जनजातीय विकास क्या है ?

जनजातीय विकास का आशय है जनजातीय आबादी की अधिकारहीनता की प्रस्थिति को सुधारते हुए उनके जीवन में गुणात्मक उन्नति करना। भारत का संविधान अनुसूचित जनजातियों को वैधानिक संरक्षण And Safty प्रदान करता है ताकि उनकी सामाजिक निर्योंग्यताएं हटार्इ जा सकें तथा उनके विविध अधिकारों को बढ़ावा मिल सके। संवैधानिक प्राविधानों के अतिरिक्त जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक उन्नयन हेतु विविध कार्यक्रम क्रियान्वित किये गये हैं। ये समस्त प्रयास जनजातीय विकास के प्रयास के Reseller में जाने जाते हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जनजातीय विकास द्विकोण उपागम पर आधारित है: (अ) जनजातीय हितों की कानूनी And प्रशासनिक सहायता द्वारा Safty And (ब) विकास की गतिविधियों को प्रोत्साहित करना जिससे कि जनजातियों का जीवन स्तर उँचा उठ सके।

जनजातीय विकास की अवधारणा 

जनजातीय आबादी कुल Indian Customer जनसंख्या की लगभग आठ प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करती है। वैसे तो आदिम जनजातियाँ पूरे भारत के विविध भौगोलिक क्षेत्रों में बिखरी हुर्इ हैं किन्तु उनकी आबादी का 70: हिस्सा भारत के Seven राज्यों- छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र, उड़ीसा, झारखण्ड, आंध्र प्रदेश, गुजरात And उत्तरांचल में अवस्थित है। सामाजिक-आर्थिक विकास के विािभन्न सूचक यह प्रदर्शित करते हैं कि भारत की औसत गैर जनजातीय आबादी की अपेक्षा जनजातियों का विकास बहुत कम हुआ है। मसलन राष्ट्रीय साक्षरता का औसत 52: है जबकि जनजातियों में साक्षरता का औसत 29.06: है। 1993-43 के योजना आयोग के According ग्रामीण क्षेत्रों में 51.92: And शहरी क्षेत्रों में 41.4: अनुसूचित जनजातियाँ गरीबी रेखा से नीचे की जिन्दगी गुजार रही हैं।

के.एस.सिंह के नेतृत्व में भारत में Humanशास्त्रीय सर्वेक्षण द्वारा Indian Customer जनों के अध्ययन में बताया गया कि भारत के कुल 2800 समुदायों में कुल 461 अनुसूचित जनजातियाँ हैं। जनजातियों को प्रशास्निक सूची में अनुसूचित करने की प्रक्रिया में कर्इ विसंगति भी परिलक्षित होती है। उदाहरणार्थ ‘गुजर’ जम्मू And कश्मीर राज्य में अनुसूचित जनजाति में शामिल नहीें Reseller गया है जबकि पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में अनुसूचित श्रेणी में रखा गया है।

