प्रबंध की संकल्पना And संCreation

बहुधा प्रबन्ध Word का प्रयोग सुव्यवस्थित, सुसंगठित तथा क्रमबद्ध Reseller से कार्यों के सम्पन्न होने के लिए Reseller जाता है। Second Wordों में, कम्पनियों का संचालन करने वाले व्यक्तियों के संदर्भ में भी इसका प्रयोग करते हैं। इन कम्पनियों के संचालन हेतु व्यवसायिक Reseller से प्रशिक्षित प्रबंधकों की Need होती है। इन प्रबन्धकों की सफलता उनके प्रबंधकीय ज्ञान सिद्धान्त तथा उसके कुशल And सुव्यवस्थित उपयोग पर आधारित होती है।

प्रबंध की संकल्पना 

यू तो प्रबंध की संकल्पना उतनी ही प्राचीन होती है जितनी कि Human सभ्यता। आदि काल से ही Human समूहों में रहता था और जीवन यापन हेतु कार्यों का बंटवारा भी होता था। जीवन के प्रत्येक स्तर पर प्रबंध की संकल्पना का प्रयोग Reseller जाता है किन्तु हमें प्रबंध को व्यवसाय की दृष्टि से समझना और विश्लेषित करना है। अत: प्रबन्ध के ज्ञान से First आइये जाने व्यवसाय क्या होता है।

प्रबंध

व्यवसाय का Means उन क्रियाओं से है जिनके द्वारा जीवन यापन होता है। प्राय: यह आर्थिक क्रियाओं की ओर संकेत करता है। चित्र 1. व्यवसाय को और विस्तृत करने का Single प्रयास है जिसके अन्र्तगत व्यापार, वाणिज्य सहायक उद्योग, प्रत्यक्ष सेवाएं व उनकी उप क्रियाओं आदि का समावेश Reseller जाता है जिनसे उपभोक्ताओं की संतुष्टि होती है साथ ही साथ व्यावसायिक Needओं की भी पूर्ति सम्भव हो पाती है।
अग्रलिखित विशेषताओं से व्यापार की प्रकृति को विश्लेषित Reseller जा सकता है :

  1. व्यवसाय Single आर्थिक क्रिया है।
  2. व्यवसाय के लिए लेन-देन में नियम व निरंतरता आवश्यक है।
  3. व्यवसाय साहस And जोखिम का कार्य है, इसमें लाभ व हानि दोनों सम्भव है।
  4. पूंजी व्यवसाय का आधारभूत तत्व है।
  5. व्यवसाय में व्यापार, उद्योग तथा सहायक सेवाओं से सम्बन्धित क्रियायें सम्मिलित की जाती हैं।
  6. व्यवसाय Single सामाजिक संस्था है जो समाज की Needओं की पूर्ति हेतु समाज में ही उपलब्ध संसाधनों द्वारा उत्पादों , सेवाओं व सूचनाओं को उपलब्ध कराने का कार्य करता है।
  7. व्यवसाय Single प्राणी है जिसके अनेक उप-तंत्र होते हैं जैसे- उत्पादन, वित्त, कार्मिक, विपणन आदि।
  8. व्यवसाय समाज के आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक व तकनीकी पर्यावरण व्यापार को प्रभावित करता है।
  9. सरकार को समाज के कल्याणार्थ व्यापार का नियमन व नियंत्रण करना होता है।

इस प्रकार व्यवसाय से आशय उन आर्थिक क्रियाओं से है जो सामाजिक Needओं की पूर्ति हेतु हम उत्पादों, सेवाओं व सूचनाओं को उपभोक्ताओं तक पहुंचाती हैं And जिनका प्रारम्भिक उद्देश्य व्यवसायी व उपभोक्ता दोनों को लाभ पहुॅंचाना है। संक्षेप में, प्रशासन नीतियों के निर्धारण का कार्य है, जिनके आधार पर उपक्रम का संचालन Reseller जाता है। आइये अब प्रबन्ध को व्यवसायिक Meansों में समझने का प्रयास करते हैं।

‘प्रबन्ध’ से आशय कर्मचारियों के उस समूह से है जो व्यापार के निर्धारित उद्देश्यों And नीतियों के क्रियान्वयन हेतु उत्तरदायी होता है। जो व्यक्ति इस कार्य को करते हैं उन्हें ‘प्रबन्धक’ कहते हैं। प्रबन्ध, वास्तव में Single सामाजिक प्रक्रिया होती है। जिसके द्वारा किसी संस्था के उपलब्ध संसाधनों तथा कर्मचारियों के प्रयासों में इस प्रकार समन्वय स्थापित Reseller जाता है जिससे संस्था के लक्ष्यों को सुव्यवस्थित, सुसंगठित दक्षतापूर्ण And प्रभावी ढंग से सम्पन्न Reseller जा सके।

इस प्रक्रिया के महत्वपूर्ण अंग हैं – नियोजन, संगठन, अभिप्रेरण तथा नियंत्रण। इस प्रकार प्रबन्ध उद्योग की वह शक्ति है जो नियम सीमाओं के अन्तर्गत नीतियों के क्रियान्वयन तथा लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संगठन का उपयोग करती है। व्यापक दृष्टि से प्रबन्ध हमारी Meansव्यवस्था को आकार प्रदान करता है और सुयोग्य कर्मचारियायें की Appointment के द्वारा अधिकतम लाभ प्रदान करता है। वस्तुत: प्रभावी प्रबंध से ही सफलता की अपेक्षा की जा सकती है। प्रबन्ध आर्थिक व सामाजिक विकास की धुरी है। यह वह शक्ति है जो मिट्टी को सोना बना सकता है। यह वह संजीवनी है जिसका प्रयोग समाज की समस्त समस्याओं के लिए समान Reseller से उपयोगी व कारगर सिद्ध हो सकती है।

