प्रार्थना का Means And परिभाषा स्वReseller

प्रार्थना का Means –

प्रार्थना मनुष्य की जन्मजात सहज प्रवृत्ति है। संस्कृत Word प्रार्थना तथा आंग्ल (इंग्लिश) भाशा के Prayer Word, इन दोनों में Means का दृष्टि से पूरी तरह से समानता है –

  1. संस्कृत में ‘‘प्रकर्शेण अर्धयते यस्यां सा प्रार्थना’’ Meansात प्रकर्श Reseller से की जाने वाली Meansना (चाहना अभ्यर्थना)
  2. आंग्ल भाशा का Prayer यह Word Preier, precari, prex, prior इत्यादि धातुओं से बना है, जिनका Means होता है चाहना या अभ्यर्थना। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म, भाशा, देष इत्यादि सीमाएँ प्रार्थना या Prayer के समान Meansों को बदल नहीं पार्र्इ हैं। 

‘‘प्रार्थना Word की Creation ‘Means उपाया×आयाम’ धातु में ‘प्र’ उपसर्ग And ‘क्त’ प्रत्यय लगाकर Wordशास्त्रीयों ने की है। इस Means में अपने से विशिष्ट व्यक्ति से दीनतापूर्वक कुछ मांगने का नाम प्रार्थना है। वेदों में कहा गया है-’’पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।’’ त्रिपाद And Singleपाद नाम से ब्रह्म के एश्वर्य का संकेत है। अत: जीव के लिये जितने भी आवश्यक पदार्थ हैं, सबकी याचना परमात्मा से ही करनी चाहिए, अन्य से नहीं।

प्रार्थना का तात्पर्य यदि सामान्य Wordों में बताया जाए तो कह सकते है। कि प्रार्थना मनुष्य के मन की समस्त विश्रृंखलित And अनेक दिशाओं में बहकने वाली प्रवृत्तियों को Single केन्द्र पर Singleाग्र करने वाले मानसिक व्यायाम का नाम है। चित्त की समग्र भावनाओं को मन के केन्द्र में Singleत्र कर चित्त को दृढ़ करने की Single प्रणाली का नाम ‘प्रार्थना’ है। अपनी इच्छाओं के अनुReseller अभीश्ट लक्ष्य प्राप्त कर लेने की क्षमता मनुश्य को (प्रकृति की ओर से ) प्राप्त है। भगवतगीता 17/3 के According –
यच्छ्रद्ध: स एव स:
Meansात- जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा ही बन जाता है।
र्इसार्इ धर्मग्रंथ बार्इबिल में कहा गया है –
जो माँगोगे वह आपको दे दिया जाऐगा।
जो खोजोगे वह तुम्हें प्राप्त हो जाएगा।
खटखटाओगे तो आपके लिए द्वार खुल जाएगा।।

स्पष्ट है कि प्रार्थना के द्वारा जन्मजात प्रसुप्त आध्यत्मिक शक्तियाँ मुखर की जा सकती है। इन शक्तियों को यदि सदाचार तथा सद्विचार का आधार प्राप्त हो तब व्यक्ति संतवृत्ति (साधुवृत्ति) का बन जाता है। इसके विरूद्ध इन्हीं शक्तियों का दुResellerयोग कर व्यक्ति दुश्ट वृत्ति का बन सकता हैं। शैतान और भगवान की संकल्पना इसीलिए तो रूढ़ है। मनुष्य में इतनी शक्ति है कि स्वयं का उद्धार स्वयं का सकता है। गीता 6/5 में भी यही कहा गया है –

‘‘उद्धरेत् आत्मना आत्मानम्’’

इस प्रकार यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है कि प्रार्थना भिक्षा नहीं, बल्कि शक्ति अर्जन का माध्यम है, प्रार्थना करने के लिए सबल सक्षम होना महत्व रखता है। प्रार्थना परमात्मा के प्रति की गर्इ Single आर्तपुकार है। जब यह पुकार द्रौपदी, मीरा, And प्रहलाद के समान हृदय से उठती है तो भावमय भगवान दौड़े चले आते हैं। जब भी हम प्रार्थना करते हैं तब हर बार हमें अमृत की Single बूंद प्राप्त होती है जो हमारी आत्मा को तृप्त करती है। गाँधी जी ने जीवन में प्रार्थना को Indispensable मानते हुए इसे आत्मा का खुराक कहा है। प्रार्थना ऐसा कवच या दुर्ग है जो प्रत्येक भय से हमारी रक्षा करता है। यही वह दिव्य रथ है जो हमें सत्य, ज्योति और अमृत की प्राप्ति कराने में समर्थ है।

