग से हुर्इ है। ‘ज्यूरिस’ Word का Means विधि से है जबकि पू्रडेंशिया Word का Means है ज्ञान। इस प्रकार विधिशास्त्र (Jurisprudence) का शाब्दिक Means ‘विधि का ज्ञान’ है। यथार्थ में यह विधि का ज्ञान मात्र न होकर विधि का क्रमबद्ध ज्ञान है इसीलिये सामण्ड (Salmond) ने विधिशास्त्र को ‘विधि का विज्ञान’ (Science of Law) निResellerित Reseller है। यहाँ ‘विज्ञान’ से आशय विषय के क्रमबद्ध अध्ययन से है। मोयली (Moyle) के मतानुसार विधिशास्त्र का अन्तिम लक्ष्य साधारणत: वही है जो किसी अन्य विज्ञान का होता है। यही कारण है कि विधिशास्त्र को विधि-सिद्धान्तों का सूक्ष्म And क्रमबद्ध अध्ययन कहा जाता है। फिट्जेराल्ड (Fitzgerald) विधिशास्त्र को विधि के विज्ञान के Reseller में Single विशेष प्रकार की खोजबीन या जाँच-पड़ताल मानते हैं। इस खोजबीन का उद्देश्य विधि And विधिक प्रणाली के आधारभूत सिद्धान्तों को निश्चित करना है। परन्तु इस खोजबीन की प्रकृति अमूर्त, सामान्य और सैद्धान्तिक है।

विधिशास्त्र (Jurisprudence) तथा विधिक सिद्धान्त या विधि के सिद्धान्त (Legal theory) का प्रयोग कभी समान Meansों तथा कभी असमान Meansों में हुआ है। पाउण्ड (Pound), पैटन (Paton), डायस (Dias), सामण्ड (Salmond) आदि की विधिशास्त्र की पुस्तकों के शीर्षक में ‘विधिशास्त्र‘ Word का प्रयोग Reseller गया है जबकि फ्रीडमैन (Friedman) तथा फिंच (Finch) की पुस्तकों का शीर्षक ‘विधिक सिद्धान्त’ है।

First दृश्ट्या दो अलग-अलग भावार्थों के प्रयोग से प्रतीत होता है कि दोनों के Means And परिक्षेत्र अलग-अलग हैं। ऐसा विधि के विश्लेशण, description And निResellerण के दृष्टिकोणों के कारण प्रतीत होता है। ऐंग्लो सैक्सन देशों तथा ब्रिटिश कालोनियों में विधिशास्त्र का Means Single विशेष प्रकार के विश्लेशणात्मक अध्ययन से लिया गया है जो तार्किकता पर आधारित यथास्थितिवादी विधिक प्रणाली का अध्ययन प्रस्तुत करता है। यह बेन्थम् (Bentham), आस्टिन (Austin), केल्सन (Kelsen) की परम्परा मानी जा सकती है। यह अध्ययन शुद्धत: तार्किक And अनुभवाश्रित है जिसका कार्य स्थिरता And विधिक न्याय निश्चित करना है। यह विधि के उद्देश्यों पर ध्यान नहीं देता है।

इसके विपरीत महाद्वीपीय विधिशास्त्रियों का दृष्टिकोण विधिक सिद्धान्त की व्याख्या करना है जिसमें दार्शनिक, नैतिक And सामाजिक प्रभावों का समावेश है। इसी कारण इहरिंग (Ihering), स्टैमलर (Stammler), ड्यूगिट (Duiguit), कोहलर (Kohler), जेनी (Geny) तथा अमरीकी विधिशास्त्रियों ने सजीव विधि, सतत् परिवर्तनीय विषयवस्तु के साथ विधि, Needओं और हितों, सामाजिक बलों तथा प्रक्रिया के संदर्भ में विधि की व्याख्या की। यह अध्ययन मात्र विश्लेशणात्मक या संकल्पनात्मक (Conceptual) अध्ययन न होकर मूल्यांकन And दार्शनिक दृष्टिकोण पर आधारित है जिसमें नैतिक, सामाजिक And Humanीय तत्वों की भूमिका को उचित स्थान दिया गया है। फ्रीडमैन ने स्पष्ट Reseller है कि उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व विधिक सिद्धान्त मुख्य Reseller से दर्शन, धर्म, नीतिशास्त्र तथा राजनीति से उत्पन्न था क्योंकि महान विधि विचारक प्रमुख Reseller से दार्शनिक, पादरी या राजनीतिज्ञ थे। तत्पष्चात ऐसे विधिक सिद्धान्त का अभ्युदय हुआ जो विधिक अनुसंधानों, प्रणालियों And व्यवसायिक शिक्षणों पर आधारित था। फ्रीडमैन का यह मानना है कि विधिक सिद्धान्त Single ओर दर्शन से Added है तो दूसरी ओर राजनीतिक सिद्धान्त से। इसका प्रारम्भ कभी दर्शन से होकर राजनीतिक सिद्धान्त की सहायक भूमिका के साथ आगे बढ़ता है तो कभी राजनीतिक सिद्धान्त से प्रारम्भ होकर दर्शन की सहायक भूमिका के साथ अग्रसर होता है। परन्तु उनके According विधिक सिद्धान्त की विचारधारा के अन्तर्गत दर्शन के तत्वों में विश्व में मनुष्य की स्थिति का प्रतिबिम्बन और सर्वोत्तम समाज के लिए आवश्यक विचारों का समावेश होना चाहिए। विधिक सिद्धान्त का मुख्य कार्य विधि की दार्शनिक अवधारणाओं का परीक्षण And विश्लेशण है जो स्वयं दार्शनिक, राजनीतिक And विभिन्न वैचारिक गुत्थियों से मिश्रित है। फ्रीडमैन, हार्ट (Hart), फुलर (Fuller), रोनॉल्ड ड्वॉरकिन (Ronald Dworkin) आदि के अध्ययन, विधिक सिद्धान्त का उदाहरण है।

वास्तव में विधिशास्त्र एंव विधि के सिद्धान्त में अन्तर मात्र विचार तथा भ्रम पर आधारित है। क्योंकि दोनों की विषयवस्तु, ध्येय और उद्देश्य पृथक्करणीय नहीं है। दोनों में Reseller जाने वाला अन्तर मात्र अनुभूति (Emphasis) तथा क्षेत्र विस्तार (Range) का है, विषयवस्तु (Content) का नहीं। दोनों सामान्य तौर से विधि की प्रकृति, विधि को प्रभावित करने वाले सामाजिक, आर्थिक और राजनीति तत्वों और विभिन्न विधिक अवधारणाओं And सिद्धान्तों के मूल्यांकन की तरीकों की दृष्टि से समान है। विधिशास्त्र के अद्यतन विधिशास्त्रियों ने इस तत्व को समझकर दोनों का समान Means में प्रयोग Reseller है। फिन्च का मानना है कि चाहें विधिशास्त्र का Means विधिक अवधारणाओं या संकल्पनाओं, अधिकार, अधिपत्य, स्वामित्व, निगम आदि का अध्ययन माना जाये, चाहे विधिक सिद्धान्त का तात्पर्य स्वयं विधि का अध्ययन माना जाए, दोनों में समानता है। विधिशास्त्र और विधि के सिद्धान्त के भेद को, समयगत विकास के परिप्रेक्ष्य में विधिशास्त्र की उदार परिभाषा कर, विश्लेशणात्मक दायरे के संकुचन से उन्मुक्ति दे कर और उद्देश्यों, मूल्यांकन And विधि से इतर विषयों के प्रभाव को सम्मिलित कर मिटा दिया गया है। विधिशास्त्र मात्र विधिक अवधारणाओं के विश्लेशण तक संकुचित न रह कर विधि के दर्शन को भी अध्ययन की विषयवस्तु मानता है जिसके Single Second से संबंधित तीन उद्देश्य है- मूल्यांकन (विश्लेशण), सामान्य संष्लेशण, और तार्किक बुद्धिपरक तरीके द्वारा विधिक संकल्पनाओं में सुधार। डायस के According विधिशास्त्र का अध्ययन मात्र विधि के description या प्रतिपादन (म्गचवेपजपवद) से संबंधित नहीं है बल्कि इसका Means विधि के संबंध में अनुसंधान या निResellerण (Disquisition) से है।

