लोकमत या जनमत निर्माण की विशेषताएं And सिद्धांत

जनमत से अभिप्राय समाज में प्रचलित उन विचारों या निर्णयों से है, जो लगभग निश्चित हैं, जिनमें स्थिरता है और जो समाज के Single बड़े वर्ग के लोगों में समान Reseller से स्थित होते हैं। जनमत सार्वजनिक समस्या से सम्बन्द्ध होता है। यह सामान्य जनता का मत होता है, किसी विशिष्ट व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों का नहीं। कभी-कभी ऐसे भी दिन आते हैं जब पंगु गिरि शिखर पर चढ़ जाते हैं और जो बोलने में असमर्थ होते हैं वे सिंह गर्जना करते हैं यह तब होता है जब लोकमत जाग उठता है। लोकमत में यह शक्ति है जो किसी भी निरीह, शोषित और उत्पीड़ित समुदाय को समय आने पर विद्रोह का ध्वजवाहक और क्रांति का उद्घोशक बना देती है। लोकमत या जनमत की परिभाषा और हमारे जीवन में इसके महत्व पर अनेक विद्धानों और मनीषियों ने अपने-अपने विचार प्रकट किये हैं, जो इस प्रकार है

  1. प्रसिद्ध अंग्रेज लेखक जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873) के According –‘‘जनमत के नाम पर, या कानून द्वारा स्थापित व्यवस्था के आधार पर, जनसाधारण से Single विशेष स्तर के व्यवहार और आचरण की अपेक्षा की जाती है। व्यवहार के यह मापदंड या तो स्वयं जनता तय करती है या समाज का सत्ताधारी वर्ग अपने प्रभाव से काम लेता है और उसका फैसला सम्बद्ध वर्गों की पसन्द और नापसन्द पर ही होता है, जिसे जनमत या लोकमत की संज्ञा दी जाती है।’’
  2. मैक्यावली (1469-1526) इटली में राजनीति के सिद्धान्तों के प्रसिद्ध व्याख्याता थे। उन्हें यूरोप का चाणक्य भी कहा जाता है। मैक्यावली ने लिखा है : ‘‘हम समझते है कि जब सरकारी नौकरियों या सार्वजनिक पदों पर Appointmentयों का प्रश्न विचाराधीन हो तो बुद्धिमता इसी में है कि जनमत को पूरी तरह ध्यान में रखा जाए क्योंकि जब जनता जागरूक होती है तो वह कोर्इ गलती नहीं होने देगी और अगर कोर्इ गलती हो भी जाए तो यह बिल्कुल नगण्य सी और क्षम्य भी होगी। जहाँ जनमत का सत्कार होता है, वहां किसी प्रकार की धांधली नहीं हो सकती।’’
  3. जेम्स ब्राइस (1838-1922) ने राजनीति के आधुनिक सिद्धान्तों का जो आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत Reseller है उसमें जनमत के बारे में उन्होंने लिखा है -’’Single समुदाय के सदस्य जनसाधारण के जीवन से सम्बन्ध रखने वाली समस्याओं पर जो भी विचार रखते है उन सबके सामूहिक Reseller को जनमत की संज्ञा दी जा सकती है। इसमें सब कुछ शामिल है विष्वास, रूढ़ियां, उपलब्धियां, आशाएं, आकांक्षाएं और सब प्रकार की कुण्ठाएं। ये विचार प्राय: अस्पष्ट, असंगत और अत्यन्त परिवर्तनशील होते हैं और इनका Reseller प्रतिदिन या प्रति सप्ताह बदलता रहता है।’’

‘‘लोकमत’’ की व्याख्या माक्र्सवादी अपने ढंग से करते हैं। उनके तर्क के अनसुर वे राजसत्ता यानी स्टेट को King वर्ग के हाथ की कठपतु ली मानते हैं उनका यह सिद्धान्त है कि किसी भी राजनीतिक -सामजिक ढांचे की बुनियाद वर्ग संघर्श पर टिकी होती है और राजसत्ता Meansात् हुकूमत तो King या शोषक वर्ग की ओर से व्यवस्था चलाने वाली कार्यकारिणी समिति होती है। अत: पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों या उनके प्रभाव में आए हुए लोगों के विचारों को ही ‘‘लोकमत’’ के Reseller में मान्यता दी जाती है। इस का Single कारण यह भी है कि पूंजीवाद में शिक्षा के संस्थानों, जन संचार के माध्यमों (प्रेस, रेडियो, टेलीविजन आदि) और सांस्कृतिक सुविधाओं पर साधन सम्पन्न लोग अपना अधिकार जमा लेते है साधनहीन और शोषित वर्ग को आत्माभिव्यक्ति के साधन उपलब्ध नहीं होते। यही अवस्था उन देशो या उपनिवेशो की जनता की भी है जो साम्राज्यवाद की गुलामी की शिकार है। वहां के लोगों की आवाज को दबा दिया जाता है और उनके नाम पर विदेशी King या उनके क्रीतदास जो कुछ कहें उसे लोकमत की संज्ञा दे दी जाती है। हर देश या काल में हर समय आप देखेंगे कि कुछ न कुछ विष्वास, सिद्धान्त व आदर्श प्रचलित रहते हैं। कर्इ प्रकार के द्वेश और पक्षपात या अन्य विकार हमारी चेतना को आन्दोलित करते रहते हैं। इन सब को उस देश और काल के प्रसंग According जनमत कहा जाता है।

