सामाजिक परिवर्तन का Means, परिभाषा And सिद्धांत

सामाजिक परिवर्तन के अन्तर्गत हम मुख्य Reseller से तीन तथ्यों का अध्ययन करते हैं- (क) सामाजिक संCreation में परिवर्तन, (ख) संस्कृति में परिवर्तन And (ग) परिवर्तन के कारक। सामाजिक परिवर्तन के Means को स्पष्ट करने के लिए कुछ प्रमुख परिभाषाओं पर विचार करेंगे। मकीवर And पेज (R.M. MacIver and C.H. Page) ने अपनी पुस्तक Society में सामाजिक परिवर्तन को स्पष्ट करते हुए बताया है कि समाजशास्त्री होने के नाते हमारा प्रत्यक्ष संबंध सामाजिक संबंधों से है और उसमें आए हुए परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कहेंगे।  डेविस (K. Davis) के According सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य सामाजिक संगठन Meansात् समाज की संCreation And प्रकार्यों में परिवर्तन है।  एच0एम0 जॉनसन (H.M. Johnson) ने सामाजिक परिवर्तन को बहुत ही संक्षिप्त And Meansपूर्ण Wordों में स्पष्ट करते हुए बताया कि मूल Meansों में सामाजिक परिवर्तन का Means संCreationत्मक परिवर्तन है। जॉनसन की तरह गिडेन्स ने बताया है कि सामाजिक परिवर्तन का Means बुनियादी संCreation (Underlying Structure) या बुनियादी संस्था (Basic Institutions) में परिवर्तन से है।

ऊपर की परिभाषाओं के संबंध में यह कहा जा सकता है कि परिवर्तन Single व्यापक प्रक्रिया है। समाज के किसी भी क्षेत्र में विचलन को सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है। विचलन का Means यहाँ खराब या असामाजिक नहीं है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक, भौतिक आदि All क्षेत्रों में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है। यह विचलन स्वयं प्रकृति के द्वारा या Human समाज द्वारा योजनाबद्ध Reseller में हो सकता है। परिवर्तन या तो समाज के समस्त ढाँचे में आ सकता है अथवा समाज के किसी विशेक्ष पक्ष तक ही सीमित हो सकता है। परिवर्तन Single सर्वकालिक घटना है। यह किसी-न-किसी Reseller में हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है। परिवर्तन क्यों और कैसे होता है, इस प्रश्न पर समाजशास्त्री अभी तक Singleमत नहीं हैं। इसलिए परिवर्तन जैसी महत्वपूर्ण किन्तु जटिल प्रक्रिया का Means आज भी विवाद का Single विषय है। किसी भी समाज में परिवर्तन की क्या गति होगी, यह उस समाज में विद्यमान परिवर्तन के कारणों तथा उन कारणों का समाज में सापेक्षिक महत्व क्या है, इस पर निर्भर करता है। सामाजिक परिवर्तन के स्वReseller को स्पष्ट करने के लिए यहाँ इसकी प्रमुख विशेषताओं की Discussion अपेक्षित है।

सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएं

  1. सामाजिक परिवर्तन Single विश्वव्यापी प्रक्रिया (Universal Process) है। Meansात् सामाजिक परिवर्तन दुनिया के हर समाज में घटित होता है। दुनिया में ऐसा कोर्इ भी समाज नजर नहीं आता, जो लम्बे समय तक स्थिर रहा हो या स्थिर है। यह संभव है कि परिवर्तन की रफ्तार कभी धीमी और कभी तीव्र हो, लेकिन परिवर्तन समाज में चलने वाली Single अनवरत प्रक्रिया है। 
  2. सामुदायिक परिवर्तन ही वस्तुत: सामाजिक परिवर्तन है। इस कथन का मतलब यह है कि सामाजिक परिवर्तन का नाता किसी विशेष व्यक्ति या समूह के विशेष भाग तक नहीं होता है। वे ही परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहे जाते हैं जिनका प्रभाव समस्त समाज में अनुभव Reseller जाता है। 
  3. सामाजिक परिवर्तन के विविध स्वReseller होते हैं। प्रत्येक समाज में सहयोग, समायोजन, संघर्ष या प्रतियोगिता की प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं जिनसे सामाजिक परिवर्तन विभिन्न Resellerों में प्रकट होता है। परिवर्तन कभी Singleरेखीय (Unilinear) तो कभी बहुरेखीय (Multilinear) होता है। उसी तरह परिवर्तन कभी समस्यामूलक होता है तो कभी कल्याणकारी। परिवर्तन कभी चक्रीय होता है तो कभी उद्विकासीय। कभी-कभी सामाजिक परिवर्तन क्रांतिकारी भी हो सकता है। परिवर्तन कभी अल्प अवधि के लिए होता है तो कभी दीर्घकालीन।
  4. सामाजिक परिवर्तन की गति असमान तथा सापेक्षिक (Irregular and Relative) होती है। समाज की विभिन्न इकाइयों के बीच परिवर्तन की गति समान नहीं होती है। 
  5. सामाजिक परिवर्तन के अनेक कारण होते हैं। समाजशास्त्री मुख्य Reseller से सामाजिक परिवर्तन के जनसांख्यिकीय (Demographic), प्रौद्योगिक (Technological) सांस्कृतिक (Cultural) And आर्थिक (Economic) कारकों की Discussion करते हैं। इसके अलावा सामाजिक परिवर्तन के अन्य कारक भी होते हैं, क्योंकि Human-समूह की भौतिक (Material) And अभौतिक (Non-material) Needएँ अनन्त हैं और वे बदलती रहती हैं। 
  6. सामाजिक परिवर्तन की कोर्इ निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। इसका मुख्य कारण यह है कि अनेक आकस्मिक कारक भी सामाजिक परिवर्तन की स्थिति पैदा करते हैं।

विलबर्ट इ0 मोर (Wilbert E. Moore, 1974) ने आधुनिक समाज को ध्यान में रखते हुए सामाजिक परिवर्तन की विशेषताओं की Discussion अपने ढंग से की है, वे हैं-

