कंपनी का Means, परिभाषा And प्रकार

कम्पनी Word की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Word कम्पैनिस से हुर्इ हैं। लैटिन भाषा में कम Word का Means हैं साथ-साथ से है और पेनिस Word का Means हैं ‘रोटी’’। अत: प्रारभं में कम्पनी से आशय ऐसे व्यक्तियों के समूह से था, जो साथ साथ भोजन के लिये इकट्ठा होते थे, इसी का बिगड़ा Reseller ‘कम्पनी’ हैं। साधारण Means मे उत्तरदायित्वों कम्पनी से आशय व्यक्तियों के ऐसे ऐच्छिक सघं से है उत्तरदायित्वों जो किसी सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिये स्थापित Reseller जाता हैं। व्यक्तियों का ऐसा संघ समायोजित अथवा असमामेलित हो सकता है। व्यापक Means में संयुक्त पूंजी वाली कंपनी लाभ के लिये बनायी गयी संस्थायें हैं, जिसकी पूंजी हस्तांतरणीय तथा अंशों में विभाजित होती हैं। इसके सदस्यों का दायित्व सीमित होता हैं। इसका अस्तित्व वैधानिक And स्थायी होता हैं। इसका व्यवसाय Single सार्वमुद्रा के अधीन होता है। कोर्इ भी व्यक्ति कंपनी पर And कम्पनी किसी भी व्यक्ति पर वाद चला सकती है। न्यायाधीश जेम्स के According-‘Single कम्पनी अनेक व्यक्तियों का Single समूह हैं जिसका संगठन किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिये Reseller जाता हैं।’’  अमेरिकन प्रमुख न्यायाधीश मार्शल के According- ‘‘संयुक्त पूंजी कम्पनी Single कृत्रिम अमूर्त व अदश्ृय संस्था हैं जिसका अस्तित्व वधै ाानिक होता है, क्योकि वह वैधानिक Reseller से निर्मित होती हैं।’’  प्रा. एल. एच. हैने के According- ‘‘संयुक्त कम्पनी पूंजी लाभ के लिये बनायी गर्इ व्यक्तियों का ऐच्छिक संघ है। जिसकी पूंजी हस्तांतरणीय अंशों में विभक्त होती हैं एंव इसके स्वामित्व के लिये सदस्यता की Need होती है।’’  Indian Customer कम्पनी अधिनियम के According,1956 के According- ‘‘कंपनी का Means इस अधिनियम के अधीन निर्मित तथा पंजीकृत कम्पनी से हैं या विद्यमान कम्पनी से हैं जिसका पंजीयन Indian Customer कम्पनी अधिनियम,1882, 1886, 1913 के अधीन हुआ हो।’’