जनमत की सृष्टि व्यक्तिगत इकार्इयों के आधार पर होती है। किसी व्यक्ति के विचारों का निर्माण उसके जन्मजात गुण-दोशों, सामाजिक परिस्थितियों, निजी योग्यताओं, सफलताओं-विफलताओं और आशाओं- -कुंठाओ के आधार पर होता है व्यक्ति का बौद्धिक विकास उसके परिवार, प्रशिक्षण, सामाजिक जीवन, धार्मिक विकास और जीवकोपार्जन के साधनों पर निर्भर है। इसलिए यह आवष्यक है कि प्रचार ऐसे ढंग से Reseller जाए जो विभिन्न रूचियों और स्वभाव रखने वाले व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर सके। जनमत निर्माण के लिए प्रचार वही सफल होता है जो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी रूचि और पसन्द को संतुष्ट करे। यही कारण है कि राजनीतिक पार्टियां चुनाव के समय अपने घोषणा-पत्रों में हर तरह के लोगों को हर तरह की चीजें कर दिखाने का वचन देती हैं।

जनमत की विशेषताएं

सन् 1971 के आरम्भ में भारत सरकार के सामने भूतपूर्व Kingओं के प्रिवीपर्स को समाप्त करने की समस्या आर्इ। देश की All पार्टियों ओर उनके घटकों ने इस प्रस्ताव के समर्थन या विरोध में विचार प्रकट किए। प्रचार द्वारा यह सम्भव हो गया कि देश के समस्त नागरिक इस प्रश्न पर अपना-अपना मत प्रकट करें। प्रिवीपर्स को हटाने का प्रस्ताव इतना महत्वपूर्ण और व्यापक था कि इस पर जनमत का सक्रिय और सचेत होना स्वाभाविक था। अन्त में संसद द्वारा प्रिवीपर्स हटाने का फैसला हो गया क्योंकि इस बात के पक्ष में को इतना सबल और सशक्त बहुमत था कि इस निर्णय को लागू न करना असम्भव था। Single उदाहरण के Reseller में कहा जा सकता है कि यह निर्णय जनमत की शक्ति का परिणाम था।

जनमत में होने वाले परिवर्तनों ने हमारे देश में 1977 और 1980 में दो बार केवल तीन साल के अन्तर में दो चमत्कार दिखाए। 1977 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी की जबरदस्त हार का कारण यही था। आपातकालीन नीतियों की वजह से जनता में उनके विरोध और असन्तोश की लहर दौड़ी हुर्इ थी। 1966-1977 तक पूरे ग्यारह वर्श सत्ता की बागडौर जिस नेता के हाथ में रही उसी को जनता ने मताधिकार का प्रयोग करके अपदस्थ कर दिया और सारे उत्तरी भारत में उनकी पार्टी का सफाया हो गया। लेकिन इसके केवल तीन साल बाद 1980 की स्थिति आ गर्इ जब मतदाताओं ने जनता पार्टी को दंडित कर दिया, क्योंकि उसके नेताओं ने अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं के लिए मतदाताओं से विश्वासघात Reseller था। इन्दिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बन गर्इं। Second Wordों में 1977 के 1980 में जनमत ने दो क्रांतियों को 1977 और 1980 में सफल करके दिखाया। 1984 में राजीव गांधी को विशाल और व्यापक जनमत प्राप्त हुआ और उन्हें प्रधानमंत्री निर्वाचित Reseller गया। यह भी जनमत की शक्ति का ही प्रमाण है। अन्यथा बहुत से दिग्गजों और महारथियों के मैदान में होते हुए भी राजीव गांधी के नाम पर ही सब की Agreeि होना किसी चमत्कार से कम नहीं था और यह इसलिए सम्भव हुआ क्योंकि देश की जनता चाहती थी कि इंदिरा गांधी का उत्तराधिकारी वही व्यक्ति बने जो उनकी नीतियों के According सरकार चलाए और जिस आदर्श के लिए उनका बलिदान हुआ था, वही विजयी हो। जनमत की कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं-