  1. सामाजिक परिवर्तन निश्चित Reseller से घटित होते रहते हैं। सामाजिक पुनरुत्थान के समय में परिवर्तन की गति बहुत तीव्र होती है। 
  2. बीते समय की अपेक्षा वर्तमान में परिवर्तन की प्रक्रिया अत्यधिक तीव्र होती है। आज परिवर्तनों का अवलोकन हम अधिक स्पष्ट Reseller में कर सकते हैं। 
  3. परिवर्तन का विस्तार सामाजिक जीवन के All क्षेत्रों में देख सकते हैं। भौतिक वस्तुओं के क्षेत्र में, विचारों And संस्थाओं की तुलना में, परिवर्तन अधिक तीव्र गति से होता है। 
  4. हमारे विचारों And सामाजिक संCreation पर स्वाभाविक ढंग और सामान्य गति के परिवर्तन का प्रभाव अधिक पड़ता है।
  5. सामाजिक परिवर्तन का अनुमान तो हम लगा सकते हैं, लेकिन निश्चित Reseller से हम इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं। 
  6. सामाजिक परिवर्तन गुणात्मक (Qualitative) होता है। समाज की Single इकार्इ दूसरी इकार्इ को परिवर्तित करती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक पूरा समाज उसके अच्छे या बुरे प्रभावों से परिचित नहीं हो जाता। 
  7. आधुनिक समाज में सामाजिक परिवर्तन न तो मनचाहे ढंग से Reseller जा सकता है और न ही इसे पूर्णत: स्वतंत्र और असंगठित छोड़ दिया जा सकता है। आज हर समाज में नियोजन (Planning) के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को नियंत्रित कर वांछित लक्ष्यों की दिशा में क्रियाशील Reseller जा सकता है।

सामाजिक परिवर्तन के महत्वपूर्ण स्रोत

1. खोज

मनुष्य ने अपने ज्ञान And अनुभवों के आधार पर अपनी समस्याओं को सुलझाने और Single बेहतर जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत तरह की खोज की है। जैसे शरीर में रक्त संचालन, बहुत सारी बीमारियों के कारणों, खनिजों, खाद्य पदार्थों, Earth गोल है And वह Ultra site की परिक्रमा करती है आदि हजारों किस्म के तथ्यों की Human ने खोज की, जिनसे उनके भौतिक And अभौतिक जीवन में काफी परिवर्तन आया।

2. आविष्कार

विज्ञान और प्रौद्यागिकी के जगत में मनुष्य के आविष्कार इतने अधिक हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। आविष्कारों ने Human समाज में Single युगान्तकारी And क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है।

3. प्रसार

सांस्कृतिक जगत के परिवर्तन में प्रसार का प्रमुख योगदान रहा है। पश्चिमीकरण (Westernization), आधुनिकीकरण (Modernization), And भूमंडलीकरण (Globalization) जैसी प्रक्रियाओं का मुख्य आधार प्रसार ही रहा है। आधुनिक युग में प्रौद्योगिकी का इतना अधिक विकास हुआ है कि प्रसार की गति बहुत तेज हो गयी है।

4. आन्तरिक विभेदीकरण

(Internal Differentiation)—जब हम सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हैं, तो ऐसा लगता है कि परिवर्तन का Single चौथा स्रोत भी संभव है- वह है आन्तरिक विभेदीकरण। इस तथ्य की पुष्टि उद्विकासीय सिद्धान्त (Evolutionary Theory) के प्रवर्तकों के विचारों से होती है। उन लोगों का मानना है कि समाज में परिवर्तन समाज के स्वाभाविक उद्विकासीय प्रक्रिया से ही होता है। हरेक समाज अपनी Needओं के According धीरे-धीरे विशेष स्थिति में परिवर्तित होता रहता है। समाजशास्त्रियों And Humanशास्त्रियों ने अपने उद्विकासीय सिद्धान्त में स्वत: चलने वाली आन्तरिक विभेदीकरण की प्रक्रिया पर काफी बल दिया है।

सामाजिक परिवर्तन की कुछ संबंधित अवधारणाएं

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया कर्इ Resellerों में प्रकट होती हैं, जैसे- उद्विकास (Evolution), प्रगति (Progress), विकास (Development), सामाजिक आन्दोलन (Social Movement), क्रांति (Revolution) इत्यादि। चूँकि इन सामाजिक प्रक्रियाओं का सामाजिक परिवर्तन से सीधा संबंध है या कभी-कभी इन संबंधों को सामाजिक परिवर्तन का पर्यायवाची माना जाता है, इसलिए इन Wordों के Means के संबंध में काफी उलझनें हैं। इनका स्पष्टीकरण निम्नलिखित हैं।

1. उद्विकास

‘उद्विकास’ Word का प्रयोग सबसे First जीव-विज्ञान के क्षेत्र में चाल्र्स डार्विन (Charles Darwin) ने Reseller था। डार्विन के According उद्विकास की प्रक्रिया में जीव की संCreation सरलता से जटिलता (Simple to Complex) की ओर बढ़ती है। यह प्रक्रिया प्राकृतिक चयन (Natural Selection) के सिद्धान्त पर आधारित है। आरंभिक समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर ने जैविक परिवर्तन (Biological Changes) की भाँति ही सामाजिक परिवर्तन को भी कुछ आन्तरिक शक्तियों (Internal Forces) के कारण संभव माना है और कहा है कि उद्विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे निश्चित स्तरों से गुजरती हुर्इ पूरी होती है। उद्विकास की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए मकीवर And पेज ने लिखा है कि उद्विकास Single किस्म का विकास है। पर प्रत्येक विकास उद्विकास नहीं है क्योंकि विकास की Single निश्चित दिशा होती है, पर उद्विकास की कोर्इ निश्चित दिशा नहीं होती है। किसी भी क्षेत्र में विकास करना उद्विकास कहा जाएगा। मकीवर And पेज ने बताया है कि उद्विकास सिर्फ आकार में नहीं बल्कि संCreation में भी विकास है। यदि समाज के आकार में वृद्धि नहीं होती है और वह First से ज्यादा आन्तरिक Reseller से जटिल हो जाता है तो उसे उद्विकास कहेंगे।

