उपनिषद का Means, Backup Server And संख्या

उपनिषद का Means

उपनिषद् Word ‘उप’ And ‘नि’ उपसर्ग पूर्वक सद् (सदृलृ) धातु में ‘क्विप्’ प्रत्यय लगकर बनता है, जिसका Means होता है ‘समीप में बैठना’ Meansात् गुरु के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त करना। धातुपाठ में सद् (सद्लृ) धातु के तीन Means निर्दिष्ट हैं – विशरण, (विनाश होना), गति (प्रगति), अवसादन (शिथिल होना)। इस प्रकार जो विद्या समस्त अनर्थों के उत्पादक सांसारिक क्रिया-कलापों का नाष करती है, संसार के कारणभूत अविद्या (माया) के बन्धन को षिथिल करती है और ब्रह्म का साक्षात्कार कराती है, उसे ‘उपनिषद्’ कहते हैं।

आचार्य शड़्कर नें ‘उपनिषद्’ Word की व्याख्,या करते हुए कहा है-’’जो मनुष्य भक्ति And श्रद्धा के साथ आत्मभाव से ब्रह्मविद्या को प्राप्त करते हैं, यह विद्या उनके जन्म-मरण, रोग आदि अनर्थों को Destroy करती है और परबह्म को प्राप्त कराती है तथा अविद्या आदि संसार के कारणों को समूल Destroy करती है। वह उप+नि पूर्वक सद् धातु का Means स्मरण होने से ‘उपनिषद्’ है।

प्रचीनकाल में इस उपनिषद् विद्या का अध्ययन-अध्यापन रहस् (Singleान्त) स्थान में Reseller जाता था, अत: इसे ‘रहस्य-विद्या’ भी कहते हैं। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर ‘रहस्यविद्या’ या ‘ब्रह्मविद्या’ के Means में ‘उपनिषद्’ Word का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार जिन ग्रन्थों में रहस्यात्मक ज्ञान आत्मविद्या की Discussion की जाती है, उसे उपनिषद् कहते हैं और वेद का अन्तिम भाग होने के कारण उसे ‘वेदान्त’ भी कहा जाता है ।

ओल्डनबर्ग ने उपनिषद् का Means ‘पूजा की Single पद्धति’ बताया । इस प्रकार उपनिषद् Word का मुख्य Means ‘रहस्य’ है, जो रहस्य ज्ञान (गुह्यज्ञान) सामान्य लोगों के लिए अभिप्रत नहीं था, बल्कि कुछ परखे हुए विशिष्ट व्यक्तियों को दिया जाता था। छान्दोग्योपनिषद् में तो यहाँ तक कहा गया है कि ‘‘पिता रहस्य ज्ञान (ब्रह्मविद्या) का उपदेश अपने ज्येष्ठ पुत्र या अतिविश्वास पात्र शिष्य को ही दे, अन्य किसी को नहीं, चाहे वह उसे समुद्रों से घिरी And रत्नों से भीरी समस्त Earth को ही क्यों न दे दे। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर कहा गया है कि गुरु शिष्य के बार-’बार प्रार्थना करने पर कठोर परीक्षा के बाद ही उसे गुह्यज्ञान का उपदेश देता है। वनों में Singleान्त आश्रमों के शान्त वातावरण में गुरुजन रहस्यज्ञान (गुह्यज्ञान) या अध्यात्मविद्या का चिन्तन Reseller करते थे और उस ज्ञान को निकटस्थ योग्य And विश्वासपात्र शिष्यों को सिखाया करते थे, क्योंकि योग्य, सुपात्र And दीक्षित व्यक्ति ही उपनिषदों के रहस्यमय ज्ञान को समझ सकते हैं।

उपनिषदों की संख्या

परम्परा के According उपनिषदों की संख्या 108 ही मानी जाती है। मुक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों का History है, जिनमें ऋग्वेद से सम्बद्ध 10 उपनिषद् शुक्त यजुर्वेद की 19, कृष्णयजुर्वेद की 32, सामवेद की 16 और अथर्ववेद से सम्बद्ध 31 उपनिषद् हैं। मुक्तिकोपनिषद् में कहा गया है कि ये 108 उपनिषद् All उपनिषदों में सारभूत हैं, इनके अध्ययन से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

सर्वोपनिषदां मध्ये सारमष्टोत्तरं शतम्।

सकृच्छ्रवणमात्रेण सर्वाघौघनिकृन्तनम्।।(मुक्तिकोपनिषद्, First अध्याय)

इस कथन से यह ज्ञात होता है कि उपनिषदों की संख्या इससे भी अधिक थी और उनमें 108 उपनिषदों की प्रमुखता स्वीकार की गयी है। ‘उपनिषद्वाक्यमहाकोश’ में 223 उपनिषदों का History है। अडîार लाइब्रेरी, मद्रास से लगभग दो सौ उपनिषदें प्रकाशित हो चुकी हैं। गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित ‘उपनिषद् अड़्क’ में 220 उपनिषदों का History है और उनमें से 54 उपनिषदों का हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशन भी हुआ है। किन्तु इनमें दस उपनिषदें ही प्रमुख And प्रामाणिक मानी जाती है, क्योंकि आचार्य शड़्कर ने इन्हीं दस उपनिषदों पर अपना भाष्य लिखा है। मुक्तिकोपनिषद् के According दस उपनिषदें निम्नलिखित हैं –

र्इश-के-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य-तित्तिरि:।
ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा।। (मुक्तिकोपनिषद् 1/30)

र्इश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, तथा बृहदारण्यक ये ही दस उपनिष्ज्ञदें प्राचीन तथा प्रामाणिक हैं। इनके अतिरिक्त कौषीतकि तथा श्वेताश्वर उपनिषद् भी प्राचीन माने जाते हैं क्यों शड़्कर ने ब्रह्मसूत्र भाष्य में दस उपनिषदों के साथ इन दोनों को भी उद्धृत Reseller है, किन्तु उन्होंने उन दोनों पर भाष्य नहीं लिखा है। संक्षेप में प्रत्येक वेद से सम्बद्ध उपनिषदें इस प्रकार हैं –