हमारा जीवन हमारे विश्वासों का बना हुआ है। यह समस्त संसार हमारे मन का ही खेल है- ‘‘जैसा मन वैसा जीवन’’। प्रार्थना Single महान र्इच्छा, आशा और विश्वास है। यह शरीर, मन व वाणी तीनों का संगम है। तीनों अपने आराध्य देव की सेवा में SingleReseller होते हैं, प्रार्थना करने वालों का रोम-रोम प्रेम से पुलकित हो उठता है।

प्रार्थना की परिभाषा –

हितोपदेश :- ‘‘स्वयं के दुगुर्णों का चिंतन व परमात्मा के उपकारों का स्मरण ही प्रार्थना है। सत्य क्षमा, संतोष, ज्ञानधारण, शुद्ध मन और मधुर वचन Single श्रेष्ठ प्रार्थना है।’’

पैगम्बर हजरत मुहम्मद – ‘‘प्रार्थना (नमाज) धर्म का आधार व जन्नत की चाबी है।’’

श्री माँ – ‘‘प्रार्थना से क्रमश: जीवन का क्षितिज सुस्पष्ट होने लगता है, जीवन पथ आलोकित होने लगता है और हम अपनी असीम संभावनाओं व उज्ज्वल नियति के प्रति अधिकाधिक आश्वस्त होते जाते हैं।’’

महात्मा गांधी – ‘‘प्रार्थना हमारी दैनिक दुर्बलताओं की स्वीकृति ही नहीं, हमारे हृदय में सतत् चलने वाला अनुसंधान भी है। यह नम्रता की पुकार है, आत्मशुद्धि And आत्मनिरीक्षण का आह्वाहन है।’’

श्री अरविंद घोष – ‘‘यह Single ऐसी महान क्रिया है जो मनुष्य का सम्बन्ध शक्ति के स्त्रोत पराचेतना से जोड़ती है और इस आधार पर चलित जीवन की समस्वरता, सफलता And उत्कृष्टता वर्णनातीत होती है जिसे अलौकिक And दिव्य कहा जा सकता है।’’

सोलहवीं शताब्दी के स्पेन के संत टेरेसा के According प्रार्थना –’’प्रार्थना सबसे प्रिय सत्य (र्इष्वर) के साथ पुनर्पुन: प्रेम के संवाद तथा मैत्री के घनिश्ठ सम्बन्ध हैं।’’

सुप्रसिद्ध विष्वकोष Brittanica के According प्रार्थना की परिभाषा – सबसे पवित्र सत्य (र्इष्वर) से सम्बन्ध बनाने की इच्छा से Reseller जाने वाला आध्यात्मिक प्रस्फूटन (या आध्यात्मिक पुकार) प्रार्थना कहलाता है। अत: कहा जा सकता है कि हृदय की उदात्त भावनाएँ जो परमात्मा को समर्पित हैं, उन्हीं का नाम प्रार्थना है। अपने सुख-सुविधा-साधन आदि के लिये र्इश्वर से मांग करना याचना है प्रार्थना नहीं। बिना विचारों की गहनता, बिना भावों की उदात्तता, बिना हृदय की विशालता व बिना पवित्रता एंव परमार्थ भाव वाली याचना प्रार्थना नहीं की जा सकती।

वर्तमान में प्रार्थना को गलत समझा जा रहा है। व्यक्ति अपनी भौतिक सुविधओं व स्वयं को विकृत मानसिकता के कारण उत्पन्न हुए उलझावों से बिना किसी आत्म सुधार व प्रयास के र्इश्वर से अनुरोध करता है। इसी भाव को वह प्रार्थना समझता है जो कि Single छल है, भ्रम है अपने प्रति भी व परमात्म सत्ता के लिये भी। अत: स्वार्थ नहीं परमार्थ, समस्याओं से छुटकारा नहीं उनका सामना करने का सामथ्र्य, बुद्धि नहीं हृदय की पुकार, उथली नहीं गहन संवेदना के साथ जब उस परमपिता परमात्मा को उसका साथ पाने के लिए आवाज लगायी जाती है उस स्वर का नाम प्रार्थना है।