प्रबन्ध की विशेषताएँ 

  1. प्रबन्ध विविध विषयों द्वारा विकसित ज्ञान तथा अवधारणाओं के समन्वय And व्यवहार की कला व विज्ञान है।
  2. प्रबन्ध व्यक्ति नहीं, वरन् Single प्रक्रिया है जिसके अंग हैं, नियोजन, संगठन, अभिप्रेरण व नियंत्रण ।
  3. प्रबन्ध के पूर्व निर्धारित कुछ लक्ष्य व उद्देश्य होते हैं।
  4. अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए प्रबंध संगठन का उपयोग करता है।
  5. प्रबन्ध Single गतिशील व परिवर्तनशील सामाजिक प्रक्रिया है जो समूहों के प्रयास से सम्बन्धित है।
  6. प्रबन्ध में काम करने के लिए पदानुक्रम व्यवस्था बनार्इ जाती है जिसके According कुछ अधिकारी व अधीनस्थ होते हैं। ऐसी व्यवस्था संगठन के अनेक स्तरों पर बनार्इ जा सकती है।
  7. सुचारू प्रबन्ध हेतु अधिकारी का प्रत्यायोजन Reseller जाता है तथा आदेश प्रसारित किए जाते हैं।
  8. प्रबन्ध प्रत्येक संस्था का अनिवार्य अंग होता है क्योंकि वह साधनों की प्रभावशीलता And दक्षता को बढ़ाकर अधिकाधिक उत्पादकता का सृजन करने में योगदान देता है।

प्रबन्ध कर्मचारियों को नेतृत्व देने का प्रयास करता है तथा उन्हें सुव्यवस्थित, सुसंगठित तथा क्रमबद्ध Reseller से कार्य सम्पन्न करने के लिए अभिप्रेरित करने का प्रयास करता है। संकुचित Means में प्रबन्ध अन्य व्यक्तियों से कार्य कराने की युक्ति से है। इस प्रकार जो अन्य व्यक्तियों से काम कराने की क्षमता रखते हैं, उन्हें ‘प्रबंधक’ की संज्ञा दी जाती है। व्यापक Means में प्रबन्ध Single कला And विज्ञान है जो पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उत्पादन के विभिन्न घटकों में समन्वय स्थापित करता है। इस दृष्टि से यह स्वयं उत्पादन का Single महत्वपूर्ण घटक है।

उत्पादन के विभिन्न साधनों में भूमि, पूॅंजी व मशीन गैर-Humanीय साधन हैं, जबकि श्रम, साहस व प्रबन्ध Humanीय साधन हैं। उत्पादन के ये All साधन अपने अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं,किन्तु ‘प्रबन्ध’ इसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह वो आर्थिक साधन है जो उत्पादन के साधनों को Singleत्र करता है, नियोजन करता है, संस्था में संगठनात्मक भावना का संचार करता है, व्यावसायिक क्रियाओं का निर्देशन संचालन व समन्वय स्थापित करता है तथा समस्त क्रियाओं पर नियंत्रण रखता है। संक्षेप में, ‘प्रबन्ध Single कला And विज्ञान है जो Single संस्था के पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्तियों के व्यक्तिगत व सामूहिक प्रयासों के नियोजन, संगठन, निर्देशन, समन्वय And नियंत्रण से सम्बन्धित होता है।

प्रबंध की कोर्इ ऐसी परिभाषा नहीं दी जा सकती जो सर्वमान्य हों। प्रबन्ध गुरूओं ने अपने अपने ढंग से इसकी अवधारणाएं दी हैं। प्रबन्ध की अवधारणा उस लघु कथा के समान है जिसमें अन्धे व्यक्तियों ने Single हाथी को पकड़ लिया और जिसके हाथ में उसका जो अंग आया उसी के अनुReseller वह हाथी के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करने लगे। हाथी की पूंछ पकड़ने वाले ने गजराज को सॉंप, पॉंव पकड़ने वाले ने खम्भा, सूॅंड पकड़ने वाले ने बांस, कान पकड़ने वाले ने सूप और जिसका हाथ पेट पर पड़ा, उसने उसे मूशक जैसा बताया। इसी प्रकार विभिन्न विद्वानों ने प्रबंध को जिस Reseller में समझा उन्होंने उसी के समान उसकी अवधारणा प्रकट की। इस प्रकार अनायास ही प्रबन्ध की अनेक अवधारणाएं विकसित हो गर्इ हैं । उनमें से कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाएं इस प्रकार हैं।

1. प्रक्रिया विचारधारा 

इस विचारधारा में प्रबंध की परिभाषा का आधार प्रबंधकों के कार्यों से है जिसे प्रबंधक समेकित Reseller से संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु कार्य करता है। इस विचारधारा के प्रमुख तत्व में पूर्वानुमान व नियोजन, संगठन, आदेश, संयोजन और नियंत्रण आदि आते हैं।नीचे अंकित चित्र 1.2 प्रबंध की इस अवधारणा को और स्पष्ट करेगा।

प्रबंध

प्रबंधक प्रबन्धक प्रबन्धक अभिप्रेरण नियंत्रण समुदाय की सन्तुष्टि हेतु श्रेष्ठम व कुशलतम उपयोग के लिए निम्न साधनों का प्रयोग करना है। Human माल मशीन विधि मुद्रा जिससे प्राप्त होते हैं निर्धारित लक्ष्य उपरोक्त चित्र को ऊपर से नीचे की ओर व्याख्या करने से यह ज्ञात होता है कि ‘‘प्रबन्ध, वास्तव में Single प्रक्रिया है । नियोजन, संगठन, अभिप्रेरण, तथा नियंत्रण जिसके आधारभूत अंग हैं तथा जो समुदाय को अधिकतम संतुष्टि प्रदान करने हेतु Human, माल, मशीन, विधि व मुद्रा जैसे संसाधनों का प्रयोग करता है तथा पूर्व निर्धारित उद्देश्यो को प्राप्त करने का प्रयास करता है।

जिस प्रकार कप्तान के अभाव में Single क्रिकेट टीम इधर-उधर भटक सकती है। उसी प्रकार प्रबंध के अभाव में समुदाय के समस्त प्रयास निरर्थक हो सकते हैं प्रत्येक सामुदायिक प्रक्रिया में श्रमिक वर्ग टीम के खिलाड़ी और प्रबंध वर्ग उसका कप्तान की भॉंति होते हैं।