  1. ऋग्वेद के उपनिषद् – 
    1. ऐतरेय उपनिषद 
    2. कौषीतकि उपनिषद् 
  2. शुक्ल-यजुर्वेद के उपनिषद् – 
    1. र्इशोपनिषद् 
    2. बृहदारण्यकोपनिषद् 
  3. कृष्णयजुर्वेद के उपनिषद् – 
    1. तैत्तिरीयोपनिषद् 
    2. कठोपनिषद् 
    3. श्वेताश्वतरोपनिषद् 
    4. मैत्रायणी उपनिषद् 
    5. महानारायणोपनिषद् 
  4. सामवेद के उपनिषद् – 
    1. केनोपनिषद् 
    2. छान्दोग्योपनिषद् 
  5. अथर्ववेद के उपनिषद – 
    1. मुण्डकोपनिषद् 
    2. माण्डूक्योपनिषद्प्र
    3. श्नोपनिषद्

उपनिषदों की Backup Server

कालक्रम की दृष्टि से उपनिषद् चार वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं। Firstवर्ग में बृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय और कौषीतकि रखे जा सकते है, जो सबसे प्राचीन हैं और जिनकी Creation ब्राह्मणों की शैली में गद्य में हुर्इ है। केनोपनिषद् में शैलीगत परिवर्तन परिलक्षित होता है। यह अंशत: छान्दोबद्ध और अंशत: गद्यात्मक है और यह उपर्युक्त उपनिषदों से परवर्ती है। डîूसन का कथन है कि ‘‘इन All उपनिषदों में पूर्ववर्ती और परवर्ती पाठ्य मिले हुए हैं। इसलिए कालनिर्णय करते हुए प्रत्येक पर अलग से विचार करना होगा, किन्तु यदि हम केवल भाषा के आधार पर विचार करते हैं तो इन उपनिषदों के परवर्ती भाग भी अत्यन्त प्राचीन काल के सिद्ध होते हैं। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि बृहदारण्यक और छान्दोग्य जैसी बड़ी उपनिषदें ब्राह्मणों और आरण्यकों के काल से अधिक परवर्ती नहीं हैं, निश्चित ही है कि बौद्ध धर्म के आविर्भाव से पूर्ववर्ती और पाणिनि से भी पूर्ववर्ती हैं।

द्वितीय वर्ग में कठ, र्इश, श्वेताश्वतर और महानारायण उपनिषद् आते हैं। ये छन्दोबद्ध हैं और इनकी भाषा ओजस्वी And प्रवाहपूर्ण है। ये कुछ परवर्ती काल की हैं, किन्तु बुद्ध के पूर्ववर्ती हैं। तृतीय वर्ग में प्रश्न, मैत्रायणी और माण्डूक्य रखे जा सकते हैं। ये गद्यात्मक हैं किन्तु First वर्ग के उपनिषदों के गद्य की अपेक्षा ये परवर्ती काल के प्रतीत होते हैं और शैली लौकिक संस्कृत के समीप हैं, जो बुद्ध के परवर्ती काल की हैं। चतुर्थ वर्ग में कुछ आथर्वण उपनिषद् आते हैं, जिनमें गद्य और पद्य दोनों का मिश्रण है और जो पुराणों तथा तन्त्रों से अधिक सम्बद्ध है। इनमें कुछ उपनिषदें महाकाव्यीय शैली में श्लोकों में लिखी गयी हैं। ये सबसे परवर्ती हैं। किन्तु इनमें भी कुछ ऐसी भी उपनिषदें हैं जो प्राचीनकाल की Creation हैं और जिन्हें वेदों से सम्बद्ध माना जाता है। जाबालि उपनिषद् Single प्रामाणिक उपनिषद् है, जिसमें परमहंस नामक तपस्वी का सुन्दर वर्णन है। आचार्य शंकर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में इसे प्रामाणिक ग्रन्थ के Reseller में उद्धृत Reseller है। ‘सुबाल उपनिषद्’ में सृष्टि-Creation शरीर विज्ञान, मनोविज्ञान तथा अध्यात्मशास्त्र के तत्व described हैं। रामानुज ने इससे बहुत से उद्धरण लिखे हैं। ‘गर्भ उपनिषद्’ में भ्रूणविज्ञान के साथ पुनर्जन्म प्राप्त न करने के सम्बन्ध में विधियाँ described हैं। ‘अथर्वाड़्गिरस उपनिषद्’ की धर्मसूत्रों में पवित्र ग्रन्थ के Reseller में Discussion है।

‘वज्रसूचिका उनिषद्’ में ब्रह्म का निResellerण है। वहाँ यह बताया गया है कि जो ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान रखता है, वही ब्राह्मण है। ये अधिकांश दार्शनिक से बढ़कर धार्मिक हैं। डॉ0 राधाकृष्णन् का मत है कि प्राचीन उपनिषदों का Backup Server 800 र्इ0पू0-300 र्इ0पू0 के मध्य है। किन्तु पाणिनि ने अष्टध्यायी में ‘उपनिषद्’ Word का प्रयोग Reseller है। पाणिनि का समय 700 र्इ0पू0 माना जाता है। अत: इससे पूर्व उपनिषद् मान्य हो चुके थे। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि 700 र्इ0पू0 में प्राचीन उपनिषदों की Creation हो चुकी थी।

तिलक ने ज्योतिष गणना के आधार उपनिषदों का Backup Server 1600 र्इ0पू0 माना है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि समस्त उपनिषदें किसी Single काल And किसी Single व्यक्ति की Creation नहीं हैं। विभिन्न काल के विभिन्न ऋषियों ने अपने जीवनकाल में संसार का जो कुछ अनुभव Reseller , इनमें उनके अनुभवों का संग्रह है, उनके विचारों का संग्रह है। इनमें कुछ ऋषि वैदिककालीन भी हैं। कालक्रम की दृष्टि से ये वैदिककाल के अन्त की और ब्राह्मणयुग के समकालीन कृतियाँ हैं। प्राचीन उपनिषदें, जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध वेदों से है और जो ब्राह्मणों के भाग हैं, उनका Backup Server बौद्ध धर्म के आविर्भाव के पूर्व का है और पाणिनि से भी पूर्ववर्ती है।