गांधी जी कहते थे – ‘‘हम प्रभु से प्रार्थना करें- करुणापूर्ण भावना के साथ और उसने Single ही याचना करें कि हमारी अन्तरात्मा में उस करुणा का Single छोटा सा झरना प्रस्फुटित करें जिसमें वे प्राणिमात्र को स्नान कराके उन्हें निरंतर सुखी, समृद्ध और सुविकसित बनाते रहते हैं।’’

प्रार्थना के स्वReseller

प्रार्थना र्इश्वर के बहाने अपने आप से ही की जाती है। र्इश्वर सर्वव्यापी और परमदयालु है, उस हर किसी की Need तथा इच्छा की जानकारी है। वह परमपिता और परमदयालु होने के नाते हमारे मनोरथ पूरे भी करना चाहता है। कोर्इ सामान्य स्तर का सामान्य दयालु पिता भी अपने बच्चों की इच्छा Need पूरी करने के लिए उत्सुक And तत्पर रहता है। फिर परमपिता और परमदयालु होने पर वह क्यों हमारी Need को जानेगा नहीं। वह कहने पर भी हमारी बात जाने और प्रार्थना करने पर ही कठिनार्इ को समझें, यह तो र्इश्वर के स्तर को गिराने वाली बात हुर्इ। जब वह कीड़े-मकोड़ों और पशु-पक्षियों का अयाचित Need भी पूरी करता है। तब अपने परमप्रिय युवराज मनुष्य का ध्यान क्यों न रखेगा ? वस्तुत: प्रार्थना का Means याचना ही नहीं। याचना अपने आप में हेय है क्योंकि वही दीनता, असमर्थता और परावलम्बन की प्रवृत्ति उसमें जुड़ी हुर्इ है जो आत्मा का गौरव बढ़ाती नहीं घटाती ही है।चाहे व्यक्ति के सामने हाथ पसारा जाय या भगवान के सामने झोली फैलार्इ जाय, बात Single ही है। चाहे चोरी किसी मनुष्य के घर में की जाय, चाहे भगवान के घर मन्दिर में, बुरी बात तो बुरी ही रहेगी। स्वावलम्बन और स्वाभिमान को आघात पहुँचाने वाली प्रक्रिया चाहे उसका नाम प्रार्थना ही क्यों न हो मनुष्य जैसे समर्थ तत्व के लिए शोभा नहीं देती।

वस्तुत: प्रार्थना का प्रयोजन आत्मा को ही परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझना है कि वह इसका पात्र बन कि आवश्यक विभूतियाँ उसे उसकी योग्यता के अनुReseller ही मिल सकें। यह अपने मन की खुषामद है। मन को मनाना है। आपे को बुहारना है। आत्म-जागरण है आत्मा से प्रार्थना द्वारा कहा जाता है, कि हे शक्ति-पुंज तू जागृत क्यों नहीं होता। अपने गुण कर्म स्वाभाव को प्रगति के पथ पर अग्रसर क्यों नहीं करता। तू संभल जाय तो सारी दुनिया संभल जाय। तू निर्मल बने तो सारे संसार की निर्बलता खिंचती हुर्इ अपने पास चली जाए। अपनी सामथ्र्य का विकास करने में तत्पर और उपलब्धियों का सदुपयोग करने में संलग्न हो जाए, तो दीन-हीन, अभावग्रस्तों को पंक्ति में क्यों बैठना पड़े। फिर समर्थ और दानी देवताओं से अपना स्थान नीचा क्यों रहें।

प्रार्थना के माध्यम से हम विष्वव्यापी महानता के साथ अपना घनिश्ठ सम्पर्क स्थापित करने हैं। आदर्षों को भगवान की दिव्य अभिव्यक्ति के Reseller में अनुभव करते हैं और उसके साथ जुड़ जाने की भाव-विव्हलता को सजग करते हैं। तमसाच्छन्न मनोभूमि में अज्ञान और आलस्य ने जड़ जमा ली है। आत्म विस्मृति ने अपने स्वReseller And स्तर ही बना लिया है। जीवन में संव्याप्त इस कुत्सा और कुण्ठा का निराकरण करने के लिए अपने प्रसुप्त अन्त:करण से प्रार्थना की जाय, कि यदि तन्द्रा और मूर्छा छोड़कर तू सजग हो जाय, और मनुष्य को जो सोचना चाहिए वह सोचने लगे, जो करना चाहिए सो करने लगे तो अपना बेड़ा ही पार हो जाए। अन्त:ज्योति की Single किरण उग पड़े तो पग-पग पर कठोर लगने के निमित्त बने हुए इस अन्धकार से छुटकारा ही मिल जाए जिसने शोक-संताप की बिडम्बनाओं को सब ओर से आवृत्त कर रखा है।

