संत रविदास जी का History

संत रविदास का जन्म वर्तमान उत्तर प्रदेश के तत्कालीन अवध प्रान्त के
प्रसिद्ध ऐतिहासिक धर्मस्थली काशी नगरी (बनारस) छावनी से लगभग 04
किलोमीटर दूर माण्डूर (मंडवाडीह) नामक गाँव में श्री हरिनन्द (दादा) जी के
परिवार में हुआ था। जन्म के समय उनके पिता श्री रघु जी व माता श्रीमती
करमा देवी जी को यह नहीं मालूम था कि उनके घर में जन्मा यह पुत्र Indian Customer
समाज की उन सच्चाईयों को पहचानने वाला वह साहसी बालक Indian Customer समाज
का समाज वैज्ञानिक बनकर परम्परागत अच्छाईयों और बुराईयों को लोगों के
समक्ष रखने में महानता और विद्वता का परिचय देगा।संत रविदास का जन्म पऱदादा-श्री कालूराम जी, पऱदादी श्रीमती लखपती
देवी जी, दादा-श्री हरिनन्द जी, दादी-श्रीमती चतर कौर जी के परिवार में 25
जनवरी सन् 1376 ई0 में हुआ था। Fourteenवीं शताब्दी में जन्में संत रविदास की
जन्मतिथि के बारे में विद्वानों में मत भिन्नता देखने को मिलती है। उनके जन्म
तिथि के संदर्भ में अनेकों मत विभिन्न ग्रन्थों, साहित्यों में इस प्रकार उल्लिखित
हैं-

  1. डॉ धर्मपाल मैनी संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1441 तदनुसार 27
    जनवरी सन् 1385 ई0 मानते हैं।
  2. डॉ0 आर0एल0 हांडा संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1444, 24
    जनवरी सन् 1388 ई0 मानते हैं।
  3.  डॉ0 गंगाराय गर्ग संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1444, 24 जनवरी
    सन् 1388 ई0 मानते हैं।
  4. डॉ0 राम कुमार वर्मा संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1445, 12
    जनवरी सन् 1389 ई0 मानते हैं।
  5. डॉ0 रामानन्द शास्त्री संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1454 से First
    मानते हैं।
  6. डॉ0 भगवत मिश्र ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455, 12
    जनवरी सन् 1399 ई0 मानी है।
  7. डॉ0 विष्णुदत्त राकेश ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455, 12
    जनवरी सन् 1399 ई0 मानी है।
  8. डॉ0 दर्शन सिंह ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471, 25 जनवरी
    सन् 1415 ई0 माना है।
  9. डॉ0 गोविन्द त्रिगुणायक संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471
    तदनुसार 25 जनवरी सन् 1415 ई0 मानते हैं।
  10. डॉ0 वी0पी0 शर्मा ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455 तदनुसार
    12 जनवरी सन् 1399 ई0 माना है।
  11. सं0 राम प्रसाद त्रिपाठी ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1455, 12
    जनवरी सन् 1399 ई0 मानी है।
  12. महन्त सत्य दरबारी संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1456, 12
    जनवरी सन् 1400 ई0 मानते हैं।
  13. ज्ञानी बरकत सिंह भी संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471 तदनुसार
    25 जनवरी सन् 1415 ई0 मानते हैं।
  14. महात्मा रामचरण कुरील ने संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1471, 25
    जनवरी सन् 1415 ई0 मानी है।आचार्य Earth सिंह आजाद संत रविदास की जन्मतिथि वि0सं0 1433, सन्
    1376 ई0 मानते हैं।

इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अधिकांश विद्वान संत
रविदास का जन्म 14वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में होना मानते हैं। इसलिए संत
रविदास का जन्म 14वीं शताब्दी में ही हुआ। सिर्फ दिन और वर्ष में मतभेद है।
इसके लिए हम डॉ0 Earth सिंह आजाद द्वारा स्वीकृत सन् 1376 ई0 ही मानना
चाहेंगे क्योंकि डॉ0 शक्ति सिंह ने भाषा-विभाग, पटियाला के संगणक विभाग में
गणना के आधार पर वि0सं0 1433, 25 जनवरी सन् 1376 ई0 को रविवार पड़ता
है। Meansात् वि0सं0 1433 माघ पूर्णिमा, फाल्गुन प्रविष्टे 1 दिन रविवार था। इसी
दिन Meansात् 25 जनवरी सन् 1376 ई0 को संत रविदास इस संसार में अवतरित
हुए।

संत रविदास के पिताश्री रघुजी चमड़े के जूते बनाने का कार्य करते थे।
शैक्षिक दृष्टि से संत रविदास की पारिवारिक पृष्ठभूमि अच्छी नहीं थी। भारत में
संत रविदास के समकालीन परिवेश में शिक्षा जैसी सुविधायें मुहैया नहीं थी।
सामान्यत: योग्यता और ज्ञान का आकलन डिग्री अथवा स्कूल, कालेजों की
व्यवस्था पर आधारित न होकर व्यक्ति के वैयक्तिक ज्ञान और समझ पर निर्भर
था। प्रौद्योगिकीय विकास का प्रादुर्भाव नहीं हो पाया था परन्तु सामाजिक व्यवस्था
की दृष्टि से सामाजिक प्रतिबन्ध और निषेध की जड़ें अत्यन्त ही गहरी और
कठोर थी। सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था वर्ण व्यवस्था में विद्यमान नियमों और
प्रतिबन्धों पर ही निर्भर थी। संत रविदास के पिता शूद्र वर्ण के थे। शूद्र वर्ण का
समाज में निम्न और अन्तिम स्थान था।

