जाति का Means, परिभाषा And विशेषताएं

जाति का Means अंग्रेजी भाषा का Word ‘caste’ स्पेनिश Word ‘casta’ से लिया गया है। ‘कास्टा’ Word का Means है ‘नस्ल, प्रजाति अथवा आनुवंशिक तत्वों या गुणों का संग्रह’। पुर्तगालियों ने इस Word का प्रयोग भारत के उन लोगों के लिए Reseller, जिन्हें ‘जाति’ के नाम से पुकारा जाता है। अंग्रेजी Word ‘caste’ मौलिक Word का ही समंजन है।

जाति की परिभाषा

  1. रिजले – जाति परिवारों का संग्रह अथवा समूह है जो Single ही पूर्वज, जो काल्पनिक Human या देवता हो, से वंश-परंपरा बताते हैं और Single ही व्यवसाय करते हों और उन लोगों के मत में या इसके योग्य हों, Single सजाति समुदाय माना जाता हो।
  2. लुंडबर्ग – जाति Single अनमनीय सामाजिक वर्ग है, जिसमें मनुष्यों का जन्म होता है और जिसे वे बड़ी कठिनाई से ही छोड़ सकते हैं।
  3. ब्लंट – जाति Single अन्तर्विवाही समूह या समूहों का संकलन है, जिसका Single सामान्य नाम होता है, जिसकी सदस्यता पैतृक होती है और जो अपने सदस्यों पर सामाजिक सहवास के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध लगाती है। जो Single परम्परागत सामान्य पेशे को करती है या Single सामान्यतया Single सजातीय समुदाय को बनाने वाली समझी जाती है।
  4. कूले – जब वर्ग पूर्णतया आनुवंशिकता पर आधरित होता है, तो हम उसे जाति कहते हैं।
  5. मैकाइवर – जब प्रस्थिति पूर्णतया पूर्वनिश्चित हो, ताकि मनुष्य बिना किसी परिवर्तन की आशा के अपना भाग्य लेकर उत्पन्न होते हैं, तब वर्ग जाति का Reseller धरण कर लेता है।
  6. केतकर – जाति दो विशेषताएं रखने वाला Single सामाजिक समूह है (क) सदस्यता उन्हीं तक सीमित होती है, (ख) सदस्यों को Single अनुल्लंघनीय सामाजिक नियम द्वारा समूह के बाहर विवाह करने से रोक दिया जाता है।
  7. मार्टिन्डेल और मोनोकेसी – जाति व्यक्तियों का Single ऐसा समूह है, जिनके कर्तव्यों तथा विशेषाधिकारों का हिस्सा जन्म से निश्चित होता है, जो कि जादू या ध्र्म दोनों से समर्थित तथा स्वीकृत होता है।
  8. ई. ए. गेट – जाति अन्तर्विवाही समूह या ऐसे समूहों का संकलन है, जिनका Single सामान्य नाम होता है, जिनका परम्परागत व्यवसाय होता है, जो अपने को Single ही मूल से उद्भूत मानते हैं और जिन्हें साधरणतया Single ही सजातीय समुदाय का अंग समझा जाता है।
  9. ग्रीन- जाति स्तरीकरण की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें प्रस्थिति की सीढ़ी पर उपर या नीचे की ओर गतिशीलता, कम-से-कम आदर्शात्मक Reseller में नहीं पायी जाती।,
  10. एंडरसन – जाति सामाजिक वर्गीय संCreation का वह कठोर Reseller है, जिसमें व्यक्तियों का पद, प्रस्थिति-क्रम में, जन्म अथवा आनुवंशिकता द्वारा निर्धरित होता है।

इस प्रकार, विचारकों ने जाति की परिभाषा विभिन्न ढंग से की है। परन्तु जैसा घुरये (Ghurye) ने लिखा है, इन विद्वानों के परिश्रम के बावजूद भी जाति की कोई वास्तविक सामान्य परिभाषा उपलब्ध नहीं है।,जाति के Means को समझने का सर्वोतम ढंग जाति-व्यवस्था में अन्तभ्रूत विभिन्न तत्वों को जान लेना है।