जनजातीय विकास के अभिगम And नीतियाँ 

ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में जनजातीय विकास की विविध अवस्थाओं के अन्तर्गत अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाये गये And तद्नुरुप नीतियों And कार्यक्रमों का क्रियान्वयन भी Reseller गया। स्वतंत्रता से पूर्व भारत में जनजातीय विकास के दो प्रमुख उपागम (दृष्टिकोण) थे: पृथक्करण And Seven्मीकरण। औपनिवेशक काल में जनजातीय विकास के प्रति ब्रिटिश शास्न का आरम्भिक दृष्टिकोण पृथक्करण की नीति पर आधारित था। जनजातियों को समाज की मुख्य धारा से पृथक रखने के पीछे दो मुख्य तर्क थे। पहला यह कि जनजातियों को अलग-अलग रखकर शास्न करना आसान था। ब्रिटिश शास्न के विरुद्ध जन असंतोष कहीं जन आन्दोलन न बन जाय तथा जनजातीय आबादी उस जन आन्दोलन में शामिल होकर उसे सशक्त न बना सके इसलिए उन्हें सामान्य जन से पृथक रखना ही श्रेयश्कर होगा। विभिन्न अवसरों पर विभिन्न क्षेत्रों में जनजातियों के द्वारा किये जाने वाले प्रतिरोध And विद्रोह के आधार पर वे जनजातीय शक्ति क्षमता से परिचित थे, अत: वे इन्हें पृथक रखना चाहते थे। पृथक्करण के पीछे दूसरा तर्क यह है कि जनजातियों को पृथक रखकर उन्हें बाहरी हस्तक्षेप से बचाया जा सकता है ताकि उनकी परम्परा, सहज जीवन शैली, उनकी विषिश्टता And अस्मिता को Windows Hosting रखा जा सके। पृथक्करण की नीति के अन्तर्गत 1870 में भारत सरकार अधिनियम, 1874 में अनुसूचित जिला अधिनियम, 1919 में भारत सरकार अधिनियम, 1935 में भारत सरकार अधिनियम के अन्तर्गत जनजातीय बहुल कुछ क्षेत्रों को पिछड़े क्षेत्र, अनुसूचित भू-भाग, स्वायत्त क्षेत्र के रुप में पृथक Reseller गया। वेरियर एल्विन ने इस पृथक्करण की नीति को बौद्धिक आधार प्रदान Reseller। उन्होंने यह मत व्यक्त Reseller कि जनजातियों के राष्ट्रीय उत्थान के रुप में उनको बाहरी दुनिया से पृथक रखकर नियंत्रित करना श्रेयश्कर होगा।

जनजातीय पृथक्करण की ब्रिटिश नीति के प्रति सामान्य जनों में संदेह पनपने लगा। एल्विन जैसे Humanशास्त्री भी पृथक्करण की नीति के पक्षधर थे, इसलिए Humanशास्त्रियों के विरुद्ध भी सुगबुगाहट होने लगी। जनमत में यह धारणा प्रबल होने लगी कि पृथक्करण की नीति के आधार पर ब्रिटिश शास्न अपना आधिपत्य स्थापित करने की साजिश कर रहा है तथा Humanशास्त्रीय जनजातीय क्षेत्र को अजायबघर बनाना चाहते हैं जहाँ वे अपना अध्ययन व अनुसंधान वगैर हस्तक्षेप के करते रहें। इस परिप्रेक्ष्य में जनजातीय विकास के Second उपागम- Seven्मीकरण की नीति को स्वीकारने And क्रियान्वित करने का आधार निर्मित हुआ। Seven्मीकरण की नीति की मूल मान्यता यह थी कि जनजातियों And जनजातीय क्षेत्रों को पृथक रखना व्यावहारिक दृष्टि से न तो वांछीनय है और न ही सम्भव, इसलिए उन्हें समाज की मुख्य धारा में आत्मSeven कर लेना चाहिए। घूरिये ने अपने जनजातीय अध्ययन में पृथक्करण की नीति की आलोचना करते हुए कहा कि लगभग All जनजातीय समूह किसी न किसी रुप में मुख्य हिन्दू संस्कृति के सम्पर्क में आ गये हैं केवल कुछ ही जनजातियाँ इस सम्पर्क से अछूती हैं। अत: इनका भविष्य पृथकता की बजाय वृहद समाज में इनके Seven्मीकरण की प्रक्रिया पर निर्भर करेगा तथा इनके पिछड़ेपन को पृथकता के आधार पर दूर नहीं Reseller जा सकेगा।

