योग दर्शन क्या है? –

योग दर्शन क्या है?

By Bandey

अनुक्रम

योग दर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इसी कारण इस दर्शन को पांतजल-दर्शन भी कहते हैं । इस दर्शन का First ग्रन्थ ‘योगसूत्र‘ या पांतजलसूत्र है। यह चार भागों में विभक्त है जिससे प्रत्येक भाग की पाद कहते हैं – समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद। योग-सूत्रों पर ब्यास मुनि का भाष्य है जिसे व्यास-भाष्य या योग-भाष्य कहते हैं। व्यास भाष्य पर दो व्याख्यायें अति प्रसिद्ध हैं। पहली व्याख्या श्री वाचस्पतिमिश्र कृत ‘योगतत्त्ववैशारदी’ है तथा दूसरी व्याख्या श्री विज्ञान-भिक्षुकृत ‘योगवार्तिक’ है। इनके अतिरिक्त योगसूत्र पर ‘भोजवृत्ति’ ‘अनुरुद्धवृत्ति’ तथा ‘नागेशवृत्ति’ आदि अनेक वृत्तियां हैं ।

योग दर्शन का साहित्य अन्य दर्शनों की भांति विशाल नहीं, परन्तु यह अत्यन्त वैज्ञानिक दर्शन है। All दर्शन योग का महत्व स्पष्ट Reseller से स्वीकार करते हैं। वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि All ग्रन्थों में योग की Discussion मिलती है। यही कारण है कि अल्प साहित्य होते हुए भी य Indian Customer दर्शन का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है तथा इसका प्रचार और प्रसार बहुत है। अन्य दर्शनों की अपेक्षा इसकी Single अपनी विशेषता यह है कि यह सैद्धान्तिक ही नहीं, व्यावहारिक भी है। स्वस्थ शरीर तथा सबल आत्मा दोनों ही इसके प्रतिपाद्य विषय है। अन्य दर्शनों के समान यह दर्शन शरीर को हेय नहीं मानता, वरन् उपादेय समझता है। शरीर के स्वस्थ रहने से ही चित्त निर्मल होगा तथा चित्त की निर्मलता से ही आत्मलाभ सम्भव है ।


योग दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त

योग का स्पReseller

योग Word सामान्यत: सम्बन्धवाचक है, परन्तु योगशास्त्र में योग का Means है ‘समाधि’।19 योग की परिभाषा बतलाते हुए महर्षि पंतजलि कहते हैं कि ‘‘योगश्चित्तावृत्तिनिरोध:’’’योग चित्त वृत्ति का निरोध है’। योग का उद्देश्य है ‘आत्मा के यथार्थ स्वReseller की प्राप्ति’ परन्तु यह स्पReseller तभी प्राप्त हो सकता है जब All प्रकार की चित्त वृत्तियों का निरोध हो जाय। इसी कारण योग की चित्तवृत्तियों का निरोध कहा गया है। प्रकृति में सत्य, रज और तम तीन गुण है। इन तीनों में चित्त सत्वगुण स्वभाव Resellerों में संकलित Reseller गया है। प्रमाणादि वृत्तियों की प्रमाणादि पाँच Resellerों में संकलित Reseller गया है। प्रमाणादि वृत्तियों का पूर्ण निरोध जिस अवस्था में होता है वही अवस्था योग है। चित्त Single अगाध नदी के समान है। अगाध नदी में असंख्य तरंगे उठती रहती हैं। ये तरंग तीव्र तथा मन्द पवन की गति से अनेकों-अनेकों प्रवाह के समान भाव उठते रहते हैं। ये भाव काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेषादि अनेक Reseller धारण करते हैं। चित्त के इन तरड़्गReseller परिणाम का नाम वृत्ति है। इन चित्त वृत्तियों के प्रवाह का विलीन होना निरोध है। जब चित्त की सर्व सासारिक वृत्तियां रूक जाती हैं तो साधक का ध्यान ध्येय परमात्मा में लीन हो जाता है। इसे Single उदाहरण के द्वारा स्पष्ट Reseller जात सकता है : जिस प्रकार हिलते हुए पानी में किसी वस्तु का स्पReseller ठीक से नहीं जान पड़ता तथा जब पानी का हिलना बन्द हो जाता है तब उसमें वस्तु का स्पReseller ठीक दीखता है, इसी प्रकार चित्तवृत्ति निरोध होने पर परमात्मा का स्पReseller ठीक दिखलायी पड़ता है । यही योग की समाधि है।