2. प्रगति

परिवर्तन जब अच्छार्इ की दिशा में होता है तो उसे हम प्रगति (Progress) कहते हैं। प्रगति सामाजिक परिवर्तन की Single निश्चित दिशा को दर्शाता है। प्रगति में समाज-कल्याण और सामूहिक-हित की भावना छिपी होती है। ऑगबर्न And निमकॉफ ने बताया है कि प्रगति का Means अच्छार्इ के निमित्त परिवर्तन है। इसलिए प्रगति इच्छित परिवर्तन है। इसके माध्यम से हम पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों को पाना चाहते हैं।

मकीवर And पेज आगाह करते हुए कहा है कि हम लोगों को उद्विकास और प्रगति को Single ही Means में प्रयोग नहीं करना चाहिए। दोनों बिल्कुल अलग-अलग अवधारणाएँ हैं।

3. विकास

जिस प्रकार उद्विकास के Means बहुत स्पष्ट And निश्चित नहीं हैं, विकास की अवधारणा भी बहुत स्पष्ट नहीं है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में विकास का Means सामाजिक विकास से है। प्रारंभिक समाजशास्त्रियों विशेषकर कौंत, स्पेन्सर And हॉबहाउस ने सामाजिक उद्विकास (Social Evolution), प्रगति (Progress) And सामाजिक विकास (Social Development) को Single ही Means में प्रयोग Reseller था। आधुनिक समाजशास्त्री इन Wordों को कुछ विशेष Means में ही इस्तेमाल करते हैं।

आज समाजशास्त्र के क्षेत्र में विकास से हमारा तात्पर्य मुख्यत: सामाजिक विकास से है। इसका प्रयोग विशेषकर उद्योगीकरण And आधुनिकीकरण के चलते विकसित And विकासशील देशों के बीच अन्तर स्पष्ट करने के लिए होता है। सामाजिक विकास में आर्थिक विकास का भी भाव छिपा होता है और उसी के तहत हम परम्परागत समाज (Traditional Society), संक्रमणशील समाज (Transitional Society) And आधुनिक समाज (Modern Society) की Discussion करते हैं। आधुनिक शिक्षा का विकास भी Single प्रकार का सामाजिक विकास है। उसी तरह से कृषि पर आधारित सामाजिक व्यवस्था से उद्योग पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की ओर अग्रसर होना भी सामाजिक विकास कहा जाएगा। Second Wordों में, सामन्तवाद (Feudalism) से पूँजीवाद (Capitalism) की ओर जाना भी Single प्रकार का विकास है।

4. सामाजिक आन्दोलन

सामाजिक आन्दोलन सामाजिक परिवर्तन का Single बहुत प्रमुख कारक रहा है। विशेषकर दResellerनूसी समाज में सामाजिक आन्दोलनों के द्वारा काफी परिवर्तन आए हैं।

गिडेन्स के According सामूहिक आन्दोलन व्यक्ेितयों का ऐसा प्रयास है जिसका Single सामान्य उद्देश्य होता है और उद्देश्य की पूर्ति के लिए संस्थागत सामाजिक नियमों का सहारा न लेकर लोग अपने ढंग से व्यवस्थित होकर किसी परम्परागत व्यवस्था को बदलने का प्रयास करते हैं।

गिडेन्स ने कहा है कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि सामाजिक आन्दोलन और औपचारिक संगठन (Formal Organization) Single ही तरह की चीजें हैं, पर दोनों बिल्कुल भिन्न हैं। सामाजिक आन्दोलन के अन्तर्गत नौकरशाही व्यवस्था जैसे नियम नहीं होते, जबकि औपचारिक व्यवस्था के अन्तर्गत नौकरशाही नियम-कानून की अधिकता होती है। इतना ही नहीं दोनों के बीच उद्देश्यों का भी फर्क होता है। उसी तरह से कबीर पंथ, आर्य समाज, बह्मो समाज या हाल का पिछड़ा वर्ग आन्दोलन (Backward Class Movement) को सामाजिक आन्दोलन कहा जा सकता है। औपचारिक व्यवस्था नहीं।

5. क्रांति

सामाजिक आन्दोलन से भी ज्यादा सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम क्रांति है, इसलिए यहाँ इसकी भी Discussion आवश्यक है। क्रांति के द्वारा सामाजिक परिवर्तन के अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं। लेकिन पिछली दो-तीन शताब्दियों में Human History में काफी, बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ आर्इ हैं, जिससे कुछ राष्ट्रों में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में युगान्तकारी परिवर्तन हुए हैं। इस संदर्भ में 1775-83 की अमेरिकी क्रांति And 1789 की फ्रांसीसी क्रांति विशेष Reseller से उललेखनीय हैं। इन क्रांतियों के चलते आज समस्त विश्व में स्वतंत्रता (Liberty), सामाजिक समानता (Social Equality) और प्रजातंत्र (Democracy) की बात की जाती है। उसी तरह से रूसी और चीनी क्रांति का विश्व स्तर पर अपना ही महत्व है। अब्राम्स (Abrams, 1982) ने बताया है कि विश्व में अधिकांश क्रांतियाँ मौलिक सामाजिक पुनर्निमाण के लिए हुर्इ हैं। अरेंड (Nannah Arendt, 1963) के According क्रांतियों का मुख्य उद्देश्य परम्परागत व्यवस्था से अपने-आपको अलग करना And नये समाज का निर्माण करना है। History में कभी-कभी इसका अपवाद भी देखने को मिलता है। कुछ ऐसी भी क्रांतियाँ हुर्इ हैं, जिनके द्वारा हम समाज को और भी पुरातन समय में ले जाने की कोशिश करते हैं।

सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत

सामाजिक परिवर्तन के संबंध में विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्त का History Reseller है। इन सिद्धान्तों को कर्इ प्रकार से वर्गीकृत Reseller जा सकता है।

उद्वविकासवादी के प्रमुख प्रवर्तक हर्बर्ट स्पेन्सर हैं जिनके According सामाजिक परिवर्तन धीरे-धीरे, सरल से जटिल की और कुछ निश्चित स्तरों से गुजरता हुआ होता है।