2. Human प्रधान अवधारणा 

इसके According 20वीं शताब्दी के Fourth दशक में समाजशास्त्रियों व मनोवैज्ञानिकों के दबाव के कारण इस अवधारणा का विकास माना जाता है। इसके According प्रबंध दूसरों से कार्य कराने की कला व विज्ञान है। इस अवधारणा के समर्थक यह मानते हैं कि Human का विकास करके ही संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त Reseller जा सकता है। इस विचारधारा में संगठन के Humanीय पहलू पर बल दिया गया है, चूॅंकि प्रबंधकीय कार्य Humanीय संबंधों पर आधारित है इसलिए प्रबंध Single सामाजिक प्रणाली है। प्रबंध केवल संगठन को दिशा प्रदान करने के लिए ही नहीं है। यह Human के विकास के लिए भी उत्तरदायी है। संक्षेप में, प्रबंध की यह अवधारणा यह स्वीकार करती है कि न्यूनतम लागत और प्रयासों से संस्था के लक्ष्यों को तभी प्राप्त Reseller जा सकता है जबकि प्रबन्ध अपने कर्मचारियों का विधिवत विकास करें।

वस्तुत: मनुष्य का व्यक्तित्व Single अविकसित पुष्प की भांति होता है। जिसे प्रबन्ध के द्वारा ही पल्लवित Reseller जा सकता है। जिस प्रकार Single कुशल माली अपनी वाटिका के वृक्षों के खाद-पानी And प्रकाश की उत्तम व्यवस्था करके वृक्षों के लिए Safty करता है उसी प्रकार Single कारखाने में प्रबन्ध Resellerी माली व्यवसायिक पर्यावरण को विकसित करके उपभोक्ताओं को सुख, शान्ति And संतोष प्रदान कर सकता है। इसमें कारखानें तथा उद्योग का विहित भी छिपा रहता है। इसी तथ्य के आधार पर Single बार अमरीकन कारपोरेशन के अध्यक्ष ने अपने कर्तव्यों को स्पष्ट करते हुए कहा था, ‘‘हम मोटर, हवार्इ जहाज, फ्रिज, रेडियो या जूते के फीते का निर्माण नहीं करते बल्कि हम बनाते हैं मनुष्य और इन मनुष्य उत्पादों का निर्माण करते हैं।’’ यह कथन सुस्पष्ट करता है कि ‘प्रबन्ध मनुष्यों का विकास है न कि उत्पादों का निर्देशन ।’’

3. निर्णयन विचारधारा 

इस विचारधारा के According प्रबंध नियम बनाने तथा उनका अनुपालन कराने वाली संस्था है। प्रबंधक जो भी कार्य करता है निर्णय उसका आधार होता है। Single प्रबंधक का अधिकतर समय निरंतर निर्णय लेने में ही व्यतीत होता है। निर्णय लेने की क्षमता ही संगठन को उत्पादनशील And प्रभावी बनाने की गतिशील शक्ति है। अत: प्रबन्धक अच्छे निर्णयों के द्वारा ही न्यूनतम लागत सुव्यवस्थित तथा प्रयासों से उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार प्रबन्ध की सफलता हेतु श्रेष्ठ निर्णयन परमावश्यक है।

4. वैज्ञानिक प्रबंध की अवधारणा 

इस अवधारणा का जन्म 20वीं शताब्दी में एफ. डब्ल्यू. टेलर द्वारा हुआ था। आपके According, प्रबंध से तात्पर्य काम करने की सर्वोत्तम विधि खोजना तथा न्यूनतम लागत And प्रयासों से अधिकतम उत्पादन करना है। इस विचारधारा के According प्रत्येक कार्य को करने की Single सर्वोत्तम विधि होती है, जिसे ‘वैज्ञानिक विधि’ की संज्ञा दी जा सकती है। प्रबन्ध की इस अवधारणा के उत्थान का कारण तत्कालीन परिस्थितियॉं भी थीं । उस समय औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वReseller न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन करना Single चुनौती था। फलत: लोग प्रबन्ध कार्य को उसी Reseller में समझने व अनुभव करने लगें। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि कार्य निष्पादन का आवश्यक मार्ग खोजना ही प्रबंध कहलाता हैं

इस विचारधारा के According संगठन की तुलना Single जीवित प्रणाली से की गर्इ है। संगठन को अपने अस्तित्व And विकास के लिए वातावरण के अनुकूल कार्य करते रहना चाहिए। प्रबंध का प्रमुख कार्य संगठन को परिवर्तनशील बाजार, तकनीक तथा अन्य परिस्थितियों के अनुकूल बनाना है। प्रबंधकों से संगठन के विभिन्न सदस्यों के अंतर्विरोधी उद्देश्यों, लक्ष्यों And गतिविधियों में संतुलन स्थापित करने की अपेक्षा की जाती है। अत: प्रबंधक को विद्यमान परिस्थितियों को ध्यान में रखकर संगठन के लक्ष्यों का निर्धारण तथा नीति निर्माण का कार्य करना चाहिए। उपरोक्त विचारधाराओं के समग्र अवलोकन के पश्चात आइये प्रबंध की कुछ महत्वपूर्ण And प्रासंगिक परिभाषाओं के आत्मSeven करने का प्रयास करें-

1. एफ. डब्ल्यू. टेलर जिन्हें प्रबन्ध विज्ञान का जनक भी कहा जाता है, के According ‘‘प्रबन्ध यह जानने की कला है कि क्या करना है तथा उसे करने का सर्वोत्तम And सुलभ तरीका क्या है।’’ यह परिभाषा प्रबन्ध के तीन तत्वों पर प्रकाश डालती है-

  1. प्रबन्ध Single कला है यह कला सामान्य ज्ञान और विश्लेषण ज्ञान से युक्त है।
  2. प्रबन्ध किये जाने वाले कार्यों का पूर्व चिन्तन व निर्धारण है। 
  3. यह कार्य निष्पादन की श्रेष्ठतम And मितव्ययितापूर्ण विधि की खोज करता है। 