अनेको ऐतिहासिक ग्रन्थों और साहित्यों
में उल्लिखित है कि श्ूाद्रों को समाज से अलग (दूर) रखा जाता था। छुआछूत के
नियम अत्यन्त ही कठोर थे। संत रविदास के पिता इन सामाजिक प्रतिबन्धों से
अछूते नहीं थे। ऐसी व्यवस्था से संत रविदास बिल्कुल Agree नहीं थे परन्तु
सामाजिक व्यवस्था में विद्यमान कठोर नियमों और प्रतिबन्धों पर काशी नगरी के
महाKing का कोई हस्तक्षेप नहीं था। यह कहना अतिषयोक्ति नहीं होगा कि
तत्कालीन शासन व्यवस्था से जुड़े King भी ऐसी ही व्यवस्था के हिमायती और
प्रतिपालक थे। ऐसी परिस्थिति में संत रविदास द्वारा विद्रोह भी Reseller जाना
सम्भव नहीं था। यही कारण है कि संत रविदास ने समाज में विद्यमान सामाजिक
व्यवस्था के निषेधों में घुटन महसूस Reseller और वह साधु-संतों की जमात में
सम्मिलित हो गए जहाँ छुआछूत भेदभाव के प्रतिबन्ध कम और कठोर नहीं थे।

संत रविदास जी की आर्थिक स्थिति

संत रविदास समाज वैज्ञानिक के Reseller में वह ऐतिहासिक पुरोधा है,
जिनके समकालीन परिवेश में प्रौद्योगिकीय विकास नगण्य था। व्यवसाय के Reseller
में कृषि प्रमुख व्यवसाय था। जजमानी व्यवस्था सुदृढ़ Reseller में विद्यमान थी।
व्यवसाय का निर्धारण योग्यता के आधार पर नहीं जाति के आधार पर होता था।
सामाजिक पद और प्रतिष्ठा भी जाति के आधार पर निर्धारित होती थी।
सामाजिक प्रतिबन्धों और निषेधों के कारण व्यवसाय परिवर्तन Reseller जाना सम्भव
नहीं था। आर्थिक स्थिति का निर्धारण पूर्णत: व्यवसायिक स्थिति पर निर्भर था।
सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार थी कि सम्पूर्ण समाज सामाजिक निषेधों के
नियंत्रण में जकड़ा हुआ था। जिसके कारण निम्न पद वाले व्यक्ति की आर्थिक
स्थिति भी निम्न ही होती थी। संत रविदास की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं
थी परन्तु उनका स्वाभिमान, ईमानदारी और मेहनत के साथ-साथ ही आत्मबल
इतना दृढ़ था कि वह भूखे रहकर भी यथा सम्भव दूसरों की मदद करते थे।
कुछ साहित्यों में History है कि संत रविदास ने किसी Single नंगे पैर व्यक्ति को
पिता द्वारा मेहनत से बनाये हुए जूते दान कर दिया। जिसके कारण वह घर से
निकाल दिये गये। फिर भी उन्होंने अपनी मेहनत के बल पर अपने परिवार का
भरण-पोषण Reseller तथा समाज में विद्यमान असमानताओं के प्रति मुखर होते
गए। संत रविदास तत्कालीन परिवेश की सामाजिक विषमताओं और
असमानताओं के प्रति अधिक चिन्तित थे। आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता का
उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

संत रविदास को जन्म से ही आर्थिक परेषानियों का सामना करना पड़ा।
उनका जन्म Single ऐसे परिवार में हुआ जो आर्थिक दृष्टि से निर्बल और दलित
था। परिवार का पालन-पोषण भी बड़ी मुश्किल से चल पाता था। सम्पूर्ण भारत
छोटी-छोटी रियासतों में बंटकर राजनीतिक दृष्टि से महत्वहीन हो गया था। इस
राजनीतिक व्यवस्था का प्रभाव भारत की Meansव्यवस्था पर भी पड़ा। संत रविदास
समाज के उस हिस्से से सम्बन्ध रखते थे जो शताब्दियों से शोषण का शिकार
होकर छटपटा रहा था। इस प्रकार परिवार भी पूरी तरह से आर्थिक यातना का
शिकार था। इस प्रकार मुगल शासनकाल में भारत की Meansव्यवस्था सुदृढ़ नहीं
थी। वह विभिन्न रियासतों में बंटकर सिमट चुकी थी और उस पर भी आपस में
लड़ाई झगड़े के कारण Indian Customer Meansव्यवस्था समाप्ति के कगार पर थी। ऐसे
समय में अछूत कही जाने वाली जाति शूद्र को उनके जाति के आधार पर
जातीय व्यवसाय अपनाना पड़ता था। इस प्रकार संत रविदास की आर्थिक दशा
के विषय में वैसे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी आर्थिक दशा कैसी
रही होगी।

संत रविदास जी का राजनीतिक परिदृश्य

सैद्धान्तिक दृष्टि से शासन व्यवस्था और समाज व्यवस्था के मध्य प्रभावित
करने वाले सह-सम्बन्धों के दो प्रमुख आधार हैं –


1. महात्मा गाँधी के According-
कोई भी समाज यदि सामाजिक आधार पर
सुदृढ़ और सम्पन्न हो तो राजनीतिक व्यवस्था स्वत: सुदृढ़ हो जायेगी।
सामान्यत: यह धारणा लोकतांत्रिक व्यवस्था में उपयुक्त और प्रभावी हो सकती है
परन्तु राजतन्त्रात्मक/नृपतंत्रात्मक व्यवस्था में सामाजिक सुदृढ़ता का राजनीतिक
सुदृढ़ता से कोई सह-सम्बन्ध नहीं है।

2. वर्तमान धारणाओं में डॉ0 बी0आर0 अम्बेदकर और काँशीराम जैसे
समाज विचारकों के According- सामाजिक सुदृढ़ता से राजनीतिक सुदृढ़ता की
परिकल्पना उपयुक्त नहीं रही। इसके विपरीत इन विचारकों का यह मानना है
कि यदि राजनीतिक व्यवस्था सुदृढ़ हो तो सामाजिक व्यवस्था स्वत: सुदृढ़ होगी।
उपरोक्त दोनों धारणाओं का यह तात्पर्य हुआ कि (1) गाँधी जी के
According – ‘‘सामाजिक सम्पन्नता से राजनीतिक सम्पन्नता की स्वत: प्राप्ति हो
सकती है’’। जबकि (2) डॉ0 अम्बेदकर और काँशीराम के According-
‘‘राजनीतिक सम्पन्नता सामाजिक सम्पन्नता का स्वाभाविक आधार है’’।
तत्कालीन परिवेष में नृपतंत्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था तथा
सामाजिक व्यवस्था से प्रभावित थी। फलस्वReseller वर्ण व्यवस्था में विद्यमान कठोर
सामाजिक नियमों और प्रतिबन्धों तथा राजनीतिक व्यवस्था में नृपतंत्रात्मक “ाासन
व्यवस्था के कारण किसी भी तरह के परिवर्तन की (असीमित समय तक)
सम्भावना नहीं थी।