कम्पनी की विशेषताएँ अथवा लक्षण

  1. व्यक्तियों द्वारा स्थापना- कम्पनी की स्थापना करने के लिये Single निश्चित संख्या में व्यक्तियों की Need होती है, जेसै सार्वजनिक कम्पनी के लिये कम से कम Seven व निजी कम्पनी के लिये कम से कम दो सदस्यों का होना आवश्यक होता हैं। इसी तरह सार्वजनिक कम्पनी में सदस्यों की अधिकतम संख्या 50 हो सकती हैं।
  2. कृत्रिम व्यक्ति- कम्पनी की स्थापना व्यिक्यों द्वारा की जाती हैं, परंतु यह Single कृ़ित्रम व्यक्ति होती है। इसे न तो देखा जा सकता हैं और न ही स्पर्श Reseller जा सकता है।कम्पनी अपने नाम से Second व्यक्तियों पर मुकदमा दायर कर सकती तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा भी कम्पनी पर मुकदमा दायर Reseller जा सकता हैं। प्राकृतिक पुरूष व कम्पनी में Single मात्र अंतर यह है। कि पा्र कृतिक परूु “ा का जन्म माँ बाप द्वारा होता है।, जबकि कम्पनी का जन्म व अंत विधान द्वारा होता है।
  3. विधान द्वारा निर्मित- कम्पनी Single वैधानिक व्यक्ति है। इसकी स्थापना के लिये देश में प्रचलित कानून की स्वीकृति आवश्यक है। हमारे देश में कम्पनी के कार्यो का नियमन एंव नियंत्रण Indian Customer कम्पनी अधिनियम, 1956 के अधीन होता है। भारत में स्थापित प्रत्येक कम्पनी का इस अधिनियम के अधीन पंजीयन होना अनिवार्य है। कम्पनी का जन्म विधान द्वारा होता है तथा उसका अंत भी कम्पनी अधिनियम में दी गर्इ व्यवस्थाओं के तहत Reseller जाता है।
  4. व्यापारिक संस्था- कम्पनी का उद्देश्य व्यवसाय को चलाना होना चाहिये। कम्पनी का व्यवसाय वध्ै ाानिक होना चाहिये। उसे कोर्इ ऐसा व्यवसाय नहीं करना चाहिये जिस पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाया गया हो। साथ ही व्यवसायिक संस्था होने के नाते सरकार द्वारा बनाये गये नियमों का उसे पालन करना चाहिये।
  5. सीमित दायित्व- यह कम्पनी का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण हैं। सामान्यतया प्रत्येक कम्पनी के अंशधारियों का दायित्व उसके द्वारा खरीदे गये अंशों के मूल्यों तक सीमित रहता हैं। सीमित दायित्व के कारण ही जनता कंपनी में रूचि लेती हैं व अपने साधनानुसार अंश क्रय करती हैं। सीमित दायित्व के कारण कम्पनिया अनेक व्यक्तियों से पूंजी प्राप्त करने में सफल होती हैं व बड़े आकार का व्यवसाय कर सकती है।
  6. सार्वमुद्रा- कम्पनी कृत्रिम व्यक्ति होने के कारण न तो स्वंय व्यापार कर सकती हैं और न ही हस्ताक्षर। कम्पनी की ओर से उसके समस्त कार्यो को संचालको उत्तरदायित्वोंद्वारा Reseller जाता हैं। अत: कम्पनी की ओर से किये गये कार्यो के लिये सार्वमुद्रा का प्रयोग करना अनिवार्य होता हैं। जिस कागज, लेख या दस्तावेज पर सार्वमुद्रा नहीं लगी होती, उसमे लिखा गया सौदा या कार्य कम्पनी की ओर से Reseller गया नहीं माना जाता। सार्वमुद्रा कम्पनी से स्वतंत्र And कृत्रिम अस्तित्व को सिद्ध करती है।
  7. स्वतंत्र अस्तित्व- कम्पनी का उसके अंशधारियों से स्वतंत्र अस्तित्व होता हैं। कम्पनी द्वारा किये गये कायेार्ं के लिये अंशधारियों के कार्यो के लिये कम्पनी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता और कंपनी अपने अंशधारियों पर तथा अंशधारी कम्पनी पर मुकदमा चला सकते हैं।
  8. निरंतर उत्तराधिकार- कम्पनी का उत्तराधिकार निरंतर हाते ा हैं। इसके सदस्यों की मत्ृयु पागलपन या दीवालियापन का कम्पनी के जीवन पर कोर्इ प्रभाव नहीं पड़ता हैं।

कम्पनियो का लाभ या गुण

कम्पनी की उतपत्ति Singleाकी व्यापार व साझेदारी व्यापार के दोषों को दूर करने के लिये हुर्इ थी अत: उनके लाभ हैं:-