विधिशास्त्र की परिभाषायें 

प्रसिद्ध रोमन विधिवेत्ता अल्पियन (Ulpian) ने ‘डायजेस्ट’ नामक अपने ग्रन्थ में विधिशास्त्र को उचित And अनुचित का विज्ञान (Science of just and unjust) कहा है। यह परिभाषा ‘विधिशास्त्र‘ Word की उत्पत्ति की अनुकूलता पर प्रकाष डालती है, परन्तु यह इतनी अधिक व्यापक है कि इसे नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र आदि के प्रति भी लागू Reseller जा सकता है।

प्रसिद्ध दार्शनिक सिसरो (Cicero) ने विधिशास्त्र की परिभाषा देते हुए इसे ‘ज्ञान का दार्शनिक पक्ष’ कहा है।

सामंड (Salmond) के According प्राथमिक दृष्टि से विधिशास्त्र में समस्त कानूनी सिद्धान्तों का समावेश है। यह विधि का ज्ञान है, इसलिये इसे व्यावहारिक विधि के प्राथमिक सिद्धान्तों का विज्ञान भी कहा गया है। सामंड के विचार से विधि न्यायशास्त्रियों द्वारा लागू की जाती है तथा यह धार्मिक कानून या नैतिकता सम्बन्धी नियमों से भिन्न है। विधि को देश-विदेश की सीमा में न्यायालय तथा न्यायाधिकरणों द्वारा लागू Reseller जाता है तथा इसका उल्लंघन किये जाने पर शास्ति (Sanction) की व्यवस्था होती है, अत: यह व्यावहारिक ज्ञान की शाखा है।

सामंड ने विधिशास्त्र की व्याख्या दो Meansों में की है। विस्तृत Means में विधिशास्त्र से उनका अभिप्राय नागरिक विधि के विज्ञान (Science of civil law) से है, जिसके अन्तर्गत समस्त विधिक सिद्धान्तों का क्रमबद्ध अध्ययन Reseller जाता है। सिविल विधि से उनका आशय उस विधि विशेष से है जो किसी देश द्वारा अपने निवासियों के प्रति लागू की जाती है और जिसे उस देश के नागरिक, अधिवक्ता और न्यायालय मानने के लिये बाध्य होते हैं। इस प्रकार सामंड के According विधिशास्त्र ऐसी विधियों का विज्ञान है जिन्हें न्यायालय लागू करते हैं।

सामंड ने सिविल विधि के विज्ञान के Reseller में विधिशास्त्र के निम्नलिखित तीन Reseller बताये हैं –

  1. विधिक प्रतिपादन (Legal exposition) :- इसका प्रयोजन किसी काल-विशेष में प्रचलित वास्तविक विधि की विषय-वस्तु का वर्णन करना है।
  2. विधिक History (Legal history) :-इसका प्रयोजन उस ऐतिहासिक कार्यवाही का वर्णन करना है जिससे विधि-प्रणाली विकसित होते हुए वर्तमान अवस्था को प्राप्त हुर्इ है। 
  3. विधायन विज्ञान (Science of legislation) :-इसका उद्देश्य विधि का इस प्रकार निResellerण करना है, जैसी कि वह होनी चाहिए। 

सामंड के According उपर्युक्त Second Means में विधिशास्त्र की विषय-वस्तु अत्यन्त संकीर्ण है। इस Means में विधिशास्त्र नागरिक विधि के प्राथमिक सिद्धान्तों का विज्ञान है। इससे उनका आशय विधि के उन मूलभूत सिद्धान्तों से है जो विभिन्न देशों की नागरिक विधियों का आधार-स्तम्भ होते हैं। इस प्रकार सामंड का यह स्पष्ट मत है कि विधिशास्त्र में विधि-विशेष का अध्ययन नहीं Reseller जाता, वरन् विधियों के आधारभूत सिद्धान्तों का कार्य-कारण विषयक क्रमबद्ध अध्ययन Reseller जाता है, जो किसी विषय को ‘शास्त्र‘ में परिवर्तित करने के लिये आवश्यक है। Historyनीय है कि इस दृष्टिकोण से सामंड की परिभाषा अन्य परिभाषाओं की तुलना में अधिक सरल, स्पष्ट तथा व्यवहारिक प्रतीत होती है।

आंग्ल विधि-शास्त्री जॉन ऑस्टिन (John Austin) ने विधिशास्त्र को ‘वास्तविक विधि का दर्शन’ कहा है। उनके मतानुसार विधिशास्त्र का वास्तविक Means है विधिक संकल्पनाओं का प्राResellerिक विश्लेशण करना (Formal analysis of legal concepts) परन्तु बकलैंड (Buckland) ने ऑस्टिन की इस परिभाषा को अत्यन्त संकीर्ण मानते हुए कहा है कि वर्तमान समय में विधिशास्त्र की परिभाषा अधिक विस्तृत होनी चाहिए। इस दृष्टि से जूलियस स्टोन (Julius Stone) द्वारा दी गयी परिभाषा अधिक तर्कसंगत प्रतीत होती है। उन्होंने विधिशास्त्र को ‘अधिवक्ताओं की बाह्यदर्षिता’ (Lawyer’s extroversion) निResellerित Reseller है। इसका आशय यह है कि वर्तमान ज्ञान के अन्य स्रोतों के आधार पर अधिवक्तागण विधि की अवधारणाओं, आदर्शों तथा पद्धतियों का जो परीक्षण करते हैं, उसे विधिशास्त्र की विषय-वस्तु कहा जा सकता है। जूलियस स्टोन ने विधिशास्त्र की विषय-वस्तु को तीन वगोर्ं में विभक्त Reseller है जिन्हें क्रमश: (1) विश्लेशणात्मक विधिशास्त्र, (Analytical Jurisprudence), (2) क्रियात्मक विधिशास्त्र (Functional Jurisprudence) तथा (3) न्याय के सिद्धान्त कहा गया है।

हालैंड (Holland) ने विधिशास्त्र को वास्तविक विधि का औपचारिक विज्ञान (formal science of positive law) निResellerित Reseller है। इस विषय के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने विधिशास्त्र को विधि के प्रचलित नियमों, विचारों तथा सुधारों से सम्बन्धित शास्त्र माना है। उनका विचार है कि ‘‘विधिशास्त्र भौतिक नियमों की बजाय विधि के नियमों द्वारा शास्ति होने वाले Humanीय व्यवहारों से ही अधिक सम्बन्ध रखता है।’’

Historyनीय है कि हालैंड द्वारा दी गर्इ विधिशास्त्र की परिभाषा में प्रयुक्त ‘वास्तविक विधि’ (Positive law) का आशय सामंड की परिभाषा में प्रयुक्त ‘सिविल विधि’ (civil law) से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। वास्तविक विधि से अभिप्राय सामायिक सम्बन्धों को विनियमित रखने वाले ऐसे कानूनों से है जो राज्य द्वारा निर्मित होते है तथा न्यायालयों द्वारा लागू किये जाते हैं। ऐसे नियमों को ही सामण्ड ने व्यावहारिक विधि (civil law) कहा है। हालैण्ड ने विधिशास्त्र को ‘औपचारिक विज्ञान’ इसलिये कहा है क्योंकि इस शास्त्र में उन नियमों का अध्ययन समाविश्ट नहीं है जो स्वयं पार्थिव सम्बन्धों से उत्पन्न हुए हैं अपितु इसमें उन सम्बन्धों का अध्ययन Reseller जाता है, जो वैध नियमों द्वारा क्रमबद्ध Reseller में संचाालित किये जाते हैं। इस प्रकार यह विज्ञान भौतिक विज्ञान (Material Science) से भिन्न है।

जे0सी0गे ्र (J.C. Gray) के According विधिशास्त्र विधि का विज्ञान है जिसके अन्तर्गत न्यायालय द्वारा लागू किये जाने वाले क्रमबद्ध And व्यवस्थित नियमों और उनमें सन्निहित सिद्धान्तों का अध्ययन Reseller जाता है। ग्रे ने हालैण्ड द्वारा दी गर्इ विधिशास्त्र की परिभाषा की आलोचना करते हुए उसे संकीर्ण तथा केवल सांकेतिक निResellerित Reseller है। उनका कथन है कि विधिशास्त्र केवल औपचारिक विज्ञान नहीं है बल्कि यह Single पार्थिव विज्ञान भी है, अत: इसे वैध सम्बन्धों और विधिक नियमों का विज्ञान कहा जा सकता है।