संत रविदास Fourteenवीं शताब्दी के योग्य विचारक, समाज वैज्ञानिक व
चिंतक थे। यह Single ऐसा समय था जब इस देष में मुस्लिम साम्राज्य/षासकों
का साम्राज्य था। इस समय भारतवर्ष पर मुसलमानों के अत्याचारों, अनाचारों का
बोलवाला था। हिन्दुओं की आँखों के सामने उनके देवालय घोषणाएँ करके
गिराए जाते थे। उनके आराध्य देवताओं का अपमान Reseller जाता था। ऐसे समय
में जनता न तो विद्रोह ही कर सकती थी और न ही वे ‘सिर झुकाए बिना’ जी
ही सकती थी। अत: ऐसे समय में हृदय के आक्रोश को अपनी असहायता
निराशा और दीनता से प्रभु के सम्मुख रखकर मन को शक्ति देने के अतिरिक्त
और रास्ता ही क्या था?

भारत की सामाजिक दशा हिन्दू Kingों के समय से ही अव्यवस्थित थी।
समाज में प्रचलित चतुर वर्ण व्यवस्था Single अभिशाप थी। जिसने समाज को
संगठन की अपेक्षा विघटन की ओर अग्रसर Reseller। इसका परिणाम यह हुआ कि
भारत विभिन्न ईकाइयों में विभक्त हो गया। इस आपसी फूट के कारण भारत में
मुस्लिम साम्राज्य की नींव पड़ी। समाज में चतुर वर्ण या शूद्र कही जाने वाली
इन जातियों को इस शासन व्यवस्था के परिवर्तन से अपमान और तिरस्कार की
दोहरी नीति का सामना करना पडा़। Single ओर सवर्ण हिन्दू अपने अत्याचारों की
श्रृंखला में मनोरंजन तक भी कभी नहीं करते, दूसरी ओर राजतंत्र ने भी चतुर
वर्ण के हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। चतुर वर्ण को समाज और शासन
दोनों की यातनाओं और अत्याचारों की चक्की में पिसना पड़ा। इस भीषण
समस्या का समाधान समाज और राजतंत्र के पास असम्भव हो गया तो Single
सामाजिक क्रान्ति ने जन्म लिया जो पुनर्जागरण या संतों का भक्ति आन्दोलन के
नाम से लोकप्रिय हुआ। इस पुनर्जागरण (भक्ति आन्दोलन) के जनक संत
रविदास हुए।

संत रविदास को तत्कालीन परिवेष में अनेकों समस्याओं का सामना
करना पड़ा। Single बार तत्कालीन King सिकन्दर लोदी को संत रविदास की
महिमा ज्ञात हुई तो लोदी ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया तथा उनको धर्म
परिवर्तन के लिए विवष Reseller। संत रविदास ने तार्किकता पूर्ण जवाब देते हुए
कहा ‘‘मुझे मिटाया जा सकता है परन्तु धर्म परिवर्तन नहीं कराया जा सकता।’’
इस प्रकार संत रविदास को अनेकों राजनीतिक कठिनाइयों का सामना करना
पड़ा परन्तु सामाजिक चेतना की भावना को जगाने में उन्हें इन कठिनाइयों की
कोई परवाह नहीं थी।

संत रविदास जी का विभिन्न नाम तथा व्यक्तित्व

यद्यपि 14वीं शताब्दी के काल में भारत में संचार संसाधनों का विकास
नहीं हो पाया था परन्तु शैक्षिक दृष्टि से पुस्तकों, पाण्डुलिपियों, वक्तव्यों,
शिलालेखों आदि के माध्यम से शैक्षिक जागरूकता का प्रादुर्भाव हो चुका था।
संत रविदास काल में आवागमन के संसाधनों के अभावों के बावजूद संत रविदास
के विचारों का प्रचार-प्रसार भारत के अनेकों प्रान्तों में प्रचलित भाषाओं, बोलियों,
लिपियों और वक्तव्यों तथा व्याख्यानों के माध्यम से हो चुका था। Fourteenवीं
“ाताब्दी में संत रविदास जैसे समाज विदत्ता के विचारों की स्वीकारोक्ति उनके
स्पष्ट और निष्पक्ष वाणियों के माध्यम से सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हो चुकी थी।
चूँकि विभिन्न प्रान्तों और क्षेत्रों की भाषा और बोली का प्रचलन अलग-अलग
Wordों में आज भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में देखने को मिलता है, यही कारण है कि
संत रविदास का नाम विभिन्न प्रान्तों की बोलियों और भाषाओं के आधार पर
निम्न प्रकार था।