उनके According कार्य को करने से First जानने तथा बाद में उसे भली प्रकार न्यूनतम लागत पर सम्पन्न करने की कला ही प्रबंध है। इस परिभाषा का नकारात्मक पक्ष यह है कि यह Humanीय पक्ष की घोर उपेक्षा करता है And शोषण को बढ़ावा देता है।

2. हेनरी फेयोल की दृष्टि से, ‘‘प्रबन्ध से आशय पूर्वानुमान लगाने And योजना बना संगठन की व्यवस्था करने, निर्देश देने, समन्वय करने तथा नियंत्रण करने से है।’’

इस प्रकार फेयोल ने प्रबन्ध की प्रक्रिया की व्याख्या करने का प्रयास Reseller है। इससे प्रबन्धक के कार्य का ज्ञान हो जाता है। इन कार्यों में पूर्वानुमान, नियोजन, संगठन, निर्देशन समन्वय तथा नियंत्रण का समावेश Reseller गया है किन्तु उन्होंने प्रबन्ध के समस्त कार्यों की ओर संकेत नहीं Reseller है जिनमें अभिप्रेरण And निर्णयन सम्मिलित हैं। फिर भी महत्वपूर्ण कार्यों का समावेश होने से यह परिभाषा काफी स्पष्ट, सरल, सारगर्भित बन गर्इ है।

3. पीटर एफ. ड्रकर के According, ‘‘प्रबन्ध आद्योगिक समाज का आर्थिक अंग है। वांछित परिणामों को प्राप्त करने हेतु कार्य करना ही प्रबन्ध है। यह Single बहुउद्देशीय तत्व है जो व्यवसाय का प्रबन्ध करता है। प्रबन्धकों का प्रबंध करता है तथा कर्मचारियों व कार्य का प्रबंध करता है।’’ यह परिभाषा अग्रलिखित तत्वों पर प्रकाश डालती है-

  1. प्रबन्ध औद्योगिक सभ्यता व संस्कृति का उत्पाद है। 
  2. औद्योगीकरण के बढ़ते हुए चरणों ने प्रबंध की Needओं को प्रेरित Reseller है। 
  3. प्रबन्ध वांछित परिणामों को प्राप्त करने का कार्य है। 
  4. यह Single बहुउद्देशीय तत्व है जो व्यवसाय,प्रबंधक, कर्मचारी And कार्य All का प्रबन्ध करता है। 

इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि प्रबंध Single वैज्ञानिक व निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो संस्था के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से संगठन में कार्यरत व्यक्तियों के प्रयासों का नियोजन, निर्देशन, समन्वय, अभिप्रेरण व नियंत्रण करती है। इस प्रकार उपरोक्त प्रबन्ध गुरूओं के चिन्तन के आधार पर हम आधुनिक प्रबंध की विशेषताओं का निर्धारण में सक्षम हो सकते हैं। आइये आधुनिक प्रबंध की विशेषताओं का अध्ययन करें जो कि इस प्रकार से है –

  1. प्रबन्ध Single Humanीय क्रिया है जिसमें विशिष्ट कार्य होता है।
  2. प्रबन्ध Human And Humanीय संगठनों से सम्बन्धित कार्य है। जिसमें उद्देश्यपूर्ण कार्य होते हैं। 
  3. प्रबन्ध कार्यों की सुव्यवस्थित Singleीकृत व संयाजित प्रक्रिया है।
  4. प्रबन्ध Single सामाजिक प्रक्रिया है जो सतत चलती रहती है। 
  5. प्रबन्ध Single गतिशील, परिवर्तनशील व सार्वभौमिक प्रक्रिया है। 
  6. प्रबन्ध वह प्रक्रिया है जो समूहों के प्रयासों से सम्बन्धित है जिसका आधार समन्वय होता है। 
  7. प्रबन्ध में कार्य निष्पादन हेतु पदानुक्रम व्यवस्था बनार्इ जाती है। 
  8. प्रबन्ध Single सृजनात्मक तथा धनात्मक कार्य है।
  9. प्रबन्ध Single अधिकार सत्ता व कार्य-संस्कृति है। 
  10. प्रबन्ध Single अदृश्य शक्ति है जिसे देखा या छुआ नहीं जा सकता। 
  11. प्रबन्ध Single कला व विज्ञान दोनों ही है। 
  12. प्रबन्ध ज्ञान व चातुर्य का हस्तांतरण Reseller जा सकता है यह कार्य शिक्षण प्रशिक्षण की व्यवस्था द्वारा सम्भव होता है। 
  13. प्रबन्ध व्यवहारवादी विज्ञान है। इसका उपयोग All Humanीय क्रिया क्षेत्रों में Reseller जा सकता है।
  14. प्रबन्ध वस्तुओं का निर्देशन नहीं, वरन Human का विकास है। 
  15. प्रबन्ध का विधिवत नियमन व नियंत्रण Reseller जाता है। यह कार्य सरकार द्वारा कानून की मदद से Reseller जाता है। 

उपरोक्त विशेषतायें प्रबन्ध की प्रकृति का सटीक विश्लेषण करने में सक्षम हैं, जो कि है।

