जैन दर्शन क्या है? –

जैन दर्शन क्या है?

By Bandey

अनुक्रम

साधारणत: विष्णु को देवता मानने वाले को वैष्णव, शिव को शैव, शक्ति को माननेवाले को शाक्त कहते हैं, उसी प्रकार ‘जिन’ को देवता माननेवाले को जैन कहते हैं तथा उसके धर्म को जैनधर्म कहते हैं। परन्तु जैन साहित्य में जैन धर्म और दर्शन का Single विशेष Means है। ‘जिन’ Word का Means है ‘जितने वाला’ Meansात् All प्रकार के विकारों पर विजय प्राप्त करने वाला ही ‘जिन’ कहलाता है। जिनों के द्वारा उपदेश किये गये धर्म को ही जैन धर्म कहते है। जिन लोग स्वभाव-सिद्ध, जन्म-सिद्ध, शुद्ध, बुद्ध भगवान् नहीं होते, वरन् साधारण प्राणियों के समान ही जन्म ग्रहण कर काम, क्रधादि विकारों पर विजय प्राप्त कर परमात्मा बन जाते हैं Meansात् ईश्वरत्वको प्राप्त होते है। ऐसे वीतराग, सर्वश हितोपदेशी ही ‘जिन’ है, तथा उनके द्वारा Reseller गया उपदेश जैन धर्म है।

जैन परम्परा

जैन अनुश्रुति के According यह जगत् कर्मभूमि है जो First कभी भोगभूमि थी। भोगभूमि की अवस्था में Human स्वर्गिम आनन्द प्राप्त करता था। मनुष्य की सारी Needयें कल्पवृक्ष से पूरा हुआ करती थी। परन्तु यह नैसगिंक सुख अधिक दिनों तक न रह सका, जनसंख्या बढ़ी तथा मनुष्य की Needयें नित्य नया Reseller धारण करने लगीं। फलत: भोगभूमि कर्मभूमि में बदल गयी। इसी समय Fourteen कुलकर या मनु उत्पन्न हुए। ये कुलकर इसलिए कहलाते थे कि इन्होंने कुल की प्रथा चलाई तथा कुल के उपयोगी आचार, रीति-रिवाज, सामाजिक अवस्था का निर्माण Reseller। Fourteen कुलकरों में श्री नाभिराम अन्तिम कुलकर हुए। इसके पुत्र का नाम ऋषभदेव था जो जैन धर्म के आदि प्रवर्तक थे। इन्हीे से जैन धर्म परम्परा का प्रारम्भ है । भगवान् ऋषभदेव को जैन ग्रन्थों के According जिन या तीर्थड़्कर मानते हैं। सम्पूर्ण जैन धर्म तथा दर्शन ऐसे ही चौबीस तीर्थड़्कर मानते हैं। सम्पूर्ण जैन धर्म तथा दर्शन ऐसे ही चौबीस तीर्थड़्कर की वाणी या उपदेश का संकलन है । इन चौबीसों तीर्थड़्करों में भगवान ऋषभदेव आद्य तथा भगवान् महावीर अन्तिम तीर्थड़्कर माने जाते हैं।


तीर्थड़करों के सम्बन्ध में Single और भी महत्वपूर्ण बात जैन अनुश्रुतियों में बतलायी गयी है- जैन परम्परा के According इस दृश्यमान जगत् में काल का चक्र सदा घुमा करता है। यद्यपि काल का चक्र अनादि और अन्नत है तथापि उस काल-चक्र के छह विभाग हैं –

  1. अतिसुखReseller,
  2. सुख-दुखReseller,
  3. दुख-सुखReseller,
  4. दुखReseller और अति दुखReseller
  5. अतिदु:खReseller

यह सम्पूर्ण जगत् गाड़ी के चक्के के समान सदा घूमता रहता है, दुख से सुख की और तथा सुख से दुख की ओर जाने की अवसर्पिंणकाल या अवनतिकाल कहते हैं और दुख से सुख की आने को उत्सर्पिंणीकाल या विकासकाल कहते हैं। इन दोनों के बीच की अवधि लाखों-करोड़ों वर्शों से भी विकासकाल कहते हैं। इन दोनों के बीच की अवधि लाखों-करोड़ों वशोर्ं से भी अधिक है। प्रत्येक अवसपिर्ंणी और उत्सर्पिंणीकाल के दुख-सुखReseller भाग में चौबीस तीर्थड़्करों का जन्म होता है जो ‘जिन’ अवस्था की प्राप्त करके जैन धर्म का उपदेश कराते हैं। इनमें भगवान् ऋषभदेव First तीर्थड़्कर थे। इनके अतिरिक्त और भी 23 तीर्थड़कर हुए-अजितनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, अनन्तनाथ, श्रेयासनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, धर्मनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, पुष्पनाथ, अरनाथ, माल्लनाथ, रामनाथ, मुनि सुव्रतनाथ इत्यादि। ये All महात्मा जिन कहलाते हैं। जिन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर निर्वाण लाभ Reseller। अन्तिम तीर्थड़कर भगवान् महावीर माने जाते हैं। इनका जन्म ईसा से 600 वर्ष First कुण्डग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था। इनका जन्म स्थान अब वैशाली के नाम से बिहार में सुप्रसिद्ध स्थान है। महावीर जन्म से ही बड़े दयालु थे। उन दिनों यज्ञों में निरीह पशुओं की हत्या देखकर महावीर का हृदय विघल गया। 30 वर्ष की आयु में इन्होंने प्रव्रज्या ली, ध्यानस्थ महावीर का हृदय पिघल गया। 30 वर्ष की आयु में इन्होंने प्रव्रज्या ली, ध्यानस्थ हो गये। 12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद इन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । 30 वर्ष तक धर्म प्रचार कर 72 वर्ष की अवस्था में इन्होंने पावा नगरी में निर्माण लाभ Reseller ।

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