लोकप्रियता की दृष्टि से उनका नाम देश के विभिन्न भागों में आज भी
अनेक नामों से प्रचलित हैं। पंजाब में ‘रैदास’, बंगाल में ‘रुईदास’, महाराष्ट्र में
‘रोहिदास’ राजस्थान में ‘रायदास’, गुजरात में ‘रोहिदास’ अथवा ‘रोहीतास’ मध्य
प्रदेश And उत्तर प्रदेश में ‘रविदास’ अथवा ‘रैदास’ नामों से उनके नामों का
History मिलता है। इस प्रकार उनके अनेक नाम देखने को मिलते हैं। उच्चारण
में अन्तर जरूर देखने को मिलता है। परन्तु ये All नाम ‘रविदास’ या ‘रैदास’
के बिगड़े हुए Reseller हैं। स्थान-स्थान की बोली And भाषा से प्रभावित होकर
असली नाम में कुछ न कुछ परिवर्तन हो जाना स्वाभाविक है। यों तो रैदास को
भी ‘रविदास’ का अपभ्रंश माना जा सकता है किन्तु अनुमान के सहारे निर्णय
लेना उचित नहीं है। बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित ‘‘रैदास की
बानी’’ (1971) में संकलित पदों में ‘रैदास’ And ‘रविदास’ नाम की छाप मिलती
है। गुरु-ग्रन्थ साहिब में संत रविदास के 40 पद हैं, जिनमें अधिकांश पदों में
उनका नाम ‘रैदास’ ही मिलता है, लेकिन कहीं-कहीं ‘रविदास’ नाम का भी
History हुआ है। समकालीन संतों की वाणियों में भी उनका नाम ‘रैदास’ And
रविदास दोनों मिलते हैं।

गुरु ग्रन्थ साहिब की प्रामाणिकता में भी संदेह नहीं Reseller जा सकता।
‘रैदास रामायण’ तथा ‘रैदास की बानी’ में भी ‘रविदास’ नाम का समर्थन मिलता
है। अत: यह बात स्वीकार की जा सकती है कि संत रविदास का पुकारने का
नाम ‘रैदास’ भले ही प्रचलित हो, किन्तु उनका असली नाम ‘रविदास’ ही था।
नाम के अपभ्रंश Reseller में प्रचलित हो जाने का Single कारण यह भी हो सकता है
कि इनके पन्थ के अनुयायी अधिकांशत: उपेक्षित, दलित और अशिक्षित वर्ग के
लोग ही रहे हैं। उनके लिए यह कठिन ही नहीं असम्भव भी था कि वे इनके
नाम का शुद्ध उच्चारण कर सकते।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि संत रविदास के नाम की प्रसिद्धि
विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं से प्रभावित होकर विभिन्न Word जैसे- रविदास,
रायदास, रूईदास, रोहिदास, रोहीतास आदि संज्ञा के Resellerान्तर है। जो अन्य नाम
देश और काल के भेद से उन्हीं के परिवर्तित और विकसित Reseller माने जा सकते
हैं। काव्य-ग्रन्थों में रैदास का तत्सम Reseller रविदास प्रयुक्त हुआ है, जिसे लोक
प्रचलन और सुविधा की दृष्टि से अधिकांश विद्वानों ने उनका नाम रविदास ही
स्वीकार Reseller है।।

संत रविदास का व्यक्तित्व त्याग, तपस्या से ओतप्रोत था। यह कहना
अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भगवान बुद्ध ने सम्पूर्ण राजपाठ और विलासिता के
साधनों को छोड़कर योग, त्याग और तपस्या में अपना सम्पूर्ण जीवन विलीन कर
दिया था। इसी प्रकार संत रविदास ने ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्राचीन Indian Customer
परम्पराओं और मूल्यों का अनुसरण करते हुए भोग और विलासिता से दूर योग
और साधना को अंगीकृत Reseller तथा Single कल्याणकारी समाज व्यवस्था की
कल्पना में तत्कालीन समाज में विद्यमान कमियों को उल्लिखित और उद्धृत करते
हुए बेहतर समाज के निर्माण की कल्पना की। आधुनिकता की अंधी दौड़ में
संस्कारों की उपेक्षा करना हम All के लिए कष्टकारी होगा। इससे Human मूल्यों
का हृास होता है, जो सामाजिकता के लिए बहुत ही घातक है। Human मूल्यों की
रक्षा के लिए संत-महापुरुषों का History त्याग, तपस्या से भरा पड़ा है।।

‘समन्वय का संदेश’ संत रविदास के व्यक्तित्व की सार्थकता को दर्शाता है।
अपनी इसी विशिष्टता के कारण वह मध्यकालीन History में Human-समाज के
प्रेरणास्रोत बने। संत रविदास के समन्वय का ढंग भी उनके अनुReseller निराला था।
अपने इस समन्वय के लिए उन्होंने कभी भी किसी पक्ष के अवगुणों से समझौता
नहीं Reseller और न ही कभी उसकी कमियों को छिपाया, बल्कि वे तो अपनी
सीधी-सरल तार्किक वाणी से सत्य कहने से कभी नहीं चूके।।

Indian Customer मध्य युग के History में समाज के निम्न वर्ग से उद्धत संत
रविदास को समाज ने ठुकराने का दु:साहस Reseller, लेकिन उन्होंने उस
आडम्बरपूर्ण समाज को ही ठुकराकर अपने पीछे लगा लिया। समय ने उनके
सामने जो भी चुनौती रखी, उससे वे भागे नहीं, बल्कि उससे जूझे। उन्होंने Single
नहीं अनेको कष्ट सहे, पर सच्चाई कहने से कभी चूके नहीं। उनका झगड़ा तो
समाज को गुमराह करने वालों से था, किसी जाति, धर्म या वर्ग विशेष से नहीं।
यही कारण है कि समाज के All वर्ग के लोग उनके अपने हुए, All ने उन्हें
अपनाया।।

संत रविदास ने ईश्वर कृपा पाने के लिए किसी भी प्रकार के जप, तप
और व्रत का पालन नहीं Reseller। उन्होंने अपने शरीर को किसी प्रकार का कष्ट
भी नहीं दिया। उन्होंने जीवन में मध्यम मार्ग अपनाया। उन्होंने अपने मन की
चंचलता को रोका और उस पर अंकुश लगाया। उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह
और अहंकार को शांत कर संयमित और पवित्र जीवन बिताया। उन्होंने कुशल
कर्म अपनाये और लोभ, द्वेष तथा आलस्य को त्याग कर ‘‘अत्त दीपो भव’’ को
अपने जीवन में अपनाया। संत रविदास ने मनुष्य के चरित्र की पवित्रता को ही
Human कल्याण का आधार माना। यही पवित्र सन्देश बुद्ध ने भी संसार को दिया
था। संत रविदास नि:स्वार्थ भाव से स्वयं कार्य करते और दूसरों को भी नि:स्वार्थ
भाव से कार्य करने की सलाह देते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अन्तर
नहीं था। उनके उपदेश सरल, सहज और All को सुलभ थे। उनका संदेश था
कि बुरा काम न करे, बुरी बात न सोचे, अपनी जीविका के लिए बुरे काम का
सहारा न लें। किसी भी काम को छोटा-बड़ा और किसी भी व्यक्ति को
छोटा-बड़ा न समझे। किसी को भी न सतायें, प्राणी मात्र पर दया रखें और All
को समान समझकर उससे प्रेम करें।।