मेगस्थनीज, ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के चीनी यात्री, ने जाति-व्यवस्था के दो लक्षण बतलाए थे। वह लिखता है, इसे अन्य जाति के व्यक्ति के साथ विवाह करने की अनुमति नहीं होती है, न ही Single व्यवसाय या व्यापार को छोड़कर दूसरा व्यवसाय या व्यापार, तथा न ही Single व्यक्ति को Single से अधिक व्यवसाय करने की अनुमति होती है, सिवाय दार्शनिक जाति के सदस्य को, जिसे उसकी प्रतिष्ठा के कारण ऐसा करने की अनुमति दे दी जाती है। इस प्रकार, मेगस्थनीज के According जाति-व्यवस्था के दो तत्व हैं (क) अन्तर्विवाह की मनाही, तथा (ख) व्यवसाय को नहीं बदला जा सकता। मेगस्थनीज का विचार यद्यपि जाति-व्यवस्था के दो प्रमुख लक्षणों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है, तथापि यह इस व्यवस्था का संपूर्ण चित्र प्रस्तुत नहीं करता।

जाति-व्यवस्था की विशेषताएं

जाति-व्यवस्था का सम्पूर्ण विचार प्राप्त करने के लिए इसकी विशेषताओं का वर्णन Reseller जा सकता है –

1. समाज का खंडात्मक विभाजन – जाति-व्यवस्था के अंतर्गत समाज के अनेक जातियों में विभक्त होता है। प्रत्येक जाति का अपना जीवन होता है, जिसकी सदस्यता जन्म के आधार पर निर्धरित होती है। व्यक्ति की प्रस्थिति उसके धन पर नहीं, अपितु उस जाति के परम्परागत महत्व पर निर्भर करती है, जिसमें उसे जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। जाति आनुवंशिक होती है। धन, पश्चाताप अथवा प्रार्थना की कोई माया उसकी जाति-स्थिति को नहीं बदल सकती। प्रस्थिति का निर्धरण व्यवसाय से नहीं, अपितु जन्म से होता है। मैकाइवर (MacIver) ने लिखा है, पूर्वी सभ्यता में वर्ग And प्रस्थिति का मुख्य निर्णायक तत्व जन्म हैतो पाश्चात्य सभ्यता में धन के निर्धरक तत्व के Reseller में समान अथवा अधिक महत्व है तथा धन जाति की अपेक्षा कम अनमनीय तत्व है। जाति के विभिन्न सदस्यों के व्यवहार को नियमित And नियंत्रित करने हेतु जाति-परिषदें होती हैं। यह परिषद् संपूर्ण जाति पर शासन करती है तथा सर्वाधिक शक्तिशाली संगठन होती है जो All सदस्यों को उनके उचित स्थानों पर रखती है। जाति की King संस्था को पंचायत कहा जाता है, जिसका शाब्दिक Means है पांच सदस्यों की संस्था, परन्तु वास्तव में इस संस्था में अधिक व्यक्ति भी निर्णय के समय इकट्ठे हो सकते थे। यह जाति वर्जनाओं के विरुद्ध दोषों का निर्णय करती थी। इन वर्जनाओं में अधिकांशत: ऐसी बातें हुआ करती थीं जो दूसरी जाति के सदस्यों के साथ, खाने, पीने, हुक्का पीने तथा यौन सम्बन्धी बातें, जिनमें जाति से बाहर विवाह मना था, से सम्बिन्ध्त थीं। यह दीवानी And फौजदारी मामलों का निर्णय करती थी। पंचायत इतनी अधिक शक्तिशाली होती थी कि यह अंग्रेजी शासन-काल में सरकारी न्यायालयों के द्वारा निण्रीत मुकदमों का पुन: निर्णय Reseller करती थी। इसके द्वारा दिए गए मुख्य दंड (क) जुर्माना, (ख) अपने सजातियों को प्रीतिभोज, (ग) शारीरिक दंड, (घ) धर्मिक पवित्रता, यथा गंगा-स्नान आदि And (A) जाति बहिष्कार आदि हुआ करते थे।

यद्यपि आधुनिक समय में न्यायालयों के विस्तार And जाति पंचायत के स्थान पर ग्राम पंचायत की प्रतिस्थापना से जाति पंचायत की सत्ता कुछ कम हो गई है, तथापि अब भी जाति अपने सदस्यों के व्यवहार का नियंत्रित And प्रभावित करती है।