परमेष्वर यों साक्षी, दृश्टा, नियामक, उत्पादक,संचालक सब कुछ है। पर उसक जिस अंश की हम उपासना प्रार्थना करते हैं वह सर्वात्मा And पवित्रात्मा ही समझा जाना चाहिए। व्यक्तिगत परिधि को संकीर्ण रखने और पेट तथा प्रजनन के लिए ही सीमाबद्ध रखने वाली वासना, तृश्णा भरी मूढ़ता को ही माया कहते हैं। इस भव बन्धन से मोह, ममता से छुड़ाकर आत्म-विस्तार के क्षेत्र को व्यापक बना लेना यही आत्मोद्धार है। इसी को आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। प्रार्थना में अपने उच्च आत्म स्तर से परमात्मा से यह प्रार्थना की जाती है कि वह अनुग्रह करे और प्रकाश की ऐसी किरण प्रदान करे जिससे सर्वत्र दीख पड़ने वाला अन्धकार -दिव्य प्रकाश के Reseller में परिणत हो सके।

लघुता को विषालता में, तुच्छता को महानता में समर्पित कर देने की उत्कण्ठा का नाम प्रार्थना है। नर को नारायण-पुरुश को पुरुशोत्तम बनाने का संकल्प प्रार्थना कहलाता है। आत्मा को आबद्ध करने वाली संकीर्णता जब विषाल व्यापक बनकर परमात्मा के Reseller में प्रकट होती है तब समझना चाहिए प्रार्थना का प्रभाव दीख पड़ा, नर-पशु के स्तर से नीचा उठकर, जब मनुष्य देवत्व की ओर अग्रसर होने लगे तो प्रार्थना की गहरार्इ का प्रतीक और चमत्कार माना जा सकता है। आत्म समर्पण को प्रार्थना का आवश्यक अंग माना गया है। किसी के होकर ही हम किसी से कुछ प्राप्त कर सकते हैं। अपने को समर्पण करना ही हम र्इश्वर के हमार प्रति समर्पित होने की विवशता का Single मात्र तरीका है। ‘शरणागति’ भक्ति का प्रधान लक्षण माना गया है। गीता में भगवान ने आष्वासन दिया है कि जो सच्चे मन से मेरी शरणा में आता है, उनके योग क्षेम की सुख-षान्ति और प्र्रगति की जिम्मेदारी मैं उठाता हूँ। सच्चे मन और झूठे मन की शरणागति का अन्तर स्पश्ट है। प्रार्थना के समय तन-मन-धन सब कुछ भगवान के चरणों में समर्पित करने की लच्छेदार भाशा का उपयोग करना और जब वैसा करने का अवसर आवे तो पल्ला झाड़कर अलग हो जाना झूठे मन की प्रार्थना है आज इसी का फैशन है।

महात्मा गाँधी ने अपने Single मित्र को लिखा था -’’राम नाम मेरे लिए जीवन अवलम्बन है जो हर विपत्ति से पार करता है।’’ जब तुम्हारी वासनाएँ तुम पर सवार हो रही हों तो नम्रतापूर्वक भगवान को सहायता के लिए पुकारो, तुम्हें सहायता मिलेगी।

भगवान को आत्मसमर्पण करने की स्थिति में जीव कहता है- तस्यैवाहम् (मैं उसी का हूँ) तवैवाहम् (मैं तो तेरा ही हूँ) यह कहने पर उसी में इतना तन्मय हो जाता है – इतना घूल-मिल जाता है कि अपने आपको विसर्जन, विस्मरण ही कर बैठता है औ अपने को परमात्मा का स्वReseller ही समझने लगता है। त बवह कहता है – त्वमेवाहम् (मैं ही तू हूँ) षिवोहम् (मैं ही षिव हूँ) ब्रह्माऽस्मि (मैं ही ब्रह्मा हूँ)।