समाधि या चित्तवृत्तिनिरोध Reseller योग की दो अवस्थाएँ मानी गयी हैं: सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात में कुछ वृत्तियां रहती हैं, परन्तु असम्प्रज्ञात समाधि में All वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इस अवस्था में संसार के All बीज क्लेश, कर्म, वासना Destroy हो जाते हैं तथा किसी भी विषय का ज्ञान नहीं रहता। केवल परमात्मा का ज्ञान तथा आनन्द अनुभव होता है। इस असप्रज्ञात समाधि काल में आत्मा की स्पReseller में स्थिति होती है। ‘‘तदाद्रष्टु: स्वResellerेSवस्थानम्’’। Second Wordों में शान्त, घोर, मूढ़ आदि वृत्तियों के निरोध से चेतन शक्ति अपने में स्थिर हो जाती है । यह निर्विषय चैतन्य की अवस्था है जिस प्रकार जपा कुसुम के निरोध से स्फटिक अपने स्पष्ट Reseller में स्थित हो जाता है उसी प्रकार वृत्ति के निरोध से पुरुष भी अपने स्पReseller में स्थित हो जाता है तथा वह (पुरुष) अपने को सुखी, घोर या मूढ़ नहीं मानता। अपितु समता को प्राप्त हो जाता है।

चित्तभूमि अथवा मानसिक अवस्थायें

क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, Singleाग्र और निरुद्ध ये पाँच प्रकार की चित्तभूमियां या मानसिक अवस्थाएं है। क्षिप्त अवस्था में चित्त रजोगुण के प्रभाव में रहता है। अत: अत्यन्त भ्रमण करनेवाला ‘अस्थिर चित्त’ ही क्षिप्त कहलाता है। ऐसा चित्त वैसा, दैत्य, दानव, मद से विभ्रान्त विषयी पुरुषों का होता है। यह अवस्था योग के अनुकूल नहीं, क्योंकि इसमें मन तथा इन्द्रियों पर संयम नहीं रहता। मूढ़ अवस्था में तमोगुण की प्रधानता रहती है। इस अवस्था में कर्त्तव्याकरर्त्तव्य का विचार नहीं रहता; क्रोध आदि से शास्त्र विरुद्ध कर्म करने की प्रवृत्ति होती है तथा निद्रा आदि का प्रादुर्भाव होता है। इस प्रकार का चित्त राक्षस-पिशाच तथा मादक द्रव्यों के सेवन से उन्मत्त व्यक्तियों का होता है। यह भी योगावस्था नहीं है। विक्षिप्तावस्था में सत्वगुण के आविर्भाव से चित्त थोड़ी देर के लिए किसी विशय में लगता है, परन्तु पुन: विशय से हट जाता है। ऐसा चित्त देवताओं का तथा First भूमिका में आरूढ़ योग-जिज्ञासुओं का होता है। इस अवस्था में चित्त Single विशय पर लाग रहता है। यह योगानुकूल अवस्था है। ऐसा चित्त First कक्षा के योगियों का होता है। All प्रकार की वृत्तियों का निरोध करने वाला चित्त ‘निरुद्ध’ कहलाता है। इस अवस्था में चित्त अपनी स्वाभाविक शान्त अवस्था में रहता है। यह योग की अन्तिम अवस्था है। ऐसा चित्त सिद्ध योगियों का होता है। इस अवस्था में आंतरिक या बाह्य कोई भी वृत्ति नहीं रहती। चित्त में ध्येय विषय का होता है। इस अवस्था में आंतरिक या बाह्य कोई भी वृत्ति नहीं रहती। चित्त में ध्येय विषय तक का लोप हो जाता है। केवल संस्कार ही शेश रहता है। इन पांच भूमियों में First तीन अवस्था योगानुकूल नहीं है। क्षिप्त तथा मूढ़ तो योग के साधक नहीं बाधक हैं, क्योंकि ये दोनों Singleाग्र के विघातक हैं। विक्षिप्त अवस्था आंशिक Reseller से योगानुकूल हैं, क्योंकि यह Singleाग्रता का सहायक हैं। परन्तु इसमें भी चित्त चंचल रहता है। Singleाग्र तथा निरुद्ध पूर्णत: योग की अवस्थाएँ हैं। इन दोनों अवस्थाओं का क्रमश: सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात योग भी कहा गया है।