गे ्र के According विधिशास्त्र विधि के विवेचन पर बल देता है, अत: इसके स्वाभाविक स्वReseller को हालंडै की परिभाषा तक सीमित रखना उचित नहीं है।

पैटन (Paton) के According विधिशास्त्र विधि अथवा विधि के विभिन्न प्रकारों का अध्ययन है जबकि ऐलन (Allen) ने विधिशास्त्र को विधि के मूलभूत सिद्धान्तों का वैज्ञानिक संश्लेशण कहा है।

डायस ने विधिशास्त्र को ‘‘विधिक प्रशिक्षण And शिक्षा’’ के Reseller में स्वीकार Reseller है। इस दृष्टि से उन्होंने विधिशास्त्र में चार प्रमुख बातों का समावेश Reseller है जो क्रमश: इस प्रकार है-

  1. विधि सम्बन्धी संकल्पनाएँ (concepts relating to law) 
  2. विधि की संकल्पना (concept of law) 
  3. विधि का सामाजिक प्रयोजन (social function of law) तथा 
  4. विधि का उद्देश्य (purpose of law)। 

विख्यात विधिशास्त्री ली (Lee) का विचार है कि विधिशास्त्र Single ऐसा विधान है जो मौलिक सिद्धान्तों को अभिनिश्चित करने का प्रयास करता है तथा जिसकी अभिव्यक्ति विधि में पार्इ जाती है।

जी0डब्ल्यू0 कीटन (Keeton) ने विधिशास्त्र को विधि के सामान्य सिद्धान्तों का ज्ञान मात्र माना है। उनके मतानुसार यह शास्त्र विधि के सामान्य सिद्धान्तों का व्यापक Means में अध्ययन करते हुए उनके क्रमबद्ध विकास का मार्ग प्रषस्त करता है।

विनोग्रैडॉफ (Vinogradoff) ने विधि के प्रति ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाते हुए विधिशास्त्र की परिभाषा दी है। उनके According विधिशास्त्र की उत्पत्ति राष्ट्रों के History में उनकी वास्तविक विधि में पार्इ जाने वाली विशमताओं से हुर्इ है, जिनका उद्देश्य विधिक अधिनियमों And न्यायिक निर्णयों में निहित सामान्य सिद्धान्तों को खोज निकालना है।

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र (Sociological Jurisprudence) के प्रणेता डीन रास्को पाउण्ड (Dean Roscoe Pound) ने विधिशास्त्र की परिभाषा देते हुए कहा है कि ‘‘विधिशास्त्र विधि का ज्ञान है।’’ यहाँ विधि से तात्पर्य न्यायिक Meansों में है, Meansात् विधिशास्त्र ऐसे सिद्धान्तों का संकलन है जो न्याय की स्थापना के लिये निर्मित किये गये हैं और जिन्हें न्यायालयों द्वारा मान्य और लागू Reseller जाता है। रास्को पाउण्ड ने विधिशास्त्र के सामाजिक पहलू पर विशेष जोर दिया है। Human-जीवन में न्याय की अपनी महत्ता है। न्यायविहीन समाज में मनुष्य को जीवन निर्वाह करना कठिन हो जायेगा, इसलिये विधिशास्त्र को महत्वपूर्ण मानते हुए रास्को पाउण्ड ने इसे न्याय की स्थापना करने वाले सिद्धान्तों का विज्ञान माना है।

विधिशास्त्र की प्रकृति तथा विशेषतायें 

अनेक विद्वानों ने विधिशास्त्र को विधि का विज्ञान निResellerित Reseller है। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या विधिशास्त्र को विज्ञान की कोटि में रखा जा सकता है? विधिशास्त्र की विभिन्न परिभाषाओं के According इसके अन्तर्गत विधि से संबंधित पहलुओं का व्यवस्थित, क्रमबद्ध तरीके से अध्ययन Reseller जाता है। जैसा कि ऑस्टिन और उसके पष्चात्वर्ती विधिशास्त्रियों ने कहा है कि विधिशास्त्र में प्रथाओं तथा सामाजिक व नैतिक मान्यताओं को कोर्इ स्थान नहीं है क्योंकि ये विधि की संकल्पना को धूमिल करती हैं। इसलिये प्रमाणवादी विचारकों (Positivists) ने विधि को संप्रभु का आदेश निResellerित Reseller ताकि उसमें निश्चितता, तर्कसंगतता And व्यावहारिकता बनी रहे जो विज्ञान की किसी भी शाखा के प्रमख्ु ा तत्व हैं। विधिशास्त्र के अध्ययन के प्रति अपनार्इ जाने वाली यह पद्धति उसे विज्ञान के बहुत निकट लाकर खड़ा करती है।

अगस्त कॉम्टे (August Comte) ने विधिशास्त्र के अध्ययन में कल्पनाओं तथा रूढ़िवादी परम्पराओं पर आधारित मान्यताओं को पूरी तरह अस्वीकार करते हुए उसके प्रति विश्लेशणात्मक And अन्वेशणात्मक पद्धति अपनाएं जाने पर बल दिया जो कि किसी भी विज्ञान के प्रमुख लक्षण होते हैं। तत्पष्चात् बीसवीं सदी की यथाथर्व ादी विचारधारा के प्रवर्तकों ने विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधि के अध्ययन को सामजिक परिवेश में किये जाने पर जोर दिया तथा इसी तारतम्य में रास्को पाउंड ने विधि (जो कि विधिशास्त्र की विषय वस्तु है) को सामाजिक यांत्रिकी (Social Engineering) निResellerित Reseller। इसी विचारधारा को आगे चलकर इहरिंग, इहर्लिच (Ehrlich), माक्र्स (Marx), वेबर (Weber) तथा होम्स (Holmes) आदि ने बढ़ाया तथा विधि को सामाजिक परिवर्तन का Single सषक्त माध्यम निResellerित Reseller। विधिशास्त्र के प्रति सकारात्मक रूख अपनाये जाने के कारण इसे विज्ञान की कोटि में रखा जाना ही उचित होगा। विधिशास्त्र अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के कारण विधि के अन्य विषयों से भिन्न है।

  1. विधि की अनेक तथा अधिकतर विधाओं में निश्चित नियम है जो संहिताकृत (codified) भी होते हैं। जैसे Indian Customer संविदा विधि के नियम या Indian Customer दण्ड संहिता। परन्तु विधिशास्त्र की विषयवस्तु के संबंध में इस तरह के निश्चित नियम नहीं पाए जाते हैं। 
  2. विधि के अन्य विषयों के लिए निश्चित प्राधिकारिक स्रोत मिल जाते हैं जैसे-विधायन, न्यायिक निर्णय आदि। Indian Customer संविधान के अध्ययन के लिए अधिनियमित Indian Customer संविधान या दण्ड विधि के अध्ययन के लिए अधिनियमित Indian Customer दण्ड संहिता प्राप्त है। अपकृत्य विधि मुख्यता प्राधिकारिक न्यायिक निर्णयों पर आधारित है, परन्तु विधिशास्त्र के संबंध में निश्चित प्राधिकारिक स्रोत नहीं पाया जाता है। 
  3. विधि पाठ्यक्रम के अन्य विषयों की तरह, विधिशास्त्र का व्यवहारिक समस्याओं के निराकरण में कोर्इ विशेष महत्व नहीं है। उदाहरण स्वReseller कोर्इ संविदा करता है या संपत्ति अन्तरण करता है और कोर्इ समस्या उत्पन्न हो जाती है तो उस समस्या का निराकरण संविदा विधि या संपत्ति अन्तरण अधिनियम का सहारा लेकर न्यायालय के माध्यम से Reseller जा सकता है। विधिशास्त्र का इस प्रकार का व्यवहारिक महत्व नहीं है। विधिशास्त्र की विशेषता इसका सैद्धान्तिक होना है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि विधिशास्त्र महत्वहीन है। वास्तव में विभिन्न नियमों के मूलभूत तत्वों का निर्धारण विधिशास्त्र में ही होता है। उदाहरणत: संविदा विधि में या संपत्ति अन्तरण में किसी पक्ष के साथ अन्याय न हो, यह मूलभूत नियम, विधिशास्त्र से ही उपजा है। 
  4. विधिशास्त्र All संकल्पनाओं का Single मूल, सामान्य, तात्विक तथा व्यापक चित्रण प्रस्तुत करता है। जैसे कि संविदा या अपकृत्य विधि में देखा जाता है कि Single पक्ष का Second पक्ष के विरूद्ध क्या अधिकार है। विधिशास्त्र में यह अध्ययन Reseller जाता है कि अधिकार क्या है, इसकी विषयवस्तु, स्रोत, तत्व तथा प्रयोजन क्या है। विधिशास्त्र इन प्रश्नों पर विचार करता है कि नियमों के लिए क्या तत्व अपेक्षित हैं कि विधिक नियम बन सके अथवा वे कौन से तत्व हैं जो विधि को नैतिकता, शिष्टाचार आदि से अलग करते हैं।