भगवान को अपने में और अपने को भगवान में समाया होने की अनुभूति की, जब इतनी प्रबलता उत्पन्न हो जाए कि उसे कार्य Reseller में परिणित किए बिना रहा ही न जा सके तो समझना चाहिए कि समर्पण का भाव सचमुच सजग हो उठा। ऐसे शरणागति व्यक्ति को प्रार्थना द्रुतगति से देवत्व की ओर अग्रसर करती हैै और यह गतिषीलता इतनी प्रभावकारी होती है कि भगवान को अपनी समस्त दिव्यता समेत भक्त के चरणों में शरणागत होना पड़ता है। यों बड़ा तो भगवान ही है पर जहाँ प्रार्थना, समर्पण और शरणागति की साधनात्मक प्रक्रिया का सम्बन्ध है, इस क्षेत्र में भक्त को बड़ा और भगवान को छोटा माना जायगा क्योंकि अक्सर भक्त के संकेतों पर भगवान को चलते हुए देखा गया है। हमें सदैव पुरुषार्थ और सफलता के विचार करने चाहिए, समृद्धि और दयालुता का आदर्श अपने सम्म्मुख रखना चाहिये। किसी भी Reseller में प्रार्थना का Means अकर्मण्यता नहीं है। जो कार्य शरीर और मस्तिष्क के करने के हैं उनको पूरे उत्साह और पूरी शक्ति के साथ करना चाहिये। र्इश्वर आटा गूंथने, न आयेगा पर हम प्रार्थना करेंगे तो वह हमारी उस योग्यता को जागृत कर देगा। वस्तुत: प्रार्थना का प्रयोजन आत्मा को ही परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझना है। इसे ‘आत्म साक्षात्कार’ भी कह सकते है। लघुता को विशालता में, तुच्छता को महानता में समर्पित कर देने की उत्कण्ठा का नाम प्रार्थना है। मनोविज्ञानवेत्ता डॉ. एमेली केडी ने लिखा है- ‘अहंकार को खोकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धत मनोविकारों को ठुकराकर परमेश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना है।’

अंग्रेज कवि टैनीसन ने कहा है कि ‘‘बिना प्रार्थना मनुष्य का जीवन पशु-पक्षियों जैसा निर्बोध है। प्रार्थना जैसी महाशक्ति जैसी महाशक्ति से कार्य न लेकर और अपनी थोथी शान में रहकर सचमुच हम बड़ी मूर्खता करते हैं। यही हमारी अंधता है।’’

प्रभु के द्वार में की गर्इ आन्तरिक प्रार्थना तत्काल फलवती होती है। महात्मा तुकाराम, स्वामी रामदास, मीराबार्इ, सूरदास, तुलसीदास आदि भक्त संतों And महांत्माओं की प्रार्थनाएँ जगत्प्रसिद्ध हैं। इन महात्माओं की आत्माएँ उस परम तत्व में विलीन होकर उस देवी अवस्था में पहुँच जाती थीं जिसे ज्ञान की सर्वोच्च भूमिका कहते हैं। उनका मन उस पराशक्ति से तदाकार हो जाता था। जो समस्त सिद्धियों And चमत्कारों का भण्डार है। उस दैवी जगत में प्रवेश कर आत्म श्रद्धा द्वारा वे मनोनीत तत्व आकर्शित कर लेते थे। चेतन तत्व से तादात्म्य स्थापित कर लेने के ही कारण वे प्रार्थना द्वारा समस्त रोग, शोक, भय व्याधियाँ दूर कर लिया करते थे। भगवत् चिन्तन में Single मात्र सहायक हृदय से उद्वेलित सच्ची प्रार्थना ही है। हृदय में जब परम प्रभु का पवित्र प्रेम भर जाता है, तो Human-जीवन के समस्त व्यापार, कार्य-चिन्तन इत्यादि प्रार्थनामय हो जाता है। सच्ची प्रार्थना में Human हृदय का संभाशण दैवी आत्मा से होता है। प्रार्थना श्रद्धा, शरणागति तथा आत्म समर्पण का ही Resellerान्तर है।