प्रमुख उपनिषदों का परिचय

केवल Fourteen उपनिषदों को ही आकर ग्रन्थों के Reseller में स्वीकार Reseller गया है, क्योंकि ये Fourteen उपनिषद् ही वैदिक परम्परा से सम्बद्ध And प्राचीन हैं। अत: इन Fourteen उपनिषदों का ही परिचय यहॉं दिया जा रहा है –

1. ऐतरेयोपनिषद्

ऐतरेयोपनिषद् का सम्बन्ध ऐतरेय ब्राह्मण से है। ऐतरेय ब्राह्मण के अन्तिम भाग को ऐतरेय आरण्यक कहते हैं। ऐतरेय आरण्यक में द्वितीय आरण्यक के चतुर्थ से “ाष्ठ अध्यायों को ‘ऐतरेय-उपनिषद्’ कहते हैं। इसमें कुल तीन अध्याय हैं। First अध्याय में विव की उत्पत्ति का मार्मिक विवेचन है। इसमें विश्व कस स्रष्टा आत्मा (ब्रह्म) बताया गया है। इस अध्याय का आधार ऋग्वेद का पुरुषसूक्त है। आत्मा (ब्रह्म) का व्यक्त Reseller ही पुरुष है और यह आत्मा पुरुष के इन्द्रिय, मन और सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं के समानान्तर है। द्वितीय अध्याय में जन्म, जीवन और मरण इन तीन अवस्थाओं का वर्णन Reseller गया है। तृतीय अध्याय में आत्मा के स्वReseller का विवेचन है। इसमें ‘प्रज्ञान’ की महिमा described है और आत्मा को प्रज्ञान का स्वReseller बताया गया है। यह प्रज्ञान ही ब्रह्म है (प्रज्ञानं ब्रह्म) और इसी से समस्त विश्व की उत्पत्ति हुर्इ है।

2.कौषीतकि उपनिषद्

यह कौषीतकि ब्राह्मण से सम्बद्ध है। कौषीतकि ब्राह्मण से सम्बद्ध कौषीतकि आरण्यक है। कौषीतकि आरण्यक के तृतीय से “ाष्ठ अध्याय तक को कौषीतकि उपनिषद् कहते हैं। इसे ही कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् भी कहते हैं। इस उपनिषद् में कुल चार अध्याय हैं। First अध्याय में मृत्यु के बाद जीवात्मा के प्रयाण के देवयान और पितृयान नामक मार्गों का वर्णन है। इसमें चित्र नामक क्षत्रिय King ने उद्दालक आरुणि को परलोक की शिक्षा दी है। King चित्र यज्ञ में आरुणि को पुरोहित बनाता है। आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को भेजता है। वहाँ पहुँचने पर चित्र ने पूछा कि लोक में क्या ऐसा कोर्इ गुप्त स्थान है, जहाँ तुम मुझे रख सकोगे ? क्या लोक में दो मार्ग हैं, जिनमें से Single में तुम मुझे लगा दोगे ? श्वेतकेतु ने कहा कि मुझे ज्ञात नहीं, आचार्य से प्रश्न पूछूंगा। यह कहकर उसने घर लौट कर पिता से प्रश्न पूछा। पिता ने कहा कि मुझे भी उत्तर ज्ञात नहीं है। तब दोनों चित्र के पास जाते हैं। चि ने उन्हें बताया कि कुछ लोग अच्छे कर्मों के बल से ब्रह्मलोक चले जाते हैं और ब्रह्ममय हो जाते हैं। कुछ लोग स्वर्ग And नकर में जाते हैं और कुछ मरने के बाद मृत्युलोक में जन्म लेते हैं।

द्वितीय अध्याय में आत्मा के प्रतीक प्राण के स्वReseller का विवेचन है। प्राण ही ब्रह्म है और मन प्राणResellerी ब्रह्म का दूत है, नेत्र रक्षक हैं, श्रोत्र द्वारपाल हैं और वाणी दासी है। जो इनके स्वReseller को जानता है, वही इन्द्रियों पर अधिकार रख सकता है। तृतीय अध्याय में इन्द्र प्रतर्दन को प्राण और प्रज्ञा का उपदेश देते हैं। इसी प्रसड़्ग में प्राणतत्व का विशद विवेचन Reseller गया है। चतुर्थ अध्याय में काशिराज अजातशत्रु बालाकि को पर ब्रह्म (ब्रह्मविद्या) का उपदेश देते हैं।

3. र्इशोपनिषद् 

शुक्लयजुर्वेद की काव्य And वासनेयी संहिता का चालीसवाँ अध्याय ‘र्इशावास्योपनिषद्’ के नाम से प्रसिद्ध है, दोनों में अन्तर यह है कि काण्वसंहिता के चालीसवें अध्याय में अठारह मन्त्र हैं और वाजसनेयी संहिता में सत्रह मन्त्र हैं। इस अध्याय का First मन्त्र ‘र्इशावास्यम्’ से प्रारम्भ होता है, अत: इसका नाम ‘र्इशावास्योपनिषद्’ है। र्इशावास्योपनिषद् को ही ‘र्इशोपनिषद्’ भी कहते हैं। यह लघुकाय उपनिषद् है किन्तु महत्व की दृष्टि से सर्वोपरित है। इसमें वेद का सार And गूढ़तत्व का विवेचन हुआ है। आत्मा के स्वReseller का जितना स्पष्ट विवेचन इस उपनिषद् में हुआ है, उतना किसी अन्य उपनिषद् में नहीं मिलता है। आत्मकल्याण के लिए ज्ञान और कर्म दोनों के अनुष्ठान को आवश्यक बताया गया है। इसमें निष्काम कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की कामना व्यक्त की गयी है। इसमें विद्या और अविद्या, सम्भूति और असम्भूति का विवेचन अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