  1. दीर्घजीवन- कम्पनी लंबें समय तक कार्य करती हैं। इस पर सदस्यों की मृत्यु पागलपन अथवा दिवालियापन का कोर्इ प्रभाव नहीं पड़ता है। कम्पनी लंबे समय के लिये सौदे कर सकती हैं व बड़ी परियोजनाओं को अपने हाथों में ले सकती हैं।
  2. सीमित दायित्व- कम्पनी के सदस्यों का दायित्व सीमित होने के कारण सदस्यों के जोखिम की मात्रा निश्चित रहती हैं। कम्पनी के सीमित दायित्व के कारण अनेक व्यक्ति इसमें पूंजी लगाने के लिये तैयार हो जाते हैं। इससे बड़ी मात्रा में कम्पनी को पूंजी प्राप्त हो जाती हैं।
  3. कुशल प्रबंध- कम्पनी का प्रबंध कुशल व्यक्तियों द्वारा होता हैं। कम्पनियों का संचालन ऐस े व्यक्तियेा उत्तरदायित्वों द्वारा Reseller जाता है। जिन्है। व्यवसाय का अनुभव व ज्ञान होता हैं। साथ ही कंपनी चाहे तो योग्य And अनुभवी विशेषज्ञों को भी कंपनी में नियुक्त कर सकती हैं।
  4. पूंजी प्राप्त करने में सुविधा- कम्पनी मुख्यत: समता अंश, पूर्वाधिकार अंश And ऋण पत्र के द्वारा पूंजी प्राप्त करती हैं। साधारण अंश वे व्यक्ति खरीदते हैं। जो जोखिम उठाना चाहते हैं तथा ऋणपत्र वे खरीदते हैं जो निश्चित आय प्राप्त करना चाहते हैं। इस प्रकार कम्पनी विभिन्न प्रतिभूतियां बचे कर पंजू ी प्राप्त कर सकती हैं।
  5. अंश हस्तातंरण की सुविधा- कम्पनी में पूंजी लगाने से अंशधारियों को यह लाभ हैं कि वे जब चाहे तब अपने अंश अन्य व्यक्तियों को हस्तांतरण करके कंपनी से अलग हो सकते हैं।
  6. विनियेजको को लाभ- कम्पनी के कारण विनियोजकों को अनेक लाभ होते हैं, जिनमे से प्रमुख हैं-
  1. वे अलग अलग कंपनी में थोड़ी थोड़ी पूंजी लगाकर उनके व्यवसायों में हिस्सा ले सकते हैं।
  2. शेयर मार्केट में अंशों का मूल्य बढ़ने पर वे अपने अंश बेचकर लाभ कमा सकते हैं।
  3. लाभांश के Reseller में उन्हें प्रतिवर्श नियमित आमदनी होती हैं।
  4. उन्हें कंपनी के प्रबंध में भाग लेने का अधिकार होता हैं तथा योग्य होने पर वे उसके संचालक भी बन सकते है।
  5. अलग अलग कंपनियों में धन निवेश करने से उसके डूबने का भय नहीं रहता है।।
  6. खातो का प्रकाशन- कम्पनी के खातो का प्रकाशन करना कानूनी Reseller से अनिवार्य होता हैं। उससे अंशधारियों को कम्पनी की प्रगति की जानकारी प्राप्त होती हैं। कम्पनी की ख्याति बढ़ती हैं। जनता में कंपनी के प्रति विश्वास जागृत होता है। कंपनी के खातो का अंकेक्षण भी अनिवार्य कर दिया गया हैं।
  7. ऋण मिलने में सुविधा-Singleाकी व्यापारी व साझेदारी की तुलना में कम्पनी की पूंजी व साख ज्यादा होती हैं। जिससे कम्पनियों को बैंक व वित्तीय संस्थाओं से आसानी से ऋण मिल जाता है।।
  8. बचत को प्रोसाहन-कम्पनी की पूंजी छोटी छोटी राशि के अंशों में बंटी होती हैं तथा यह राशि Single साथ मांगी भी नहीं जाती हैं। अत: साधारण व्यक्ति भी कम्पनी में धन लगाने के लिये बचत कर सकता है।
  9. बड़े पैमाने पर उत्पादन-कंपनियों द्वारा बड़े बड़े उद्योगो की स्थापना की जाती है। इससे कंपनी को बड़े पैमाने पर उत्पादन का लाभ, कम लागत, शीघ्र उत्पादन, अधिक उत्पादन, औद्योगिक अनुसंधान आदि के लाभ प्राप्त होते है।