संCreationत्मक कार्यात्मक सिद्धांत के प्रवर्तकों में दुर्खीम, वेबर, पार्सन्स, मर्टन आदि विद्वानों का History Reseller जा सकता है। इन विद्वानों के मतानुसार सामाजिक संCreation का निर्माण करने वाली प्रत्येक इकार्इ का अपना Single प्रकार्य होता है और यह प्रकार्य उसके अस्तित्व को बनाए रखने में महत्वपूर्ण होता है। इस प्रकार सामाजिक सरंचना और इसको बनाने वाली इकाइयों (संस्थाओं, समूहों आदि) के बीच Single प्रकार्यात्मक संबंध होता है और इसीलिए इन प्रकार्यों में जब परिवर्तन होता है तो सामाजिक संCreation भी उसी According बदल जाती है। सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन को ही सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। आगर्बन द्वारा प्रस्तुत ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ (Cultural Lag) के सिद्धान्त को भी कुछ विद्वान इसी श्रेणी में सम्मिलित करते हैं।

संघर्ष या द्वन्द्व के सिद्धांत के समर्थक कार्ल मार्क्स, कोजर, डेहर डोर्फ़ आदि हैं। इनके सिद्धान्तों का सार-तत्व यह है कि सामाजिक जीवन में होने वाले परिवर्तन का प्रमुख आधार समाज में मौजूद दो विरोधी तत्वों या शक्तियों के बीच होने वाला संघर्ष या द्वन्द्व है।

चक्रीय सिद्धान्त के प्रमुख प्रवर्तक स्पेगलट, परेटो आदि हैं जो कि परिवर्तन की दिशा को चक्र की भाँति मानते हैं।

1. चक्रीय सिद्धान्त

सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त की मूल मान्यता यह है कि सामाजिक परिवर्तन की गति और दिशा Single चक्र की भाँति है और इसलिए सामाजिक परिवर्तन जहाँ से आरम्भ होता है, अन्त में घूम कर फिर वहीं पहुँच कर समाप्त होता है। यह स्थिति चक्र की तरह पूरी होने के बाद बार-बार इस प्रक्रिया को दोहराती है। इसका उत्तम उदाहरण भारत, चीन व ग्रीक की सभ्यताएँ हैं। चक्रीय सिद्धान्त के कतिपय प्रवर्तकों ने अपने सिद्धान्त के सार-तत्व को इस Reseller में प्रस्तुत Reseller है कि History अपने को दुहराता है’।

चक्रीय सिद्धान्त विचारानुसार परिवर्तन की प्रकृति Single चक्र की भाँति होती है। Meansात् जिस स्थिति से परिवर्तन शुरू होता है, परिवर्तन की गति गोलाकार में आगे बढ़ते-बढ़ते पुन: उसी स्थान पर लौट आती है जहाँ पर कि वह आरम्भ में थी। विल्फ्रेडो परेटो ने सामाजिक परिवर्तन के अपने चक्रीय सिद्धान्त में यह दर्शाने का प्रयत्न Reseller है कि किस भाँति राजनीतिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में चक्रीय गति से परिवर्तन होता रहता है।

परेटो का चक्रीय सिद्धान्त

परेटो के According प्रत्येक सामाजिक संCreation में जो ऊँच-नीच का संस्तरण होता है, वह मोटे तौर पर दो वर्गों द्वारा होता है- उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग। इनमें से कोर्इ भी वर्ग स्थिर नहीं होता, अपितु इनमें ‘चक्रीय गति’ (Cyclical Movement) पार्इ जाती है। चक्रीय गति इस Means में कि समाज में इन दो वर्गों में निरन्तर ऊपर से नीचे या अधोगामी और नीचे से ऊपर या ऊध्र्वगामी प्रवाह होता रहता है। जो वर्ग सामाजिक संCreation में ऊपरी भाग में होते हैं वह कालान्तर में भ्रष्ट हो जाने के कारण अपने पद और प्रतिष्ठा से गिर जाते हैं, Meansात। अभिजात-वर्ग अपने गुणों को खोकर या असफल होकर निम्न वर्ग में आ जाते हैं। दूसरी ओर, उन खाली जगहों को भरने के लिए निम्न वर्ग में जो बुद्धिमान, कुशल, चरित्रवान तथा योग्य लोग होते हैं, वे नीचे से ऊपर की ओर जाते रहते हैं। इस प्रकार उच्च वर्ग का निम्न वर्ग में आने या उसका विनाश होने और निम्न वर्ग का उच्च वर्ग में जाने की प्रक्रिया चक्रीय ढंग से चलती रहती है। इस चक्रीय गति के कारण सामाजिक ढाँचा परिवर्तित हो जाता है या सामाजिक परिवर्तन होता है।

परेटो के According सामाजिक परिवर्तन के चक्र के तीन मुख्य पक्ष हैं- राजनीतिक, आर्थिक तथा आदर्शात्मक। राजनीतिक क्षेत्र में चक्रीय परिवर्तन तब गतिशील होता है जब शासन-सत्ता उस वर्ग के लोगों के हाथों में आ जाती है जिनमें समूह के स्थायित्व के विशिष्ट-चालक अधिक शक्तिशाली होते हैं। इन्हें ‘शेर’ (Lions) कहा जाता है। समूह के स्थायित्व के विशिष्ट-चालक द्वारा अत्यधिक प्रभावित होने के कारण इन ‘शेर’ लोगों का कुछ आदर्शवादी लक्ष्यों पर दृढ़ विश्वास होता है और उन आदर्शों की प्राप्ति के लिए ये शक्ति का भी सहारा लेने में नहीं झिझकते। शक्ति-प्रयोग की प्रतिक्रिया भयंकर हो सकती है, इसलिए यह तरीका असुविधाजनक होता है। इस कारण वे कूटनीति का सहारा लेते हैं, और ‘शेर, से अपने को ‘लोमड़ियों’ (foxes) में बदल लेते हैं और लोमड़ी की भाँति चालाकी से काम लेते हैं। लेकिन निम्न वर्ग में भी लोमड़ियाँ होती हैं और वे भी सत्ता को अपने हाथ में लेने की फिराक में रहती हैं। अन्त में, Single समय ऐसा भी आता है जबकि वास्तव में उच्च वर्ग की लोमड़ियों के हाथ से सत्ता निकालकर निम्न वर्ग की लोमड़ियों के हाथ में आ जाती है, तभी राजनीतिक क्षेत्र में या राजनीतिक संगठन और व्यवस्था में परिवर्तन होता है।