विधिशास्त्र का क्षेत्र 

विधिशास्त्र विधि का अध्ययन है जो सतत् विकासशील And परिवर्तनीय है अतएव विधिशास्त्र के क्षेत्र की सीमा का रेखांकन सरल नहीं है। विधिशास्त्र के अध्ययन का विस्तार क्षेत्र, विधि के क्रमश: विकास, विधि And विधिक प्रणाली के अध्ययन के तरीकों, विधि से संबंधित नवीन प्रश्नों And सामाजिक चुनैतियों के साथ बढ़ता जाता है। संभवत: इसी कारण अमरीकी विधिशास्त्री कार्ल लेवेलिन (Karl Llewellyn) ने कहा कि ‘‘विधिशास्त्र उतना ही विस्तृत है जितनी विस्तृत विधि है। यह विधि से भी ज्यादा विस्तृत है।’’

विधिशास्त्र के क्षेत्र को अनेक विधिशास्त्रियों ने अपने अध्ययन के आधार पर अपने ढंग से प्रस्तुत Reseller है। अनिरूद्धप्रसाद के According इसका विस्तार क्षेत्र वास्तविक विध्यात्मक विधि के अध्ययन से प्रारम्भ होकर विधिक समस्याओं के वैज्ञानिक अन्वेशण (Jurimatrix), विधि के संष्लेशण And विधिवेत्ताओं की वाह्यदर्षिता की दूरी तय करते हुए पूर्ण अन्तर्विधा विषय के Reseller में बदल गया है।

ऑस्टिन और केल्सन ने कठोर Reseller में कही जाने वाली विध्यात्मक विधि के विश्लेशण तक विधिशास्त्र के क्षेत्र को निश्चित कर उच्चतर विधि और नैतिकता को इसके क्षेत्र से बाहर Reseller। इन विधिशास्त्रियों ने ‘विधि जैसी है’(Law as it is) का अध्ययन Reseller तथा विधि की उपयोगिता, प्रयोजन, अच्छार्इ या बुरार्इ पर ध्यान देना अनावष्यक तथा वर्जित माना। प्रमाणवादी विचारधारा के पष्चातवर्ती विचारकों ने विधिशास्त्र के क्षेत्र को इतना संकुचित नहीं रखा तथा ‘विधि कैसी होनी चाहिए’ ;(Law as ought to be) को सम्मिलित कर विधिशास्त्र का क्षेत्र विस्तृत Reseller। ऐतिहासिक विचारधारा के विधिशास्त्रियों ने समाज के संदर्भ में विधि के विकास को मूल्यांकित Reseller। समाज के सन्दर्भ में विधिशास्त्र का अध्ययन समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र के विकास में सहायक सिद्ध हुआ और विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधि और विधिक संस्थाओं के सामाजिक उद्भव, विधि का समाज पर प्रभाव, विधि का समाज में कार्य और विधि की वैधता के सामाजिक आधारों पर इसके क्षेत्र को विस्तृत Reseller गया।

विधिशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र के विकासक्रम में यह अनुभव Reseller गया कि विधि का उद्देश्य Humanीय Needओं की पूर्ति And पारस्परिक हितों में संतुलन को कायम करना है। अत: विधि को अध्ययन की अन्य विधाओं के ज्ञान से अलग नहीं रखा जा सकता है। विधि का अन्य विधाओं के साथ मेलजोल आवष्यभावी हो गया। फ्रीडमैन ने माना कि विधिक सिद्धान्त का Single छोर दर्शन तथा दूसरा छोर राजनीतिक सिद्धान्त से Added हुआ है। रैडक्लिफ ने स्पष्ट Reseller कि विधिशास्त्र History, Meansशास्त्र, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र And दर्शनशास्त्र का भाग है। विधिशास्त्र की अन्तर्विधा अपेक्षा के कारण ही जूलियस स्टोन (Julius Stone) ने विधिशास्त्र को विधिवेत्ता की बाह्यदर्षिता Meansात विधि से इतर विषयों के अध्ययन से प्राप्त विधिवेत्ता के ज्ञान के आलोक में विधि का अध्ययन माना। अन्तत: यही कहना सर्वाधिक उचित होगा कि विधिशास्त्र का क्षेत्र विधि पर आधारित होने के कारण सदैव खुले सिरे वाला (Open ended) अध्ययन है। जैेस-जैसे नवीन सामाजिक तथा वैज्ञानिक प्रवृत्तियों का विकास होगा, वैसे-वैसे विधिशास्त्र के अध्ययन का क्षेत्र भी विकसित होता रहेगा।

विधिशास्त्र के अध्ययन की विधियाँ 

पारम्परिक तौर पर विधिशास्त्र के अध्ययन की विश्लेशणात्मक, ऐतिहासिक, तुलनात्मक, नीतिशास्त्रीय, समाजशास्त्रीय तथा आलोचनात्मक विधियाँ मानी गयी हैं। विश्लेशणात्मक तरीके के माध्यम से विधिक अवधारणाओं का तार्किक ढंग से विश्लेशण And उनका आपसी संबंध निश्चित कर तार्किक Reseller से सुसंगत प्रणाली (Logically self consistent system) का निर्माण Reseller जाता है। विधि की इस तार्किकता का लाभ यह है कि विधिक व्यवस्था के अध्ययन में निश्चितता कायम की जा सकती है। इस तरीके ने संकल्पनाओं की परिभाषा के क्षेत्र में सर्वश्रेश्ठ योगदान दिया है। परन्तु इसकी कमी यह है कि यह Single समय विशेष में पार्इ जाने वाली विधि का सूक्ष्मतम विश्लेशण करता है परन्तु विधि के भविष्यकालीन विकास के संबंध में इसका योगदान नगण्य है। ऐतिहासिक अध्ययन के तरीके में विधिक प्रणाली के विकास का परीक्षण Reseller जाता है। यह तरीका विधि में होने वाले परिवर्तनों और उन तत्वों की विवेचना करता है जिन्होंने विधि के परिवर्तन को प्रभावित Reseller है। इस पद्धति का लाभ है कि यह लोगों को भूतकाल की भूलों को दोहराने से रोकता है। इस पद्धति की कमी है कि यह भूतकाल को अतिषयता में उचित ठहराने का प्रयास करता है। तुलनात्मक अध्ययन की पद्धति में विधि की विभिन्न प्रणालियों के मध्य समानताओं और विभेदों को उजागर Reseller जाता हैं। नीतिशास्त्रीय पद्धति में विधि के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर विधि की बुरार्इयों को दूर Reseller जाता है। इसकी कमी है कि इस तरीके में विधि और नैतिकता का परिक्षेत्र अनिश्चित रहता है। समाजशास्त्रीय अध्ययन के तरीके के माध्यम से समाज के परिप्रेक्ष्य में विधि के अध्ययन का प्रयास Reseller जाता है। विधिशास्त्र के अध्ययन की आलोचनात्मक पद्धति में विधिशास्त्र का अध्ययन भविश्य को ध्यान में रखकर Reseller जाता है।

वर्तमान समय में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अपनाए गये तरीकों के माध्यम से विधिशास्त्र का अध्ययन Reseller जा रहा है। जिसमें मुख्यत: दो पद्धतियाँ है- अनुभव निरपेक्ष (A priori) तथा अनुभव सापेक्ष या अनुभवाश्रित (A posteriori).