Seven्मीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत स्वतंत्रतापूर्व And स्वातंत्र्योत्तर भारत में विविध प्रयास हुए। इस प्रयास में विविध समाज सुधारकों- महात्मा गांधी, ए.वी.ठक्कर, आदि ने जनजातीय कल्याण के विविध प्रयास किये। समाजसेवी संस्थाओं विशेषकर र्इसार्इ मिषनरी के द्वारा जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा, चिकित्सा, सामाजिक जागरुकता, आदि की दिशा में Historyनीय कार्य किये गये। किन्तु जनजातियों के धर्मान्तरण की प्रक्रिया And अन्य आधारों पर र्इसार्इ धर्मावलम्बी जनजातियों And गैर र्इसार्इ जनजातीय समूहों पर Seven्मीकरण का अलग-अलग परिणाम उत्पन्न हुआ जिसके कारण जनजातीय समूहों में विभेदीकरण पनपा। इसके अतिरिक्त Seven्मीकरण की प्रक्रिया ने गैर आदिवासी समूहों- साहूकार, ठेकेदार, जमींदार, बिचौलिया, आदि को जनजातियों के शोषण का अवसर दिया। इन आधारों पर Seven्मीकरण की प्रकृति को ऊपर से लादी गयी आरोपित प्रक्रिया के रुप में विष्लेशित करते हुए इसकी आलोचना की गयी।

इन आलोचनाओं के परिप्रेक्ष्य में कालान्तर में भारत में जनजातीय विकास का तीसरा दृष्टिकोण उभरा जिसे समन्वय की नीति की संज्ञा दी गयी। समन्वयवादी नीति के अन्तर्गत जहाँ Single ओर जनजातीय समूह And वृहद गैर जनजातीय समूह के बीच Creationत्मक सामंजस्य के आधार पर उनके विकास का प्रयास Reseller गया है वहीं दूसरी ओर जनजातीय विषिश्टता And अस्मिता को सँजोये रखने का आग्रह भी शामिल है। इस दृष्टिकोण से जनजातीय संस्कृति And मुख्य धारा की संस्कृति के बीच पारस्परिक लेन-देन And Single Second के सम्मान को बल दिया गया है। समन्वयवादी दृष्टिकोण पर आधारित जनजातीय विकास की वर्तमान नीति को अतीत में अपनार्इ गयी पृथक्करण And Seven्मीकरण की नीति की अपेक्षा श्रेयश्कर माना गया है किन्तु इसकी सफलता भविष्य में इस तथ्य पर निर्भर करेगी कि जनजातीय And गैर जनजातीय समुदाय दोनों Single Second के प्रति कितना अनुकूल व्यवहार अपनाते हैं।

भारत में जनजातीय विकास हेतु संवैधानिक प्रयास 

भारत के संविधान की धारा 46 में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में यह स्पष्ट रुप से History Reseller गया कि राज्य कमजोर समूहों, विशेषकर अनुसूचित जातियों And जनजातियों के शैक्षणिक And आर्थिक हितों को विशेष रुप से ध्यान रखेगा And उन्हें सामाजिक अन्याय And All प्रकार के “ाोशण से संरक्षण प्रदान करेगा। धारा 146 के अन्तर्गत जनजातीय हितों की देखभाल हेतु कुछ राज्यों में पृथक मंत्रियों की Appointment का प्राविधान बनाया गया। धारा 244 के अन्तर्गत अनुसूचित And जनजातीय क्षेत्रों के प्रशास्न And धारा 275 के अन्तर्गत केन्द्र द्वारा कुछ राज्यों को विशेष आर्थिक अनुदान का प्राविधान बनया गया। धारा 330ए 332 And 334 के माध्यम से अनुसूचित जनजातियों के लोक सभा व विधान सभा में प्रतिनिधित्व हेतु विशेष आरक्षण की व्यवस्था की गयी। धारा 335 के आधार पर उन्हें सरकारी सेवाओं And पदों पर आरक्षण दिया गया है। धारा 339 के माध्यम से अनुसूचित जनजातीय क्षेत्रों And 342 के अन्तर्गत यह प्राविधान बनाया गया कि सम्बद्ध राज्य के राज्यपाल से सलाह लेकर राष्ट्रपति किसी विशेष क्षेत्र को अनुसूचित श्रेणी में शामिल कर विशेष कल्याणकारी सुविधा प्रदान कर सकते हैं। धारा 275 के माध्यम से जनजातीय समूहों के कल्याण And विकास हेतु आर्थिक अनुदान की Safty प्रदान की गयी।