जहाँ तक आर्थिक क्षेत्र या आर्थिक संगठन और व्यवस्था में परिवर्तन का प्रश्न है, परेटो हमारा ध्यान समाज के दो आर्थिक वर्गों की ओर आकर्षित करते हैं। वे दो वर्ग हैं- (1) सट्टेबाज (speculators) और (2) निश्चित आय वाला वर्ग (rentiers)। First वर्ग के सदस्यों की आय बिल्कुल अनिश्चित होती है, कभी कम तो कभी ज्यादा; पर जो कुछ भी इस वर्ग के लोग कमाते हैं वह अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर ही कमाते हैं। इसके विपरीत, Second वर्ग की आय निश्चित या लगभग निश्चित होती है क्योंकि वह सट्टेबाजों की भाँति अनुमान पर निर्भर नहीं है। सट्टेबाजों में सम्मिलन के विशिष्ट-चालक की प्रधानता तथा निश्चित आय वाले वर्ग के समूह में स्थायित्व के विशिष्ट-चालक की प्रमुखता पार्इ जाती है। इसी कारण First वर्ग के लोग आविष्कारकर्ता, लोगों के नेता या कुशल व्यवसायी आदि होते हैं। यह वर्ग अपने आर्थिक हित या अन्य प्रकार की शक्ति के मोह से चालाकी और भ्रष्टाचार का स्वयं शिकार हो जाता है जिसके कारण उसका पतन होता है और दूसरा वर्ग उसका स्थान ले लेता है। समाज की समृद्धि या विकास इसी बात पर निर्भर है कि सम्मिलन का विशिष्ट-चालक वाला वर्ग नए-नए सम्मिलन और आविष्कार के द्वारा राष्ट्र को नवप्रवर्तन की ओर ले जाए और समूह के स्थायित्व के विशिष्ट-चालक वाला वर्ग उन नए सम्मिलनों से मिल सकने वाले समस्त लाभों को प्राप्त करने में सहायता दें। आर्थिक प्रगति या परिवर्तन का रहस्य इसी में छिपा हुआ है।

उसी प्रकार में अविश्वास और विश्वास का चक्र चलता रहता है। किसी Single समय-विशेष में समाज में विश्वासवादियों का प्रभुत्व रहता है परन्तु वे अपनी दृढ़ता या रूढ़िवादिता के कारण अपने पतन का साधन अपने-आप ही जुटा लेते हैं और उनका स्थान Second वर्ग के लोग ले लेते हैं।

2. उतार-चढ़ाव का सिद्धान्त

चक्रीय सिद्धान्त से मिलता-जुलता सोरोकिन का ‘सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धान्त’ (Theory of Socio-cultural Dynamics) या उतार-चढ़ाव का सिद्धान्त है। कतिपय विद्वानों ने इसे चक्रीय सिद्धान्त की श्रेणी में ही रखा है।

हैस स्पीयर के Wordों में, सोरोकिन इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट पता चलता है कि कोर्इ प्रगति नहीं हुर्इ है, न कोर्इ चक्रीय परिवर्तन हुआ है। सोरोकिन के According जो कुछ भी है वह केवल मात्र उतार-चढ़ाव (Fluctuation) है। संस्कृति के बुनियादी स्वResellerों का उतार-चढ़ाव, सामाजिक संबंधों का उतार-चढ़ाव, शक्ति के केन्द्रीकरण का उतार-चढ़ाव यहाँ तक कि आर्थिक अवस्थाओं में सर्वत्र ही उतार-चढ़ाव है।’’ इसी उतार-चढ़ाव में समस्त सामाजिक घटनाओं और परिवर्तनों का रहस्य छिपा हुआ है।

सोरोकिन के According सामाजिक परिवर्तन सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के उतार-चढ़ाव में व्यक्त होता है। उतार-चढ़ाव की धारणा सोरोकिन के सिद्धान्त का First आधार है। यह उतार-चढ़ाव दो सांस्कृतिक व्यवस्थाओं-चेतनात्मक संस्कृति तथा भावनात्मक संस्कृति-के बीच होता है। Second Wordों में, जब समाज चेतनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था से भावनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था में या भावनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था से चेतनात्मक सांस्कृतिक व्यवस्था में बदलता है, तभी सामाजिक परिवर्तन होता है। Meansात् तभी विज्ञान, दर्शन, धर्म, कानून, नैतिकता, आर्थिक व्यवस्था, राजनीति, कला, साहित्य, सामाजिक संबंध सब-कुछ बदल जाता है। इस प्रकार सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का दूसरा आधार चेतनात्मक संस्कृति और भावनात्मक संस्कृति के बीच भेद है।

सोरोकिन  के According जब Single सांस्कृतिक व्यवस्था, उदाहरणार्थ चेतनात्मक संस्कृति व्यवस्था अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो उसे अपनी गति को विपरीत दिशा, Meansात् भावनात्मक संस्कृति व्यवस्था की ओर मोड़ना ही पड़ता है। Meansात् First की व्यवस्था के स्थान पर दूसरी व्यवस्था का जन्म होता है; क्योंकि प्रत्येक व्यवस्था की-चाहे वह कितनी ही अच्छी हो या बुरी-पनपने, आगे बढ़ने अथवा विकसित होने की Single सीमा है। यही सोरोकिन का ‘सीमाओं का सिद्धान्त’ है जो कि सामाजिक परिवर्तन का तीसरा आधार है।

