अनुवाद की प्रक्रिया, स्वReseller And सीमाएँ

अनुवाद के स्वReseller, अनुवाद-प्रक्रिया And अनुवाद की सीमाओं के बारे में की Discussion की जा रही है। सबसे महत्त्वपूर्ण है- ‘अनुवाद की प्रक्रिया’। अनुवाद के व्यावहारिक पहलु को जानने के लिए अनुवाद-प्रक्रिया को समझना जरूरी है। इसलिए प्रस्तुत अध्याय में नाइडा, न्यूमार्क और बाथगेट- तीनों विद्वानों द्वारा प्रतिपादित अनुवाद-प्रक्रिया को सोदाहरण प्रस्तुत Reseller गया है।

अनुवाद के स्वReseller 

अनुवाद के स्वReseller के सन्दर्भ में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वज्जन अनुवाद की प्रकृति को ही अनुवाद का स्वReseller मानते हैं, जब कि कुछ भाषाविज्ञानी अनुवाद के प्रकार को ही उसके स्वReseller के अन्तर्गत स्वीकारते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव का मत ग्रहणीय है। उन्होंने अनुवाद के स्वReseller को सीमित और व्यापक के आधार पर दो वगोर्ं में बाँटा है। इसी आधार पर अनुवाद के सीमित स्वReseller और व्यापक स्वReseller की Discussion की जा रही है।

1. अनुवाद का सीमित स्वReseller 

अनुवाद के स्वReseller को दो संदर्भों में बाँटा जा सकता है-

  1. अनुवाद का सीमित स्वReseller तथा 
  2. अनुवाद का व्यापक स्वReseller 

अनुवाद की साधारण परिभाषा के अंतर्गत पूर्व में कहा गया है कि अनुवाद में Single भाषा के निहित Means को दूसरी भाषा में परिवर्तित Reseller जाता है और यही अनुवाद का सीमित स्वReseller है। सीमित स्वReseller (भाषांतरण संदर्भ) में अनुवाद को दो भाषाओं के मध्य होने वाला ‘Means’ का अंतरण माना जाता है। इस सीमित स्वReseller में अनुवाद के दो आयाम होते हैं-

  1. पाठधर्मी आयाम तथा 
  2. प्रभावधर्मी आयाम 

पाठधर्मी आयाम के अंतर्गत अनुवाद में स्रोत-भाषा पाठ केंद्र में रहता है जो तकनीकी And सूचना प्रधान सामग्रियों पर लागू होता है। जबकि प्रभावधर्मी अनुवाद में स्रोत-भाषा पाठ की संCreation तथा बुनावट की अपेक्षा उस प्रभाव को पकड़ने की कोशिश की जाती है जो स्रोत-भाषा के पाठकों पर पड़ा है। इस प्रकार का अनुवाद सृजनात्मक साहित्य और विशेषकर कविता के अनुवाद में लागू होता है।

2. अनुवाद का व्यापक स्वReseller 

अनुवाद के व्यापक स्वReseller (प्रतीकांतरण संदर्भ) में अनुवाद को दो भिन्न प्रतीक व्यवस्थाओं के मध्य होने वाला ‘Means’ का अंतरण माना जाता है। ये प्रतीकांतरण तीन वर्गों में बाँटे गए हैं-

  1. अंत:भाषिक अनुवाद (अन्वयांतर), 
  2. अंतर भाषिक (भाषांतर), 
  3. अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद (प्रतीकांतर)

‘अंत:भाषिक’ का Means है Single ही भाषा के अंतर्गत। Meansात् अंत:भाषिक अनुवाद में हम Single भाषा के दो भिन्न प्रतीकों के मध्य अनुवाद करते हैं। उदाहरणार्थ, हिन्दी की किसी कविता का अनुवाद हिन्दी गद्य में करते हैं या हिन्दी की किसी कहानी को हिन्दी कविता में बदलते हैं तो उसे अंत:भाषिक अनुवाद कहा जाएगा। इसके विपरीत अंतर भाषिक अनुवाद में हम दो भिन्न-भिन्न भाषाओं के भिन्न-भिन्न प्रतीकों के बीच अनुवाद करते हैं।