संत रविदास जी की अष्टाँग साधना

मनुश्य संसार में रहकर सांसारिकता की चकाचौंध में अनेकों समाज
विरोधी कार्य करता रहता है। जिसके कारण उसे तथा समाज को अनेकों
समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिससे वह दु:खी होता है। इन दु:खों के
निवारण के लिए क्रमानुसार आन्तरिक चेतना के विकास का Single सरल उपाय
‘अष्टाँग योग है’। जब तक मनुष्य के चित्त्ा में विकार भरा रहता है और उसकी
बुद्धि दूषित रहती है, तब तक वह तत्व ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। शुद्ध हृदय
और निर्मल बुद्धि से ही आत्म-ज्ञान उपलब्ध होता है। चित्त की “ाुद्धि और
पवित्रता के लिए संत रविदास ने योग के आठ प्रकार के साधन बतलाये हैं। ये
निम्न प्रकार से हैं-।

(1) यम, (2) नियम, (3) आसन, (4) प्राणायाम, (5) प्रत्याहार, (6) धारणा, (7)
ध्यान और (8) समाधि। ये आठों ‘योगांग’ कहलाते हैं।
योग का First अंग है यम। इसके निम्नलिखित अंग हैं- (1) अहिंसा
(Meansात् किसी जीव को किसी प्रकार का कश्ट नहीं पहुँचाना); (2) सत्य (Meansात्
किसी से किसी तरह का झूठ नहीं बोलना), (3) अस्तेय (Meansात् चोरी नहीं
करना), (4) ब्रºमचर्य (Meansात् विषय वासना की ओर नहीं जाना), और (5)
अपरिग्रह (Meansात् लोभवश अनावश्यक वस्तु ग्रहण नहीं करना), ये सब साधन
सर्वविदित हैं अत: योगी के लिए इनका साधन अत्यावश्यक है, क्योंकि मन को
सबल बनाने के लिए शरीर को सबल बनाना आवश्यक है। जो काम, क्रोध, लोभ
आदि विकारों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, उसका मन या शरीर सबल नहीं
रह सकता। इसी तरह जब तक मनुष्य का मन पाप-वासनाओं से भरा और
चंचल रहता है तब तक वह किसी विषय पर चित्त Singleाग्र नहीं कर सकता।।

योग का दूसरा अंग है नियम या सदाचार का पालन। इसके
निम्नलिखित अंग हैं- ।

(1) शौच (वाºय शुद्धि Meansात् शारीरिक शुद्धि, जैसे स्नान
और पवित्र ) भोजन के द्वारा आभ्यंतर शुद्धि Meansात् मानसिक शुद्धि जैसे, मैत्री,
करूणा, मुदिता आदि के द्वारा। (2) संतोष (Meansात् उचित प्रयास से जितना ही
प्राप्त हो उससे संतुष्ट रहना)। (3) तप (जैसे गर्मी-सर्दी आदि सहने का अभ्यास,
कठिन व्रत का पालन करना, आदि)। (4) स्वाध्याय (नियम पूर्वक धर्मग्रन्थों का
अध्ययन करना)। (5) ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर का ध्यान और उनपर अपने को
छोड़ देना)।

आसन शरीर का साधन है। इसका Means है शरीर को ऐसी स्थिति में
रखना जिससे निष्चल होकर सुख के साथ देर तक रह सकते हैं। नाना प्रकार
के आसन होते हैं, जैसे पद्यासन, वीरासन, भद्रासन, सिद्धासन, “ाीर्शासन,
गरुणासन, मयूरासन, श्वासन आदि। चित्त की Singleाग्रता के लिए शरीर का
अनुशासन भी आवश्यक है जितना मन का। यदि शरीर रोगादि बाधाओं से पूर्णत:
मुक्त नहीं रहे तो समाधि लगाना बड़ा ही कठिन है। अतएव आरोग्य साधन के
लिए बहुत से नियम निर्धारित करना है, जिससे शरीर समाधि क्रिया के योग्य बन
सके। शरीर और मन को शुद्ध तथा सबल बनाने के लिए तथा दीर्धायु प्राप्त
करने के लिए योग में नाना प्रकार के नियम बतलाए गए। योगासन शरीर को
निरोग तथा सबल बनाए रख्ने के लिए उत्तम साधन है। इन आसनों के द्वारा
All अंगों, विशेषत: स्नायुमण्डल इस तरह वश में किए जा सकते हैं कि वे मन
में कोई विकास उत्पन्न नहीं कर सकें।

प्राणायाम का Means है श्वास पर नियंत्रण। इस क्रिया में तीन अंग होते है
(1) पूरक (पूरा श्वास भीतर खींचना), (2) कुंभक (श्वास को भीतर रोकना) और
(3) रेचक (नियमित विधि से श्वास छोड़ना)। श्वास के व्यायाम से हृदय पुष्ट
होता है और उसमे बल आता है, इसे चिकित्सा विज्ञान भी स्वीकार करता है।
प्राणायाम के द्वारा शरीर और मन में दृढ़ता आती है। जब तक श्वास की क्रिया
चलती रहती है तब तक चित्त भी उनके साथ चंचल रहता है। जब श्वास वायु
की गति स्थगित हो जाती है तब मन भी निस्पंद या स्थिर हो जाता है। इस
तरह प्राणायाम के अभ्यास से योगी समाधि की अवधि को बढ़ा सकता है।