यह परमेश्वर से वार्तालाप करने की Single आध्यात्मिक प्रणाली है। जिसमें हृदय बोलता व विश्व हृदय सुनता है। यह वह अस्त्र है जिसके बल का कोर्इ पारावार नहीं है। जिस महाशक्ति से यह अनन्त ब्रह्माण्ड उत्पन्न लालित-पालित हो रहा है, उससे संबंध स्थापित करने का Single Reseller हमारी प्रार्थना ही है। प्रार्थना करन जिसे आता है उसे बिना जप, तप, मन्त्रजप आदि साधन किए ही पराशक्ति से तदाकार हो सकता है। अपने कर्तव्य को पूरा करना प्रार्थना की पहली सीढ़ी है। दूसरी सीढ़ी जो विपत्तियाँ सामने आएँ उनसे कायरों की भांति न तो डरें, न घबराएँ वरन् प्रभु से प्रार्थना करें कि वह हमें सबका सामना करने का साहस व धैर्य दें। तीसरा दर्जा प्रेम का है। जैसे-जैसे आत्मा प्रेमपूर्वक भावों द्वारा परमात्मा के निकट पहुँच जाती है वैसे ही वैसे आनंद का अविरल स्त्रोत प्राप्त होता है। प्रेम में समर्पण व विनम्रता निहित हैं। राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त कहते हैं-

‘‘हृदय नम्र होता है नहीं जिस नमाज के साथ।

ग्रहण नहीं करता कभी उसको त्रिभुवन नाथ।।’’

गीता का महा-गीत, वह सर्वश्रेश्ठ गीत प्रार्थना भक्ति का ही संगीत है। भक्त परमानन्द स्वReseller परमात्मा से प्रार्थना के सुकोमल तारों से ही संबंध जोड़ता है। इन संतों की प्रार्थनाओं में भक्ति का ही संगीत है। जरा महाप्रभु चैतन्य के हृदय को टटोलो, मीराबार्इ अपने हृदयाधार श्रीकृश्ण के नामोच्चारण से ही अश्रु धारा बहा देते थे, प्रार्थना से मनुष्य र्इश्वर के निकट से निकटतम पहुँच जाता है। संसार की अतुलित सम्पत्ति में भी वह आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता। सच्चे भावुक प्राथ्र्ाी को, जब वह अपना अस्तित्व विस्मृत कर केवल आत्मस्वReseller में ही लीन हो जाता है, उस क्षण जो आनन्द आता है उसका अस्तित्व Single भुक्तभोगी को ही हो सकता है।

प्रार्थना विष्वास की प्रतिध्वनि है। रथ के पहियों में जितना अधिक भार होता है, उतना ही गहरा निषान वे धरती में बना देते हैं। प्रार्थना की रेखाएँ लक्ष्य तक दौड़ी जाती हैं, और मनोवांछित सफलता खींच लाती हैं। विष्वास जितना उत्कृश्ट होगा परिणाम भी उतने ही प्रभावषाली होंगे। प्रार्थना आत्मा की आध्यात्मिक भूख है। शरीर की भूख अन्न से मिटती है, इससे शरीर को शक्ति मिलती है। उसी तरह आत्मा की आकुलता को मिटाने और उसमें बल भरने की सत् साधना परमात्मा की ध्यान-आराधना ही है। इससे अपनी आत्मा में परमात्मा का सूक्ष्म दिव्यत्व झलकने लगता है और अपूर्व शक्ति का सदुपयोग आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति कर सकते हैं। निश्ठापूर्वक की गर्इ प्रार्थना कभी असफल नहीं हो सकती।

प्रार्थना प्रयत्न और र्इश्वरत्व का सुन्दर समन्वय है। Humanीय प्रयत्न अपने आप में अधूरे हैं क्योंकि पुरुशार्थ के साथ संयोग भी अपेक्षित है। यदि संयोग सिद्ध न हुए तो कामनाएँ अपूर्ण ही रहती है। इसी तरह संयोग मिले और प्रयत्न न करे तो भी काम नहीं चलता। प्रार्थना से इन दोनों में मेल पैदा होता है। सुखी और समुन्नत जीवन का यही आधार है कि हम क्रियाषील भी रहें और दैवी विधान से सुसम्बद्ध रहने का भी प्रयास करें। धन की आकांक्षा हो तो व्यवसाय और उद्यम करना होता है साथ ही इसके लिए अनुकूल परिस्थितियाँ भी चाहिए ही। जगह का मिलना, पूँजी लगाना, स्वामिभक्त और र्इमानदार, नौकर, कारोबार की सफलता के लिए चाहिए ही। यह सारी बातें संयोग पर अवलम्बित हैं। प्रयत्न और संयोग का जहाँ मिलाप हुआ वहीं सुख होगा, वहीं सफलता भी होगी।