अंतर भाषिक अनुवाद में अनुवाद को न केवल स्रोत-भाषा में लक्ष्य-भाषा की संCreationओं, उनकी प्रकृतियों से परिचित होना होता है, वरन् उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं, धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं आदि की सम्यक् जानकारी भी उसके लिए बहुत जरूरी है। अन्यथा वह अनुवाद के साथ न्याय नहीं कर पाएगा। अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद में किसी भाषा की प्रतीक व्यवस्था से किसी अन्य भाषेत्तर प्रतीक व्यवस्था में अनुवाद Reseller जाता है।

अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद में प्रतीक-1 का संबंध तो भाषा से ही होता है, जबकि प्रतीक-2 का संबंध किसी दृश्य माध्यम से होता है। उदाहरण के लिए अमृता प्रीतम के ‘पिंजर’ उपन्यास को हिन्दी फिल्म ‘पिंजर’ में बदला जाना अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद है।

अनुवाद-प्रक्रिया 

‘प्रक्रिया’ Word अंग्रेजी के ‘process’ का पर्याय है, जो ‘प्रक्रिया’ के संयोग से बनकर ‘विशिष्ट क्रिया’ का बोध कराता है । किसी कार्य की प्रक्रिया या विशिष्ट क्रिया को जानने का Means होता है, कार्य को कैसे सम्पादित Reseller जाए। इस Means में अनुवाद कर्म में हम स्रोत-भाषा से लक्ष्य-भाषा तक पहुँचने के लिए जिन क्रमबद्ध सोपानों से होकर गुज़रते हैं, उन सुनिश्चित व सोद्देश्य सोपानों को ‘अनुवाद-प्रक्रिया’ कहा जाता है। अनुवाद प्रक्रिया की Discussion की शुरुआत ख्यात भाषाविज्ञानी नोअम चॉमस्की(Noam Chomsky) के निष्पादक व्याकरण (Generative
Grammar) से करते हैं।

1. नोअम चॉमस्की (Noam Chomsky) की गहन संCreation And तल संCreation 

चॉमस्की अपने निष्पादक व्याकरण द्वारा वाक्य के संCreationत्मक description को निर्धारित करते हैं जिसे आरेख के द्वारा समझा जा सकता है :

अनुवाद : स्वReseller, प्रक्रिया And सीमाएँ

उनके According संCreation की दृष्टि से भाषा के दो तत्त्व होते हैं :

  1. तल संCreation और 
  2. गहन संCreation 

तल संCreation से तात्पर्य है भाषा की बाहरी स्वन प्रक्रिया तथा गहन संCreation से आशय है तल संCreation में निहित Means तत्त्व। चॉमस्की गहन संCreation को Single नैसर्गिक अवयव मानते हुए भाषाओं के बीच अन्तर को केवल तल संCreation का अन्तर मानते हैं। चॉमस्की ने यहाँ जो आधार से गहन संCreation और पुन: गहन संCreation से तल संCreation की दोहरी गतिविधि की विवेचना की है, वह अनुवाद-प्रक्रिया में स्रोत-भाषा के विकोडीकरण तथा लक्ष्य-भाषा में उसके पुन: कोडीकरण को समझने में सहायक है। अत: ऊपर के आरेख को अनुवाद की प्रक्रिया में निम्नलिखितानुसार बदला जा सकता है :

अनुवाद : स्वReseller, प्रक्रिया And सीमाएँ

2. नाइडा (Nida) द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद-प्रक्रिया 

नाइडा ने चॉमस्की के ‘गहन संCreation’ And ‘तल संCreation’ के आधार पर अनुवाद-प्रक्रिया में निम्नलिखित तीन सोपानों का History Reseller है :

  1. विश्लेषण (Analysis) 
  2. अन्तरण (Transference) 
  3. पुनर्गठन (Restructuring) 

नाइडा द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद-प्रक्रिया को निम्नलिखित आरेख के माध्यम से भलीभाँति समझा जा सकता है :