प्रत्याहार का Means है इंन्द्रियों को अपने-अपने वाºय विषयों से खींचकर
हटाना और उन्हे मन के वश में रखना। जब इंन्द्रिय पूर्णत: मन के वष में आ
जाते हैं तब वे अपने स्वाभाविक विषयों से हटकर मन की ओर लग जाते हैं।
इस अवस्था में आँख-कान के सामने सांसारिक विषय रहते हुए भी हम
देख-सुन नहीं सकते। Reseller, रस, गंध, Word या स्पर्ष का कोई भी प्रभाव मन पर
नहीं पड़ता। यह अवस्था कठिन है, यद्यपि असंभव नहीं है। इसके लिए अत्यंत
दृढ़ संकल्प और प्रौढ़ इंद्रिय-निग्रह की साधना आवश्यक है।

उपर्युक्त पाँच अनुशासन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार
बहिरंग साधन कहलाते हैं। “ोश तीन- धारणा, ध्यान और समाधि- अंतरंग साधन
कहलाते हैं, क्योंकि उनका योग (समाधि) से सीधा संपर्क है।

धारणा का Means है चित्त को अभीष्ट विषय पर जमाना। यह विषय वाºय
पदार्थ भी हो सकता है। (जैसे, Ultra site या किसी देवता की प्रतिमा) और अपना
शरीर भी (जैसे, अपनी नाभि या भौहों का मध्य भाग) किसी विषय पर दृढ़तापूर्वक
चित्त को Singleाग्र करने की शक्ति ही योग की असल कुंजी है। इसी को सिद्ध
करने वाला समाधि अवस्था तक पहुँच सकता है।

इसके बाद अगली सीढ़ी है ध्यान। ध्यान का Means है ध्येय विषय का
निरंतर मनन। Meansात् उसी विषय को लेकर विचार का अनवच्छिन्न (लगातार)
प्रवाह। इसके द्वारा विषय का सुस्पष्ट ज्ञान हो जाता है। First भिन्न-भिन्न अंशों
यह स्वResellerों का बोध होता है। तदनंतर अविराम ध्यान के द्वारा संपूर्ण चित्त आ
जाता है और उस वस्तु के असली Reseller का दर्षन हो जाता है। इस तरह योगी
के मनमें ध्यान के द्वारा ध्येय वस्तु का यथार्थ स्वReseller प्रकट हो जाता है।
योगासन की अंतिम सीढ़ी है समाधि। इस अवस्था में मन ध्येय विषय में
इतना लीन हो जाता है कि वह उसमें तन्मय हो जाता है और अपना कुछ भी
ज्ञान नहीं रहता। ध्यान की अवस्था में ध्येय विषय और ध्यान की क्रिया- ये
दोनो पृथक: प्रतीत होते हैं। परन्तु समाधि की अवस्था में ध्यान की क्रिया का
पृथक अनुभव नही होता , वह ध्येय विषय में डूबकर अपने को खो बैठती है।
धारणा, ध्यान और समाधि – ये तीनो योग के अंतरंग साधन है। इन तीनो
का विषय Single ही रहना चाहिए Meansात Single ही विषय को लेकर First चित्त में
धारणा, तब ध्यान और अंत में समाधि होनी चाहिए। ये तीनो मिलकर ‘संयम’
कहलाते हैं जो योगी के लिए अत्यावष्यक है।

रविदास की भक्ति भावना And साधना

ईश्वरीय शक्ति अथवा ईश्वर पर विश्वास ही ईश्वरीय भक्ति कहलाती है।
इस आस्था और विश्वास का माध्यम आकार-प्रकार, स्वReseller किसी भी Reseller में हो
सकता है। कभी कभी ईश्वरी आस्था में तल्लीन व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करने में
उस शिखर तक पहुँच सकता है जो सोच और सैद्धान्तिक दृष्टि से पूर्णतया
उपयुक्त और वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा उतरता हो।

ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास को ईश्वरीय भक्ति के नाम से
सम्बोधित Reseller जाता है। साहित्यिक दृष्टि से ईश्वरीय आस्था में विश्वास रखने
वाले लोगों को समूह/धारा के Reseller में सम्बोधित Reseller जाता है। सामान्यत:
इसके दो Reseller हो सकते हैं। (1) सगुण (2) निर्गुण। सगुण का Means है वे लोग
जो ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास रखते हैं परन्तु उनमें तर्क और ज्ञान का बोध
है। Second वे लोग जो ईश्वर के प्रति आस्था रखते हैं परन्तु उनमें ज्ञान और
योग्यता का अभाव है। ऐसे लोग मात्र Single Second को देखकर उसी कार्य व्यवहार
को अपनाते हैं जैसा दूसरों से देखा सुना है। ऐसे लोगों में ज्ञान/तर्क का
पूर्णतया अभाव होता है।

यद्यपि परम्परागत साहित्यों में सगुण और निर्गुण की अवधारणा का Means
यह माना जाता रहा है कि सगुण का तात्पर्य मूर्ति आकार-प्रकार से है वहीं
निर्गुण का Means निराकार से है परन्तु समाजषास्त्ररय सिद्धान्तों का वैज्ञानिक
विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि सगुण का तात्पर्य उस विचारधारा से है जिसमें
ज्ञान और तर्क का समावेश हो तथा निर्गुण का Means अज्ञानता की उस स्थिति से
है जिसमें ईश्वर पर आस्था कल्पनाओं पर आधारित है। सत्यता यह है कि
ईश्वरीय आस्था का तात्पर्य उन प्राकृतिक शक्तियों से है जो स्वाभाविक Reseller से
नियमानुसार स्वाभाविक Reseller में संचालित हो रही है। इन प्राकृतिक व्यवस्थाओं के
संचालन में निश्चित Reseller से कोई ऐसी शक्ति है जो व्यवस्था का संचालन
स्वाभाविक Reseller में करती है। उदाहरणार्थ दिन-रात का होना, सर्दी, गर्मी व
बरSeven का परिवर्तन आदि ऐसी स्वाभाविक घटनाएँ हैं जिससे ईश्वर के प्रति
आस्था अधिक दृढ़ और प्रगाढ़ होती है। दुख्र्ाीम और काम्ट ने इसी मत का
समर्थन Reseller है।