4. बृहदारण्यकोपनिषद् 

शुक्लयजुर्वेद से सम्बद्ध शतपथ ब्राह्मण के अन्तिम छ: अध्यायों को बृहदारण्यक कहते हैं। इसमें आरण्यक और उपनिषद् दोनों ही मिश्रित है, इसलिए इसका नाम ‘बृहदारण्यकोपनिषद्’ पड़ा। यह विशालकाय And प्राचीनतम उपनिषद् है। इस उपनिषद् में तीन भाग हैं और प्रत्येक भाग में दो-दो अध्याय हैं। इस प्रकार कुल छ: अध्याय हैं। इनमें First भाग को मधुकाण्ड, द्वितीय भाग को याज्ञवल्क्यकाण्ड और तृतीय भाग को खिलकाण्ड कहते हैं। प्रत्येक अध्याय ब्राह्मणों में विभाजित है। First अध्याय में छ: ब्राह्मण, द्वितीय अध्याय में छ: ब्राह्मण, तृतीय में नौ ब्राह्मण, चतुर्थ अध्याय में छ: ब्राह्मण, प´्चम में पन्द्रह ब्राह्मण और “ाष्ठ अध्याय में पाँच ब्राह्मण हैं।

First काण्ड के First अध्याय में अश्वमेध यज्ञ की रहस्यात्मकता की व्याख्या, प्राण को आत्मा का प्रतीक मानकर आत्मा (ब्रह्म) से जगत् की उत्पत्ति, प्राण की श्रेष्ठता विषय रोचक आख्यान तथा आत्मा (ब्रह्म) की सर्वव्यापकता का वर्णन है जो प्रत्येक शरीर में जीवात्मा के Reseller में दृष्टिगोचर होता है। द्वितीय अध्याय में गाग्र्य And काशिराज अजातशत्रु के माध्यम से आत्मस्वReseller का विवेचन Reseller गया है। गाग्र्य ने काशिराज अजातशत्रु से कहा कि मैं ब्रह्म की व्याख्या करूँगा। उन्होंने Ultra site, चन्द्र, विद्युत, वायु, अग्नि, जल, आत्मा में समन्वित पुरुष को ब्रह्म बताया, किन्तु अजातशत्रु ने कहा कि ब्रह्म में ये सब तो समाहित हैं, किन्तु इससे ब्रह्म का स्वReseller ज्ञात नहीं हो सकता। जिस प्रकार अग्नि से चिनगारियाँ निकलती हैं, उसी प्रकार ब्रह्म से All प्राण And प्राणी उद्भूत होते हैं। वह ब्रह्म ही सर्वोच्च सत्ता And परमसत्य है। असीम-ससीम, साकार-निराकार, सविशेष-निर्विशेष भेद से ब्रह्म के दो Reseller हैं। द्वितीय सम्वाद याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का है। वानप्रस्थ ग्रहण करते समय मैत्रेयी ने धन की अभिलाषा न कर अमरत्व प्राप्ति का उपाय पूछा। याज्ञावल्क्य ने विविध उदाहरणों द्वारा ब्रह्म की सर्वमयता का उपदेश दिया। इसमें मधुविद्या का भी उपदेश है।

द्वितीय काण्ड के First अध्याय (तृतीय अध्याय) में King जनक की सभा में याज्ञवल्क्य के द्वारा All ब्रह्मवादियों के पराजित होने का वर्णन है। इसमें चार आध्यात्मिक वाद हैं। First में याज्ञवल्क्य के द्वारा समस्त ब्रह्मवादियों के पराजित होने का वर्णन है इस वाद में यह सिद्ध Reseller गया कि ब्रह्म यद्यपि अज्ञेय हैं तथापि उसका ज्ञान साध्य है। द्वितीय वाद में King जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद है। इस सम्वाद में याज्ञवल्क्य ऋषियों द्वारा प्रस्तुत ‘प्राण ही ब्रह्म है’ इस प्रकार के छ: सिद्धान्तों का खण्डन करते हैं और आत्मा ( ब्रह्म) को अगोचर, अविनाशी And सर्वेश्वर बताते हैं। तृतीय सम्वाद में भी जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद है। इसमें जीवात्मा की जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, जन्म, मरण और मोक्ष इन छ: अवस्थाओं का वर्णन है। चतुर्थ सम्वाद याज्ञवल्क्य और वचक्नु की कन्या गार्गी का सम्वाद है। द्वितीय काण्ड के द्वितीय अध्याय (चतुर्थ अध्याय) में याज्ञवल्क्य और जनक का सम्वाद है, जिसमें जनक महर्षि याज्ञवल्क्य से तत्वज्ञान की शिक्षा ग्रहण करते हैं। इसी अध्याय में याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी कात्यायनी तथा मैत्रेयी का सम्वाद described है, जिसमें याज्ञवल्क्य मैत्रेयी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते हैं।

तृतीय काण्ड (प´्चम और “ाष्ठ अध्याय) परिशिष्ट भाग है।इसके (प´्चम) अध्याय में पन्द्रह खण्ड हैं। जो Single Second से असम्बद्ध हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये अलग-अलग समय की Creationएँ हैं। इसमें ब्रह्म, प्रजापति, गायत्री, प्राण परलोक आदि के सम्बन्ध में विचार Reseller गया है। द्वितीय (षष्ठ) अध्याय में श्वेतकेतु And प्रवाह का दार्शनिक सम्वाद, प्राण की श्रेष्ठता, प´्चाग्नि विद्या का महत्व, मन्त्रविद्या और उसकी परम्परा, सन्तानोत्पत्ति विज्ञान पुनर्जन्म के सिद्धान्त आदि विविध विषयों का विवेचन है।