2. सामाजिक And धर्मिक सोपान – जाति-व्यवस्था का दूसरा महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि इसमें सामाजिक श्रेष्ठता का Single सुनिश्चित क्रम होता है। प्रत्येक जाति का Single परम्परागत नाम, यथा वैश्य, ब्राम्हण आदि होता है, जो इसे दूसरी जातियों से विलग कर देता है। संपूर्ण समाज विभिन्न जातियों मं विभाजित होता है, जिनमें उच्च तथा निम्न का विचार होता है। इस प्रकार, भारत में सामाजिक सोपान के उच्चतम शिखर पर ब्राम्हणों का स्थान है। मनु के According, ब्राम्हण सारी सृष्टि का राजन है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति ब्रंम्हाम्हा के सबसे पवित्र अंग ‘मुख’ से हुई है। ब्राम्हण के Reseller में जन्म मात्र से कोई भी व्यक्ति सनातन नियम का साकार Reseller समझा जाता है। ब्राम्हणों को भोजन कराना धर्मिक पुण्य प्राप्त करने का Single मान्य ढंग है। ब्राम्हण का सृष्टि की प्रत्येक वस्तु पर अधिकार है। सारा संसार इसकी सम्पत्ति है तथा Second लोग उसकी छपा पर जीवित हैं। इस संबंध में विष्णु मनु से भी आगे हैं। वह लिखता है, फ्देव तो अदृश्य देवता है ब्राम्हणों के सहारे संसार खड़ा है ब्राम्हणों की छपा से ही देव स्वर्ग में निश्चित होकर आराम करते हैं ब्राम्हण का कोई Word कभी गलत सिण् नहीं होता। ब्राम्हण प्रसन्न होकर जो कुछ कह दें, देव उसका अनुसमर्थन कर देंगे जब दृश्य देव प्रसन्न हैं तो अदृश्य देव भी निश्चित Reseller से प्रसन्न होंगे।

ब्राम्हणों की इस उच्च स्थिति के मुकाबले में शूद्रों की स्थिति पूर्णतया हीन थी। वे सार्वजनिक मार्गो, कूपों, विद्यालयों, मंदिरों आदि का उपयोग नहीं कर सकते थे। दासता शूद्रों की स्थायी स्थिति थी। First तीन जातियों के सदस्य को शूद्र के साथ यात्रा नहीं करनी चाहिए। उनके स्पर्श मात्र से बिस्तर अथवा आसन दूषित हो जाता है। कुछ अपराधें के लिए शूद्रों को कठोर दंड दिया जाता था। इस प्रकार, कौटिल्य के According, यदि कोई शूद्र ब्राम्हण स्त्री की पवित्रता को भंग करता है तो उसे जीवित जला दिया जाएगा। यदि वह किसी ब्राम्हण को गाली देता है अथवा उस पर आक्रमण करता है तो उसे उसके दोषी अंग को काट दिया जाएगा।

3. भोजन And सामाजिक समागम पर प्रतिबन्ध – जाति-व्यवस्था का Single अन्य तत्व यह भी है कि उच्च जातियां अपनी रस्मी पवित्रता की Safty हेतु अनेक जटिल वर्जनाएं लगा देती हैं। प्रत्येक जाति अपनी उपसंस्कृति का विकास कर लेती है। इस प्रकार, भोजन And सामाजिक समागम पर अनेक प्रतिबन्धा होते हैं। किस जाति के सदस्य से कि प्रकार का भोजन स्वीकार Reseller जा सकता है, इस विषय पर विस्तृत नियम निर्धरित कर दिये जाते हैं। उदाहरणतया, ब्राम्हण किसी भी जाति से घी में पका हुआ भोजन तो स्वीकार कर सकता है, परन्तु वह किसी अन्य जाति से ‘कच्चा’ भोजन स्वीकार नहीं कर सकता।

उच्च जातियों द्वारा प्रतिपािकृत ‘दूषण’ का सिद्धान्त सामाजिक समागम पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगा देता है। इस प्रकार, दूरी के बारे में प्रतिबन्ध हैं। केरल में नायर को नम्बूदरी ब्राम्हण के निकट आने की आज्ञा तो है, परन्तु वह उसे छू नहीं सकता तियान (Tiyan) के लिए यह आदेश है था कि वह ब्राम्हण से छत्तीस कदम दूर रहे, जबकि पुलयान (Pulayan) छियानवे कदम दूर रहता था। पुलयान को किसी भी हिन्दू जाति के निकट नहीं आना चाहिए। यदि निम्न जाति के लोग कूपों से पानी लेंगे तो कुएं भी दूषित हो जाएंगे। जाति के नियम इतने कठोर थे कि ब्राम्हण शूद्र के अहाते में स्नान भी नहीं कर सकता था। ब्राम्हण वैद्य शूद्र रोगी की नब्ज देखते समय उसका हाथ नहीं छूता था, बल्कि वह उसकी कलाई पर रेशमी वस्त्र बांधकर नब्ज देखता था, ताकि वह उसके चर्म को छूकर दूषित न हो जाए।,