  1. प्रत्येक व्यवसाय में प्रबन्ध की Need अनिवार्य Reseller से होती है इसलिये प्रबंध की सार्वभौतिक प्रक्रिया कहते हैं। संगठन की प्रकृति व प्रबन्धक का स्तर चाहे कुछ भी हो, उसके कार्य लगभग समान ही होते हैं। किसी भी प्रकृति, आकार या स्थान पर प्रबन्ध के सिद्धान्तों का प्रयोग हो सकता है।
  2. संगठन के लक्ष्यों And उद्देश्यों को प्राप्त करना ही प्रबन्धन का प्राथमिक उद्देश्य है। प्रबन्ध की सफलता का मापदंड केवल यही है कि उसके द्वारा उद्देश्य की पूर्ति किस सीमा तक होती है। संगठन का उद्देश्य लाभ कमाना हो या न हो, प्रबंन्धक का कार्य सदैव प्रभावी तथा कुशलतापूर्ण सम्पन्न होना चाहिये। 
  3. प्रबन्ध में आवश्यक Reseller से व्यवस्थित व्यक्तियों के सामूहिक कार्यों का प्रबन्धन शामिल होता है। प्रबन्धन में कार्य के अधीनस्थ व्यक्तियों का प्रशिक्षण विकास तथा अभिप्रेरण शामिल है। साथ ही वह उनको Single सामाजिक प्राणी के Reseller में संतुष्टि प्रदान करने का भी ध्यान रखता है। इन सब Humanीय संबन्धों And Humanीय गतिवििध्यों के कारण प्रबन्ध को Single सामाजिक क्रिया की संज्ञा दी जाती है। 
  4. प्रबन्ध द्वारा परस्पर सम्बन्धित गतिविधियों को व्यवस्थित करने का प्रयास Reseller जाता है जिससे किसी कार्य की पुनरावृत्ति न हो। इस प्रकार प्रबन्ध संगठन के All वर्गों के कार्यों का समन्वय करता है।
  5. प्रबन्ध Single अदृश्य ताकत है। इसकी उपस्थिति का अनुभव इसके परिणामों से ही Reseller जा सकता है। ये परिणाम व्यवस्था, उचित मात्रा में संतोषजनक वातावरण, तथा कर्मचारी संतुष्टि द्वारा किये जा सके हैं। 
  6. प्रबन्ध Single गतिशील And सतत् प्रक्रिया है। जब तक संगठन में लक्ष्य प्राप्ति हेतु प्रयास होता रहेगा, प्रबन्ध Resellerी चक्र चलता रहेगा। 
  7. प्रबन्धकीय कार्य की श्रृंखला पूर्ण Reseller से सह आधारित है इसलिए स्वतंत्र Reseller से किसी Single कार्य को नहीं Reseller जा सकता। प्रबन्ध विशिष्ट अवयवों से मिलकर बनी संयुक्त प्रक्रिया है। प्रबन्ध की All गतिविधियों में अनेक अवयवों को सम्मिलित करना पड़ता है इसलिए इसे Single व्यवस्थित संयुक्त प्रक्रिया की संज्ञा दी गर्इ है। 
  8. प्रबन्ध परिणाम प्रदान कर सह क्रियात्मक प्रभावों का सृजन करता है जो सामूहिक सदस्यों के व्यक्तिगत प्रयास के योग से अधिक होता है। यह संक्रियाओं को Single क्रम प्रदान करता है, कार्यों का लक्ष्य से मिलान करता है तथा कार्यों को भौतिक और वित्तीय संसाधनों से जोड़ता है । यह सामूहिक प्रयासों को नर्इ कल्पना, विचार तथा नर्इ दिशा प्रदान करता है। 

कुशल प्रबन्धन व्यवहार के प्रत्येक स्तर की महत्वपूर्ण Need है, तथा आज के प्रतियोगात्मक संगठनों में तो इसका विशेष महत्व है। प्रबन्ध किसी संगठन का मस्तिष्क होता है जो उसके लिए सोच विचार करता है और लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर अभिप्रेरित करता है। Creationत्मक विचारों और कार्यों के सम्पादन का मूल स्रोत प्रबन्ध ही है। यही संगठन की नर्इ सोच, लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए नए मार्ग और समूचे संगठन को Single सूत्र में बॉंधने का कार्य करता है। सदस्यों को अपने कुशल And उचित आदेशों निर्देशों द्वारा प्रबन्धक व्यापार को वांछित दिशा और सही गन्तव्य की ओर ले जाता है। संगठन की विभिन्न क्रियाओं में समन्वय और नियंत्रण स्थापित करके प्रबन्धक उसका मार्गदर्शन करता है। यह संगठन की समस्याओं का समाधान प्रदान करता है, भ्रान्तियों और झगड़ों को दूर करता है, व्यक्तिगत हितों के ऊपर सामूहिक हितों की गरिमा की स्थापना करता है। और आपसी सहयोग की भावना का सृजन करता है। कुशल प्रबन्ध के द्वारा ही सर्वोत्तम परिणामों की प्राप्ति होती है, कुशलता में वृद्धि होती है और उपलब्ध Humanीय और भौतिक साधनों का अधिकतम उपयोग सम्भव होता है, तथा लक्ष्यहीन क्रियाएं सम्पन्न होने लगती है। अकुशल प्रबन्ध वातावरण में अनुशासनहीनता, संघर्षों , भ्रान्तियों, लालफीताशाही, परस्पर विरोधों, अनिश्चितताओं, जोखिमों और अस्त-व्यस्तता को उत्पन्न करता है जिससे संगठन अपने निर्धारित लक्ष्यों से भटक जाता है। अत: किसी संगठन की सफलता में उसके प्रबन्ध का बड़ा योगदान होता है। बड़े साधन-विहीन And विकट समस्याओं से त्रस्त संगठन अपने प्रबन्धकों की दूरदर्शिता, कुशल नेतृत्व And चातुर्यपूर्ण अभिप्रेरण से सफलता की शिखर पर पहुॅंच जाते हैं।

समस्त विकसित देशों के History के विकास पर नजर डालें तो पायेंगे कि उनकी समृद्धि, वैभव व प्रभुत्व का मूल आधार कुशल प्रबन्धकीय नेतृत्व And व्यावसायिक उन्नति ही हैं। भारत Single विकासशील देश है, यहॉं प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता होते हुए भी गरीबी है। आज भी 26 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है। आर्थिक विकास की दृष्टि से यह अपने शैवकाल से गुजर रहा है। गरीबी के साथ साथ यहॉं औद्योगिक असंतुलन तथा बेरोजगारी चरमोत्कर्ष पर है। इन आर्थिक समस्याओं को निदान औद्योगीकरण में निहित है। यही कारण है कि पंचवष्र्ाीय योजनाओं में उद्योग धन्धों के विकास पर पर्याप्त बल दिया है। प्राइवेट सेक्टर के अतिरिक्त पब्लिक सेक्टर के विकास के लिए विशाल मात्रा में विनियोजन की व्यवस्था की जा रही है। इन भावी उद्योगों के समुचित प्रबन्ध के लिये Need होगी कुशल प्रबन्धकों की । आने वाले वर्षों में यदि मंदी को दूर कर व्यवसाय को भूतकाल की त्रुटियों से बचना है और भविष्य में प्रबन्धकों की बढ़ती हुर्इ मांग को पूरा करना है तो कुशल प्रबन्ध के सिद्धान्तों की शिक्षा देना आवश्यक है। पर्याप्त प्रबन्धकीय सम्पत्ति का निर्माण करके ही भविष्य के लिए कुशल प्रबन्धकों को तैयार Reseller जा सकता है। Indian Customer व्यापारिक परिदृश्य में प्रबन्ध का महत्व निम्नलिखित बिन्दुओं से आंका जा सकता है।

