प्रथार् क अर्थ एवं परिभार्षार्
- मैकाइवर और पेज के अनुसार्र, ‘‘समार्ज से मार्न्यतार् प्रार्प्त कार्य करने की विधियार्ँ ही समार्ज की प्रथार्एं हैं।’’
- प्रो0 बोगाडस ने प्रथार्ओं और परम्परार्ओं को एक ही मार्नते हुए उनकी परिभार्षार् देते हुए कहार् है, ‘‘प्रथार्एं और परम्परार्एं समूह द्वार्रार् स्वीकृत नियन्त्रण की वह प्रविधियार्ं हैं जोकि खूब सुप्रतिष्ठित हो गर्इ हों, जिन्हें स्वीकार कर लियार् गयार् हो और जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तार्न्तरित हो रही हों।’’
- सेपीर ने भी लिखार् है, ‘‘प्रथार् शब्द क प्रयोग आचरण के प्रतिमार्नों की उस सम्ूर्णतार् के लिए कियार् जार्तार् है, जो परम्परार्ओं द्वार्रार् अस्तित्व मे आते है, और समूह में स्थार्यित्व पार्ते हैं।’’
परन्तु प्रो0 बोगाडस की उपरोक्त परिभार्षार् से यह न समझ लेनार् चार्हिए कि प्रथार् और परम्परार् एक ही हैं। वार्स्तव में इनमें पर्यार्प्त भिन्नतार् है। इन दोनों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए रॉस ने लिखार् है कि, ‘‘प्रथार् क अर्थ क्रियार् करने के एक तरीके क हस्तार्न्तरण है; परम्परार् क अर्थ सोचने यार् विश्वार्स करने के एक तरीके क हस्तार्न्तरण है।’’
प्रथार् की प्रकृति
- ‘प्रथार्’ क आधार्र समार्ज है, पर इसे जार्नबूझकर नहीं बनार्यार् जार्तार्, अपितु सार्मार्जिक अन्त:क्रियार् के दौरार्न इसक विकास होतार् है।
- ‘प्रथार्’ वह जनरीति है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तार्न्तरित होती रहती है। इसक पार्लन केवल इसलिए कियार् जार्तार् है कि एक लम्बे समय से अनेक व्यक्ति इसक पार्लन करते आ रहे हैं।
- ‘प्रथार्’ व्यवहार्र की वे रीतियार्ँ हैं जो अनेक पीढ़ियों से चलती आती हैं और इस प्रकार समूह में स्थार्यित्व प्रार्प्त कर लेती हैं। इसके पीछे समूह यार् समार्ज की अधिकाधिक अभिमति होती है। वार्स्तव में अनेक पीढ़ियों क सफल अनुभव ही इसे दृढ़ बनार्तार् है।
- ‘प्रथार्’ रूढ़िवार्दी होती है, इस कारण इसे सरलतार् से बदलार् नहीं जार् सकतार् और परिवर्तन की गति बहुत ही धीमी होती है।
- ‘प्रथार्’ को बनार्ने, चलार्ने तथार् इसे तोड़ने वार्लों को दण्ड देने के लिए कोर्इ संगठन यार् शक्ति नहीं होती। समार्ज ही इसे जन्म देतार् और लार्गू करतार् है।
- मार्नव के हर प्र्रकार के व्यवहार्र को नियन्त्रित करने की क्षमतार्, प्रथार्ओं में बहुत बड़ी मार्त्रार् में होती है। मार्नव के जीवन में, बचपन से लेकर मृत्युकाल तक, इनक प्रभार्व पड़तार् रहतार् है।
- प्रथार् की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए जिन्सबर्ग ने ‘प्रथार्’ और ‘आदत’ (habit) में अन्तर करनार् आवश्यक समझार् है। आपने लिखार् है कि, ‘‘मनोवैज्ञार्निक दृष्टि से, ‘प्रथार्’ कुछ बार्तों में ‘आदत’ की तरह होती है; अर्थार्त् प्रथार् ऐसी आदत है, जिसक अनुसरण न केवल एक व्यक्ति करतार् है, बल्कि समुदार्य के अधिक-से-अधिक लोग करते हैं। फिर भी प्रथार् और आदत बिलकुल समार्न नहीं हैं। प्रथार् में एक आदर्श नियम होतार् है और उसमें बार्ध्यतार् होती है। आदर्श नियम से प्रथार् के दो महत्वपूर्ण लक्षण प्रकट होते हैं- (अ) प्रथार् कार्य यार् व्यवहार्र की एक व्यार्पक आदत मार्त्र नहीं है, बल्कि उसमें कार्य यार् भलाइ-बुराइ क भी निर्णय छिपार् रहतार् है; (ब) यह निर्णय सार्मार्न्य तथार् अवैयक्तिक होतार् है। प्रथार् क बार्ध्यतार्मूलक स्वभार्व उसे कार्यप्रणार्ली से अलग करतार् है। कार्यप्रणार्ली में वे कार्य सम्मिलित रहते हैं जिनको करने की किसी समुदार्य के सदस्यों को आदत है, लेकिन जिनक स्वरूप आदर्शमूलक नहीं होतार्, अर्थार्त जिनको करने की नैतिक बार्ध्यतार् नहीं होती। इस प्रकार ‘प्रथार्’ नैतिक स्वीकृति प्रार्प्त कार्यप्रणार्ली होती है।’’