4. अन्तर्विवाह (Endogamy) व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, वह आजीवन उसी जाति में रहता था। प्रत्येक जाति उपजातियों में विभक्त थी, और प्रत्येक उपजाति का यह विधन था कि वह अपने सदस्यों को अपनी उपजाति में ही विवाह की अनुमति दे। इस प्रकार प्रत्येक उपजाति अन्तर्विवाही समूह होता है, अन्तर्विवाह जाति-व्यवस्था का सार है। अन्तर्विवाह के नियम केवल कुछेक ही अपवाद हैं, जो अनुलोम (hypergamy) की प्रथा के कारण हैं। परन्तु प्रतिलोम विवाह (hypergamy) सहन नहीं किए जाते थे। अनुलोम के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही उपजाति में विवाह करना होता है। इस नियम का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को जाति से निष्काषित कर दिया जाता है।

5. व्यवसाय के चयन पर प्रतिबन्ध – जाति-विशेष के सदस्यों से उसी जाति के व्यवसाय को अपनाने की आशा की जाती है। वे Second व्यवसाय को नहीं अपना सकते थे। वंशानुगत व्यवसाय को त्यागना ठीक नहीं समझा जाता था। कोई जाति अपने सदस्यों को यह अनुमति नहीं देती थी कि वे मदिरा निकालने अथवा सफाई करने का अपवित्र पेशा अपनाएं। ऐसा प्रतिबन्ध न केवल अपनी जाति की ओर से था, परन्तु दूसरी जाति के लोग भी इसे ठीक नहीं समझते थे कि अन्य जाति के लोग उनके पेशे को अपनाएं। जो व्यक्ति ब्राम्हण के घर में उत्पन्न न हुआ हो, उसे पुरोहित का कार्य करने की अनुमति नहीं थी। परन्तु अभिलेखों से पता चलता है कि ब्राम्हण All प्रकार के कार्य Reseller करते थे। मराठा आंदोलन के दौरान And उसके उपरांत वे सैनिक बने। अकबर के शासनकाल में वे व्यापारी तथा खेतिहर बने। आजकल भी भले ही ब्राम्हण विभिन्न प्रकार के व्यवसाय करते हैं, तथापि पुरोहिताई केवल ब्राम्हणों का ही व्यवसाय है। इसी प्रकार आजकल क्षत्रिय And वैश्य अपने मूल व्यवसाय के अतिरिक्त भले ही अन्य कई व्यवसाय करते हैं, तथापि वे अधिकांशत: अपने मूल व्यवसाय में ही संलग्न हैं। थोड़े-बहुत अपवादों को छोड़कर प्रत्येक व्यवसाय प्रत्येक प्रकार के व्यक्ति के लिए खुला हुआ है। बेन्ज (Baines) ने लिखा है, जाति का व्यवसाय परम्परागत है, परन्तु इसका Means यह नहीं है कि उस जाति के All सदस्य अपनी आजीविका उसी व्यवसाय से कमाते हैं।

6. सिविल And धर्मिक अक्षमताएं – साधरणतया अशुद्ध जातियों को नगर की बाहरी सीमा पर रखा जाता है। दक्षिणी भारत में नगर अथवा ग्राम के कुछेक भागों में छोटी जातियों के लोग नहीं रह सकते। ऐसा उल्लिखित है कि मराठों और पेशवाओं के शासन-काल में पूना नगर के अन्दर तीन बजे दोपहर से नौ बजे प्रात:काल तक महार और मंग जातियों के सदस्यों को आने की अनुमति नहीं थी, क्योंकि उक्त समय में उनकी परछाई इतनी बड़ी होती थी कि दूर बैठा उच्च जाति का व्यक्ति भी अपवित्र हो सकता था। सारे भारत में शूद्र जाति के लोगों को उन कुओं से पानी भरने की आज्ञा नहीं थी, जहां से उच्च जाति वाले लोग पानी भरते थे। पब्लिक स्कूलों में चमार And महार जाति के बच्चों को प्रवेश नहीं मिलता था। शूद्र लोग वेदादि का अध्ययन नहीं कर सकते थे। स्वामी माध्वराव के काल में पेशवा सरकार ने यह नियम बनाया था कि चूंकि महार अतिशूद्र हैं, अतएव ब्राम्हण उनके विवाह संस्कार सम्पन्न न करवाएं। शूद्र मन्दिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। ब्राम्हण को मृत्यु-दण्ड नहीं दिया जा सकता था। केद की स्थिति में उसके साथ दूसरों की अपेक्षा उदार व्यवहार Reseller जाता था।