इन सीमाओं के सिद्धान्त को बीरस्टीड द्वारा प्रस्तुत Single उदाहरण की सहायता से अति सरलता से समझा जा सकता है। यदि आप प्यानों की Single कुंजी को उँगली मारेंगे तो उससे कुछ ध्वनि उत्पन्न होगी। यदि आप जरा जोर से उँगली मारेंगे तो अवश्य ही ध्वनि भी अधिक जोर की होगी। परन्तु इस प्रकार जोर से उँगली मारने और अधिक जोर से ध्वनि निकालने की Single सीमा है। Single सीमा से अधिक जोर से यदि आप प्यानों पर आघात करेंगे तो अधिक जोर से ध्वनि निकलने की अपेक्षा स्वयं प्यानों ही टूट जाएगा। यही बात सांस्कृतिक व्यवस्थाओं पर भी लागू होती है। Single सांस्कृतिक व्यवस्था Single सीमा तक पहुँच जाने के बाद फिर आगे नहीं बढ़ सकती और तब तक विपरीत प्रभाव उत्पन्न हो जाता है और टूटे हुए प्यानों की भाँति उस व्यवस्था के स्थान पर Single नवीन सांस्कृतिक व्यवस्था स्वत: उदय होती है।

सोरोकिन के सामाजिक परिवर्तन का यह है कि सांस्कृतिक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन होता तो अवश्य है, परन्तु होता है अनियमित Reseller में। Second Wordों में, सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के उतार-चढ़ाव को किन्हीं निश्चित बन्धनों में बाँधा नहीं जा सकता है। यद्यपि यह सच है कि संस्कृति Single गतिशील व्यवस्था है फिर भी हम यह आशा नहीं कर सकते कि Single सांस्कृतिक व्यवस्था किसी Single निश्चित दिशा की ओर स्थायी Reseller में गतिशील रहेगी।

अब प्रश्न यह उठता है कि चेतनात्मक अवस्था से भावनात्मक अवस्था में या भावनात्मक अवस्था से चेतनात्मक अवस्था में जो परिवर्तन होता है उस परिवर्तन को लाने वाली कौन-सी शक्ति हैं? सोरोकिन ने इस प्रश्न का उत्तर ‘स्वाभाविक परिवर्तन का सिद्धान्त’ (Principle of Immanent Change) के आधारपर दिया है और यही आपके सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त का आधार है। ‘स्वाभाविक परिवर्तन का सिद्धान्त’ है कि परिवर्तन होने का कारण या परिवर्तन लाने वाली शक्ति स्वयं संस्कृति की अपनी प्रकृति में ही अन्तर्निहित है। परिवर्तन लाने वाली कोर्इ बाहरी शक्ति नहीं बल्कि संस्कृति की प्रकृति में ही क्रियाशील आन्तरिक शक्ति या शक्तियाँ हैं। संक्षेप में, सोरोकिन के According, सामाजिक परिवर्तन Single स्वाभाविक प्रक्रिया है जोकि संस्कृति के अन्दर ही क्रियाशील कुछ शक्तियों का परिणाम होती है। सामाजिक परिवर्तन Single कृत्रिम प्रक्रिया है या किसी बाह्य शक्ति द्वारा प्रेरित होती है- ऐसा सोचना गलत है। चेतनात्मक अवस्था से भावनात्मक अवस्था का या भावनात्मक अवस्था से चेतनात्मक अवस्था का परिवर्तन Single स्वाभाविक तथा आन्तरिक प्रक्रिया है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ऐसा होना ही स्वाभाविक है। उदाहरणार्थ, गुलाब का Single बीज केवल गुलाब के ही पौधे में, न कि अन्य प्रकार के पौधे में, इसलिए विकसित होता है क्योंकि यही स्वाभाविक है या वह उस बीज के स्वभाव में अन्तर्निहित है।

3. रेखीय परिवर्तन का सिद्धान्त

यह सामाजिक परिवर्तन का वह स्वReseller है; जिसमें परिवर्तन की दिशा सदैव ऊपर की ओर होती है। परिवर्तन Single सिलसिले या क्रम से विकास की ओर Single ही दिशा में निरन्तर होता जाता है। जो आविष्कार आज हुआ है उससे आगे ही आविष्कार होगा, जैसे रेडियों के बाद टेलीविजन का अविष्कार हुआ उसे और विकसित करके टेलीफोन से बात करते समय दूसरी ओर से बात करने वाले को देखा भी जा सकेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि परिवर्तन के इस प्रतिमान में परिवर्तन रेखीय होता है और उसे हम Single रेखा से प्रदर्शित कर सकते हैं। इस परिवर्तन की गति तीव्र या मंद हो सकती है।

आदिम समाज में परिवर्तन धीमी गति से था जबकि आधुनिक समाजों में गति तीव्र है, परन्तु दोनों समाजों में परिवर्तन Single रेखा में ही Meansात आगे बढ़ता हुआ है। सामाजिक परिवर्तन के रेखाीय सिद्धान्त को स्पष्ट Reseller से समझने के लिए अगर इसका अन्तर चक्रीय सिद्धान्त से Reseller जाए तो इसकी प्रकृति को सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। दोनों में अन्तर निम्न प्रकार से Reseller जा सकता है-