  1. देश में भौतिक संसाधनों का सदुपयोग करने के लिए कुशल प्रबन्ध आवश्यक है।
  2. रोजगार के सृजन के लिए भी श्रेष्ठ प्रबन्धन आवश्यक है।
  3. प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हेतु प्रभावकारी प्रबंध आवश्यक है।
  4. पूॅंजी के निर्माण को प्रोत्साहित करने के लिए कुशल प्रबन्ध आवश्यक है।
  5. आधारभूत उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति को बढ़ावा देने के लिए प्रबन्ध की भूमिका महत्वपूर्ण है।
  6. आधारभूत सुविधाएं प्रदान करने के लिए उद्योगों का कुशल प्रबन्ध आवश्यक है।
  7. विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए कुशल प्रबन्ध की Need है।
  8. निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की उत्पादकता में वृद्धि लाने के लिए कुशल प्रबन्ध Single अनिवार्यता है।
  9. जनसाधारण के जीवन स्तर में गुणात्मक विकास लाने के लिए प्रबन्ध आवश्यक है।
  10. नव प्रवर्तन को प्रोत्साहित करने में भी प्रबन्ध की भूमिका महत्वपूर्ण है।
  11. हमारी आर्थिक नीति का आधार उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण (एल. पीजी. ) का सही क्रियान्वयन And समन्वय कुशल प्रबन्ध द्वारा ही सम्भव हो सकता है जिससे भारत का चातुर्दिक विकास कर समृद्धि लार्इ जा सकती है और भारत को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा Reseller जा सकता है।

प्रबंध के विभिन्न स्तर And कार्य 

आधुनिक प्रतियोगात्मक व्यवसायिक युग में संस्था का स्वामित्व And प्रबन्ध पृथक पृथक होते हैं और प्रबन्ध के भी विभिन्न स्तर होते हैं। प्रबन्ध के विभिन्न स्तरों के अन्तर्गत प्रबन्धकीय क्रम व्यवस्था का अध्ययन Reseller जाता है। प्रबन्धकीय क्रम व्यवस्था से आशय किसी संस्था के प्रबन्धक वर्ग में अधिकारी And अधीनस्थों का सम्बन्ध रखने वाले विभिन्न पदों से है। प्रबन्धकीय क्रम व्यवस्था अथवा प्रबन्ध के स्तर Single प्रकार का खाका है जो इस बात को स्पष्ट करता है कि किस अधिकारी की क्या स्थिति है कौन किसको आदेश देगा तथा कौन किससे आदेश प्राप्त करेगा। किसी संस्था में प्रबन्ध के कितने स्तर होंगे यह संस्था के आकार And कार्यों पर निर्भर करता है। जैसे जैसे संस्था का आकार And कार्यों का विस्तार होता जाता है, प्रबन्ध वर्ग के अन्तर्गत अधिकारी And अधीनस्थों की श्रृंखला का विस्तार भी हो जाता है। प्राय: प्रबन्ध के स्तर अथवा प्रबन्धकीय क्रम व्यवस्था को तीन भागों में विभाजित Reseller जा सकता है।

  1. उच्च प्रबन्ध 
  2. मध्य प्रबन्ध, And 
  3. निम्न स्तरीय प्रबन्ध, 

प्रत्येक प्रबन्ध स्तर का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार Reseller जा सकता है –

1. उच्च प्रबंध – 

व्यावसायिक उपक्रम में यह प्रबन्ध सर्वोच्च स्तर होता है। इसके अन्तर्गत संचालक मण्डल, प्रबन्ध निदेशक/जनरल मैनेजर And सचिव आदि को सम्मिलित Reseller जाता है। इनके प्रमुख कार्य व्यावसायिक उपक्रम में सफल संचालन हेतु उद्देश्य And लक्ष्यों का निर्धारण है। महत्वपूर्ण निर्णय लेना, नीतियां बनाना और यह देखना कि नीतियां प्रभावोत्पादक तरीके से लागू की जा रही है या नहीं तथा उपक्रम के परिणामों का मूल्यांकन करना है। उच्च प्रबन्ध के कार्यों को निम्न दो भागों में विभाजित Reseller जा सकता है –

  1. निर्णय सम्बन्धी कार्य – पुन: उच्च निर्णय सम्बन्धी कार्यों को पॉचं भागों में विभक्त Reseller जा सकता है। 
    1. निर्णय And उनकी पुष्टि, 
    2. योजना बनाना, लक्ष्यों को निर्धारित करना, तकनीकी प्रक्रिया निर्धारित करना, संगठन संCreation निश्चित करना, समन्वय करना And प्रमुख अधिकारियों की Appointment, 
    3. सामान्य And विशिष्ट नीतियों को परिभाषित करना तथा उनकी व्याख्या, 
    4. नीतियों के क्रियान्वयन के लिए अधीनस्थों को अधिकार देना, And 
    5. वित्त व्यवस्था के लिये साधन निर्धारित करना And लाभों का वितरण करना। 
  2. न्यायिक कार्य- उच्च प्रबन्ध के न्यायिक कायों को पुन: तीन भागों में बॉटां जा सकता है – 
    1. उपलब्धियों तथा लक्ष्यों की तुलना करना, 
    2. उपलब्धियों की लागत से मूल्यांकन करना तथा वैकल्पिक सम्भावनाओं का मूल्यांकन करना, And 
    3. निर्णय तथा आदेश के सम्बन्ध में परामर्श। 