अनुभव निरपेक्ष :- यह पद्धति मानती है कि First से ही चेतना में निहित ज्ञान का अस्तित्व अनुभवजन्य ज्ञान के पूर्व और उससे स्वतंत्र है। काण्ट (ज्ञंदज) का यह मानना था कि ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान असत्य है। इसका परिप्रतिवर्तन करके काण्ट ने संवेदनग्राहिता के (देश तथा काल) और विवेक (कारण, Need) के अनुभव निरपेक्ष Resellerों को प्रामाणिक ज्ञान के Reseller में प्रस्तुत Reseller। अत: इस सिद्धान्त के According मनोभाव (Notions), तर्क वाक्य (propositions) और मूल कल्पनायें (postulates) अनुभव के बिना सत्य और आवश्यक मान लिए जाते हैं और ये अनुभव से पूर्व हैं। Second Wordों में ये अनुभव से प्राप्त नहीं होते हैं फिर भी वैध माने जाते हैं। अत्याधुनिक Means में इसका प्रयोग उन मनोभावों, तर्क वाक्यों और मूल कल्पनाओं के लिए Reseller गया है जो अध्ययन की जा रही विधिक प्रणाली अथवा विचारों के तरीकों से बाहर स्थित हैं। केल्सन का ‘मूल मानक’ (Grund Norm) तथा हार्ट का ‘मान्यता का सिद्धान्त’ (Rule of Recognition) इसके उदाहरण हैं।

अनुभव सापेक्ष या अनुभवाश्रित :- यह उस ज्ञान का द्योतक है जो अनुभव से प्राप्त होता है। यह अनुभव निरपेक्ष की भाँति मात्र तर्क से प्राप्त नहीं हो सकता है। इसकी सत्यता की परख के लिए मात्र तर्क पर्याप्त नहीं हैं। तर्क के अतिरिक्त तथ्यों या अनुभव का सहारा लेना होता है, जो प्रत्यक्ष ज्ञान या अनुभूति, साक्ष्य और अन्तर्ज्ञान पर आधारित होते हैं। अनुभव निरपेक्ष तथा अनुभव सापेक्ष अध्ययन के तरीकों में मूल भेद यह है कि अनुभव निरपेक्ष सामान्यीकरण से प्रारम्भ होता है जिसके प्रकाश में तथ्यों का परीक्षण Reseller जाता है, जब कि अनुभव सापेक्ष तथ्यों से सामान्यीकरण की ओर अग्रसर होता है। अनुभव निरपेक्ष सामान्यीकरण को अनुभव सिद्ध खोजबीन पर बनाया जाना अपेक्षित है और अनुभव सिद्ध खोजबीन अक्सर प्रारम्भिक स्तर पर अनुभव निरपेक्ष संकल्पना से बहुत हद तक सहूलियत पाती है। अत: दोनों तरीकों का प्रयोग लगातार होता रहता है। डायस ने स्पष्ट कहा है कि इन दो तरीकों में Single Second की अपेक्षा ज्यादा सत्य या ठीक होने का प्रश्न नहीं उठता है और न ही उन्हें Single Second से अलग रखने का प्रश्न उठता है। वे दोनों उपयोगी हैं और दोनों Single Second पर आश्रित हैं। प्रश्न मात्र यह है कि कौन ज्यादा महत्वपूर्ण होगा जो Single वरीयता का विषय है।

विधिशास्त्र का वर्गीकरण 

विधिशास्त्रियों ने विधिशास्त्र को अपनी-अपनी धारणा के According विभिन्न वगोंर् में विभाजित Reseller है। जॉन ऑस्टिन (John Austin) ने विधिशास्त्र को सामान्य विधिशास्त्र तथा विशिष्ट विधिशास्त्र के Reseller में विभाजित करते हुए यह स्पष्ट Reseller है कि दोनों के क्षेत्र भिन्न-भिन्न तथा निश्चित हैं।

सामंड के According विशिष्ट Means में विधिशास्त्र को तीन भागों में विभक्त Reseller जा सकता है, जिन्हें उन्होंने क्रमश: विधिशास्त्र की विश्लेशणात्मक (Analytical), ऐतिहासिक (Historical) तथा नैतिक (Ethical) शाखा कहा है। विख्यात आंग्ल-विधिवेत्ता जर्मी बेन्थम (Jeremy Bentham) के According विधिशास्त्र को दो भागों में, Meansात् व्याख्यात्मक (Expository) तथा मूल्यांकात्मक (Censorial) विधिशास्त्र के Reseller में वर्गीकृत Reseller जा सकता है। वर्तमान में विधिशास्त्र को सामाजिक अभियांत्रिकी (Social Engineering) के Reseller में स्वीकार Reseller गया है।

सामान्य And विशिष्ट विधिशास्त्र 

ऑस्टिन ने विधिशास्त्र को दो भागों में विभाजित Reseller है- (1) सामान्य तथा (2) विशिष्ट। उनके मतानुसार सामान्य विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधि के उन All उद्देश्यों, सिद्धान्तों, धारणाओं और विभेदों का वर्णन रहता है जो समस्त विधि-प्रणाली में समान Reseller से पाये जाते हैं। विधि की प्रणालियों से ऑस्टिन का आशय ऐसी परिपक्व और सुस्थापित प्रणालियों से है जो अपनी तर्क-शक्ति And परिपक्वता के कारण प्रौढ़ वैधानिक व्यवस्था के Reseller में विकसित हो चुकी हैं। यही कारण है कि सामान्य विधिशास्त्र को सैद्धांतिक विधिशास्त्र भी कहा गया है। इसके विपरीत विशिष्ट विधिशास्त्र Single संकीर्ण विज्ञान है जिसके अंतर्गत किसी ऐसी वर्तमान या भूतकालीन विधिक-प्रणाली का अध्ययन Reseller जाता है जो किसी राष्ट्र विशेष तक ही सीमित रही है। इसीलिये विशिष्ट विधिशास्त्र को व्यावहारिक विधिशास्त्र या राष्ट्रीय विधिशास्त्र भी कहा गया है। ऑस्टिन ने सामान्य विधिशास्त्र को ‘सकारात्मक विधि का दर्शन’ (Philosophy of positive law) कहा है। यहाँ ‘दर्शन’ Word से उनका अभिप्राय वैज्ञानिक अध्ययन से है। उनके विचार से सामान्य विधिशास्त्र का आशय ऐसी विधियों के तत्वों और उद्देश्यों की विवेचना से है जो All विधिक व्यवस्थाओं में समान Reseller से पार्इ जाती है जबकि विशिष्ट विधिशास्त्र किसी देश-विदेश की व्यावहारिक विधिक-प्रणाली या उसके किसी अंष का विज्ञान है।

Historyनीय है कि अनेक विधिवेत्ताओं ने ऑस्टिन द्वारा किये गये विधिशास्त्र के उपर्युक्त विभाजन की आलोचना की है जिनमें हालैण्ड तथा सामण्ड प्रमख्ु ा हैं। हालण्ै ड के विचार से विधिशास्त्र को सामान्य और विशिष्ट विधिशास्त्र के Reseller में विभाजित करना उचित नहीं है। उनका तर्क है कि ‘विशिष्ट विधिशास्त्र‘ की कल्पना पूर्णत: भ्रामक है। उनके मतानुसार ऑस्टिन ने विधिशास्त्र को ‘विशिष्ट’ इसलिये बताया है, क्योंकि इसकी विषय-वस्तु विशिष्ट है न कि इस कारण कि यह Single ‘विशिष्ट विज्ञान’ है। हालैण्ड का स्पष्ट मत है कि किसी विज्ञान का निर्माण सामान्य प्रतिपादनों (General Propositions) से ही होता है। विज्ञान को अधिक सुदृढ़ आधार देने के लिये यह आवश्यक है कि वैज्ञानिक अपने तथ्यों को अधिक विस्तृत क्षेत्र से Singleत्रित करें और उनसे अपने निश्कर्श निकालें। आशय यह है कि किसी विज्ञान का सीमित क्षेत्र में पर्यवेक्षण करना उचित नहीं है। उसका क्षेत्र जितना विस्तृत होगा, निश्कर्श उतने ही सही होंगे। अत: हालैण्ड का मत है कि ‘विधिशास्त्र‘ को बिना किसी विशेषण के ही सम्बोधित Reseller जाना चाहिए तथा उसे विधि के आधारभूत सिद्धान्तों (Basic Principles of Law) का विज्ञान कहना अधिक उचित होगा। अपने तर्क की पुश्टि में Single उदाहरण देते हुए हालैण्ड कहते हैं कि इंग्लैण्ड का भू-गर्भशास्त्र (Geology) सामान्य भू-गर्भशास्त्र से भिन्न नहीं हो सकता है, क्योंकि विज्ञान चाहे किसी क्षेत्र-विशेष में किये गये परीक्षण पर ही आधारित क्यों न हो, परन्तु उसकी विषय-वस्तु तथा लक्षण समस्त संसार में Single समान होंगे। ठीक इसी प्रकार इंग्लैण्ड की विधि पर आधारित आंग्ल विधिशास्त्र समस्त विष्व के लिये लागू हो सकता है क्योंकि यह ब्रिटेनवासियों के स्वभाव में निहित प्रवृत्तियों के अध्ययन पर अपनी विषय-सामग्री को आधारित करेगा। ये Human-प्रवृत्तियाँ अन्य स्थानों पर भी Single समान होंगी क्योंकि ये Human-स्वभाव से सम्बन्धित हैं, न कि Human की परिस्थितियों से। परन्तु निवेदित है कि हालैण्ड द्वारा दिये गये इस दृश्टान्त की सार्थकता सन्देहास्पद प्रतीत होती है क्योंकि All देशों की विधि-व्यवस्था Single जैसी नहीं होती। जैसा कि ब्राइस (Bryce) ने कहा है ‘‘किसी भी देश की विधि-व्यवस्था उस देश की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों का परिणाम होती है। स्थानीय परिस्थितियों का प्रभाव देश-विदेश की बौद्धिक क्षमता पर भी पड़ता है जिसकी अभिव्यक्ति वहाँ की विधि-प्रणाली में मिलती है।’’