5. तैत्तिरीयोपनिषद् 

कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध तैत्तिरीय ब्राह्मण का अन्तिम भाग तैत्तिरीय आरण्यक कहलाता है। तैत्तिरीय आरण्यक के दस प्रपाठकों में सप्तम, अष्टम And नवम प्रपाठकों को तैत्तिरीयोपनिषद् कहते हैं। इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं, जिन्हें क्रमश: शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली And भृगुवल्ली कहते हैं। First शिक्षावल्ली में बारह अनुवाक हैं, ब्रह्मानन्दवल्ली में नौ और भृगुवल्ली में दस अनुवाक हैं। शिक्षावल्ली में वर्ण, स्वर, मात्रा, बल आदि के विवेचन के साथ वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के नियम तथा स्नातक के लिए उपयोगी शिक्षाओं का निResellerण है। द्वितीय ब्रह्मानन्दवल्ली में ब्रह्मविद्या का निResellerण है। इसमें ब्रह्म से स्वReseller का वर्णन है। ब्रह्म आनन्दReseller हैं, उसी से समस्त विश्व की सृष्टि हुर्इ है। यह अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द Reseller है, किन्तु इसका निवास आनन्दमय कोश है, जहाँ ब्रह्मानन्द को प्राप्त कर मनुष्य परमानन्द का अनुभव करता है। ब्रह्म के स्वReseller को जान लेने पर मनुष्य अपने ही समान सबको समझने लगता है।सारा भेदभाव दूर हो जाता है और वह ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। तृतीय अध्याय भृगुवल्ली है। इसमें भृगु और वरुण का सम्वाद described है। वरुण अपने पुत्र भृगु को ब्रह्म का स्वReseller समझाते हुए कहते हैं कि जिससे ये समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिससे जीते हैं और अन्त में जिसमें प्रवेश कर जाते हैं, वही ब्रह्म है। इसमें ब्रह्मप्राप्ति के साधन Reseller तप का वर्णन है और ‘प´्चकोशों’ का विवेचन वरुण And भृगु के सम्वाद के Reseller में हुआ है। इसमें अतिथि सेवा का भी महत्व described है।

6. कठोपनिषद 

यह कृष्णयजुर्वेद की कठखाखा का ‘कठोपनिषद’ है। इसमें कुल दो अध्याय और छ: बल्लियाँ हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इसका First अध्याय ही मूल उपनिषद् है, दूसरा अध्याय बाद में जोड़ा गया है, क्योंकि इसमें योग-सम्बन्धी विकसित विचारों And भौतिक पदार्थों की असत्यता सम्बन्धी विचारों के कारण परवर्ती सन्निवेश जान पड़ता है।

First अध्याय में नचिकेता और यम के उपाख्यान द्वारा आत्मा और ब्रह्म की व्याख्या की गयी है। नचिकेता पिता की आज्ञा से यम के पास पहुँचता है। यमराज उससे तीन वर माँगने को कहता है। नचिकेता दो वर माँगने के बाद ‘‘क्या आत्मा का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी रहता है या नहीं ?’’ यह तीसरा वर मांगता है। यम कहता है कि वह Single सूक्ष्मतत्व है, दूसरा वर मांग लो, और उसे नाना प्रकार के सांसारिक प्रलोभन देता है, किन्तु नचिकेता अपने प्रश्न पर दृढ़ रहता है और अन्त में उसके विशेष आग्रह पर यमराज आत्म स्वReseller का विवेचन करता हुआ उसे अर्द्धततत्व का मार्मिक उपदेश देता है और नचिकेता वर प्राप्त कर अपने घर लौट आता है। First अध्याय को द्वितीय वल्ली में श्रेय And प्रेय का विवेचन है। श्रेय Single वस्तु है और प्रेय दूसरी वस्तु है। इनमें जो श्रेय को ग्रहण करता है, उसका कल्याण होता है और जो प्रेय को अपनाता है, वह अपने लक्ष्य से पथभ्रष्ट हो जाता है।

द्वितीय अध्याय में प्रकृति और पुरुष दोनों को ही परमात्मा का स्वReseller बताया गया है। यह आत्मा सर्वव्यापक है और समस्त प्राणियों में उसका निवास है। जिस प्रकार वायु सर्वत्र व्याप्त होकर प्रत्येक स्थान पर उपलब्ध है और जिस प्रकार प्रकाश सब जगह व्याप्त रहते हुए बाह्य दोषों से मुक्त रहता है, उसी प्रकार आत्मा भी सर्वत्र व्याप्त रहते हुए बाह्य दोषों से मुक्त निर्विकार बना रहता है। आत्मा को विभु कहते हैं। उसकी प्राप्ति का साधन योग है।

7. श्वेताश्वतरोपनिषद् 

यह उपनिषद् कृष्णयर्जुवेद से सम्बद्ध श्वेताश्वतर संहिता का Single अंश है। यह कठोपनिषद् के बाद की Creation है, क्योंकि उससे बहुत सा अंश इसमें लिया गया है, यहाँ तक कि कुछ वाक्य ज्यों के त्यों प्रस्तुत हैं। विषय वस्तु से यह प्रतीत होता है कि यह उस समय की Creation है, जब सांख्य और वेदान्त का पार्थक्य नहीं हुआ था। इसमें कुल छ: अध्याय हैं। First अध्याय में परमात्मा साक्षात्कार का उपाय ध्यान बताया गया है। द्वितीय अध्याय में योग का विस्तृत विवेचन है। तृतीय से प´्चम अध्यायों में सांश्च And शैव सिद्धान्तों का विवेचन है। अन्तिम अध्याय में गुरु भक्ति का महत्व प्रतिपादित है। भक्तितत्व का विवेचन भी इस उपनिषद में है। इस उपनिषद् में सांख्य दर्शन के मौलिक सिद्धान्त प्रतिपादित हैं। सत्व, रजस् और तमस् इन तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है। यह प्रकृति ही ब्रह्म की माया का दूसरा Reseller है। इसमें प्रकृति को माया और महेश्वर को मायी कहा गया है। क्या वह माया वेदान्त की माया से भिन्न है, वेदान्त के According जगत् मिथ्या है, किन्तु इस उपनिषद् में जगत् के मिथ्यात्व की कल्पना नहीं है। कल्पान्त में ब्रह्म के द्वारा ही जगत् की सृष्टि और उसका प्रलय होता है। इस उपनिषद् में शिव को परमेश्वर कहा गया है। यह शिव ही समस्त प्राणियों में व्याप्त है और उसके सम्बन्ध में ज्ञान होने पर समस्त बन्धनों से मुक्ति मिल जाती है।