सम्प्रज्ञात समाधि- सम्यक् ज्ञायते

‘‘साक्षात्क्रियते ध्येयमस्मिन् इति सम्प्रज्ञात:।’’

Singleाग्र या सम्प्रज्ञात अवस्था में All बाह्य वृत्तियों का निरोध हो जाता है तथा चित्त केवल ध्येय विषय पर ही लगा रहता है। इस अवस्था में अविद्या, अस्मिता, रोग, द्वेष, अभिनिवेश आदि पांचों क्लेश क्षीण हो जाते हैं तथा कर्मबन्धन निर्मूल हो जाता है। इस अवस्था को ‘समापत्ति’ या सम्प्रज्ञात कहते हैं, क्योंकि इसमें चित्त ध्येय विषय में लीन रहता है। यह असम्प्रज्ञात योग का अंग माना जाता है। सम्प्रज्ञात योग या समाधि के चार अंग हैं : वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत तथा अस्मितानुगत तथा अस्मितानुगत। First अवस्था वितर्कानुगत को सवितर्क समाधि भी कहते हैं। इस अवस्था में ध्येय विषय पर ध्यान केन्द्रित Reseller जाता है तथा उस विषय सम्बन्धी तर्क विर्तक भी मने में उठते रहते हैं। दूसरी अवस्था विचारानुगत या सविचार कहलाती है। इस अवस्था में साधक ध्येय विषय पर सूक्ष्मता से विचार करता है। तीसरी अवस्था आनन्द्रानुगत या सानन्द समाधि है। इस अवस्था में ध्येय विषयजन्य आनन्द का केवल भान होता है। परन्तु आनन्द के अनुभवकर्ता Reseller में ‘अहं’ का भाव रहता है। चौथी अवस्था अस्मितानुगत या सास्मित समाधि है। इसमें ध्येय विषय का ही केवल भान होता है। यह आत्मसाक्षत्कार की अवस्था है जिसमें आत्मा का शरीर मन अहंकार अत्यादि से भिन्नता का पूर्ण ज्ञान होता है।

असम्प्रज्ञात समाधि

यह पूर्ण चित्त वृत्तियों के निरोध की अवस्था है। इसे ‘सर्ववृत्तिनिरोध’ भी कहते हैं। सम्प्रज्ञात में All वृत्तियाँ साित्त्वक Reseller को प्राप्त हो जाती हैं, परन्तु असम्प्रज्ञात में All का निरोध हो जाता है। यह अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में योगी समस्त सांसारिक विषयों से मुक्त होकर कैवल्य में लीन हो जाता है। यह आत्मा के शुद्ध चैतन्य की अवस्था है। इसे निरालम्ब, Meansशून्य, असंप्रज्ञात, अपर वैराग्य आदि भी कहते हैं। यही ‘निर्बीज’ समाधि है, क्योंकि इस अवस्था में जन्म और मरण की बीजभूत अविद्या सर्वथा समाप्त हो जाती है। इस समाधि को ‘धर्मभेद’ समाधि भी कहते हैं। जिस प्रकार मेघ जल की वर्षा कर योगी को शान्त कर देता है।

इस प्रकार विवेचन से स्पष्ट हुआ कि चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं। यह निरोध सहज कार्य नहीं, यह अभ्यास और वैराग्य से साध्य है। इनमें First वैराग्य द्वारा चित्त वृत्तियों का निरोध करना चाहिए। तत्बाद अभ्यास द्वारा निरुद्ध संस्कारों की दृढ़ करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि योगाभ्यास-विषयक वैराग्य से चित्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है।

योग के आठ अंग –

‘‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोSष्टांड़गानि’’

योगसूत्र सूत्र- 21

योग के आठ अंग माने गये हैं जिन्हें अष्टांग योग कहते हैं। वे आठ अंग हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इन अंगों के अनुष्ठान से अविद्या का नाश हो जाता है तथा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है। साधक ज्यों-ज्यों योग अनुष्ठान में अग्रसर होता जाता है त्यों-त्यों अशुद्धि या अविद्या का नाश होता जाता है। योग की पूर्ण सिद्धि से साधक में विवेक ख्याति की उत्पत्ति होती है। अत: इन योगांगों का प्रयोजन है विवेक ज्ञान की प्राप्ति तथा अशुद्धि या अविद्या का नाश। विवेक ज्ञान से ही कैवल्य लाभ होता है। जो जीव का परमलक्ष्य है।

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