    नाइडा द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद-प्रक्रिया

    नाइडा द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद-प्रक्रिया का मूल आधार भाषा विश्लेषण के सिद्धान्त है। उनके मतानुसार First सोपान में अनुवादक मूल-पाठ या स्रोत-भाषा का विश्लेषण करता है। नाइडा मूल-पाठ के विश्लेषण के लिए Single सुनिश्चित भाषा सिद्धान्त की बात करते हैं। यह विश्लेषण भाषा के दोनों स्तर, बाह्य संCreation पक्ष तथा आभ्यन्तर Meansपक्ष पर होता है, जिसमें मूल-पाठ का शाब्दिक अनुवाद तैयार हो जाता है। विश्लेषण से प्राप्त Meansबोध का लक्ष्य-भाषा में अन्तरण अनुवाद का दूसरा सोपान होता है। यह अन्तरण सोपान में स्रोत-भाषा के सन्देश को लक्ष्य-भाषा की भाषिक अभिव्यक्ति में पुनर्विन्यस्त Reseller जाता है। Third और अन्तिम सोपान में लक्ष्य-भाषा की अभिव्यक्ति प्रणाली और कथन रीति के According उसका निर्माण होता है। नाइडा के मतानुसार अनुवादक को ‘स्रोत-भाषा पाठ में निहित Means या सन्देश के विश्लेषण तथा लक्ष्य-भाषा में उसके पुनर्गठन’ दो ध्रुवों के मध्य निरन्तर सम्यक् और सटीक तालमेल बिठाना होता है।
               

     क                                                              ख 

     स्रोत-भाषा————-अनुवादक————लक्ष्य-भाषा विश्लेषण…………………………………………………………………..पुनर्गठन 

    (आरेख : 4) 

    3. न्यूमार्क (New mark) द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद प्रक्रिया 

    न्यूमार्क द्वारा प्रतिस्थापित अनुवाद-प्रक्रिया नाइडा के सोपानों से मिलती जुलती अवश्य है किन्तु वह नाइडा के चिन्तन से अधिक व्यापक है। नीचे दिए गए आरेख से यह बात स्पष्ट हो जाएगी : 2 1 3 —- अन्तरक्रमिक अनुवाद ——- (आरेख : 5) न्यूमार्क अनुवाद-प्रक्रिया को दो स्तरों पर आँकते हैं : 1- पहला स्तर है : अन्तरक्रमिक अनुवाद, जिसे खंडित रेखा द्वारा जोड़ा गया है, क्योंकि अन्तरक्रमिक अनुवाद Word-प्रति-Word अनुवाद होता है, जो कि भ्रामक है। 2- दूसरा स्तर है : मूल पाठ का Means बोधन और लक्ष्य-भाषा में उस Means का अभिव्यक्तिकरण। न्यूमार्क द्वारा प्रस्तावित बोधन की प्रक्रिया, नाइडा के विश्लेषण की प्रक्रिया से इस दृष्टि से भिन्न है कि इसमें विश्लेषण से प्राप्त Means के साथ-साथ अनुवादक द्वारा मूल-पाठ की व्याख्या का भाव भी सम्मिलित है। 

    4. बाथगेट (Bathgate) का चिन्तन 

    अनुवाद-प्रक्रिया के सम्बन्ध मे बाथगेट का चिन्तन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। बाथगेट ने अनुवाद-प्रक्रिया में जिन सोपानों की परिकल्पना की है, वह सुचिन्तित, आधुनिक And वैज्ञानिक हैं। ये सोपान हैं : 

    स्रोत-भाषा

    समन्वयन 

    विश्लेषण 

    समझ बोधन 

    अभिव्यक्तिकरण  

    स्रोत-भाषा 

    पारिभाषिक अभिव्यक्ति 

    पुनर्गठन 

    पुनरीक्षण 

    पर्यालोचन 

    लक्ष्य-भाषा 

    कहने की ज़रूरत नहीं कि ये All सोपान नाइडा और न्यूमार्क द्वारा प्रस्तावित सोपानों से अधिक संगत और वैज्ञानिक हैं। परन्तु इसमें दिया गया पहला सोपान ‘समन्वयन’ और अन्तिम सोपान ‘पर्यालोचन’, दोनों को अवान्तर परिकल्पना कहा जा सकता है। क्योंकि न तो स्रोत-भाषा पाठ के समन्वयन की ज़रूरत है न ही पुनरीक्षण के बाद पर्यालोचन की Need। ‘पुनरीक्षण’ ही Single प्रकार का ‘पर्यालोचन’ है। 

    5. अनुवाद-प्रक्रिया में नाइडा, न्यूमार्क और बाथगेट 

    अनुवाद-प्रक्रिया Single आन्तरिक प्रक्रिया है, जो अनुवादक के मन-मस्तिष्क में घटित होती है। इसे Wordबद्ध करने के पीछे यह बतलाना है कि अनुवाद कर्म में सामान्यत: अनुवादक को कौन-कौन से चरण से होकर गुज़रना होता है। साधारणत: अनुवाद कर्म में निम्नलिखित पाँच सोपान होते हैं : 