सामण्ड ने भी ऑस्टिन के ‘सामान्य और विशिष्ट’ विधिशास्त्र के भेद की आलोचना की है। सामण्ड के विचार से सामान्य विधिशास्त्र के अन्तर्गत विधिक सिद्धान्तों के सामान्य Reseller का नहीं, अपितु विशिष्ट विधि पद्धति के सामान्य अथवा मूल तत्वों का अध्ययन Reseller जाता है। उदाहरण के लिये यद्यपि न्यायिक पूर्वोक्तियों (Judicial precedents) का प्रयोग आंग्ल-विधि व्यवस्था का Single प्रमुख सिद्धान्त है तथापि इस नियम को किसी भी अन्य देश की विधि-व्यवस्था में अपनाया जाना उतना ही उचित होगा जितना कि वह इंग्लैण्ड में है। तात्पर्य यह है कि सामान्य विधिशास्त्र का प्रयोजन विधि-प्रणालियों का सामान्य Reseller से अध्ययन करना ही नहीं है अपितु किसी विधि पद्धति के सामान्य And आधारभूत तत्वों का अध्ययन करना भी है। सामण्ड के इस विचार पर टिप्पणी करते हुए एलेन ने कहा है कि इस दृष्टिकोण से केवल ‘विशिष्ट विधिशास्त्र‘ ही विधिशास्त्र का Only Reseller माना जाना चाहिए।

विश्लेशणात्मक, ऐतिहासिक तथा नैतिक विधिशास्त्र 

विशिष्ट Means में विधिशास्त्र को तीन भागों में विभाजित Reseller गया है जिन्हें सामण्ड ने क्रमश: विश्लेशणात्मक (Analytical), ऐतिहासिक (Historical) And नैतिक (Ethical) विधिशास्त्र कहा है। Historyनीय है कि विधि के विविध पहलुओं में इतना घनिश्ठ सम्बन्ध है कि इनका पृथक विवेचन करने से विधिशास्त्र का विषय ही अपूर्ण रह जायेगा। अत: विधिशास्त्र के अध्ययन के लिये इन तीनों का समावेश आवश्यक है।

विश्लेशणात्मक विधिशास्त्र से आशय विधियों के प्राथमिक सिद्धान्तों का विश्लेशण करना है। इस विश्लेशण में उनके ऐतिहासिक उद्गम अथवा विकास या नैतिक महत्व आदि का निResellerण नहीं Reseller जाता है। विधिशास्त्र की इस शाखा के प्रणेता जॉन ऑस्टिन थे जिन्होंने विधि-विज्ञान की विभिन्न समस्याओं के प्रति इस शाखा के विचारों का प्रतिपादन अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्राविन्स ऑफ ज्यूरिसप्रुडेन्स डिटरमिन्ड’ में Reseller जो First सन् 1832 में प्रकाशित हुर्इ थी। इस शाखा के अन्य समर्थक मार्कबी (Markby), एमॉस (Amos), हॉलैण्ड (Holland) तथा सामण्ड (Salmond) हैं।

विधिक पद्धति के प्राथमिक सिद्धान्तों तथा आधारभूत संकल्पनाओं के History को ‘ऐतिहासिक विधिशास्त्र‘ कहा गया है। First प्रसिद्ध विधिशास्त्री सैविनी ने विधिशास्त्र के प्रति ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपना कर ऐतिहासिक विधिशास्त्र का सूत्रपात Reseller। इंग्लैण्ड के सर हेनरी मेन (Sir Henry Maine) को ब्रिटिश ऐतिहासिक विधिशास्त्र का संस्थापक माना जाता है। इस शाखा का उद्देश्य विधि के उद्गम, विकास तथा विधि को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों के सामान्य सिद्धान्तों को प्रतिपादित करना है। इसमें उन विधिक धारणाओं तथा सिद्धान्तों के उद्गम तथा विकास का समावेश है जिन्हें विधिशास्त्र की विषय सामग्री में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

विश्लेशणात्मक विधिशास्त्र तथा ऐतिहासिक विधिशास्त्र में मुख्य भेद यह है कि विश्लेशणात्मक विधिशास्त्र राज्य के प्रति अपने सम्बन्ध को ही विधि का सबसे महत्वपूर्ण पहलू समझता है। इसके अन्तर्गत विधि को राज्य के संप्रभुताधारी का समादेश (Command) माना गया है। इसीलिये इसे विधि की आदेशात्मक शाखा (Imperative School) भी कहा जाता है। विश्लेशणात्मक विधिशास्त्र के समर्थक विधि के भूत अथवा भविश्य पर ध्यान नहीं देते बल्कि वे विधि के केवल वर्तमान Reseller का ही विश्लेशण करते हैं।

ऐतिहासिक विधिशास्त्री राज्य के प्रति विधि के सम्बन्ध को विशेष महत्व न देकर उन सामाजिक प्रथाओं को अधिक महत्व देते है जिनसे विधि का निर्माण हुआ है। ऐतिहासिक विधिशास्त्र समाज की प्राचीन विधिक संस्थाओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। इसके According आदर्श विधि Single ऐसा रूढ़िजन्य नियम है जिसका विकास ऐतिहासिक Need तथा लोकप्रिय प्रणाली से सहज Reseller में हुआ है। Second Wordों में, ऐतिहासिक विधिशास्त्र के अन्तर्गत यह अध्ययन Reseller जाता है कि वर्तमान विधिक धारणाओं का विकास कब, कैसे और किन विभिन्न अवस्थाओं में हुआ तथा इनके अस्तित्व में आने के क्या कारण थे? साथ ही यह देखना भी आवश्यक होता है कि इनका वर्तमान Reseller क्या है? सारांष यह है कि विश्लेशणात्मक विधिशास्त्र वर्तमान कानूनी विचारों के विश्लेशण को महत्व देता है जबकि ऐतिहासिक विधिशास्त्र इन कानूनी विचारों की उत्पत्ति तथा विकास का पता लगाने की ओर ध्यान केन्द्रित करता है। इस संदर्भ में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि विधिक History (Legal History) को ही ऐतिहासिक विधिशास्त्र (Historical Jurisprudence) मानना नितान्त भूल होगी। इन दोनों के क्षेत्र भिन्न हैं। विधिक History उन विभिन्न चरणों को प्रस्तुत करता है जिनसे होकर कोर्इ विधि-पद्धति विकसित होती हुर्इ वर्तमान स्वReseller को प्राप्त हुर्इ हो परन्तु ऐतिहासिक विधिशास्त्र किसी विशेष विधिक पद्धति के History का विवेचन मात्र न होकर विधिक पद्धति के प्राथमिक सिद्धान्तों And उसकी आधारभूत धारणाओं का History है।