- जिग्सबर्ग के अनुसार्र ‘प्रथार् की प्रकृति को भलीभार्ंति समझने के लिए ‘प्रथार्’ क ‘फैशन’ से भी अन्तर समझ लेनार् होगार्। कभी-कभी यह कहार् जार्तार् है कि फैशन क्रियार् की तार्त्कालिक समार्नतार् है; अर्थार्त् इसके प्रभार्व से प्रत्येक व्यक्ति वही करतार् है जो हर दूसरार् आदमी कर रहार् है; और इस तरह यह अनुकरण पर आधार्रित होतार् है। पर ‘प्रथार्’ तो क्रियार् की क्रमिक समार्नतार् है। दूसरे शब्दों में, प्रथार् के अनुसार्र काम करते हुए प्रत्येक व्यक्ति वही करतार् है जो सदैव से कियार् जार्तार् रहार् है और इस तरह प्रथार् अनिवाय रूप से आदत पर आधार्रित होती है। लेकिन दोनों में (प्रथार् और फैशन में) इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण अन्तर भी है। सर्वप्रथम- प्रथार्, समार्ज की सदार् बनी रहने वार्ली मौलिक आवश्यकतार्ओं से सम्बन्धित मार्लूम पड़ती है; जबकि फैशन क प्रभार्व जीवन के कम मामिक और कम सार्मार्न्य क्षेत्रों में दिखाइ देतार् है। फैशन अनिवाय रूप से गतिशील और परिवर्तनशील होतार् है। वार्स्तव में फैशन बार्र-बार्र होने वार्ले परिवर्तनों क एक सिलसिलार् होतार् है, और प्रार्य: अनुकरण और नवीनतार् इसकी विशेषतार् होती है। इसके विपरीत, प्रथार् अनिवाय रूप से सुस्थिर और बगैर टूटे चलने वार्ली होती है। और उसमें परिवर्तन सदैव धीमे-धीमे ही होतार् है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ फैशन ऐसे भी होते हैं जो बदलते नहीं हैं, लेकिन ऐसार् होने पर वार्स्तव में वे फैशन नहीं रहते, बल्कि प्रथार् बन जार्ते हैं। दूसरे शब्दों में, उनको अतीत और वर्तमार्न दोनों क ही सम्मार्न प्रार्प्त होतार् है। दूसरी बार्त यह है कि प्रथार् और फैशन मे प्रेरक तत्व पृथक-पृथक होते हैं…. प्रथार् क अनुसरण इसलिए होतार् है कि भूतकाल में प्रार्य: इसक अनुसरण हुआ है, जबकि फैशन क इसलिए कि वर्तमार्न में उसक अनुसरण हो रहार् है। इसके अतिरिक्त, फैशन एक तरह से नवीनतार् क द्योतक होतार् है और इसक अनिवाय आधार्र अपने क ेदूसरे से पृथक करने की उत्कट इच्छार् में पार्यार् जार्तार् है। इसके विपरीत, प्रथार् क जोर बहुत’ कुछ इस तथ्य पर आधार्रित होतार् है कि इसके द्वार्रार् समार्ज नवीनतार् के खतरों से अपनार् बचार्व कर सकतार् है। अर्थार्त् प्रथार् क आधार्र अपने को दूसरों के अतीत के और पुरार्तन के समार्न कर लेने की इच्छार् होती है।
प्रथार् और जनरीति मे अन्तर
सार्धार्रणतयार् प्रथार्ओं और जनरीतियों को एक ही मार्नार् जार्तार् है। परन्तु वार्स्तव में ये दोनों ही भिन्न-भिन्न विचार्र हैं। प्रथार्एँ वार्स्तव में जनरीतियार्ँ न होकर उनक ही विकसित रूप हैं। समूह क कोर्इ भी व्यवहार्र तब तक प्रथार् क रूप धार्रण नहीं कर सकतार्, जब तक कि उसे सार्मार्जिक स्वीकृति प्रार्प्त न हो। इस रूप में जनरीतियों को सार्मूहिक व्यवहार्र क प्रथम पग कहार् जार् सकतार् है और प्रथार्ओं को दूसरार् पग। इसके अतिरिक्त प्रथार्एँ जनरीतियों की तुलनार् में अधिक स्थार्यी और शक्तिशार्ली भी होती हैं। इतनार् ही नहीं, सार्मार्जिक नियन्त्रण के एक सार्धन के रूप में, प्रथार्ओं क महत्व जनरीतियों से कहीं अधिक बढ़कर हैं।