    स्रोत-भाषा 

    विश्लेषण

     बोधन 

    भाषिक अन्तरण 

    पुनर्गठन 

    पुनरीक्षण 

    लक्ष्य-भाषा  

    उपर्युक्त प्रक्रिया में न्यूमार्क, नाइडा And बाथगेट द्वारा प्रस्तावित सोपानों को शामिल Reseller गया है। अब अनुवाद के इन सोपानों के व्यावहारिक प्रयोग के लिए ‘होरी की गाय अभी नहीं आर्इ है’ का अंग्रेजी अनुवाद करते हैं। यह पंक्ति प्रेमचन्द की महान् कृति ‘गोदान’ का निचोड़ है जो Indian Customer किसान की तत्कालीन व वर्तमान स्थिति को दर्शाती है। ‘गोदान की विषय-वस्तु से परिचित अनुवादकों के लिए इस पंक्ति का अनुवाद करना आसान होगा जबकि इसके विपरीत ‘गोदान’ से अपरिचित अनुवादक के लिए अपेक्षाकृत कठिन हो सकता है। वह निहित सन्दर्भ को न समझकर, इसका शाब्दिक अनुवाद कर देगा : ‘Hori’s cow has not come yet.’ जो कि सही अनुवाद नहीं है। मगर ‘गोदान’ की विषय वस्तु से परिचित अनुवादक जब इसका अनुवाद करेगा, तो वह निम्नलिखित सोपानों से होकर गुज़रेगा : 

    स्रोत-भाषा

                  होरी की गाय अभी नहीं आर्इ है । 

                  1. विश्लेषण- 

                       Hori’s cow has not come yet.

                  2. बोधन- 

                       Hori’ dream has not fulfilled yet.

                  3. भाषिक अन्तरण- 

                       Hori, i.e.Indian farmers are still there where they were.

                  4. पुनर्गठन- 

                       No change occured in Indian farmers’ status.

                  5. पुनरीक्षण- 

                       Status of Indian farmers has not been changed yet. 

    लक्ष्य-भाषा 

                Status of Indian farmers has not been changed yet.  

    क्योंकि ‘होरी की गाय अभी नहीं आर्इ है’ इस पंक्ति के माध्यम से किसानों की दुर्दशा, उनकी मज़बूरी और त्रासदी को अभिव्यक्त Reseller गया है। आज भी हजारों किसान लाचारी की ज़िदगी जीने को विवश हैं। अनुवाद में यही विवशता व लाचारी झलकनी चाहिए। 

    उपर्युक्त प्रस्तावित प्रक्रिया अनुवाद कर्म में निहित भाषिक अन्तरण की प्रक्रिया को समझने में ज़रूर सहायक हैं मगर ज़रूरी नहीं कि हर अनुवादक अनुवाद के दौरान इन सब प्रक्रियाओं से होकर गुज़रे। यह अनुवादक के ज्ञान, कौशल और अनुभव पर निर्भर करता है और हो सकता है कि कोर्इ अनुभवी अनुवादक इन सोपानों को Single छलांग में पार कर ले। दुभाषिया इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। दरअसल अनुवाद का चिन्तन क्षेत्र इतना विस्तृत है कि इसे किसी यंत्रवत प्रक्रिया की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। 

    अनुवाद की सीमाएँ 

    अनुवाद और अनुवाद-प्रक्रिया की जिन विलक्षणताओं को अनुवाद विज्ञानियों ने बार-बार रेखांकित Reseller है, उन्हीं के परिपाश्र्व से हिन्दी अनुवाद की अनेकानेक समस्याएँ भी उभरी हैं। बकौल प्रो. बालेन्दु शेखर तिवारी हिन्दी के उचित दाय की संप्राप्ति में जिन बहुत सारी समस्याओं को राह का पत्थर समझा जा रहा है उनमें अनुवाद की समस्याएँ अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं। 