  1. जनमत समाज के मौलिक घटकों (व्यक्तियों) की प्रतिक्रियाओं का प्रस्तुतिकरण है। वयस्क मताधिकार परआधारित लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी सम्मति का Single समान मूल्य है।
  2. प्रचार के लिए आवश्यक है कि जनमत लिखित अथवा मौखिक Reseller या प्रतीकों द्वारा व्यक्त हो। अव्यक्त भावनाएं चाहे कितनी भी गहरी हों, जनमत के मूल्यांकन के लिए नगण्य हैं, क्योंकि उनके अस्तित्व को ही संदिग्ध माना जाता है।
  3. जिस प्रश्न या समस्या पर जनमत का अध्ययन अपंक्षित है वह इतना स्पष्ट और प्रत्यक्ष होना चाहिए कि सम्बद्ध वर्ग अथवा जनसमुदाय उसका अस्तित्व तुरन्त स्वीकार कर लें। उदाहरणार्थ, टैक्सों के बोझ को तो सब कोइर् मानते है लेकिन यह विशय इतना स्पष्ट नहीं। इसके विपरीत बिक्री या अल्प विशेष टैक्स हटाया जाना चाहिए या उसमें कटौती या वृद्धि होनी चाहिए, इस पर जो भी प्रतिक्रिया प्रकट होती है, वह जनमत की परिधि में आती है।
  4. जनमत का Reseller तभी स्पष्ट और ठोस होता है जब जनसमुदाय किसी प्रस्ताव को ‘‘हाँ’’ या ‘‘न’’ द्वारा स्वीकार करे या ठुकरा दे। नशाबन्दी के प्रश्न को लीजिए। वैसे तो सब कोइर् मानते हैं कि मदिरापान के दश्ु परिणाम क्या हो सकते है तो भी यही कहना पड़ता है कि इस प्रश्न पर हमारे देश में जनमत पर्याप्त Reseller से संगठित नहीं हुआ है क्योंकि नशाबन्दी को लागू करने के लिए अपेक्षित प्रयत्न नहीं किये जा रहे। इसके विपरीत परिस्थिति ऐसी हो गर्इ है कि मदिरापान को प्रोत्साहन मिल रहा है इसलिए यह कहना पड़ेगा कि नशाबन्दी के लिए देश का जनमत तैयार नहीं।
  5. लोकतंत्र में सबको विचारों की स्वतंत्रता होती है, इसलिए जो विचार किसी के मन में होता है वही जुबान पर या कलम की नोक पर आ जाता है। लेकिन कल्पना कीजिए उन दिनों की जब हमारे देश में विदेशी साम्राज्यवाद का बोलबाला था। हम अपने मन में तत्कालीन सरकार के बारे में जो कुछ सोचते-समझते थे, वह लिख या बोल नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में प्रापेगण्डा की सफलता इसी में थी कि लोगों की सच्ची भावनाओं को समझा जाए और उन्हें किसी न किसी तरह प्रकट Reseller जाए।
  6. जनमत के दो Reseller होते हैं -प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष Reseller में तो हमारा वह आचरण है, जब हम अनुभव करते हैं कि हमारी कथनी करनी को Second सब देख रहे हैं। इसलिए हम सोच-समझ कर किसी प्रश्न पर अपना मन प्रकट करते हैं। दूसरा अप्रत्यक्ष Reseller है- जब हम Singleदम अपने आप में ही कोर्इ अप्रत्यक्ष Reseller में विचार प्रकट करते हैं। यह भी आवश्यक नहीं कि हम किसी को बताएं कि हमने क्या सोचा है। लोक सम्पर्क में हम जनमत के प्रत्यक्ष Reseller पर ही प्रभाव डाल सकते हैं। लेकिन मानना पड़ेगा कि प्रचार के किसी भी अभियान में अप्रत्यक्ष Reseller की उपेक्षा नहीं की जा सकती। लोगों की पसन्द या नापसन्द के अप्रत्यक्ष Reseller के महत्व और प्रभाव को दुकानों पर बिक्री का काम करने वाले ‘‘सेल्समैन’’ अच्छी तरह जानते हैं और समझते है। कोर्इ भी माल खरीदने से First ग्राहक कुछ सोचता है या रूकता है।