कम्पनी के दोष व हानियाँ

  1. प्रवर्तकों द्वारा छल- कम्पनी का संचालन करने वाले प्रवर्तक अनेक प्रकार से जनता के साथ धोखा करते है और कंपनी को अपने स्वार्थ का माध्यम बना लेते है। वे अपनी संपत्तिया उत्तरदायित्वों कपं नी को ऊंचे दामा े पर बेचकर अनुचित लाभकमाते है। वे स्वय उत्तरदायित्वों ही कम्पनी के संचालक व प्रबंध संचालक बन जाते है। कर्इ बार जनता से पूंजी Singleत्रित कर ली जाती है। किंतु व्यापार प्रारंभ नहीं Reseller जाता है। इस तरह से जनता के साथ छल Reseller जाता हैं।
  2. अंशधारियों का शोषण- कम्पनी के संचालन पर अंशधारियों का प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं होता हैं वे संचालक की र्इमानदारी व योग्यता पर निर्भर रहते है। संचालक कम्पनी की वास्तिवेक जानकारी छिपाकर सट्टे द्वारा अंशों के भाव घटा-बढ़ाकर कर्इ वर्षो तक लाभांश की घोषणा न कर अंशधारियों का शोषण करते है।
  3. स्थापना में कठिनार्इ- Singleाकी व्यापार व साझेदार की तुलना में कंपनी की स्थापना करना कठिन है। इसके लिये व्यवसाय की विस्तृत योजना बनानी पडत़ ी हैं। अनेक दस्तावेज तैयार करने पड़ते है और पंजीयन शुल्क पटाना पड़ता है।
  4. पूजीवाद के दोष- कम्पनी ही पूंजीवाद की जनक है। कम्पनी के कारण ही बड़ें पैमाने पर उत्पादन संभव हुआ, जिसके परिणामस्वReseller घनी आबादी वाले गंदे शहर आबाद हुये, मजदूरो का शोषण प्रांरभ हुआ, जनता के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ा आर्थिक सत्ता का कें्रदीयकरण हुआ, गलाकाट प्िर तस्पर्धा बढ़ी तथा अनेक उद्यागे पंजू ीपतियों के हाथ में चला गया। कम्पनी की स्थापना के बाद से ही व्यवसाय में तेजी मंदी आने लगी व व्यवसायिक क्षेत्र में अनिश्चितता बढ़ जाती है।
  5. प्रत्यक्ष प्रेरणा का अभाव- Singleाकी व साझेदारी व्यापार में व्यवसायी के स्वामी जितना अधिक परिश्रम करते है। उतना ही अधिक उनकों लाभ मिलता है। Meansात प्रयत्न व परिणाम में सीधा संबंध रहता हैं। जबकि कम्पनी मे ऐसा नहीं होता हैं। अंशधारियों को उसी लाभांश पर संतोष करना पडत़ा है।। जिसकी घोषणा संचालकों द्वारा की जाती है। कर्इ बार कंपनी ये लाभ होने के बावजूद सचं ालक लाभांश की घोषणा नही उत्तरदायित्वों करते है।
  6. अनुदारवादी प्रबंध- कंपनी के संचालक कम्पनी के प्रबंध में कर्इ बार लापरवाही करते है तथा व्यक्तिगत लाभ उठाते हैं।
  7. गोपनीयता का अभाव- कम्पनी अधिनियम के अंतर्गत कम्पनी के लेखे प्रकाशित करना आवश्यक है। कंपनी में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय संचालकों व अंशधारियों की Agreeि से लिये जाते है। अत: कंपनी मे गोपनीयता का अभाव रहता है।
  8. अत्याधिक सरकारी नियंत्रण- कम्पनी को अपना काम कम्पनी अधिनियम, पार्षद सीमानियम व पार्षद अंतर्नियम के अंतर्गत करना होता हैं। पार्षद सीमानियम व अंतर्नियमों में आसानी से परिवर्तन नहीं Reseller जा सकता है। इसीलिये कम्पनी को कार्य करने की स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होती हैं।

कम्पनी के प्रकार

कम्पनियां अनके प्रकार की होती है जिसका अध्ययन Reseller जा सकता है

(1) विधान के According – 

विधान की दृष्टि से कंपनी के तीन प्रकार हैं –

  1. चार्टर कम्पनी- इनकी स्थापना करने के लिये सरकार द्वारा विशेष आज्ञा जारी की जाती हैं। ये कम्पनियाँ विशेष अधिकार का प्रयोग करने के लिये स्थापित की जाती हैं। पूर्व में भारत में र्इस्ट इंडिया कंपनी थी अब इस प्रकार की कोर्इ कंपनी भारत में नहीं हैं।
  2. विशेष विधान द्वारा निर्मित कम्पनियाँ- ऐसी कम्पनियां जो संसद में विशेष अधिनियम पास करके बनाायी जाती हैं विशेष विधान द्वारा निर्मित कम्पनियाँ कहलाती है। जैसे- स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, Indian Customer रिजर्व बैंक, Indian Customer जीवन बीमा निगम आदि।
  3. कम्पनी अधिनियम द्वारा निर्मित कम्पनियाँ- ऐसी कम्पनियां जिनका निर्माण कम्पनी अधिनियम 1956 के अधीन अथवा उसके पूर्व के वर्षों के कम्पनी अधिनियम के अंतर्गत हुआ हो, कम्पनी अधिनियम के अधीन निर्मित कम्पनियां कहलाती है।, जैसे- टाटा, टेल्को रिलायंस आदि। 