8. मैत्रायणी उपनिषद्

यह उपनिषद् कृष्णयजुर्वेद की मैत्रायणी संहिता से सम्बन्धित है। प्राचीनतम उपनिषदों की भांति यह गद्यबद्ध है। इसमें वैदिक भाषा के कोर्इ चिà नहीं दिखार्इ देते। भाषा शैली की दृष्टि से यह महाकाव्यकाल की Creation प्रतीत होती है। इसमें कुल Seven अध्याय हैं, जिनमें “ाष्ठ अध्याय के अन्तिम आठ प्रपाठक और सप्तम अध्याय परिशिष्ट Reseller है। इसमें प्राचीन उपनिषदों के सिद्धान्तों का संक्षिप्त description, सांख्य And बौद्ध दर्शनों के लिए विचारों का आकलन योग के “ाडड़्गों का विवेचन तथा हठयोग के मन्त्र सिद्धान्तों का description प्राप्त होता है। इसका मुख्य विषय आत्मReseller का विवेचन है। इसमें वेद-विरोधी सम्प्रदायों का भी History मिलता है।इस उपनिषद् का विषय विवेचन तीन प्रश्नों के उत्तर के Reseller में प्रस्तुत Reseller गया है। First प्रश्न है कि ‘आत्मा भौतिक शरीर में किस प्रकार प्रवेश पाता है ?’ इसका उत्तर दिया गया है कि ‘स्वयं प्रजापति ही स्वरचित शरीर में चेतनता प्रदान करने के उद्देश्य से प´्चप्राणवायु के Reseller में प्रविष्ट होता है।’ द्वितीय प्रश्न है कि ‘यह परमात्मा किस प्रकार भूतात्मा बनता है ?’ इस प्रश्न का उत्तर सांख्य सिद्धान्तों पर आधारित है। ‘आत्मा प्रकृति के गुणों से पराभूत होकर अपने को भूल जाता है। तदनन्तर ात्मज्ञान And मोक्ष के लिए प्रयास करता है।’ तृतीय प्रश्न है कि ‘इस दु:खात्मक स्थिति से मुक्ति किस प्रकार मिल सकती है?’ इस प्रश्न का समाधान स्वतन्त्र Reseller से दिया गया है – ‘ब्राह्मण धर्म का पालन करने वाले वणार्ररम धर्म के अनुयायी व्यक्ति ही ज्ञान, तप और निदिध्यासन से ब्रह्मज्ञान और मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। ब्राह्मण युग के प्रधान देवता अग्नि, वायु और Ultra site, तीन भावReseller सत्ताएँ काल, प्राण और अन्न तथा तीन लोकप्रिय देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये All ब्रह्म के Reseller बताये गये हैं।इस उपनिषद् का अन्तिम भाग परिशिष्ट Reseller है, जिसमें विश्व को सृष्टि की उपाख्यान described है। इसमें प्रकृति के तत्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों का ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र से बताया गया है। इसमें ऋग्वैदिक And सांख्य सिद्धान्तों का समन्वय है।

9. महानारायणोपनिषद् 

कृष्णयजुर्वेद से सम्बद्ध तैत्तिरीय आरण्यक के दशम प्रपाठक को ‘महानारायणोपनिषद्’ कहा जाता है । यह सायण भाष्य के साथ प्रकाशित है। इसमें द्रविणों के According 64, आन्ध्रों के According 80, कर्णाटकों के According 74 अनुवाक हैं।इस प्रकार इसके तीन विभिन्न पाठ मिलते हैं, किन्तु इनमें आन्ध्र पाठ की ही मान्यता है। इसे ‘याज्ञिक्युपनिषद्’ भी कहते हैं। कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह तैत्तिरीय आरण्यक में परवर्ती काल में जोड़ा गया है, किन्तु मैत्रायणी उपनिषद् से प्राचीन है। इस उपनिषद् में नारायण का परमात्मा तत्व के Reseller में History है। इसमें आत्मा का विशद विवेचन है। इस उपनिषद् के According ‘Single ही परमसत्ता है, वही सब कुछ है।’26 इसमें सत्य, तपस्, दया, दान, धर्म, अग्निहोत्र, यज्ञ आदि विविध विषयों की महत्वपूर्ण विवेचना है। इसमें तत्वज्ञानी के जीवन का यज्ञ के Reseller में चित्रण है, जिसके According इसकी ‘याज्ञिकी उपनिषद्’ नाम की सार्थकता प्रतीत होती है।