तकनीकी भाषा में इसे उपभोक्ता प्रतिरोध कहते हैं। काउंटर पर ग्राहकों को माल दिखाते-दिखाते सेल्समैन अनुमान लगा लेते है ग्राहक की स्थिति कैसी है और वह कितनी कीमत दे सकता है। वह यह भी जान लेते हैं कि ग्राहक वास्तव में चाहता क्या है और कर्इ बार तो खरीददार को भी ठीक ठीक पता भी नहीं हेाता कि उसे क्या चाहिए। सेल्समैन उसके सामने कपड़े या दूसरा सामान जो भी उसे चाहिए दिखाना शुरू कर देता है और ग्राहक की प्रतिक्रिया पर ध्यान भी रखता है और उसकी मांग के बारे में पूछताछ भी करता रहता है। जैसे ही ग्राहक को आंखों में ‘‘पहचान’’ की थोड़ी भी चमक दिखार्इ दे, तो वह सौदा पक्का कर लेता है। इसे कहते हैं कि लोगों के अचेतमन तक पहैचुना। जनमत के इन दोनों Resellerों को समझ लेने में Single और लाभ है। साधारणतया अनुभव Reseller जाता है कि किसी भी महत्वपूर्ण समस्या पर हमारी सब से पहली स्वाभाविक प्रतिक्रिया प्राय: भावुकता प्रधान होती है। उसके बाद विवेक पैदा होता है। आदमी हानि-लाभ की बात सोचता है और फिर उसके आचरण में कुछ ठहराव और संयम आ जाता है। प्रचार के काम में इन दोनों, पहली और दूसरी प्रतिक्रियाओं का समझना आवश्यक है। कर्इ बार ऐसा भी होता है कि पहली प्रतिक्रिया के बाद जब हम दूसरी बार स्थिति पर विचार करते हैं तो उत्तजना अधिक हो जाती है। समस्या कैसी भी हो, प्रोपेगेण्डा में इन सब स्थितियों को समझना नितान्त अनिवार्य है।

जनमत निर्माण के सिद्धांत

जनमत निर्माण के लिए आवश्यक है कि Human व्यवहार के पेर्रक आरै आधारभूत तत्वों का अध्ययन Reseller जाए।
Human व्यवहार संसार का सबसे बड़ा रहस्य है। इससे बड़ी बिडम्बना क्या हो सकती है कि पिछली तीन शताब्दियों में भौतिक शक्तियों और पदाथोर्ं के नियंत्रण और नियमन में Human इतना विजयी हुआ है कि उसने चन्द्रमा पर भी अपने कदम रख दिए है Human की बनार्इ मशीनें लाखों प्रकाश वर्ष दूर स्थित सितारों की परिक्रमा करके और चन्द्रमा से चटनें उखाड़ कर धरती पर अपने निर्दिष्ट स्थल पर लौट आती हैं, किन्तु Human अभी अपने आचरण और व्यवहार पर नियमन नहीं कर सका है क्योंकि जो शक्तियां उसकी भावनाओं और वासनाओं को जगाती है उनके रहस्यों को Human अब भी पूरा-पूरा जान भी नहीं सका है। उन पर नियन्त्रण करना तो दूर की बात है। रूस के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार तुर्गनेव ने कहा भी था कि’’ Human मस्तिश्क किसी भी रहस्य का उद्घाटन कर सकता है, Human ने अन्तरिक्ष की ऊंचाइयों को माप लिया है और उसने Ultra siteमंडल तक अपनी जानकारी का विस्तार कर लिया है, लेकिन वह अपने आचरण को ही नहीं जान पाया है।

व्यक्तिगत Reseller से Human आचरण में सब प्रकार के गुण दोष की पराकाष्ठा देखी जा सकती है। अच्छे से अच्छे और बुरे से बुरे व्यक्ति Single ही परिवार घर या शहर में मिल सकते है सुनिश्चित Reseller से यह कहना कठिन है कि Single ही जलवायु और अन्न-भोजन का सेवन करने वाले दो व्यक्तियों में से Single अच्छा नागरिक आरै दूसरा अपराधी क्यों बन जाता है हम जब ‘राम’ का स्मरण करते है तो ‘रावण’ का जिक्र किए बिना नहीं रह सकते। इसी तरह कृष्ण और कंस, जीजस और जूडास, गांधी और गोडसे All दो परस्पर विरोधी शक्तियों के ऐसे प्रतीक थे जिनको Single Second का सामना करना पड़ा। तो इस प्रकार हम कह सकते हैं कि History में संघर्ष और अन्तर्द्वन्द्ध तो चलते ही रहते हैं।