दुख्र्ाीम के According ‘‘साधना चेतना क्षेत्र का ऐसा पुरुषार्थ है, जिसमें
सामान्य श्रम And मनोयोग का नियोजन भी असामान्य विभूतियों And शक्तियों को
जन्म देता है। साधारण स्थिति में हर वस्तु तुच्छ है पर यदि उसे उत्कृष्ट बना
दिया जाए, तो उससे ऐसा कुछ मिलता है, जिसे विशिष्ट और महत्वपूर्ण कहा जा
सकता है।’’ Human जीवन मोटी दृष्टि से ऐसा ही Single खिलवाड़ है। मनुष्यों के
बीच पाए जाने वाले आकाष-Earth जैसे अन्तर का यही कारण नजर आता है
कि जीवन की ऊपरी परतों तक ही जिन्होंने मतलब रखा, उन्हें छिलका ही हाथ
लगा, किन्तु जिन्होंने गहरे उतरने की चेष्टा की, उन्हें Single के बाद Single बहुमूल्य
उपलब्धियाँ मिलती चली गयीं। गहराई में उतरने को अध्यात्म की भाषा में
‘साधना’ कहते हैं।

संत रविदास की साधना न तो रहस्यवाद है, ना पलायनवाद। उसमें काया
कष्ट का वैसा विधान नहीं है, जैसा कि कई अतिवादी अपना दुस्साहस दिखाकर
भावुक जनों पर विशिष्टता का आतंक जमाते और उस आधार पर शोषण करते
देखे गए हैं। उसमें कल्पना लोक में अवास्तविक description भी नहीं है, और न उसे
जादू चमत्कारों की श्रेणी में गिना जा सकता है। देवताओं को वशवर्ती बनाकर
या भूत-प्रेतों की सहायता लेकर मनोकामना पूरी करने-कराने जैसी ललक
लिप्सा पूरी करने जैसा भी इस विद्या में कोई आधार नहीं है। संत रविदास की
साधना Single विशुद्ध विज्ञान है, जिसका वास्तविक आधार है- आत्मानुशासन का
अभ्यास और क्षमताओं का उच्चस्तरीय प्रयोजन के लिए सफल नियोजन। जो
इतना कर सकते हैं उन्हें सच्चे Meansों में सिद्ध पुरुष कहा जा सकता है।

संत रविदास जी का विवाह

संत रविदास Indian Customer समाज के सामाजिक नियमों और मानकों के पालक
रहे हैं। वह कोई ऐसे पाखण्डी और दिखावटीपन वाले व्यक्ति नहीं थे जो
सामाजिक नियमों के विपरीत संस्थाओं और व्यवस्थाओं से परे ब्रह्मचर्य जीवन को
आधार स्तम्भ मानकर संत अथवा महात्मा कहलाये, वह ऐसे महापुरुष थे जो
सामाजिक व्यवस्था और नियमों की परिधि में सामान्य नागरिक के Reseller में
सामान्य जीवन व्यतीत करने वाले निर्धन परिवार से जुड़े हुए सामाजिक
व्यवस्थाओं के अनुकूल चलने वाले महापुरुष थे। वास्तव में उनके विचार उन
व्यवस्थाओं के प्रतिकूल थे जो समाज में विद्यमान कमियों और अHumanीयता को
इंगित करते रहे। उन्होंने बहुत ही सहजता और सरलता से समाज में विद्यमान
उन कमियों और अव्यवस्थाओं को लोगों के समक्ष प्रस्तुत Reseller। संत रविदास
ऐसे महापुरुष थे जिनके विचारों को लोगों ने न केवल स्वीकार Reseller अपितु
उपयुक्त भी माना। यह उनकी बुद्धिमत्ता और योग्यता का परिचय ही माना
जायेगा कि वर्तमान में सत्य अथवा Humanीयता के विरूद्ध पक्षों को रखने वाले
विचारकों का अतार्किक Reseller से पुरजोर विरोध Reseller जाता है। परन्तु संत
रविदास ऐसे योग्य और सामाजिकता की नस को समझने वाले महापुरुष थे
जिन्होंने अव्यवस्था और समाज में विद्यमान कमियों को लोगों के समक्ष इतनी
तार्किकता और बुद्धिमत्ता के साथ प्रस्तुत Reseller कि न केवल लोगों ने उसे
स्वीकार Reseller अपितु किसी भी तरह का विरोध भी नहीं Reseller। उनके द्वारा
प्रस्तुत किये गये सामाजिक व्यवस्था के उपयुक्त पक्षों को लोगों ने न केवल
स्वीकार Reseller अपितु उनकी योग्यता और तार्किकता की स्वीकारोक्ति के साथ
सराहना भी की।

संत रविदास का विवाह बाल्यकाल में ही ‘लोना’ के साथ सम्पन्न हुआ
था। मेजर ब्रिग्स ने संत रविदास की पत्नी का नाम ‘लोना’ बताया है। ‘रैदास
रामायण’ में भी इसी नाम का History हुआ है। संत रविदास ने सामाजिक
व्यवस्था के विवाह संस्था को स्वाभाविक Reseller से स्वीकृति मानते हुए स्वयं इस
संस्था के परिपालक बने इससे यह स्पष्ट होता है कि संत रविदास Indian Customer
सामाजिक व्यवस्था के न केवल हिमायती रहे बल्कि इस व्यवस्था के पोषक भी
रहे हैं, उन्होंने स्वप्न चिन्तक के Reseller में व्यवस्था परिवर्तन के पक्ष को कभी
उपयुक्त नहीं माना बल्कि सामाजिक व्यवस्था में विद्यमान कमियों को दूर करने
की वैचारिकी को उपयुक्त माना है।