2. मध्य प्रबंध – 

प्रबन्ध के इस स्तर के अन्र्तगत कनिष्ठ प्रबन्धक, अधीक्षक, जनरल श्रम अधिकारी आदि अधिकारियों को सम्मिलित Reseller जाता है। मध्य प्रबन्ध के प्रमुख कार्य इस प्रकार हो सकते हैं –

  1. संगठन का संचालन
  2. आपस में समन्वय, 
  3. महत्वपूर्ण नीतियों के सम्बन्ध में विभागों के पारस्परिक सम्बन्धों को समझना, 
  4. संगठन के विभिन्न विभागों में समन्वय स्थापित करना, 
  5. अधीनस्थों को संतुष्ट करना And उनको कार्यकुशल बनाना और उनकी योग्यतानुसार पारिश्रमिक की व्यवस्था करना, 
  6. प्रशिक्षण की व्यवस्था करना And 
  7. उपक्रम भावना को विकसित करना आदि।

3. निरीक्षक वर्ग/निम्न स्तरीय प्रबन्ध – 

निम्ननिरीक्षक वर्ग/निम्नस्तरीय प्रबन्ध श्रमिकों में प्रबन्ध का And प्रबन्ध में श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरों Wordों में निरीक्षक वर्ग And फोरमैन प्रबन्ध की अन्तिम कड़ी है जो प्रबन्धकीय कर्मचारियों और गैर प्रबन्धकीय कर्मचारियों में समन्वय रखता है। इसलिये संस्था के सफल संचालन में प्रबन्ध के इस स्तर का विशेष महत्व है। निरीक्षक वर्ग में वे All अधिकारी सम्मिलित किये जाते हैं जो कार्यालय, कारखाना, विपणन आदि क्षेत्रों में कार्य करने वाले कर्मचारियों के ऊपर पर्यवेक्षण का कार्य करते हैं। निरीक्षक वर्ग द्वारा किये जाने वाले प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं –

  1. प्रत्येक क्रियाशील कर्मचारी के लिये कार्य योजना का निर्माण, सारणी बनाना और उसे कार्य सौपना। 
  2. स्टोर से सामग्री And यंत्र And उपकरणों को प्राप्त करना And क्रियाशील कर्मचारियों को देना, 
  3. क्रियाशील कर्मचारियों को प्रशिक्षण देना And कार्य सम्बन्धी आदेश देना, 
  4. कार्य करने का स्वस्थ वातावरण बनाये रखना And अनुशासन बनाये रखना, 
  5. आवश्यक मात्रा में उत्पादन करना, 
  6. कार्य करने की दशाओं में सुधार करना, मशीनों And उपकरणों की देखभाल, 
  7. क्रियाशील कर्मचारियों में मनोबल और सहयोगी भावना का विकास करना, 
  8. क्रियाशील कर्मचारियों को अधिक कार्य करने के लिए प्रेरणायें प्रदान करना, 
  9. अनुपस्थिति की प्रवृत्ति को नियंत्रित करना तथा, 
  10. उत्पादन विधियों में सुधार करना, And क्रियाशील कर्मचारियों की शिकायतें दूर करना। 

4. क्रियाशील कर्मचारी – 

इस श्रेणी के अन्तर्गत ऎसे कर्मचारियों को सम्मिलित Reseller जाता है जिनको प्रबंधकीय अधिकार प्राप्त नहीं होते लेकिन वे स्वयं अपने कार्य And उपकरणों का प्रबन्ध करते हैं। इस वर्ग का प्रत्येक कर्मचारी निरीक्षक द्वारा सौंपे गये सारे कार्य को करता है और अपने कार्य के लिए निरीक्षक के प्रति उत्तरदायी होता है। अनौपचारिक आधार पर कभी कभी ऐसे कर्मचारी अपने में से किसी Single को अपना मुखिया अथवा नेता मान लेते हैं और उसके आदेश And निर्देश के According कार्य करते हैं। लेकिन ऐसे मुखिया अथवा नेता को औपचारिक तरीके से प्रबन्ध के अधिकार नहीं दिये जाते हैं। प्रबन्धकीय क्रम व्यवस्था के उपर्युक्त described तीन स्तरों के बीच विभाजन की कोर्इ रेखा नहीं खींचीजा सकती है। प्रबन्ध के स्तरों की संख्या व्यावसायिक उपक्रम के आकार And स्वभाव की Needनुसार कम अथवा अधिक हो सकती है।

प्रबन्ध के सामाजिक उत्तरदायित्व 

आज औद्योगिक क्षेत्र के बढ़ते हुए स्वReseller के साथ साथ प्रबंध की विचारधारा का दृष्टिकोण भी अत्यधिक विस्तृत हो गया है। प्रारम्भिक अवस्था में प्रबंध केवल नियोक्ता के प्रति ही उत्तरदायी था परन्तु आज यह सम्पूर्ण समाज के प्रति उत्तरदायी है। आधुनिक प्रतिस्पर्धात्मक Meansव्यवस्था में प्रबंध का उद्देश्य केवल लाभ कमाना नहीं रह गया है अपितु प्रबंध समाज के विभिन्न वर्गों की Needओं को ध्यान में रखते हुए उत्पादन कार्य को सम्पन्न करना भी है जिससे प्रबन्ध न्यूनतम लागत पर श्रेष्ठतम उत्पाद उपलब्ध करा सके। आज के युग में प्रबन्ध उपभोक्ताओं के उत्पादों की गुणवत्ता तथा विशेषताओं के संबंध में जानकारी प्रदान करता है। इस प्रकार प्रबंध Meansव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है। आइये सामाजिक दायित्व के क्षेत्रों को और गहरार्इ से समझने का प्रयास करें –