    अनुवाद से भाषा का संस्कार होता है, उसका आधुनिकीकरण होता है। वह दो भिन्न संस्कृतियों को जोड़ने वाला संप्रेषण सेतु है। Single भाषा को दूसरी भाषा में अन्तरण की प्रक्रिया में अनुवादक दो भिन्न संस्कृति में स्थित समतुल्यता की खोज करता है। एतदर्थ उसे पर्यायवाची Wordों के विविध Resellerों से जूझना पड़ता है। इसी खोज और संतुलन बनाने की प्रक्रिया में कभी-कभी Single ऐसा भी मोड़ आता है जहाँ अनुवादक को निराश होना पड़ता है। समतुल्यता या पर्यायवाची Word हाथ न लगने की निराशा। अननुवाद्यता (untranslatability) की यही स्थिति अनुवाद की सीमा है। जरूरी नहीं कि हर भाषा और संस्कृति का पर्यायवाची दूसरी भाषा और संस्कृति में उपलब्ध हो। प्रत्येक Word की अपनी सत्ता और सन्दर्भ होता है। कहा तो यह भी जाता है कोर्इ Word किसी का पर्यायवाची नहीं होता। प्रत्येक Word And Reseller का अपना-अपना प्रयोग गत Means-सन्दर्भ Windows Hosting है। इस दृष्टि से Single Word को Second की जगह रख देना भी Single समस्या है। स्पष्ट है कि हर Reseller की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं और इन समस्याओं के कारण अनुवाद की सीमाएँ बनी हुर्इ हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए कैटफोर्ड ने अनुवाद की सीमाएँ दो प्रकार की बतायी हैं- 

    1. भाषापरक सीमाएँ और 
    2. सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ 

    भाषापरक सीमा से अभिप्राय यह है कि स्रोत-भाषा के Word, वाक्यCreation आदि का पर्यायवाची Reseller लक्ष्य-भाषा में न मिलना। सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के अन्तरण में भी काफी सीमाओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि प्रत्येक भाषा का सम्बन्ध अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था से Added हुआ है। परन्तु पोपोविच का कहना है कि भाषापरक समस्या दोनों भाषाओं की भिन्न संCreationओं के कारण उठ सकती है किन्तु सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या सर्वाधिक जटिल होती है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि भाषापरक और सामाजिक -सांस्कृतिक समस्याएँ Single-Second के साथ गुँथी हुर्इ हैं, अत: इसका विवेचन Single Second को ध्यान में रखकर Reseller जाना चाहिए। बहरहाल, इस Discussion से यह स्पष्ट हो गया कि अनुवाद की सीमाओं को तीन वर्गों में विभाजित Reseller जा सकता है :

    1. भाषापरक सीमाएँ,
    2. सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ और 
    3. पाठ-प्रकृतिपरक सीमाएँ 

    1. अनुवाद की भाषापरक सीमाएँ 

    जैसा कि ऊपर संकेत Reseller जा चुका है कि प्रत्येक भाषा की अपनी संCreation And प्रकृति होती है। इसीलिए स्रोत-भाषा और लक्ष्य-भाषा के भाषिक Resellerों में समान Means मिलने की स्थिति बहुत कम होती है। कर्इ बार स्रोत-भाषा के समान वाक्यों में सूक्ष्म Means की प्राप्ति होती है लेकिन उनका अन्तरण लक्ष्य-भाषा में कर पाना सम्भव नहीं होता। उदाहरणार्थ इन दोनों वाक्यों को देखें : ‘लकड़ी कट रही है’ और ‘लकड़ी काटी जा रही है’। सूक्ष्म Means भेद के कारण इन दोनों का अलग-अलग अंग्रेजी अनुवाद संभव नहीं होगा। फिर किसी कृति में अंचल-विशेष या क्षेत्र-विशेष के जन-जीवन का समग्र चित्रण अपनी क्षेत्रीय भाषा या बोली में जितना स्वाभाविक या सटीक हो पाता है उतना भाषा के अन्य Reseller में नहीं। जैसे कि फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आँचल’। इस उपन्यास में अंचल विशेष के लोगों की जो सहज अभिव्यक्ति मिलती है उसे दूसरी भाषा में अनुवाद करना बहुत कठिन कार्य है। इसके अतिरिक्त भाषा की विभिन्न बोलियाँ अपने क्षेत्रों की विशिष्टता को अपने भीतर समेटे होती हैं। यह प्रवृत्ति ध्वनि, Word, वाक्य आदि के स्तरों पर देखी जा सकती है। जैसे चीनी, जापानी आदि भाषाएँ ध्वन्यात्मक न होने के कारण उनमें तकनीकी Wordों को अनूदित करना श्रम साध्य होता है। अनुवाद करते समय नामों के अनुवाद की समस्या भी सामने आती है। लिप्यन्तरण करने पर उनके उच्चारण में बहुत अन्तर आ जाता है। स्थान विशेष भी भाषा को बहुत प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए एस्किमो भाषा में बर्फ के ग्यारह नाम हैं जिसे दूसरी भाषा में अनुवाद करना सम्भव नहीं है। 