संत रविदास का सम्पूर्ण जीवन उनका व्यक्तित्व, कार्य और विचार
समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की दृष्टि से यह स्पष्ट करता है कि वह सामाजिक
परिवर्तन के हिमायती रहे हैं, परन्तु सामाजिक परिवर्तन का वह आधार जो
Utopian ;यूटोपियन विचारधारा) वाले महापुरुष न हो करके प्कमवसवहपबंस
Thinking ;वैचारिकी विचारधारा) के महापुरुष रहे हैं। यह उनकी विद्वता ही रही
है कि उन्होंने अपनी योग्यता और क्षमता से उन्हीं पक्षों को उद्ध्त Reseller और
उपयुक्त माना जो सर्वथा सम्भव रही हो। सामाजिक जागरूकता की दृष्टि से
21वीं शताब्दी में भी सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन की परिकल्पना,
जागरूकता के 21वीं शताब्दी के परिवेश में भी Reseller जाना सम्भव नहीं है। फिर
भी 14वीं दशक में सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन कहाँ तक उपयुक्त होगा?
संत रविदास ने सत्य और असत्य, अच्छाई और बुराई, Humanीयता और
अHumanीयता, तार्किकता और अतार्किकता जैसे पक्षों में उपयुक्त को ही समाज
का सर्वोत्कृष्ट व्यवस्था का आधार माना और उनमें विद्यमान कमियों को समाज
के समक्ष प्रस्तुत Reseller। सत्य और उचित की राह पर चलते हुए उन्होंने
तत्कालीन अनेकों तथाकथित संतो और महात्माओं को अपने विचारों और तर्कों से
शास्त्रार्थों और वार्ताओं में पराजित Reseller। सज्जनता और सरलता के प्रतिReseller
संत रविदास ने Indian Customer सामाजिक व्यवस्था के न केवल विवाह जैसी संस्था को
उपयुक्त और उचित माना बल्कि सामाजिक व्यवस्था में विद्यमान All संस्थाओं
के वह हिमायती और पोषक भी रहे। यह दुर्भाग्य की बात है कि वर्तमान परिवेश
में कुछ स्वाथ्र्ाी तथाकथित महापण्डितों ने व्यवस्था में अवधारणाओं और धारणाओं
को व्यक्तिगत लाभ में दूषित और दो अथ्र्ाी बना दिया है।

संत रविदास के व्यक्तित्व संदर्भित प्राप्त साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर
उनके जीवन संदर्भित जो तथ्य दृष्टिगोचित होते हैं, उसके According महात्मा बुद्ध,
स्वामी विवेकानन्द, सुभाषचन्द्र बोस जैसे महापुरुषों की भाँति उनका सम्पूर्ण जीवन
ब्रह्मचर्य या त्याग-तपस्या में ही व्यतीत हुआ। संत रविदास ने समाज में विवाह
जैसी संस्था को स्वीकृति देने हेतु स्वीकार जरूर Reseller परन्तु उन पर विवाह का
कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उन्होंने सम्पूर्ण जीवन ब्रह्मचर्य और समाज सेवा में ही
बिताया।

यह Single सार्वभौमिक पक्ष है कि जिस व्यक्ति ने साधारण व सामान्य से
ऊपर उठकर जीवन के किसी भी क्षेत्र में असाधारण कार्य किये हों वह समाज में
असाधारण व्यक्तियों में गिने गये उनकी ख्याति उनके असाधारण योग्यता और
क्षमता के कारण की गयी। संत रविदास ऐसे ही महापुरुष थे जिनकी असाधारण
योग्यता और क्षमता तथा उनका जीवन आज लोगों के लिए प्रेरणा और प्रेरक
बना हुआ है।

अन्तर्मुखी अनुभव

इच्छाओं को नियंत्रित कर व्यक्ति अपनी आंतरिक प्रकृति को समझ सकता
है। जब व्यक्ति इस योग्यता को प्राप्त कर लेता है, तब वह अपने अंत:करण से
परिचित हो जाता है और जब वह अपने अंत:करण को समझ लेता है तो उसे
अनुभव होता है कि वह उस दर्पण के समान है जो उसकी वास्तविकता है।
हमारे अंतस् में अनंत सम्भावनाएँ प्रत्येक समय व्याप्त रहती हैं। Need है
हमें उनकी सही समय पर पहचान करके अपनी आत्म चेतना की उस विकसित
ऊर्जा के माध्यम से अपना और समाज का विकास करना।

संत रविदास का युग अत्यन्त जटिलताओं से भरपूर विषमताओं का युग
था उनके विचारों में विश्व बन्धुत्व, धार्मिक सादगी के साथ सामाजिक बुराईयों के
प्रति प्रतिक्रिया मिलती है। धर्म के नाम पर होने वाले पाखण्डों को संत रविदास
ने अस्वीकार Reseller है। इसीलिए उन्होंने अन्तर्मन की साधना को महत्व दिया है।
जब हमें अपनी चेतना का आभास और अस्तित्व का बोध होता है तब
संसार के सारे रिश्ते बौने प्रतीत होते हैं साथ ही स्वयं में ऐसी विराटता का
अनुभव होता है, जिसके अंदर संसार के समस्त रिश्ते समाहित होते हैं। व्यक्ति
का यह चेतन स्वReseller ईश्वर का दिव्य अंश है। इस सत्य का आभास जब तक
हम करते रहेंगे तब तक हम स्वयं को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शक्तिशाली
अनुभव करेंगे, साथ ही ईश्वर की निकटता का आभास होने से आत्मबल मजबूत
होगा, जिससे अपना तथा समाज का कल्याण होगा।

आज व्यक्ति अपने अंत:करण को कुचलने का लगातार प्रयास कर रहा
है। वह दूसरों के समर्थन और सहारे पर विश्वास करता है तथा अपने वास्तविक
स्वReseller को जानने व समझने की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता है। जिसके
कारण वह अपने को असहाय समझता है। चूँकि जब व्यक्ति अपने जीवन के उस
Reseller को समझने की कोशिश करता है तो वह अपने व्यक्तित्व के ऐसे पक्ष से
परिचित होता है जो उसको सत्य का वह ज्ञान कराता है जिससे वह अभी तक
अनभिज्ञ था।

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