नैतिक विधिशास्त्र का सम्बन्ध विधि के नैतिक पहलू से है। विधि कैसी है अथवा कैसी थी, इसका विवेचन करना नैतिक विधिशास्त्र का कार्य नहीं है वरन् इसका मुख्य कार्य यह है कि विधि कैसी होनी चाहिए। इसका उद्देश्य न्याय की स्थापना से सम्बन्धित विषयों का अध्ययन करना है। इसीलिये सामण्ड ने नैतिक विधिशास्त्र को नीतिशास्त्र और विधिशास्त्र का सामान्य आधार माना है। इसके अन्तर्गत न्याय की धारणाओं तथा न्याय और विधि के पारस्परिक सम्बन्धों का विवेचन Reseller जाता है। नैतिक विधिशास्त्र का मुख्य उद्देश्य यह है कि वह विधि के लक्ष्यों का निर्धारण करे और उन आदर्षवादी तथ्यों की खोज करे जिन्हें समाज स्वीकार करना चाहता है। सामण्ड के According नैतिक विधिशास्त्र के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का समावेश है-

  1. विधि और न्याय के परस्पर सम्बन्धों का निर्धारण 
  2. विधि के सिद्धान्तों का ज्ञान 
  3. न्याय की स्थापना के लिये आवश्यक साधनों की खोज 
  4. न्याय और विधि की विषय-वस्तु और उनके क्षेत्रों का निर्धारण तथा 
  5. विश्लेशण पद्धति के मूलभूत सिद्धान्तों के नैतिक महत्व का परिणाम। 

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि यदि विश्लेशणात्मक विधिशास्त्र विधि के वर्तमान स्वReseller को अधिक महत्व देता है तो नैतिक विधिशास्त्र आदर्श विधि को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है। यधपि विधि शास्त्र की उपर्युक्त तीनों शाखाएँ Single Second से भिन्न हैं तथापि विधि शास्त्र के अध्ययन में इनमें से किसी की भी अनदेखी नहीं की जा सकती अन्यथा इस विषय का अध्ययन ही अधूरा रह जायेगा।

व्याख्यात्मक तथा मूल्यांकात्मक विधिशास्त्र 

सुप्रसिद्व आंग्ल- विधिवेत्ता जर्मी बेन्थम के According विधिशास्त्र को दो भागों में रखा जा सकता है। व्याख्यात्मक तथा मूल्यांकात्मक। व्याख्यात्मक विधि शास्त्र इस बात की व्याख्या करता है कि विधि क्या है मूल्यांकात्मक विधि शास्त्र का उददेश्य यह स्पष्ट करता है कि विधि कैसी होनी चाहिए बेन्थम ने व्याख्यात्मक विधि शास्त्र को दो भागों में विभाजित Reseller है-(1) प्राधिकारिक (Authoritative) जिसका सृजन विधायी शक्ति से होता है, Meansात जिसे विधान मण्डल से शक्ति प्राप्त होती है, तथा (2) अप्राधिकारिक (Unauthoritative) जो विधिक साहित्य से अपनी सामग्री प्राप्त करता है। अप्राधिकारिक व्याख्यात्मक विधिशास्त्र को पुन: दो भागों में वर्गीकृत Reseller गया है-स्थानीय तथा सार्वभौमिक। स्थानीय (Local) अप्राधिकारिक विधिशास्त्र में किसी देश-विदेश का विधि-साहित्य समाविश्ट रहता है, जबकि सार्वभौमिक (Universal) अप्राधिकारिक विधिशास्त्र में समस्त विश्व की विधि-सामग्री का समावेश रहता है।

बेन्थम के According व्याख्यात्मक विधिशास्त्र का संबन्ध ‘विधि जैसी है’ से है न कि ‘विधि जैसी होनी चाहिए’ से। Second Wordों में विधि का नैतिकता या अनैतिकता का कोर्इ सरोकार नहीं होता है, वह तो केवल प्रचलित विधि के विश्लेशण से संबन्धित रहती है। बेंथम के इन विचारों का History उनकी कृति-’लिमिट्स ऑफ ज्यूरिसपु्रडेंस डिफाइन्ड’ में मिलता है, जो उनके द्वारा सन् 1782 में लिखी गयी थी, लेकिन जिसे एवरेट (Everett) ने सन् 1945 में प्रकाशित कराया। इस कृति में बेन्थम ने प्राकृतिक विधि की आलोचना करते हुए संप्रभु के आदेश को ही वास्तविक विधि माना तथा इसका अनुपालन किये जाने पर बल दिया। इस दृष्टि से यह कहना अनुचित न होगा कि विधिशास्त्र की विश्लेशणात्मक विचारधारा के वास्तविक प्रजनक बेन्थम थे कि न जॉन आस्टिन।

हॉलैण्ड ने विधिशास्त्र के उक्त वर्गीकरण की आलोचना करते हुए कहा है कि विधिशास्त्र को इस प्रकार विशेषणों सहित सम्बोधित करना उचित नहीं है। उनका मत है कि वर्तमान विधि में सुधार हो सके, इस दृष्टि से इसकी आलोचना करना विधिशास्त्र का कार्य क्षेत्र नहीं है वरन् यह विधायन (Legislation) का विषय है।

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र 

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र की संकल्पना अपेक्षाकृत आधुनिकतम है। इसका उद्भव उन्नीसवीं सदी में हुआ जब Human यह अनुभव करने लगा कि समाज के विकास के लिये उसे सामाजिक अनुशासन में रहकर आपसी सहयोग का मार्ग अपनाना नितान्त आवश्यक है। वर्तमान में मनुष्य के वैयक्तिक पक्ष के बजाय सामाजिक पक्ष पर अधिक जोर दिया जाने लगा है। विधि का सामाजिक परिवर्तनों से निकटतम सम्बन्ध होने के कारण वह Human के इस बदले हुए दृष्टिकोण से अप्रभावित हुए बिना न रह सका। फलत: विधिशास्त्र की Single नर्इ पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ जो समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र के नाम से विकसित हुर्इ। इसके अन्तर्गत विधि के सामाजिक पहलू पर अधिक जोर दिया गया है।

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र को ‘हितों का विधिशास्त्र (Jurisprudence of Interest) भी कहा गया है क्योंकि प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य यही है कि मनुष्य के हितों का संरक्षण And संवर्धन हो सके। विधि के प्रति इस दृष्टिकोण को अपनाने वाले विधिशास्त्रियों का विचार है कि Human के परस्पर विरोधी हितों में समन्वय स्थापित करना विधिशास्त्र का प्रमुख कार्य है। जर्मन विधिशास्त्री रूडोल्फ इहरिंग ने इस विचारधारा को अधिक विकसित Reseller है। उनके According विधि न तो स्वतंत्र Reseller से विकसित हुर्इ है और न वह राज्य की मनमानी देन ही है। वह विवेक (Reason) पर भी आधारित नहीं हैं बल्कि समीचीनता (Expediency) पर आधारित है क्योंकि इसका मूल उद्देश्य समाज के परस्पर विरोधी हितों में टकराव की स्थिति को समाप्त कर उनमें समन्वय और SingleResellerता स्थापित करना है।

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र के विधिशास्त्रियों के According न्यायालयों के लिये यह आवश्यक है कि विधि के अमूर्त और लेखबद्ध स्वReseller पर विशेष जोर न देकर उसके व्यावहारिक पहलू पर अधिक बल दें Meansात् वे उन सामाजिक Needओं और उद्देश्यों की जाँच करें जो सम्बन्धित कानून पारित होने के लिए कारणीभूत हुए हैं।

समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र को अमेरिका में प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ है। प्रसिद्ध अमेरिकी विधिशास्त्री डीन रास्को पाउण्ड ने तो विधिशास्त्र को ‘सामाजिक अभियन्त्रिकी’ (Social engineering) की संज्ञा दी है। इस विचारधारा के According विधिशास्त्र के अन्तर्गत मुख्यत: दो बातों का अध्ययन Reseller जाता है- (1) Human और उसके व्यवहारों पर विधि का क्या प्रभाव पड़ता है; तथा (2) Human के संव्यवहार विधि को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?