  1. रेखीय सिद्धान्त इस विचार पर आधारित है कि सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति Single निश्चित दिशा की ओर बढ़ने की होती है, इसके विपरीत चक्रीय सिद्धान्त के According सामाजिक परिवर्तन सदैव उतार-चढ़ाव से युक्त होते हैं Meansात प्रत्येक परिवर्तन सदैव नर्इ दिशा उत्पन्न नहीं करता बल्कि इसके कारण समूह द्वारा कभी नर्इ विशेषताओं और कभी First छोड़ी जा चुकी विशेषताओं को पुन: ग्रहण Reseller जा सकता है।
  2. रेखीय सिद्धान्त के According सामाजिक परिवर्तन की दिशा साधारणतया अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ने की होती है। चक्रीय सिद्धान्त में परिवर्तन के किसी ऐसे क्रम को स्पष्ट नहीं Reseller जा सकता, इसमें परिवर्तन पूर्णता से अपूर्णता अथवा अपूर्णता से पूर्णता किसी भी दिशा की ओर हो सकता है। 
  3. रेखीय सिद्धान्त के According परिवर्तन की गति आरम्भ में धीमी होती है लेकिन Single निश्चित बिन्दु तक पहुँचने के बाद परिवर्तन बहुत स्पष्ट Reseller से तथा तेजी से होने लगता है। प्रौद्योगिक विचार से उत्पन्न परिवर्तन इस कथन की पुष्टि करते हैं। जबकि इसके विपरीत चक्रीय सिद्धान्त के According Single विशेष परिवर्तन को किसी निश्चित अवधि का अनुमान नहीं लगाया जा सकता । परिवर्तन कभी जल्दी-जल्दी हो सकते हैं और कभी बहुत सामान्य गति से। 
  4. रेखीय सिद्धान्त की तुलना में चक्रीय सिद्धान्तों पर विकासवाद (Evolutionism) का प्रभाव बहुत कम है। तात्पर्य यह है कि रेखाीय सिद्धान्त के According परिवर्तन की प्रवृत्ति Single ही दिशा में तथा सरलता से जटिलता की ओर बढ़ने की होती है। इसके विपरीत चक्रीय सिद्धान्त सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन में भेद करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि विकासवादी प्रक्रिया अधिक से अधिक सामाजिक परिवर्तन में ही देखने को मिलती है जबकि सांस्कृतिक जीवन और विशेष मूल्यों तथा लोकाचारों में होने वाला परिवर्तन उतार-चढ़ाव से युक्त रहता है। 
  5. रेखीय सिद्धान्त सैद्धान्तिकता (indoctrination) पर अधिक बल देते हैं, ऐतिहासिक साक्षियों पर नहीं। जब कि चक्रीय सिद्धान्त के द्वारा उतार-चढ़ाव से युक्त परिवर्तनों को ऐतिहासिक प्रमाणों के द्वारा स्पष्ट Reseller गया है इस प्रकार उनके प्रतिपादकों का दावा है कि उनके सिद्धान्त अनुभवसिद्ध हैं। 
  6. रेखीय परिवर्तन व्यक्ति के जागरूक प्रयत्नों से संबंधित है। इतना अवश्य है कि रेखीय परिवर्तन Single विशेष भौतिक पर्यावरण से प्रभावित होते हैं लेकिन भौतिक पर्यावरण स्वयं मनुष्य के चेतन प्रयत्नों से निर्मित होता है। जबकि चक्रीय सिद्धान्त के According सामाजिक परिवर्तन Single बड़ी सीमा तक मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र है। इसका तात्पर्य यह है कि प्राकृतिक दशाओं, Humanीय Needओं तथा प्रवृत्तियों (Attitudes) में होने वाले परिवर्तन के साथ सामाजिक संCreation स्वयं ही Single विशेष Reseller ग्रहण करना आरम्भ कर देती है। 
  7. रेखीय सिद्धान्त परिवर्तन के Single विशेष कारण पर ही बल देता है और यही कारण है कि कुछ भौतिक दशाएँ सदैव अपने और समूह के बीच Single आदर्श सन्तुलन अथवा अभियोजनशीलता (Adjustment) स्थापित करने का प्रयत्न करती है। जबकि चक्रीय सिद्धान्त परिवर्तन का कोर्इ विशेष कारण स्पष्ट नहीं करते बल्कि इनके According समाज में अधिकांश परिवर्तन इसलिए उत्पन्न होते हैं कि परिवर्तन का स्वाभाविक नियम है।
  8. रेखीय सिद्धान्त इस तथ्य पर बल देते हैं कि परिवर्तन का क्रम All समाजों पर समान Reseller से लागू होता है। इसका कारण यह है कि Single स्थान के भौतिक अथवा प्रौद्योगिक पर्यावरण में उत्पन्न होने वाले परिवर्तन को शीघ्र ही Second समाज द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। बल्कि चक्रीय सिद्धान्त के According Single विशेष प्रकृति के परिवर्तन का Reseller सर्वव्यापी नहीं होता; Meansात विभिन्न समाजों और विभिन्न अवधियों में परिवर्तन की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न प्रकार से Human समूहों को प्रभावित करती है।

4. द्वन्द्व या संघर्ष का सिद्धान्त 

द्वन्द्व या संघर्ष का सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि समाज में होने वाले परिवर्तनों का प्रमुख आधार समाज में मौजूद दो विरोधी तत्वों व शक्तियों के बीच होने वाला संघर्ष या द्वन्द्व है। इस सिद्धान्त के समर्थक यह मानने से इन्कार करते हैं कि समाज बिना किसी बाधा, गतिरोध या संघर्ष के उद्विकासीय ढंग से सरल से उच्च व जटिल स्तर तक पहुँच जाता या परिवर्तित होता है। उनके According समाज की प्रत्येक क्रिया, उप-व्यवस्था (sub-system) और वर्ग का विरोधी तत्व अवश्य होता है और इसीलिए उनमें विरोधी प्रतिक्रिया या संघर्ष अवश्य होता है। इस संघर्ष के फलस्वReseller ही सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक परिवर्तन घटित होता है। साथ ही, ये परिवर्तन सदा शान्तिपूर्ण ढंग से होता हो, यह बात भी नहीं है क्योंकि समाज विस्फोटक तत्वों या शक्तियों से भरा हुआ होता है। इसलिए क्रान्ति के द्वारा भी परिवर्तन घटित हो सकता है। क्रान्ति के इस कष्ट को सहन किए बिना नए युग का प्रारम्भ उसी प्रकार सम्भव नहीं जैसे प्रसव पीड़ा को सहन किए बिना नव सन्तान का जन्म सम्भव नहीं। इसी सन्दर्भ में संघर्ष के कुछ सिद्धान्तों की विवेचना है।

  1. कार्ल मार्क्स का सिद्धांत
  2. कोजर का सिद्धांत
  3. दहेरेन्डॉर्फ़ का सिद्धांत
  4. वेबलन का का सिद्धांत
  5. टोयनोबी का सिद्धांत