जनसमुदाय की मनोदशा कितनी विलक्षण और चंचल होती है, इसका उदाहरण शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ‘‘जूलियस सीजर’’ के उस प्रसंग से मिलता है जहां First तो रोम की जनता जूलियस सीजर के हत्यारे बू्रटस और उसके शड्यन्त्रकारी साथियों से सहानुभूति प्रकट करती है, किन्तु जब बू्रटस का विरोधी मार्क एण्टनी मंच पर आकर अप्रत्यक्ष ढंग से जूलियस सीजर की श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उसके हत्यारों की प्रच्छन्न निन्दा करता है तो वही जन समुदाय उसी क्षण बू्रटस और उसके साथियों के रक्त का प्यासा बन जाता है और इतना उत्तेजित हो जाता है कि Single निरपराध व्यक्ति के टुकड़े-टुकड़े कर देता है क्योंकि उसका नाम भी शड़यन्त्रकारियों में से Single के साथ मिलता जुलता होता है। जनमत को रेखांकित करने के लिए विद्वानों ने कर्इ सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं

  1. यह जरूरी नहीं जो कुछ आप कहें सब सच्चार्इ ही सच्चार्इ हो। जरूरी तो यह है कि जनता को यह विश्वास हो जाए आप जो कछु कह रहे है वह सच है। यह बात बिल्कुल वैसी ही है जैसे अदालत में दोनों पक्षों के वकील अपनी-अपनी बात को सच्ची कहते हैं लेकिन फैसला उसी के हक में होता है जिसकी सच्चार्इ पर न्यायाधीश को विश्वास हो जाए।
  2. प्रोपेगण्डा में सफलता का पहला सोपान यह है कि वक्ता अपने श्रोताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करें ताकि वे उसकी बात सुनें। सार्वजनिक सभाओं में, जहां विरोधी भी मौजूद हों, अपना पक्ष प्रस्तुत करने में संकोच नहीं होना चाहिए। क्योंकि अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए ऐसे मौके बड़े उपयोगी होते हैं।
  3. अगर आप समझते हैं कि अधिक संख्या में श्रोता आपके विरोधी हैं, तो समझ-बूझ से काम लें। लोगों को बहला-फुसला कर उनका समर्थन प्राप्त करने की कोशिश करें। जहां तक हो सके उनसे टकराव या झगड़ा मोल न लें क्योंकि आपके भाषण के दौरान अगर कोर्इ गड़बड़ हुर्इ तो नुकसान आपका है, आप अपनी बात नहीं कह पाएंगे।
  4. प्रोपेगण्डा में भी Single यद्धु की तरह चालें चली जाती है जो भी Reseller जाए, शत्रु या विरोधी के लिए इतना अप्रत्याशित हो कि वह हैरानी या परेशानी में निष्क्रिय हो जाए।
  5. प्रोपेगण्डा चाहे लोकतंत्र का हो या अधिनायकवादी व्यवस्था का, उस का मूल मंत्र होता है जनता को अपेक्षित दिशा में प्रेरित करना। पेर्र णा तभी सफल होती है जब लोग यह विश्वास कर लें कि उन्हें वही कुछ करने के लिए कहा जा रहा है जो उनके मन की पुकार है। यह भी हो सकता है कि उन्हें ठीक-ठीक यह भी न पता हो कि वे क्या चाहते हैं। लेकिन जब पब्लिसिटी उनके सामने Single संदेश लेकर जाती है तो वे उसे स्वीकार कर लेते हैं क्योंकि उनका मन उसकी गवाही देने लगता है। जनता के साथ इस प्रकार का मानसिक तालमेल स्थापित करने के लिए मनोविज्ञान के व्यावसायिक अनुभव की कोर्इ विषेश Need नहीं। लोकसम्पर्क कर्ता यदि थोड़ी सी साधारण समझ बूझ से काम ले और र्इमानदारी के साथ लोगों की भावनाओं को समझने की कोशिश करे और परिश्रम से मुंह न मोड़े, तो सफलता दूर नहीं।
  6.  कर्इ बार ऐसा भी होता है कि विश्वविद्यालयों में छात्र और छात्राएं उत्तेजना में आकर खिड़कियों के शीषे तोड़ डालते हैं या कोर्इ और उपद्रव करते हैं। किसी को पता ही नहीं चलता कि ऐसा क्यों हुआ, या कोर्इ शिकायत भी होती है तो बिल्कुल मामूली-सी। जिस पर इतनी गड़बड़ का कोर्इ औचित्य नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति को निपटाने का Single तरीका तो यह है कि बल प्रयोग से छात्रों के इस दंगे फसाद को दबा दिया जाए। लेकिन ऐसा वही करते है जिनका दृृश्टिकोण संकुचित होता है या जो पुलिस की तकनीकों के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते। ‘‘लोक सम्पर्क में विश्वास रखने वाला कोर्इ भी व्यक्ति इस स्थिति को अपने ही तरीके से निपटायेगा। वह यह सोचेगा कि ये पढ़े लिखे युवाजन हंगामा करने और अपने अभिभावकों की कमार्इ बर्बाद करने के लिए तो विश्वविद्यालय में नहीं आते वह इस निष्कर्ष पर पहंचु ेगा कि यह दंगा फसाद तो Single बीमारी की निशानी है, जो बहुत गहरी है। अगर बीमारी का इलाज हो जाए तो यह निशानी यानी उपद्रव स्वत: ही बंद हो जाएगा।