विधिशास्त्र के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाये जाने के फलस्वReseller अमेरिका में यथार्थवादी विचारधारा (Realist School) का प्रादुर्भाव हुआ जिसके अन्तर्गत विधि के क्रियात्मक पहलू को इतना अधिक महत्व दिया गया है कि इससे संहिताओं और अधिनियमों के अमूर्त नियमों तथा उनमें सन्निहित सिद्धान्तों का महत्व न्यूनप्राय हो गया।

विधि तथा विधिशास्त्र के प्रति प्रयोजनात्मक (Pragmatic) दृष्टिकोण अपनाते हुए यथार्थवादियों ने विधि को काल्पनिक सिद्धान्तों से उबारकर तथ्यों पर आधारित वास्तविक Reseller प्रदान Reseller और इस प्रकार विधि को सामाजिक समस्याओं को सुलझाने वाला Single क्रियात्मक साधन माना। इस विचारधारा के प्रबल समर्थक जेरोम फ्रैंक (Jerome Frank) का मानना था कि विधि की निश्चितता Single काल्पनिक तथ्य है क्योंकि विधि सदैव ही परिवर्तनषील होती है और इसीलिये विधि के संहिताकरण या पूर्व-निर्णयों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। फ्रेंक के According विधि के विकास का सामाजिक प्रगति से सीधा सम्बन्ध रहता है।

लेविलिन (Llewellyn) ने विधिशास्त्र को सामाजिक प्रगति का स्रोत मानते हुए उसके क्रियात्मक पहलू पर बल दिया गया है। उनके According विधिशास्त्री का यह कर्तव्य है कि वह विधि का अध्ययन और विश्लेशण सम-सामयिक सामाजिक समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में करें। विधि को सैद्धान्तिक दायरे से हटकर Human जीवन के व्यावहारिक पहलू से समस्याओं के निवारण में सहायक होना चाहिए।

आंग्ल विधिशास्त्र तथा महाद्वीपीय विधिशास्त्र 

सामंड ने आंग्ल विधिशास्त्र (English Jurisprudence) और महाद्वीपीय (अन्य यूरोपीय देशो के) विधिशास्त्र में विभेद करते हुए कहा है कि इन दोनों में अनेक समानतायें हैं। अंग्रेजी में ‘विधि’ Word का Means अन्य कुछ न होते हुए केवल कानून (Law) ही है परन्तु अन्य महाद्वीपीय देशों में इस Word का Means केवल कानून ही नहीं वरन् ‘औचित्य’ या ‘अधिकार’ या ‘न्याय’ भी है। परिणामत: आँग्ल विधिशास्त्र में ‘विधि’ तथा ‘अधिकार’ में अन्तर है। जबकि यूरोप के अन्य देशों में ‘विधि’ तथा ‘अधिकार’ में कोर्इ विभेद नहीं है। इसके अतिरिक्त आँग्ल विधिशास्त्र के दो मुख्य Reseller है- विश्लेशणात्मक And ऐतिहासिक विधिशास्त्र। परन्तु अन्य यूरोपीय देशों में विधिशास्त्र को केवल नैतिक Reseller ही प्राप्त है जो तर्क और विवेक पर आधारित है। इसी प्रकार महाद्वीपीय विधिशास्त्र (Continental Jurisprudence) विधि And न्याय को पृथक नहीं मानता है जब कि आँग्ल विधिशास्त्री इन दोनों Wordों को पृथक मानते हैं।

तुलनात्मक विधिशास्त्र 

अनेक विधिशास्त्रियों ने विधि के विभिन्न वर्गों के According विधिशास्त्र का विभाजन Reseller है। ऐलन (Allen) ने विधि को दो या अधिक पद्धतियों से तुलनात्मक अध्ययन करने को तुलनात्मक विधिशास्त्र कहा है। हॉलैण्ड (Holland) ने इस प्रकार के वर्गीकरण को अनावष्यक और व्यर्थ बताते हुए यह विचार व्यक्त Reseller है कि इसके विधिशास्त्र का क्षेत्र अनेक भागों में बँटकर सीमित हो जायेगा। तुलनात्मक विधिशास्त्र को विकसित करने का वास्तविक श्रेय दो सुविख्यात विधिशास्त्री काण्ट तथा स्टोरी को दिया जाना चाहिए। जिन्होंने इस बात पर जोर दिया कि विधायन और विधि में व्यावहारिक सुधार लाने में तुलनात्मक अध्ययन की अहम भूमिका रहती है। सामंड ने भी विभिन्न देशों की विधियों के गुण-दोशों के आधार पर स्वदेशीय विधि का तुलनात्मक मूल्यांकन किये जाने की Need प्रतिपादित की है लेकिन वे इसे (तुलनात्मक विधिशास्त्र को) विधिशास्त्र की Single स्वतंत्र शाखा के Reseller में मानने से इन्कार करते हैं। उनके According यह विधिशास्त्र के अध्ययन का Single तरीका मात्र है।

विधिशास्त्र के अध्ययन का महत्व 

सामण्ड के According विधिशास्त्र के अध्ययन की अपनी अभ्यान्तरिक रूचि है जिसके कारण इसकी तुलना किसी गंभीर ज्ञान की शाखा से की जा सकती है। वास्तव में अनुमान और सिद्धान्त का प्राकृतिक आकर्शण होता है। विधिषास्त्रिक अनुसंधान विधिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि विचारों को प्रभावित करते हैं अतएव विधिशास्त्र का अध्ययन महत्वपूर्ण है। विधिशास्त्र का अध्ययन Human के चिन्तन मनन की प्रखरता में वृद्धि करता है। डायस के According यह विधि-वेत्ता को सिद्धान्त और जीवन प्रकाष लाने का सुअवसर देता है क्योंकि यह सामाजिक विज्ञान के संबंध में Human विचारों पर विचार करता है। विधिक अवधारणाओं के तार्किक विश्लेशण से विधिवेत्ताओं की तार्किक पद्धति का विकास होता है। इससे विधिवेत्ता की व्यवसायिक प्राResellerवाद की बुरार्इ को दूर Reseller जा सकता है। डायस ने माना कि विधिशास्त्र विधि में जीवनदायी (Lifemanship) का विकास कर अध्येता में प्रतिभा निखार की अनुप्रेरणा देता है। जे0जी0 फिलीमोर (J.G. Phillimore) ने स्पष्ट Reseller है कि विधिशास्त्र का विज्ञान इतना उच्च स्तरीय है कि इसका ज्ञान इसके अध्येता को ज्ञानपूर्ण अवधारणाओं और मनोवेगों, जो Human परिस्थितियों में उत्पन्न All अपेक्षाओं में लागू हो सके, के साथ जीवन में प्रवेश कराता है। लास्की (Laski) ने विधिशास्त्र के महत्व का मूल्यांकन करते हुए इसे ‘विधि का नेत्र‘ कहा है। विधि की बढ़ती गुत्थियों And Human संबंधों की जटिलताओं के निराकरण का रास्ता विधिशास्त्र के अध्ययन में पाया जा सकता है। इसीलिए इसे विधि का व्याकरण माना गया है। अनिरूद्ध प्रसाद के According विधिशास्त्र का जागरूक अध्ययन सामाजिक समस्याओं के समाधान And न्याय की सार्थकता को अवश्यभावी करता है। वर्तमान जेल सुधार, कैदियों के साथ Humanीय व्यवहार की अपेक्षा, Human गरिमा के साथ जीने के अधिकार के साथ सोशल Single्शन लिटीगेशन तथा लोक हित वादों का अन्वेशण नवीन विधिशास्त्रीय दृष्टिकोण से ही उपजा है। इसी प्रकार पर्यावरण सुधार विधि, गरीबों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता आदि विधिशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों की अन्तर्विद्या ज्ञान के आदान-प्रदान तथा पारस्परिक प्रभावों की देन है। विधिशास्त्र विधि की विभिन्न शाखाओं की मूलभूत संकल्पनाओं के सैद्धान्तिक आधारों का ही ज्ञान नहीं कराता है बल्कि उनके अन्तर्सम्बन्धों का भी ज्ञान कराता है। विधिशास्त्र केवल विधिक प्रणाली के माध्यम से न्याय प्रशास्ति ही नहीं करता वरन् नवीन सिद्धान्तों, विचारों And अन्य मार्गों की खोज के माध्यम से न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में सहायक होता है।

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