सामाजिक परिवर्तन के प्रकार या प्राReseller

All समाज और All कालों में सामाजिक परिवर्तन Single जैसा नहीं होता है। अत: हमें सामाजिक परिवर्तन के स्वReseller के सन्दर्भ में उसके प्रतिReseller (Patterns), प्रकार (Kinds) या प्राReseller (Models) पर विचार करना चाहिए। Means की दृष्टि से तीनों Wordों में काफी भेद है, पर विषय-वस्तु की दृष्टि से समानता। वे All Single ही किस्म की विषय-वस्तु के द्योतक हैं। निम्न description से इस तथ्य की पुष्टि हो जाएगी।

सामाजिक परिवर्तन के अनेक प्रतिReseller (Patterns) देखने को मिलते हैं। कुछ विचारकों ने सर्वसम्मत, विरोध मत And Singleीकृत प्रतिमानों की Discussion की है। मकीवर And पेज ने सामाजिक प्रतिReseller के मुख्य तीन स्वResellerों की Discussion की है, जो इस प्रकार हैं-

  1. सामाजिक परिवर्तन कभी-कभी क्रमबद्ध तरीके से Single ही दिशा में निरंतर चलता रहता है भले ही परिवर्तन का आरंभ SingleाSingle ही क्यों न हो। उदाहरण के लिए हम विभिन्न अविष्कारों के बाद परिवर्तन के क्रमों की Discussion कर सकते हैं। विज्ञान के अन्तर्गत परिवर्तन की प्रकृति Single ही दिशा में निरंतर आगे बढ़ने की होती है, इसलिए ऐसे परिवर्तन को हम रेखीय (Linear) परिवर्तन कहते हैं। अधिकांश उद्विकासीय समाजशास्त्री (Evolutionary Sociologists) Single रेखीय सामाजिक परिवर्तन में विश्वास करते हैं। 
  2. कुछ सामाजिक परिवर्तनों में परिवर्तन की प्रकृति ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जाने की होती है, इसलिए इसे उतार-चढ़ाव परिवर्तन (Fluctuating Changes) के नाम से भी हम जानते हैं। उदाहरण के लिए Indian Customer सांस्कृतिक परिवर्तन की Discussion कर सकते हैं। First भारत के लोग आध्यात्मवाद (Spiritualism) की ओर बढ़ रहे थे, जबकि आज वे उसके विपरीत भौतिकवाद (Materialism) की ओर बढ़ रहे हैं। First का सामाजिक मूल्य ‘त्याग’ पर जोर देता था, जबकि आज का सामाजिक मूल्य ‘भोग’ And संचय पर जोर देता है। इस प्रतिReseller के अन्तर्गत यह निश्चित नहीं होता कि परिवर्तन कब और किस दिशा की ओर उन्मुख होगा। 
  3. परिवर्तन के तृतीय प्रतिReseller को तरंगीय परिवर्तन के भी नाम से जाना जाता है। इस परिवर्तन के अन्तर्गत उतार-चढ़ावदार परिवर्तन में परिवर्तन की दिशा Single सीमा के बाद विपरीत दिशा की ओर उन्मुख हो जाती है। इसमें लहरों (Waves) की भाँति Single के बाद दूसरा परिवर्तन आता है। ऐसा कहना मुश्किल होता है कि दूसरी लहर पहली लहर के विपरीत है। हम यह भी कहने की स्थिति में नहीं होते हैं कि दूसरा परिवर्तन First की तुलना में उन्नति या अवनति का सूचक है। इस प्रतिReseller का सटीक उदाहरण है फैशन। हर समाज में नये-नये फैशन की लहरें आती रहती हैं। हर फैशन में लोगों को कुछ-न-कुछ नया परिवर्तन दिखार्इ देता है। ऐसे परिवर्तनों में उत्थान, पतन और प्रगति की Discussion फिजूल है।

सामाजिक परिवर्तन के कारक

सामाजिक परिवर्तन के अनगिनत कारक हैं। कारकों की प्रमुखता देश और काल से प्रभावित होती है। जिन कारणों से आज सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं, उनमें से बहुत कारक प्राचीन काल में मौजूद नहीं थे। परिवर्तन के जिन कारकों की महत्ता प्राचीन And मध्य काल में रही है, आज उसकी महत्ता उतनी नहीं रह गयी है। समय के साथ परिवर्तन का स्वReseller और कारक दोनों बदलते रहते हैं। एच0एम0 जॉनसन ने परिवर्तन के स्रोतों को ध्यान में रखकर परिवर्तन के All कारकों को मुख्य Reseller से तीन भागों में रखा है।

(1) आन्तरिक कारण –

सामाजिक परिवर्तन कभी-कभी आन्तरिक कारणों से भी होता है। व्यवस्था का विरोध आन्तरिक विरोध (Internal Contradictions) से भी होता है। जब लोग किसी कारणवश अपनी परम्परागत व्यवस्था से खुश नहीं होते हैं तो उसमें फेरबदल करने की कोशिश करते रहते हैं। आमतौर पर Single बन्द समाज में परिवर्तन का मुख्य स्रोत अंतर्जात (Endogenous/Orthogenetic) कारक ही रहा है। धर्म सुधार आन्दोलन से जो हिन्दू समाज में परिवर्तन आया है, वह अंतर्जात कारक का Single उदाहरण है।

(2) बाहरी कारण –

जब दो प्रकार की सामाजिक व्यवस्था, प्रतिमान And मूल्य Single-Second से मिलते हैं तो सामाजिक परिवर्तन की स्थिति का निर्माण होता है। पश्चिमीकरण या पाश्चात्य प्रौद्योगिकी के द्वारा जो Indian Customer समाज में परिवर्तन आया है, उसे इसी श्रेणी में रखा जाएगा। साधारणत: युग में परिवर्तन के आन्तरिक स्रोतों की तुलना में बहिर्जात (Exogenous/Heterogenetic) कारकों की प्रधानता होती है।

(3) गैरसामाजिक कारण –

सामाजिक परिवर्तन का स्रोत हमेशा सामाजिक कारण ही नहीं होता। कभी-कभी भौगोलिक या भौतिक स्थितियों में परिवर्तन से भी सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होता है। आदिम And पुरातनकाल में जो समाज में परिवर्तन हुए हैं, उन परिवर्तनों से गैरसामाजिक कारकों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

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