इन संवैधानिक प्राविधानों के अतिरिक्त विविध संवैधानिक आयोग And समितियों का गठन Reseller गया जिसने जनजातीय समस्या And विकास के विविध पक्षों पर अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत Reseller। 1959-60 में वेरियर एल्विन के नेतृत्व में विशेष बहुद्देशीय जनजातीय प्रखण्ड समिति, यू.एन. ढेबर के नेतृत्व में अनुसूचित क्षेत्र And अनुसूचित जनजाति आयोग (1960-61), हरि सिंह के नेतृत्व में जंगली क्षेत्रो में जनजातीय Meansव्यवस्था समिति (1965-67) की स्थापना की गयी। पी.शीलू आओ के नेतृत्व में 1966-69 की अवधि में Single अध्ययन दल ने जनजातीय विकास कार्यक्रमों की रुपरेखा प्रस्तुत Reseller। 1950 की अवधि से ही अनुसूचित जाति And अनुसूचित जनजाति के कमिश्नर प्रतिवर्श संसद में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते आ रहे हैं जिसे सम्बद्ध संसदीय समिति द्वारा अवलोकन And आकलन करके तद्नुरुप जनजातीय विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन Reseller जाता रहा है।

भारत में जनजातीय विकास के विविध कार्यक्रम 

जनजातीय विकास कार्यक्रम की दिशा में स्वतंत्रता के उपरान्त पहला महत्वपूर्ण प्रयास था जनजातीय विकास प्रखण्ड की स्थापना करना। अक्टूबर 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम And राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम के क्रियान्वयन के उपरान्त इसी श्रृंखला में जनजातीय क्षेत्रों के लिए 1954 में बहुद्देशीय जनजातीय विकास प्रखण्ड की स्थापना की गयी। किन्तु इन प्रखण्डों द्वारा जनजातीय विकास कार्यक्रमों का प्रभावपूर्ण क्रियान्वयन नहीं Reseller जा सका। ढेबर आयोग की रिपोर्ट में इनके क्रियान्वयन के प्रति असंतोष व्यक्त Reseller गया।

जनजातीय विकास को तीव्र करने हेतु पाँचवीं योजना के अन्तर्गत 1978 में भारत सरकार ने जनजातीय उपयोजना रणनीति बनार्इ। इसके दो प्रमुख उद्देश्य थे: (अ) जनजातियों को अन्य गैर जनजातीय समूहों के बराबर लाना तथा (ब) उन्हें विभिन्न स्वार्थ समूहों से Windows Hosting रखना। जनजातीय क्षेत्र विकास योजना को दो भागों में बाँटा गया: (क) जनजातीय बहुल क्षेत्र तथा (ख) बिखरा हुआ जनजातीय क्षेत्र। बहुल जनजातीय आबादी वाले क्षेत्रों में भौतिक And सामुदायिक विकास के विशिष्ट कार्यक्रम चलाये गये जबकि बिखरी हुर्इ जनजातीय आबादी वाले क्षेत्रों में अन्य All गैर जनजातीय समुदायों के साथ जनजातीय समूहों के विकास का समन्वित प्रयास Reseller गया।

1975 में राष्ट्रपति के आध्यादेश के माध्यम से जनजातियों को ऋणों की दासता And ऋणग्रस्तता के दुश्चक्र से मुक्त करने का प्रयास Reseller गया। 50 प्रतिशत से अधिक जनजातीय आबादी वाले क्षेत्रों में प्रखण्ड स्तर पर 194 समन्वित जनजातीय विकास परियोजनाओं को क्रियान्वित Reseller गया। 10000 अथवा 50 प्रतिशत से अधिक जनजातीय आबादी वाले ग्राम समूहों मे संषोधित क्षेत्रीय विकास दृष्टिकोण केन्द्रों की स्थापना किये जा चुके हैं। जनजातीय उपयोजना के तहत जनजातीय कल्याण के विविध पहलुओं- कृषि, बागवानी, पषुपालन, वन शिक्षा, सहकारिता, मत्स्य पालन, ग्रामीण And लघु उद्योग तथा न्यूनतम Need कार्यक्रम के अन्तर्गत पारिवारिक आय बढ़ाने हेतु कल्याण मंत्रालय द्वारा राज्यों And केन्द्रषासित प्रदेशों में विशेष आर्थिक अनुदान दिये गये हैं। इस प्रकार First पंचवश्र्ाीय योजना से नवम् पंचवश्र्ाीय योजना तक जनजातीय विकास हेतु अनेक प्रयास परिलक्षित होते हैं।