प्रोपेगण्डा में दो अन्य मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का लाभ उठाया जाता है। Single है संयुक्तिकरण का जिसे अंग्रेजी में rationalization कहते है इसका मतलब है कि हम बहुत से फैसले तो अपने मन में छिपे हुए झुकावों के कारण First कर लेते हैं और फिर प्रकट करते समय या उनको कार्य Reseller देते हुए उनके समर्थन में युक्तियां तलाश कर लेते है शादी ब्याह से लेकर चुनावों में मत देने तक के फैसले अक्सर हम अपने मन की गहराइयों से निकली पेर्र णाओं से प्रभावित होकर First कर लेते हैं, इसके बाद अपने फैसलों को सिद्धान्तों, आदर्शो और नैतिक मूल्यों या सांस्कृतिक अभिरूचियों के आधार पर युक्तियुक्त सिद्ध करते हैं। प्रोपेगण्डा में सफलता उसी को मिलती है जो जनता के अवचेतन मन की छिपी पे्ररणाओं का लाभ उठा सके।

इसी सन्दर्भ में दूसरा सिद्धान्त है- पसंद या नापसंद के मूल Resellerों का। कम्युनिस्ट विचारों के लोगों में ‘‘बुर्जुआ’’ कल्चर को बुरा समझा जाता है। इसलिए अगर कोर्इ कम्युनिस्ट अपने किसी विरोधी को ‘‘बुर्जआ’’ या पूंजीवादियों का एजेंट कह दे तो उस व्यक्ति के प्रति कम्युनिस्ट लोगों के मन में गलत छवि बन जायेगी। इसका कारण यह है कि All लोगों ने अपने मन में अच्छार्इ या बुरार्इ की धारणाएं स्थिर कर ली हैं। हमारे मन में जो मूल Reseller से स्थिर हो जाए, उनको हम आसानी से छोड़ नहीं सकते, और हमारे लिये यह बहुत मुष्किल है कि प्रत्येक फैसला करने से First हम मामले की गहरार्इ में जाएं। जो कुछ हमारी पसंद की कल्पना में ठीक उतरेगा, हम तुरंत उसे अपना लेंगे या इसके विपरीत उसे नकार देंगे। इसलिए किसी के विरोध या समर्थन का प्रोपेगण्डा खुले तौर पर या तो बढ़ा चढ़ा कर तारीफ करने से होता है या कड़वे कटाक्षों से, क्योंकि साधारण जनता अपनी पसंद या नापसंद के मुताविक इधर या उधर की अपनी राय बना लेती है- तर्क की गहरार्इयों में जाने के लिए न तो जनसाधारण में सामथ्र्य होती है और न ही कोर्इ सुविधाएं।

हम अपने विचारों या अपनी राय की उन मूल्यों के आधार पर Creation करते हैं, जो धर्म या संस्कृति ने हमें दिए हों। धर्म या राजनीति या अन्य किसी प्रतिबद्धता को लेकर ही उन मानदंडों का सृजन होता है जो हमें किसी स्थिति को स्वीकारने या नकारने के लिए मजबूर करते हैं। धर्म हमें ‘‘Seven्विकता’’ और ‘‘तामसिकता’’ में भेद करना सिखाता है। पाप और पुण्य के मानदण्डों का प्रयोग करके भी विवाद और टकराव की स्थिति में यह निष्चय Reseller जाता है कि दो परस्पर विरोधी पक्षों में हम किसका समर्थन करें या किसका विरोध। ऐसे मामले में हर कोर्इ विवादग्रस्त प्रष्नों की तह में नहीं जाता। केवल Single संकेत की जरूरत होती है कि उस का धर्म या उसके सिद्धान्त उससे किस किस्म के आचरण की अपेक्षा करते है जनसाधारण या तो ‘‘पाप’’ समझता है या ‘‘पुण्य’’। दोनों के बीच क्या है, यह वह नहीं जानता। इसलिए जनता से जो अपील की जाती है वह सीधी और स्पष्ट होनी चाहिए। ढुलमुल नीतियां जो न इधर की हों और न उधर की, जनता को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकतीं।