10. छान्दोग्योपनिषद् 

सामवेद की तवल्कार शाखा का छान्दोग्य ब्राह्मण है जिसमें दस अध्याय हैं। प्रारम्भ के दो अध्यायों को छोड़कर शेष आठ अध्यायों को ‘छान्दोग्योपनिषद्’ कहा जाता है। इस उपनिषद् के आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में अनेक खण्ड हैं। First अध्याय में तेरह खण्ड, द्वितीय में चौबीस, तृतीय में उन्नीस, चतुर्थ में सत्रह, प´्चम में चौबीस, “ाष्ठ में सोलह, सप्तम में छब्बीस और अष्टम अध्याय में पन्द्रह खण्ड हैं। इसमें गूढ़ दार्शनिक तत्वों का निResellerण आख्यायिकाओं के Reseller में Reseller गया है। इसके First And द्वितीय अध्यायों में ओउम् (ऊँ), उद्गीथ And साम के गूढ़ रहस्यों का मार्मिक विवेचन है। द्वितीय अध्याय में आउम् की उत्पत्ति, धार्मिक जीवन की तीन अवस्थाएँ तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्थ And यतिधर्म का विवेचन है। इस अध्याय के अन्त में ‘‘शैव उद्गीथ’’ का विवेचन है। उद्गीथ का Means है ‘उच्चस्वर से गाया जानेवाला गीत।’ इसमें भौतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए यज्ञ का विधान तथा सामगान करने वाले व्यक्तियों पर व्यड़्गî Reseller गया है।तृतीय अध्याय में वैश्वानर ब्रह्म का प्रतिपादन है, जिसका व्यक्त Reseller Ultra site है। Ultra site की देवमधु Reseller में उपासना, गायत्री का वर्णन, आड़्गिरस द्वारा देवकी नन्दन कृष्ण को अध्यात्म-शिक्षा और अन्त में अण्ड से Ultra site की उत्पत्ति का वर्णन है। चतुर्थ अध्याय में सत्यकाम जाबाल की कथा, रैक्य का दार्शनिक तथ्य, उपकौशल को जाबाल द्वारा ब्रह्मज्ञान का उपदेश आदि का विस्तृत विवेचन है। इसमें ब्रह्म को प्राप्त करने के साधन बताये गये हैं। प´्चम अध्याय में बृहदारण्यक के “ाष्ठ अध्याय के दोनों कथाओं का Single प्रकार से आवर्तन है। इसमें श्वेतकेतु और प्रवाहण जैबलि का दार्शनिक सम्वाद तथा कैकय अश्वपति के सृष्टि विषयक तथ्यों का विशद वर्णन Reseller गया है, जिनमें छ: दार्शनिक विद्वानों के आत्म विषय चिन्तनों का description है। “ाष्ठ अध्याय में श्वेतकेतु का आख्यान described है, जिसमें उद्दालक आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया है। श्वेतकेतु ने वेदों का अध्ययन तो कर लिया, किन्तु ब्रह्मज्ञान नहीं सीखा था, तब उसके पिता आरुणि ने उसे ब्रह्म से ही चराचर जगत् की उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनाते हुए अन्न, जल और तेज से मन, प्राण और वाणी की उत्पत्ति बतायी है। तदनन्तर आरुणि ने श्वेतकेतु से वटवृक्ष का फल तोड़ने को कहा। फल तोड़ने पर उसमें से नन्हें-नन्हें बीज निकले, तब पिता ने उस बीज को भी फोड़ने को कहा। बीज के फोड़े जाने पर आरुणि ने कहा पुत्र ‘‘तुमने इसमें क्या देखा है ?’’ पुत्र ने कहा कि ‘‘मुझे कुछ भी नहीं दिखायी दे रहा है।’’ तब पिता ने पुत्र को समझाया कि ‘‘पुत्र! जिस बीज के भीतर तुम्हें कुछ भी नहीं दिखायी देता है, उसी में वह महान् वटवृक्ष है। इसी प्रकार ब्रह्म में ही सारा चराचर जगत् निहित है। ‘तत्त्वमसि’ यह महावाक्य उपनिषदों के चार महावाक्यों में Single है। इस महावाक्य की व्याख्या करते हुए आरुणि श्वेतकेतु से कहता है कि वह अणु जो शरीर में आत्मा है, सत् है, सर्वात्मा है, वही आत्मा है, वही वह सत् है, हे श्वेतकेता े! तू वही है। श्वेतकेतु पुन: प्रश्न करता है कि ‘‘वह आत्मा द्रष्टव्य क्यों नहीं है?’’ इसका उत्तर देते हुए आरुणि कहते हैं कि ‘‘जिस प्रकार जल में नमक डाल दिया जाय तो वह उसमें ऐसा घुल जाता है कि वह दिखायी नहीं देता, इसी प्रकार आत्मा सब में व्याप्त है, किन्तु वह इस प्रकार उनमें घुल-मिल गया है कि वह अलग से दिखायी नहीं देती है।’’

सप्तम अध्याय में नारद और सनत्कुमार का वृत्तान्त है। नारद ब्रह्मविद्या की शिक्षा के लिए सनत्कुमार के पास जाते हैं। सनत्कुमार ने नाम, वाक्, मन, संकल्पन, चित्त, ध्यान, विज्ञान, बल, अन्न, जल, तेज, आकाश, स्मरण, आशा, प्राण में से प्रत्येक को उत्तरोत्तर बढ़कर बताया और कहा कि सब कुछ प्राण में ही समाहित है और प्राण के न रहने पर मनुष्य का ऐहलौकिक जीवन नहीं रह जाता। अन्त में ब्रह्म के अन्तिम Reseller ‘भूमन्’ (असीम) का महत्व बताते हुए कहते हैं कि ‘‘भूमा ही सब कुछ है, वही शरीर में स्थित आत्मा है, वह अमृत है और अल्प ही मत्र्य है। अन्तिम अध्याय में शरीर और विश्व में स्थित आत्मा की तीन अवस्थाओं जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति का भी निर्देश है। तृतीय अवस्था में ही आत्मा के सच्चे स्वReseller का ज्ञान होता है। इस अध्याय के अन्त में इन्द्र और विरोचन की कथा described है। इस आख्यान में आत्म प्राप्ति के व्यावहारिक उपायों का संकेत Reseller गया है।