जनजातीय विकास के विभिन्न मुद्दे And चुनौतियाँ 

भारत के विविध जनजातीय क्षेत्रों की समस्यायें समरुपीय नहीं हैं। राय बर्मन ने जनजातीय समस्याओं के प्रति उनकी अभिव्यक्तियों के निम्न स्वरुप बताया: (क) आवास को खोने की चुनौती (ख) उत्पादन के श्रोतों पर नियंत्रण खोने की चुनौती (ग) मनुश्य, प्रकृति And समाज के सहसम्बन्धों में परिवर्तन को आत्मSeven करने की चुनौती (घ) विविध स्तरों पर सामुदायिक शक्तियों के संगठन की संतोशजनक व्यवस्था की तलाष (ड.) जनजातीय पहचान And अस्मिता को सँजोने And स्थापित करने के प्रयास (च) राजनैतिक विचारधारा के आधार पर उभरे असंतोष And आन्दोलन।

डी.एन. मजूमदार (1968) ने जनजातीय समस्याओं के निराकरण के दो उपागम बताया-सुधारवादी उपागम And प्रशास्कीय उपागम। सुधारवादी उपागम के अन्तर्गत जनजातीय कल्याण समाज सुधारकों के प्रयासों के आधार पर Reseller गया जबकि प्रशास्कीय उपागम के अन्तर्गत सरकारी And समाजसेवा अभिकरणों के माध्यम से Reseller गया। उन्होंने सुधारवादी उपागम की आलोचना करते हुए यह निष्कर्ष दिया कि इसमें जनजातियों के विष्वासों And रीति-रिवाजों को बदलने का दृष्टिकोण शामिल है, अत: यह दृष्टिकोण सकारात्मक नहीं। इसके अतिरिक्त उन्होनें यह भी कहा कि सुधारवादियों को स्वयं में सुधार करने की Need है। प्रशास्कीय उपागम की कमियों का History करते हुए उन्होंने बताया कि इसके अन्तर्गत जनजातीय समस्याओं को All क्षेत्रों में समरुपीय माना गया, उनकी भिन्नताओं And प्राथमिकताओं को नजरअन्दाज Reseller गया।

एस.सी. दूबे (1968) ने जनजातीय समस्याओं के प्रति चार प्रमुख अभिगमों की विवेचना की है: समाजसेवा अभिगम, राजनीतिक अभिगम, धार्मिक अभिगम And Humanशास्त्रीय अभिगम। उनकी दृष्टि में समाज सेवा अभिगम के अन्तर्गत विभिन्न स्वयंसेवी संदठनों द्वारा जनजातीय क्षेत्रों में अनेक कार्य किय गये किन्तु यह दृष्टिकोण इसलिए असफल रहा क्योंकि इसमें यह महसूस नहीं Reseller गया कि सुधार के विविध प्रयास जनजातियों के सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय पर किस प्रकार सकारात्मक And नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। राजनीतिक अभिगम के अन्तर्गत ब्रिटिश काल में जनजातियों को पृथक्करण की नीति के आधार पर विकसित Reseller गया जबकि स्वतंत्रता के उपरान्त मुख्य धारा में उनके समन्वय पर बल दिया गया है। फिर भी क्षेत्रीय असमान विकास की विसंगतियों ने विविध जनजातीय क्षेत्रों में स्वायत्तता And नृजातीय (एथनिक) आन्दोलन को उभारा है। धार्मिक अभिगम के अन्तर्गत जनजातियों के धर्मपरिवर्तन के माध्यम से उनके विकास का प्रयास यदि उन्हें अपने समुदाय से पृथक नहीं करती तब तो उचित है किन्तु यदि धर्मानतरण उनकी सामाजिक सुदृढ़ता को Destroy करती है And उन्हें संतोशजनक विकल्प दिये वगैर अपने समुदाय से पृथक करती है तो यह दृष्टिकोण भी आलोचना की परीधि में आता है। मानशास्त्रीय अभिगम के अन्तर्गत जनजातियों की संस्कृति के अध्ययन पर बल दिया गया ताकि राष्ट्रीय मुख्य धारा में उन्हें शामिल करने के प्रयास में उनके प्रतिरोध की बजाय उनका समर्थन, सहयोग And सहभागिता प्राप्त की जा सके। वाल्टर फर्नाडीस ने यह निष्कर्ष दिया कि आधुनिकीकरण And जनजातीय विकास के वे समस्त प्रयास जो उन्हें निर्धनता, अधिकारविहीनता, विसथापन And अन्य नकारात्मक परिणाम की ओर अग्रसारित करे उसका परित्याग कर ऐसे विकल्प की तलाश करनी चाहिए जो जनोन्मुख हो And उन्हें स्वावलम्बी बना सके।