आत्मा-षुद्धि का आवाहन भी प्रार्थना ही है। इससे मनुष्य के अन्त:करण में देवत्व का विकास होता है। विनम्रता आती है और सद्गुणों के प्रकाश में व्याकुल आत्मा का भय दूर होकर साहस बढ़ने लगता है। ऐसा महसूस होने लगता है, जैसे कोर्इ असाधारण शक्ति सदैव हमारे साथ रहती है। हम जब उससे अपनी रक्षा की याचना, दु:खों से परित्राण और अभावों की पूर्ति के लिए अपनी विनय प्रकट करते हैं तो सद्व प्रभाव दिखलार्इ देता है और आत्म-सन्तोश का भाव पैदा होता है।

असंतोश और दु:ख का भाव जीव को तब परेषान करता है, जब तक वह क्षुद्र और संकीर्णता में ग्रस्त है। मतभेदों की नीति ही सम्पूर्ण अनर्थों की जड़ है। प्रार्थना इन परेषानियों से बचने की रामबाण औशधि है। भगवान की प्रार्थना में सारे भेदों को भूल जाने का अभ्यास हो जाता है। सृश्टि के सारे जीवों के प्रति ममता आती है इससे पाप की भावना का लोप होता है। जब अपनी असमर्थता समझ लेते है और अपने जीवन के अधिकार परमात्मा को सौंप देते हैं तो यही समर्पण का भाव प्रार्थना बन जाता है। दुर्गुणों का चिन्तन और परमात्मा के उपकारों का स्मरण रखना ही मनुष्य की सच्ची प्रार्थना है। महात्मा गाँधी कहा करते थे – मैं कोर्इ काम बिना प्रार्थना के नहीं करता। मेरी आत्मा के लिए प्रार्थना उतनी ही अनिवार्य है, जितना शरीर के लिए भोजन। प्रार्थना Single उच्चस्तरीय आध्यात्मिक क्रिया है जिसमें सही भाव के साथ क्रम होना चाहिए। इसे पाँच चरणों में समझा जा सकता है-

  1. विनम्रता
  2. आत्मसजगता
  3. कल्पना का उपयोग
  4. परमार्थ का भाव
  5. उत्साह And आनंद।

स्वामी रामतीर्थ के According प्रतिदिन प्रार्थना करने से अंत:करण पवित्र बनता है। स्वभाव में परिवर्तन आता है। हताशा व निराशा समाप्त हो उत्साह भर जाता है और जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। प्रार्थना आत्मविश्वास को जगाने का अचूक उपाय है।

अंत: की अकुलाहट को विश्वव्यापी सत्ता के समक्ष प्रकट कर देना ही तो प्रार्थना है। Wordों की इस बाह्य स्थूल जगत में Need होती है, परमात्मा से जुड़ना हो तो भाव चाहिये। प्रार्थना में हृदय बोलता है, Wordो की महत्ता गौंण है। इसी कारण लूथर ने कहा था- ‘‘जिस प्रार्थना में बहुत अल्प Wordा हों, वही सर्वोत्तम प्रार्थना है।’’

प्रार्थना उस व्यक्ति की ही फलित होती है जिसका अंत:करण शुद्ध है और जो सदाचारी है। इसी कारण संत मैकेरियस ने ठीक ही कहा है- ‘‘जिसकी आत्मा शुद्ध व पवित्र है, वही प्रार्थना कर सकता है क्योंकि अशु़़़द्ध हृदय से वह पुकार ही नहीं उठेगी जो परमात्मा तक पहुँच सके। ऐसे में केवल जिह्वा बोलती है और हृदय कुछ कह ही नहीं पाता।’’ जब Single साधारण व्यक्ति नाम मात्र की भिक्षा देते हुए, भिक्षापात्र की सफार्इ देख लेता है तो वह र्इश्वर तो दिव्य अनुदान देने वाला है। वह भी देखेगा कि याचक उसके आदर्शों पर चलने वाला है या नहीं। सुप्रसिद्ध कवि होमर के Wordों में – ‘‘जो र्इश्वर की बात मानता है, र्इश्वर भी उनकी ही सुनता है।’’

अत: प्रार्थना में Singleाग्रता, निर्मलता, शांत मन:स्थिति, श्रद्धा-विश्वास और समर्पण का भाव होना चाहिये। यह परमात्म सत्ता से जुड़ने का Single भावनात्मक माध्यम है। पैगम्बर हजरत मुहम्मद के According- ‘‘प्रार्थना (नमाज) धर्म का आधार व जन्नत की चाबी है।’’

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