वर्ग And जाति में अन्तर

उपर हमने जाति-व्यवस्था के लक्षणों का वर्णन Reseller है, जो साधरणतया वर्ग की अवधारणा में नहीं पाए जाते। जाति तथा वर्ग के बीच अन्तर को स्पष्ट करते हुए मैकाइवर (MacIver) ने लिखा है, जबकि पूर्वी सभ्यताओं के वर्ग And प्रस्थिति का मुख्य निर्धरक जन था, पाश्चात्य सभ्यताओं में धन समान अथवा अधिक महत्वपूर्ण वर्ग-निर्धारक तत्व है। धन जन्म की अपेक्षा कम अनमनीय निर्धरक है यह अधिक स्थूल है, अत: इसके दावों को अधिक सुगमता से चपापुनौती दी जाती है। यह ‘मात्रा’ का विषय है। इसमें ‘प्रकार’ के अन्तर उत्पन्न नहीं होते। ये अन्तर पृथक्करणीय, हस्तांतरणीय And उपार्जनीय होते हैं। इसमें भेद की ऐसी स्थायी रेखा नहीं होती जैसी जन्म का तत्व खींच देता है। वर्ग का जाति से अन्तर स्पष्ट करते हुए आगबर्न And निमकाफ ने लिखा है, कुछ समाजों में व्यक्तियों के लिए सामाजिक नृखला में उपर या नीचे जाना असामान्य नहीं है। जहां ऐसा सम्भव है, वह समाज ‘उन्मुक्त’ (open) वर्गो का समाज होता है। Second समाजों में ऐसा उतार-चढ़ाव कम होता है, व्यक्ति उसी वर्ग में आजीवन रहते हैं जिनमें उनका जन्म होता है। ऐसे वर्ग ‘बन्द’ (closed) वर्ग होते हैं और यदि इनके बीच अति विभेद Reseller जाए तो जाति-व्यवस्था का निर्माण हो जाता है। जब वर्ग आनुवंशिक बन जाता है तो उसे, कूले के According, जाति कहते हैं। वर्ग तथा जाति में अन्तर की प्रमुख बातें हैं

1. उन्मुक्त बनाम-बन्द (Open vs. closed) वर्ग जाति की अपेक्षा अधिक उन्मुक्त होता है। हिलर (Hiller) ने लिखा है, वर्ग व्यवस्था उन्मुक्त व्यवस्था होती है। यदि संस्तरीकरण में उदग्र गतिशीलता (vertical mobility) बंद होती है तो यह वर्ग-व्यवस्था न रहकर जाति-व्यवस्था बन जाती है। चूंकि वर्ग उन्मुक्त और नमनीय होता है सामाजिक गतिशीलता सुगम होती है। Human अपने उद्यम And परिश्रम से अपना वर्ग बदल सकता है तथा उच्च सामाजिक प्रस्थिति प्राप्त कर सकता है। यदि कोई मनुष्य मजदूर वर्ग में जन्म लेता है तो उसके लिए आजीवन उस वर्ग में रहना तथा उसी में मृत्यु को पा जाना आवश्यक नहीं है। वह जीवन में सफलता And धन के लिए प्रयास करता है, तथा सम्पत्ति से अपनी प्रस्थिति को बदल सकता है। जाति-व्यवस्था में अपनी जाति-प्रस्थिति को बदलना असम्भव है। Single बार मनुष्य का जन्म जिस जाति में हो जाता है, वह आजीवन उसी में रहता है तथा उसके बच्चों का भाग्य भी यही होता है।

इस प्रकार, जाति Single बन्द वर्ग है। व्यक्ति का सामाजिक पद उसकी जाति के पद से निर्धारित होता है, उसकी अपनी उपलिब्मा का इस पद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरी ओर, वर्ग की सदस्यता वंशानुगत आधार पर निर्भर नहीं होती, अपितु व्यक्ति की सांसारिक उपलिब्मायों पर निर्भर करती है। इस प्रकार, वर्ग-व्यवस्था उन्मुक्त And नमनीय व्यवस्था होती है, जबकि जाति-व्यवस्था बन्द And अनमनीय होती है।