(2) दायित्व के According – 

दायित्व के According कम्पनियां दो प्रकार की होती हैं –

  1. सीमित कंपनी-सीमित कम्पनियों में सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा क्रय किये गये अंशों की राशि तक सीमित रहती है तथा ऐसी कम्पनियों को अपने नाम के साथ लिमिटेड Word का प्रयोग करना अनिवार्य होता हैं। ये कम्पनियाँ दो प्रकार की होती हं-ै
    1. अंशो द्वारा सीमित- ऐसी कंपनी में अंशधारी का दायित्व उनके द्वारा क्रय किये गये अंशों की राशि तक सीमित होता हैं। यदि अंशधारी ने अंश का पूरा मूल्य नहीं चुकाया हैं तो उसका दायित्व अदत्त राशि तक ही रहता हैं।
    2. गारंटी द्वारा सीमित कम्पनियां- उत्तरदायित्वों- गारंटी द्वारा सीमित कम्पनी की दशा में अंशधारी कम्पनी को यह गारंटी देते हैं कि यदि उनके अंशधारी रहते समय अथवा सदस्यता त्यागने के 1 वर्ष के अंदर अगर कंपनी दीवालिया हो जाती हैं तो वे Single निर्धारित सीमा तक दायित्वों का भुगतान व्यक्तिगत Reseller से करेंगे। ऐसी कम्पनी गारंटी द्वारा सीमित कम्पनी कहलाती है।
  2. असीमित दायित्व वाली कम्पनी- ऐसी कम्पनियां जिनके अंशधारियों का दायित्व असीमित होता हैं, असीमित दायित्व वाली कम्पनियां कहलाती हैं। इसमें अंशधारी साझेदारी की भांउत्तरदायित्वोंति व्यक्तिगत Reseller से ऋणो को चुकाने के लिये उत्तरदायी होते हैं। वर्तमान में इन कंपनियों का प्रचलन नहीं है।

(3) स्वामित्व के According- 

स्वामित्व के According कम्पनिया दो प्रकार की होती है –

  1. सरकारी कम्पनी- कम्पनी अधिनियम,1956 के According सरकारी कम्पनी से आशय उस कम्पनी से होता है जिसके 51 प्रतिशत या उससे अधिक अंश सरकार के पास होते है। ऐसी कम्पनियों को कानून की बहुत सी धाराओं का पालन करना पड़ता हैं। इन कम्पनिया ेउत्तरदायित्वों का दायित्व सीमित होता है।। कम्पनियाँ सार्वजनिक व निजी दोनो तरह की हो सकती है।
  2. सार्वर्जनिक कम्पनी- Indian Customer कम्पनी अधिनियम में सार्वजनिक कम्पनी की विस्तृत परिभाषा नहीं दी गर्इ है। कंपनी अधिनियम के According ऐसी कंपनी जो निजी कंमपनी नही उत्तरदायित्वों हैं। सार्वजनिक कम्पनी कहलाती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक कम्पनी वह है- 
    1.  जिसमें न्यूनतम Seven सदस्य होते है। 
    2.  सदस्य की अधिकतम संख्या अंशों की संख्या के बराबर होती है। 
    3.  जिसके अंशों के हस्तांतरण पर कोर्इ प्रतिबंध नहीं हेाता। 
    4.  जो अपने अंश क्रय करने जनता को आमंत्रित करती है तथा जिसे अपने वार्षिक लेखे प्रकाशित करना आवश्यक होता है।

(4) राष्ट्रीयता के According-

राष्ट्रीयता के According कंपनी दो प्रकार की होती है-

  1. सूत्रधारी कंपनी- सूत्रधारी कंपनी वह होती हैं, जिसका किसी दूसरी कंपनी पर नियंत्रण होता हैं। सूत्रधारी कंपनी को दूसरी कंपनी के नियंत्रण का आधार तब प्राप्त होता हैं जब वह उन कम्पनियों के आधे से अधिक अंशो का स्वामित्व प्राप्त कर लेती हैं।
  2. सहायक कंपनी- सूत्रधारी कंपनी के नियंत्रण में कार्य करने वाली कम्पनी सहायक कम्पनी कहलाती हैं।

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