उपरोक्त सिद्धान्तों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट है कि जनता से जनमत हासिल करने के लिए जनता से लोकसम्पर्क बड़ी स्पष्टता से Reseller जाना चाहिए। लोकसम्पर्क उद्देश्यपरक होना चाहिए, सहनशीलता और सरलता से Reseller जाना चाहिए।

जनमत की प्रभावोत्पादकता

लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में पक्ष-विपक्ष के समर्थकों या इसके विरोधियों की तुलनात्मक गिनती को ही निर्णायक माना जाता है। इसलिए यह विश्वास बन गया है कि जिस पक्ष को बहुमत का समर्थन प्राप्त हो जाए, वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाता है, किन्तु History साक्षी है कि समाज में जितने भी बड़े-बड़े निर्णय हुए या क्रांतियां हुर्इं, उनके प्रवर्तक प्राय: बहुत थोड़े लोग थे। इसका कारण स्पष्ट है। मात्र विचार रखना Single बात है उसके लिए कुछ कर गुजरना कुछ और। फिर यह भी महत्वपूर्ण होता है कि इस मामले में हमारा विश्वास कितना दृढ़ है, हम अपने पक्ष को कहाँ तक समझते हैं और हम उसके लिए कितने समर्थकों को सक्रिय कर पाते हैं।

जनमत के विश्लेषण में यह अवश्य देखा जाता है कि अपनी बात को मनवाने के लिए व्यक्ति या समुदाय की भावना कितनी प्रबल, गहरी, सशक्त अथवा सक्षम है। यदि इसके लिये कोर्इ आन्दोलन या संघर्ष करना पड़े तो उसके लिये वह कहां तक तैयार है। यही कारण है कि संगठन और चेतना के अभाव में अनेक बार समाज सुधार के लिये उठाए गये महत्वपूर्ण कदम भी धरे के धरे रह जाते हैं।

भारत में अस्पृष्यता निवारण कानून लागू है। किसी के साथ छुआछूत का बर्ताव करना अपराध घोशित Reseller जा चुका है। फिर भी हम विश्वास पूर्वक नहीं कह सकते कि अस्पृश्यता के अभिशाप से हमारा समाज सर्वथा उन्मुक्त हो चुका है। जब हम देखते हैं कि प्राय: सब भारतवासी छुआछूत को खत्म करना चाहते हैं तो यह विडम्बना भी दिखार्इ देती है कि लोकमत इतना अनुकूल होते हुए भी हम इस कुरीति को पूरी तरह समाप्त नहीं कर पाए हैं। यह स्थिति इसलिए है कि हमारे देशवासियों ने अस्पृश्यता निवारण के सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए भी इस सिद्धान्त के According क्रियात्मक Reseller से कुछ करने का पूरा-पूरा साहस नहीं दिखाया है।

जनमत में प्रभावोत्पादकता लाने के लिए यह आवश्यक है कि किसी मांग को पेश करने वाले पर्याप्त संख्या में होने चाहिए और उनका विश्वास अडिग और अचल हो। इसके साथ-साथ वह अपनी मांग को पूरी कराने के लिए अपेक्षित आन्दोलन करने के लिए भी तैयार हों। इस आन्दोलन को चलाने के लिए किसी संगठन, दल या पार्टी का होना भी आवश्यक है। कोर्इ भी दल, नेता या नेताओं के बिना खड़ा नहीं हो सकता क्योंकि प्रभाव रखने वाले सुयोग्य व्यक्ति ही किसी कार्यक्रम को सफल बना सकते हैं। नेताओं और उनके अनुगामियों के बीच परस्पर विश्वास और तालमेल भी पूरा-पूरा होना चाहिए, क्योंकि इससे दोनों पक्षों को बल मिलता रहता है। नेता की शक्ति अपने अनुगामियों द्वारा निरन्तर समर्थन प्राप्त करते रहने से बढ़ती है, और जनता भी नेताओं को अपने बीच काम करते देख उत्तरोत्तर उत्साहित होती है। अधिकारपूर्वक तो यह नहीं कहा जा सकता कि जनमत द्वारा स्वीकृत कोर्इ कार्यक्रम सफल होगा कि नहीं, अथवा उसे सफल होने में कितना समय लगेगा क्योंकि जनमत विज्ञान अन्य विज्ञानों जैसे गणित, भौतिकी आदि के समान यथातथ्य विज्ञान नहीं है। यह तो राजनीति या Meansशास्त्र की तरह आकर्षक विज्ञान है।