  1. देश की प्राकृतिक सम्पदा का व्यवस्थित व श्रेष्ठ उपयोग करना जिससे राष्ट्र समृद्ध हो सके। 
  2. उपभोक्ताओं को पर्याप्त मात्रा में उच्च गुणवत्ता के सस्ते उत्पाद व सेवाऐं उचित समय व स्थान पर उपलब्ध कराना तथा मूल्यों में स्थायित्व बनाए रखना तथा उनमें अत्यधिक वृद्धि को रोकना। 
  3. पूॅंजीपतियों, अंशधारियों व ऋणदाताओं द्वारा लगायी गयी पूॅंजी की Safty And लाभांश की व्यवस्था करना। 
  4. बेरोजगारी की समस्या के निवारणार्थ रोजगार के क्षेत्र में नए अवसर प्रदान करना। प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करना तथा सामाजिक कल्याण की व्यवस्था करना, जैसे विद्यालय व महाविद्यालय खोलना, शिशु सदन, धर्मशाला, मंदिर, मनोरंजनालय, चिकित्सालय, आदि की व्यवस्था करना। 
  5. सरकार द्वारा प्रतिपादित नीतियों, नियमों व कानून का पालन सुनिश्चित करना, राज्य द्वारा लगाए गये करों को र्इमानदारी के साथ चुकाना। 
  6. धूल, धुऑं, गन्दा जल, विषैले रासायनिक पदार्थ आदि से होने वाले प्रदूषण को रोकना तथा वृक्षारोपण को बढ़ावा देना। 
  7. समाज की संस्कृति व प्रचलित परम्पराओं की रक्षा करना तथा लोकतंत्र, समाजवाद व धर्मनिरपेक्षता को प्रोत्साहित करना। 

प्रबंध के सामाजिक उत्तरदायित्व को समझने के पश्चात आइये इसके धनात्मक पहलुओं का विश्लेषण करें, जिसके कारण व्यवसायिक संस्थाओं को इन्हें अपनी कार्य प्रणाली में सम्मिलित करना चाहिये।

  1. यद्यपि सामाजिक उत्तरदायित्व को पूर्ण करने में व्यवसाय को समय और धन का व्यय करना पड़ता है, किन्तु वास्तव में यह व्यय नहीं वरन निवेश है जिसमें व्यवसाय का दीर्घकालीन हित छुपा होता है क्योंकि इससे व्यवसाय में शामिल All उपभोक्ता, कर्मचारी, पूर्तिकर्ता आदि लाभान्वित होते हैं And संतुष्ट रहते हैं।
  2. अपने उद्देश्यों में सामाजिक दायित्व का समावेश, किसी भी व्यवसाय की समाज में छवि उज्जवल होती है।
  3. प्राय: जो संगठन सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह विधिपूर्वक सुव्यवस्थित ढंग से करते हैं, उनसे समाज ही नहीं वरन सरकार भी संतुष्ट रहती है तथा सरकार ऐसे व्यवसायों की सहायता करती है। 
  4. समाज भी ऐसी संस्थाओं को धनात्मक दृष्टि से देखता है तथा इनकी कमियों के आलोचनाओं के प्रति जनता का ध्यान नहीं जाता। 
  5. सामाजिक दायित्व की मांग काफी हद तक व्यवसाय की सफलता का मूल्य है। इससे जनसाधारण के जीवन स्तर की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। 
  6. सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना आर्थिक उत्पादन तो बढ़ाती ही है, साथ ही देश के संसाधनों व संस्कृति की भी रक्षा होती है। संसाधनों के सदुउपयोग से राष्ट्रीय सम्पत्ति में वृद्धि होती है। 
  7. इस भावना के फलस्वReseller ही अनेक आर्थिक And सामाजिक समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाती है। जैसे – बेरोजगारी की समस्या, बीमारी, अज्ञानता, आवास की समस्याएं आदि। 
  8. किसी व्यवसाय द्वारा सामाजिक दायित्वों का निर्वहन व्यवसाय के नैतिक व्यवहार का Single आवश्यक अंग हैं। सामाजिक दायित्व व्यवसाय के नैतिक दायित्व का निर्माण करते हैं। व्यवसाय मात्र धर्नाजन का उपकरण ही नहीं हैं। 
  9. सामाजिक उत्तरदायित्व का उद्देश्य व्यवसाय के वाणिज्यिक और आर्थिक हितों में वृद्धि करता है और उसे प्रत्यक्ष Reseller से शक्ति प्रदान करता है। सामाजिक शक्ति की Safty भी सामाजिक उत्तरदायित्व से ही हो सकती है। ऐसी संस्थाएं वैध सामाजिक मूल्यों और हितों के विरूद्ध कोर्इ काम नहीं कर सकती।

इस प्रकार यहॉं सामाजिक उत्तरदायित्व के धनात्मक पक्ष ही नहीं बल्कि इसकी कुछ सीमायें भी हैं। जिसका विश्लेषण इस प्रकार से है –

  1. सामाजिक दायित्व के पालन के साथ-साथ प्रबन्धक को अपने आर्थिक लाभों को संरक्षित कर लेना चाहिए। आर्थिक दृष्टि से कमजोर संगठन अपने सामाजिक दायित्व को सुव्यवस्थित Reseller से नहीं निभा सकते। Need यह है कि सामाजिक दायित्व And आर्थिक सुदृढ़ता के मध्य समन्वय And संतुलन लेकर चला जाए। 
  2. प्रबन्धक को यह भी निश्चित करना चाहिए कि क्या वह सामाजिक दायित्व का निर्वहन कर सकता है या नहीं। ऐसा न करने पर सामाजिक दायित्व को निभाने के परिणाम निरर्थक व असंतुलित हो सकते हैं। 
  3. सामाजिक दायित्व के कुछ क्षेत्र गैरकानूनी हो सकते हैं, जैसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति के विरूद्ध शिक्षा देना आदि। व्यवसाय समाज का सेवक है। मालिक नहीं अत: सरकार की तरह प्रबंधकों का काम नहीं हो सकता। इस प्रकार जो भी कार्य Reseller जाए वह अधिकार की सीमा के बाहर नहीं होना चाहिए। 

उपर्युक्त विवेचनाओं से यह स्पष्ट है कि उपर्युक्त सीमाओं के अन्तर्गत ही सामाजिक उत्तरदायित्व का कार्य होना चाहिए। आधुनिक युग में यह विचार उत्तरोत्तर प्रगति पर है कि प्रबंध को सामाजिक दायित्व में अपनी भूमिका को प्रभावपूर्ण And सुव्यवस्थित ढंग से स्वीकार करना चाहिए। जिससे समाज निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसारित हो सके।

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