11. केनोपनिषद् 

यह सामवेद की जैमिनीय शाखा से सम्बद्ध है। इसी को ‘केनोपनिषद्’ और ‘जैमिनीयोपनिषद्’ भी कहते हैं। इसके दो भाग हैं। First भाग पद्यमय है। यह वेदान्त के विकास काल की Creation प्रतीत होती है। द्वितीय भाग गद्यमय है और अत्यन्त प्राचीन है। प्रत्येक भाग में दो खण्ड हैं। इस प्रकार कुल चार खण्ड हैं। First खण्ड में उपास्य ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म में अन्तर बताया गया है। द्वितीय खण्ड में ब्रह्म के रहस्यमय स्वReseller का विवेचन है। तृतीय And चतुर्थ खण्डों में उमा हैमवती के रोचक आख्यान द्वारा पर ब्रह्म की सर्वशक्तिमत्ता का विवेचन है। ब्रह्म के स्वReseller का विवेचन करते हुए हैमवती उमा ने देवताओं को बताया कि ‘‘यही ब्रह्म है जिनके कारण तुम लोगों की इतनी महिमा है।’’ वायु, अग्नि आदि उसी ब्रह्म के विकसित Reseller हैं। बिना उसकी इच्छा के ये कुछ भी नहीं कर सकते। सगुण और निर्गुण ब्रह्म का पार्थक्य बताते हुए उमा ने कहा कि ‘‘जिसका वर्णन वाणी से नहीं Reseller जा सकता, किन्तु जिसकी शक्ति से वाणी बोलती है, वही ब्रह्म है और जिनकी तुम उपासना करते हो,वह ब्रह्म नहीं है।’’ ब्रह्म ज्ञान की सीमा से परे असीम है। वह ज्ञेय-अज्ञेय दोनों से भिन्न है। यह जीवात्मा उस पर ब्रह्म का अंश है। सगुण ब्रह्म उपास्य है और निर्गुण ब्रह्म अज्ञेय तथा अनिर्वचनीय है।

12. प्रश्नोपनिषद्

यह अथर्ववेद की पिप्पलाद शाखा से सम्बद्ध है। इसमें सुकेशा, भार्गव, आश्वलायन, सत्यकाम, सौर्यायणी और कबन्धी ये छ: ऋषि महर्षि पिप्पलाद से अध्यात्मविषयक प्रश्नों का उत्तर पूछते हैं। इसी कारण इसका नाम ‘प्रश्नोपनिषद्’ है। ऋषियों द्वारा पूछे गये छ: प्रश्न –

  1. First प्रश्न कबन्धी कात्यायन का है – समस्त प्रजा की उत्पत्ति कैसे और कहाँ से हुर्इ है ?’’
  2. द्वितीय प्रश्न भार्गव का है – ‘‘कितने देवता प्रजाओं को धारण करते हैं, कौन उन्हें प्रकाशित करता है और उनमें कौन सबसे श्रेष्ठ है ?’’ . 
  3. तृतीय प्रश्न आश्वलायन का है – ‘‘प्राणों की उत्पत्ति कहाँ से होती है ? और उसका शरीर में आवागमन And उत्क्रमण किस प्रकार होता है ?’’ 
  4. चतुर्थ प्रश्न गाग्र्य सौर्यायणी का है – ‘‘आत्मा की जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं का आध्यात्मिक रहस्य क्या है ?’’ 
  5. प´्चम प्रश्न सत्यकाम का है – ‘‘ऊँ ‘आ उम्’ की उपासना का क्या रहस्य है ? उसके ध्यान से किस लोक की प्राप्ति होती है ?’’ 
  6. “ाष्ठ प्रश्न सुकेशा का है – ‘‘षोडशकला सम्पन्न पुरुष का स्वReseller क्या है ?’’ इन छहों प्रश्नों का उत्तर महर्षि पिप्पलाद ने छहों शिष्यों को दिया है। उनके उत्तर अध्यात्मवाद के प्राण हैं। इस उपनिषद् की शैली अत्यन्त वैज्ञानिक और महत्वपूर्ण है।

13. मुण्डकोपनिषद् 

यह अथर्ववेद की शौनक शाखा का उपनिषद् है। इसका मुण्डक नाम इसलिए पड़ा कि सम्भवत: इस सम्प्रदाय के लोग अपना शिर मुण्डित रखते थे। इसमें कुल तीन मुण्डक हैं। प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड हैं। इस उपनिषद् में ब्रह्मा के द्वारा अपने पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या का उपदेश देने का वर्णन है। इसमें परा और अपरा नामक दो विद्याओं का विवेचन है। जिसके द्वारा अक्षर ब्रह्म का ज्ञान हो सके, उसे पराविद्या कहते हैं और वेद-देवाड़्ग आदि को अपराविद्या कहते हैं। यह अक्षर ब्रह्मज्ञान की सीमा से परे अज्ञेय है। इस अक्षर ब्रह्म से ही जगत् की सृष्टि होती है। इस उपनिषद् में द्वैतवाद का स्पष्ट संकेत मिलता है। दो पक्षियों के Resellerक द्वारा जीव और ब्रह्म का भेद समझाया गया है – ‘‘परस्पर सख्यभाव से Single साथ रहने वाले दो पक्षी Single ही वृक्ष पर रहते हैं। उनमें से Single (जीवात्मा) उस पिप्पल के वृक्ष के फलों का स्वाद लेकर उसका भोग करता है और दूसर भोग न करता हुआ केवल देखता रहता है।

14. माण्डूक्योपनिषद् 

इसमें कुल बारह वाक्य हैं, यह गद्यात्मक है। इसमें ओड़्कार का रहस्य बताया गया है। इसमें ब्रह्म और आत्मविषयक विवेचन हुआ है। इसमें ब्रह्म (आत्मा, चैतन्य) की चार अवस्थाएँ बतार्इ गर्इ हैं – जाग्रत्, स्वप्न्, सुषुप्ति और तुरीय। जाग्रत् अवस्था में आत्मा इन्द्रिय विषयों का भोग करता है। इसे वैश्वानर कहते हैं। स्वप्नावस्था में अपनी पूर्व अवस्थाओं का ज्ञान रहता है, इसे तेजस् कहते हैं। सुषुप्त अवस्था में उसे कोर्इ इच्छा नहीं रहती, केवल ज्ञानमात्र रहता है। उस अवस्था में आत्मा प्रज्ञानधन और आनन्दमय होता है। इसे ‘प्राज्ञ’ कहते हैं। तुरीयावस्था में ब्रह्म निर्विकार And अद्वैतावस्था में रहता है। इस अवस्था में ब्रह्म शिवReseller हो जाता है। यही चैतन्य आत्मा का विशुद्ध Reseller है। इस उपनिषद् के According ‘ओउम्’ के अ उ म् – ये तीन वर्ण क्रमश: ब्रह्म की तीन अवस्थाओं के द्योतक हैं और पूरा ओउम् चतुर्थ अवस्था को द्योतित करता है।

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