महात्मा गांधी द्वारा जनमत निर्माण

महात्मा गांधी ने भारत का ही नहीं पूरे विश्व का लोकमत हासिल Reseller और यही बात है कि आज भी बापू को पूरे विश्व में अहिंसा के पुजारी व Single आदर्श जननेता के Reseller में पूजा जाता है। इस पृष्ठभूमि में लोकमत निर्माण कला के सिद्धान्तों के क्रियात्मक प्रयोग को भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनाए गए प्रचार-साधनों के विश्लेषण से आसानी से समझा जा सकता है। महात्मा गांधी और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक आदि महान नेताओं ने राष्ट्रीय संग्राम के लिए जनता का आह्वान Reseller। वे लोकसम्पर्क शास्त्र के विषेशज्ञ तो नहीं थे और न ही लोकसम्पर्क इनका व्यवसाय या पेशा था। फिर भी जिस कार्यकुशलता से उन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष Reseller से व्यवहारवादी मनोविज्ञान की उपर्युक्त मान्यताओं का उपयोग Reseller, उसका प्रमाण राष्ट्रीय आन्दोलन की सफलता से मिलता है।

सामाजिक जीवन के विभिन्न प्रेरक तत्वों के अध्ययन और विश्लेषण से इस बात का अनुमान लग सकता है कि जनसमुदाय का झुकाव किस ओर है और सामाजिक जीवन की धारा किस ओर बह रही है। इस प्रकार नए आदर्शों और सिद्धान्तों का निर्माण होता है। ‘‘समाजवाद’’ का आदर्श भी इसी तरह उभरा और फिर इसे प्राप्त करने के लिए जन-आन्दोलनों का सृजन और संगठन हुआ। प्रत्येक आन्दोलन का अपना-अपना कार्यक्रम होता है और उसे सामुहिक Reseller देने के लिए नारा दिया जाता है। जैसे विश्वव्यापी मजदूर आन्दोलन ने ‘‘सारी दुनिया के मजदूरों Single हो जाओ’’ का नारा दिया। इसी नारे का प्रतीक बना दरांती और हथौड़े वाला लाल झंडा। इस सन्दर्भ में भारत के स्वतंत्रता संग्राम का History भी अप्रासंगिक नहीं होगा। राष्ट्रीय स्वतंत्रता बापू का ध्येय था। उनका यह विश्वास था कि जब तक राष्ट्र ब्रिटिश साम्राज्य की दासता से मुक्त नहीं होता, देश का राजनीतिक और सामाजिक विकास अवरूद्ध रहेगा। उन्होंने अहिंसा और सत्य के आदर्शों के According सामूहिक And वैयक्तिक सत्याग्रह और Creationत्मक सेवाओं को राष्ट्र जागरण का कार्यक्रम बनाया। ‘‘करो या मरो’’ का मंत्र गांधी जी ने सन् 1942 के ‘‘भारत छोड़ो’’ आन्दोलन में दिया था। यह नारा अखिल Indian Customer कांग्रेस समिति की उस बैठक में दिया गया था जिसमें ‘‘भारत छोड़ो’’ प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था। यह घटना 8 अगस्त 1942 की रात की है। इसके Seven घंटे बाद यानी 9 अगस्त 1942 को प्रात: ही गांधी जी व अन्य राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ्तारियां हो गर्इ और ‘‘भारत छोड़ो’’ आन्दोलन शुरू हो गया।

बापू ने न नारे ही नहीं दिये, अपितु तिरंगा झंडा भी देश को दिया जो स्वतंत्रता के प्रति हमारी निष्ठा का प्रतीक बन गया। राष्ट्रीय ध्वज को अपना लेने के पष्चात् हमारा स्वतंत्रता आन्दोलन स्पष्ट और सुनिश्चित Reseller धारण कर गया। बापू ने खादी और चरखे को Indian Customer ग्रामों के पुनर्जागरण और पुनरूद्धार का प्रतीक बनाया। गांधी टोपी और खादी का परिधान स्वतंत्रता समर का सिपाही होने की निशानी बन गया। गांधी टोपी और खद्दरधारी हर व्यक्ति को बापू के आदर्शों का प्रचारक और संदेशवाहक माना जाता था। चाहे वह मुख से Single Word भी न निकाले। खद्दरधारी स्वयंसेवक जब ‘‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा’’ गाकर झण्डे का अभिवादन करते थे तो बिना किसी विशेष प्रयास के राष्ट्रीय जागरण का संदेश घर-घर पहंचु जाता था और लोग धड़ाधड़ आन्दोलन में सम्मिलित होने लगते थे। गांधी जी के पास ऐसे विचार थे, ऐसे सिद्धान्त थे जो लोगों को उनके साथ जुड़ने को मजबूर कर देते थे। यही उनका लोकमत अथवा जनमत निर्माण का Single तरीका था जिसने उन्हें Single आन्दोलनकारी से राष्ट्रपिता बना दिया।

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