मोटे तौर पर जनजातीय विकास की प्रमुख चुनौतियाँ हैं-

  1. उनके पास अलाभकर ज़मीनें होती हैं जिससे उनकी पैदावार कम होती है और इस कारण वे सदैव कज़ेर्ं में डूबे रहते हैं। 
  2. जनसंख्या का केवल Single छोटा सा प्रतिशत ही व्यावसायिक गतिविधियों के द्वितीय And तृतीय क्षेत्रों में भाग लेता है। 
  3. आदिवासी क्षेत्रों में ज़मीन का काफी बड़ा हिस्सा कानून के ज़रिये गैर-आदिवासियों को हस्तान्तरित कर दिया गया है। आदिवासियों की मांग है कि ये ज़मीन उन्हें वापस की जाये। दरअसल में आदिवासी जंगल का उपयोग करने और उसके जानवरों का शिकार करने में अधिक स्वतंत्र थे। जंगल ने केवल मकान बनाने के लिये सामग्री उपलब्ध कराते हैं बल्कि उन्हें र्इधन, बीमारियों को ठीक करने के लिये जड़ी बूटियां, फल, जंगली शिकार इत्यादि भी देते हैं। उनका धर्म उन्हें विश्वास दिलाता है कि उनकी कर्इ आत्माएं (वन देवता और वन देवी) पेड़ो और जंगलों में रहती हैं। उनकी लोक गाथाओं में Humanों और आत्माओं के संबंधों का प्राय: वर्णन मिलता है। इस प्रकार वन के प्रति भौतिक और भावनात्मक लगाव के कारण आदिवासियों ने सरकार द्वारा उनके पारंपरिक अधिकारों पर लगाये गये अंकुषों पर गहरी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। 
  4. जनजाति विकास कार्यक्रमों ने आदिवासियों के आर्थिक स्तर को उठाने में अधिक सहायता नहीं की। अंग्रजों की नीति ने आदिवासियों का कर्इ प्रकार से भीषण शोषण Reseller क्योंकि उसने ज़मीदारों, भूस्वामियों, साहूकारों, जंगल के ठेकेदारों और आबकारी, राजस्व और पुलिस अधिकारियों का पक्ष लिया।
  5. बैकिंग सुविधाएं आदिवासी क्षेत्रों में इतनी अपर्याप्त हैं कि आदिवासियों को प्रमुखतया साहूकारों पर निर्भर रहना पड़ता है। आदिवासियों की इसलिये यह मांग है कि कृषि ऋण राहत कानून बनाये जायें जिससे कि उन्हें गिरवी रखी हुर्इ ज़मीन वापस मिल सके। 
  6. आदिवासियों में से 90: खेती करते हैं और उनमें से अधिकांष भूमिहीन हैं और स्थान बदल कर स्थानान्तरित कृषि करते हैं। उन्हें खेती के नये तरीके अपनाने में मदद करनी चाहिये। 
  7. बेरोज़गार और अल्प-रोज़गार वाले व्यक्तियों की आय के अनुपूरक स्त्रोतों का पता लगाने में सहायता की Need है, जैसे पशुपालन, मुर्गीपालन, हाथकर्घा, बुनार्इ और दस्तकारी क्षेत्र का विकास। 
  8. अधिकांश आदिवासी बहुत कम जनसंख्या वाली पहाड़ियों पर रहते है और आदिवासी क्षेत्रों में संचार और यातायात बहुत कठिन होते हैं। इसलिये आदिवासियों को कस्बों और शहरों से दूर Singleाकी जीवन जीने से रोकने के लिए नर्इ सड़कों का जाल बनाना चाहिये। 
  9. आदिवासियों का र्इसार्इ मिषनरी शोषण करते हैं। कर्इ आदिवासी क्षेत्रों में ब्रिटिश काल में व्यापक धर्म परिवर्तन हुआ था। यद्यपि मिशनरी आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा के क्षेत्र में अग्रगामी रहे हैं और उन्होंने अस्पताल भी खोले हैं परन्तु वे आदिवासियों को अपनी संस्कृति से विमुख करने के लिए भी उत्तरदायी है। र्इसार्इ मिशनरियों ने कर्इ बार उन्हें भारत सरकार के विरुद्ध विद्रोह के लिये भी भड़काया है। 