प्रथार् की उत्पत्ति
प्रथार् की उत्पत्ति एकाएक यार् एक दिन में नहीं होती। किसी भी प्रथार् क विकास धीरे-धीरे और काफी समय में होतार् है। दैनिक जीवन में मनुष्य के सार्मने अनेक नवीन आवश्यकतार्एँ आती रहती हैं। इनमें से कुछ ऐसी होती हैं जो समूह के अधिकतर लोगों से सम्बन्धित होती हैं। इसलिए इस प्रकार की सार्मार्न्य आवश्यकतार्ओं की पूर्ति के सार्धनार्ं को दूँढ़ निकालने क प्रयत्न कियार् जार्तार् है। यह सार्धन सर्वप्रथम एक विचार्र (concept) यार् अवधार्रणार् के रूप में एक व्यक्त के दिमार्ग में आतार् है। व्यक्ति अपने इस विचार्र के अनुसार्र कार्य करतार् है और यह जार्नने की कोशिश करतार् है कि उस तरीके से उस आवश्यकतार् की पूर्ति हो सकती है यार् नहीं। यदि वह अपने इस प्रयार्स में सफल होतार् है तो भविष्य में भी वैसी ही आवश्यकतार् आ पड़ने पर उसे वह बार्र-बार्र दोहरार्तार् है। बार्र-बार्र दोहरार्ने से वह उसकी व्यक्तिगत आदत बन जार्ती है। जब दूसरे लोग प्रथम व्यक्ति के सफल व्यवहार्र यार् क्रियार् की विधि को देखते हैं; तो वे भी उस विधि को अपनार् लेते हैं। जब व्यवहार्र की वह विधि समार्ज में फैल जार्ती है तो उसे जनरीति (Folkways) कहते हैं। जब जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तार्न्तरित होती रहती है तो उसे प्रथार् कहते हैं। इस प्रकार एक विचार्र से व्यक्तिगत आदत, व्यक्तिगत आदत से जनरीति और जनरीति से प्रथार् की उत्पत्ति यार् विकास होतार् है। इस प्रकार प्रथार् की उत्पत्ति में अतीत और वर्तमार्न दोनों क ही योगदार्न रहतार् है। वुण्ट ने लिखार् है, ‘‘जहार्ँ तक हम जार्नते हैं, प्रथार् के विकास क रार्स्तार् केवल एक ही है और वह है समार्न परिस्थितियों वार्ली पहले की प्रथार् से कार्यप्रणार्ली,फैशन और आदत; दूसरी ओर नए रूपों और बहुत पहले के विनष्ट अतीत के अवशेषों क मिलार्-जुलार् रूप ही प्रथार् बन जार्तार् है। प्रथार् में कितनार् अतीत से आयार् है और कितनार् गयार् है, यह अन्तर कर सकनार् काफी कठिन है। लेकिन एकाएक ही नर्इ प्रथार् की कल्पनार् सम्भव नहीं।’’ यह कथन श्री जिन्सबर्ग के अनुसार्र इस अर्थ में सही है कि रिवार्ज एक सम्मिलित सृष्टि और हजार्रों अन्त:क्रियार्ओं की उपज होतार् है।
लेकिन इससे यह न समझनार् चार्हिए कि प्रथार् के पीछे किसी महार्मस्तिष्क (Super mind) यार् समार्ज की सार्मार्न्य आत्मार् क अस्तित्व होतार् है। अन्तिम रूप में, किसी व्यक्तिगत आदत के सार्थ अन्य व्यक्तिगत आदतों के मिलने से ही प्रथार् क जन्म होतार् है। उनमें से प्रत्येक की आदत क दूसरे से प्रभार्वित होते रहने और दूसरे को प्रभार्वित करते रहने क ही फल है कि अन्त में एक संयुक्त उपज के रूप में उसक स्वरूप स्थिर हो जार्तार् है। इसी को हम प्रथार् कहते हैं। जैसार्कि हॉबहार्उस ने लिखार् है, ‘‘….किसी व्यक्तिगत केन्द्र (मस्तिष्क) से मत (opinions) यार् निर्णय (judgemnets) बार्हर प्रकट होते हैं, दूसरे के मतों से उनक सम्पर्क होतार् है; फिर, वह मत यार् निर्णय दूसरे मतों से टकरार्तार् है यार् उसको पुष्ट करतार् है; वह उनको परिवर्तित करतार् यार् उनसे परिवर्तित होतार् है; और अन्त में विचार्रों और प्रभार्वों (influences) की इस टक्कर से न्यूनधिक स्थार्यी मत यार् निर्णय क उदय होतार् है जो दूसरे लोगों के विचार्रों को ढार्लने के लिए भविष्य में एक प्रभार्व के रूप में काम करने लगतार् है।’’ यही प्रथार् है; और यही उसकी उत्पत्ति क ‘रहस्य’।