2. दैविक-बनाम-धर्मनिरपेक्ष (Divine vs. secular) Second, जाति-व्यवस्था को दैविक क्रिधान समझा जाता है। मैकाइवर ने लिखा है, यदि कठोर धार्मिक आग्रह नहीं होते तो जाति के निश्चित सीमांकन का निर्वाह नहीं Reseller जा सकता था। जाति को अपनी अलौकिक उत्पत्ति की व्याख्या के साथ धार्मिक विश्वास जाति-व्यवस्था की स्थिति के लिए Indispensable है। विजय के पारिणामिक Reseller में दासता अथवा अधीनता से हिन्दू जाति-Creation उद्भूत हुई होगी और शायद अन्तर्विवाही समुदाय को Second समुदाय के अधीन करने के द्वारा प्रजाति की शक्ति, प्रतिष्ठा तथा गर्व द्वारा समूहों के सामाजिक पृथक्करण के साथ जाति-प्रथा उत्पन्न हुई होगी। वास्तव में ये समूह स्पष्ट सामाजिक चिमें से अलग नहीं किए गए हैं, परन्तु उनका पृथक्करण परिणामिक स्थिति के बुद्धिकरण से हुआ है और धार्मिक सदस्यों से वे ‘अमर’ बनाए गए हैं। प्रत्येक व्यक्ति का यह धार्मिक दायित्व है कि वह अपने मार्मानुसार अपने जाति-सम्बन्धाी कर्तव्यों को पूरा करे। भगवद्गीता में ईश्वर ने चारों जातियों के कार्यो And कर्तव्यों को निर्धारित कर दिया है। व्यक्ति को अपनी जाति के कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए, अन्यथा उसका पुनर्जन्म निम्न जाति में होगा, तथा उसे मोक्ष-प्राप्ति नहीं होगी। निम्न जाति के लोग यदि अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं तो उनका अगला जन्म उच्च जाति में होगा। यदि धर्म ने जाति-व्यवस्था को पवित्र And अनुल्लंघनीय न बना दिया होता तो भारत में यह इतनी शताब्दियों तक जीवित न रहती। दूसरी ओर, समाज के वर्गीय स्तरीकरण में दैवीय उत्पत्ति का कोई प्रश्न नहीं है। वर्गो की उत्पत्ति धर्मनिरपेक्ष है। उनका आधार धार्मिक विश्वास नहीं है।

3. अन्तर्विवाही (Endogamous) Third, जाति-व्यवस्था में विवाह-साथियों का चयन जाति के अन्दर ही होता है। सदस्यों को अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करना होता है। जाति से बाहर विवाह करने वाले व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। वर्ग-व्यवस्था में ऐसे कोई प्रतिबन्मा नहीं होते। मानी व्यक्ति निर्मान कन्या से बिना जाति बहिष्कृत हुए विवाह कर सकता है। शिक्षित कन्या अशिक्षित व्यक्ति से शिक्षकों के वर्ग से बाहर निकाले गए बिना विवाह कर सकती है।

4. वर्ग चेतना (Class consciousness) चतुर्थ, वर्ग का निर्माण करने हेतु वर्ग-चेतना आवश्यक तत्व है, परन्तु जाति के सदस्यों में ऐसी किसी आत्मपरक चेतना की अनिवार्यता नहीं है।

5. प्रतिष्ठा (Prestige) पांचक्रें, विभिन्न जातियों की सापेक्ष सामाजिक प्रतिष्ठा सुनिर्धारित है, परन्तु वर्ग-व्यवस्था में प्रतिष्ठा का कोई अनमनीय निर्धारित क्रम नहीं होता। अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मंडल विवाद में अपना निर्णय देते हुये जाति को पिछड़े वर्ग का निर्धारक घोषित Reseller है And तथाकथित अग्रिम जातियों के व्यक्तियों चाहे वह शैक्षिक अथवा आर्थिक Reseller में कितने ही पिछड़े हुये हों, को पिछड़े वर्गो की परिभाषा में सम्मिलित नहीं Reseller है। इस प्रकार, न्यायालय के निर्णय According, जाति And वर्ग समानार्थक हो गये हैं।

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