आदिवासियों और ग़ैर-आदिवासियों के बीच सम्बन्ध बिगड़ रहे हैं और ग़ैर-आदिवासी अपनी Safty हेतु अधिकाधिक रुप से अर्द्धसैनिक बलों पर निर्भर हो रहे हैं। आदिवासियों के लिये पृथक राज्यों की मांग ने मिज़ोरम, नागालैण्ड, मेघालय, मनीपुर, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा में विद्रोह का रुप ग्रहण कर लिया है। पड़ोसी देश, जो भारत के विरुद्ध हैं, इन भारत विरोधी भावनाओं का अनुचित लाभ उठाने में सक्रिय हैं। इन राज्यों में जो आदिवासी क्षेत्रों से घिरे हुए हैं विदेशी नागरिकों की घुसपैठ, बन्दूकों की तस्करी, मादक पदार्थो का व्यापार और तस्करी बहुत भीषण समस्याएं हैं। संक्षेप में, आदिवासियों की प्रमुख समस्याएं हैं: निर्धनता, ऋणग्रस्तता, निरक्षरता, बंधुआपन, बीमारी, और बेरोज़गारी।

जनजातीय कल्याण सेवाओं की गुणवत्ता निम्न श्रेणी की है And उनका प्रबंधन भी कुषलतापूर्वक नहीं Reseller गया है। जनजातीय विकास से सम्बद्ध प्रशास्कीय व्यय का अधिकांश हिस्सा सरकारी दफ्तर के भवन, सरकारी कर्मियों के आवास, नौकरशाहों के वाहन, वेतन And अन्य भत्ते के रुप में हुआ, जनजातियों को सीधे लाभान्वित करने हेतु योजनाओं And धनों का प्राय: अभाव ही रहा। जनजातियों की शिक्षा, स्वास्थ्य And अन्य समस्याओं के निराकरण की दिशा में किये गये सरकारी प्रयास उनकी उदासीनता प्रदर्षित करते हैं। आधुनिक दवाओं And चिकित्सा प्रणाली ने जनजातीय समूहों में विश्वसनीयता का भाव नहीं उत्पन्न Reseller है क्योंकि जनजातीय क्षेत्रों में जनस्वास्थ्य केन्द्रों का अभाव ही रहा है। जनजातीय क्षेत्रों में खोले गये शिक्षा आश्रमों में शिक्षकों उपस्थिति को नियमित बनाये रखने के प्रयास का अभाव परिलक्षित होता है, परिणामत: आदिवासी बच्चों को अधिकाधिक संख्या में आकर्शित करने में ये शिक्षा आश्रम असफल रहे हैं।

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