    वास्तव में हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ इस भाषा के मूलभूत चरित्र की न्यूनताओं और विशिष्टताओं से जुड़ी हुर्इ हैं। वस्तुत: हिन्दी जैसी विशाल हृदय भाषा में अनुवाद की समस्याएँ अपनी अलग पहचान रखती हैं। भिन्नार्थकता, न्यूनार्थकता, आधिकारिकता, पदाग्रह, भिन्नाशयता और Wordविकृति जैसे दोष ही हिन्दी में अनुवाद कार्य के पथबाधक नहीं हैं, बल्कि हिन्दी के अनुवादक को अपनी Creation की संप्रेषणीयता की समस्या से भी जूझना पड़ता है। निम्नलिखित आरेख से बातें स्पष्ट हो जाएगीं- 

    अनुवाद की भाषापरक सीमाएँ

    2. अनुवाद की सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ 

    अनुवाद की सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ

    उपर्युक्त संस्कृति-चक्र से स्पष्ट है कि भाषा और संस्कृति का अटूट सम्बन्ध होता है। अनुवाद तो दो भिन्न संस्कृतियों को जोड़ने वाला संप्रेषण-सांस्कृतिक सेतु है। Single भाषा को दूसरी भाषा में अन्तरण की प्रक्रिया में अनुवादक दो भिन्न संस्कृति में स्थित समतुल्यता की खोज करता है। वास्तव में Human अभिव्यक्ति के Single भाषा Reseller में भौगोलिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों का समावेश हो जाता है जो Single भाषा से दूसरी भाषा में भिन्न होते हैं। अत: स्रोत-भाषा के कथ्य को लक्ष्य-भाषा में पूर्णतया संयोजित करने में अनुवादक को कर्इ बार असमर्थता का सामाना करना पड़ता है। यह बात अवश्य है कि समसांस्कृतिक भाषाओं की अपेक्षा विषम सांस्कृतिक भाषाओं के परस्पर अनुवाद में कुछ हद तक अधिक समस्याएँ रहती हैं। ‘देवर-भाभी’, ‘जीजा-साली’ का अनुवाद यरू ोपीय भाषा में नहीं हो सकता क्योंकि भाव की दृष्टि से इसमें जो सामाजिक सूचना निहित है वह Word के स्तर पर नहीं आँकी जा सकती। इसी प्रकार Indian Customer संस्कृति के ‘कर्म’ का Means न तो ‘action’ हो सकता है और न ही ‘performance’ क्योंकि ‘कर्म’ से यहाँ पुनर्जन्म निर्धारित होता है जबकि ‘action’ और ‘performance’ में ऐसा भाव नहीं मिलता। 

    3. अनुवाद की पाठ-प्रकृतिपरक सीमाएँ 

    अनुवाद की Need का अनुभव हिन्दी में इसी कारण तीव्रता से Reseller गया कि भाषाओं के पारस्परिक आदान-प्रदान से हिन्दी को समृद्ध होने में सहायता मिलेगी और भाषा के वैचारिक तथा अभिव्यंजनामूलक स्वReseller में परिवर्तन आएगा। हिन्दी में अनुवाद के महत्त्व को मध्यकालीन टीकाकारों ने पांडित्य के धरातल पर स्वीकार Reseller था, लेकिन यूरोपीय सम्पर्क के बाद हिन्दी को अनुवाद की शक्ति से परिचित होने का वृहत्तर अनुभव मिला। हिन्दी में अनुवाद की परम्परा भले ही अनुकरण से प्रारम्भ हुर्इ, लेकिन आज ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में अनुवाद की विभिन्न समस्याओं ने हिन्दी का रास्ता रोक रखा है। विभिन्न विषयों तथा कार्यक्षेत्रों की भाषा विशिष्ट प्रकार की होती है। प्रशासनिक क्षेत्र में कर्इ बार ‘sanction’ और ‘approval’ का Means सन्दर्भ के According Single जैसा लगता है, अत: वहाँ दोनों Wordों में भेद कर पाना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार जीवविज्ञान में ‘poison’ और ‘venom’ Wordों का Means Single है किन्तु ये अपने विशिष्ट गुणों के कारण भिन्न हो जाते हैं। अत: पाठ की प्रकृति के According पाठ का विन्यास करना पड़ता है। जब तक पाठ की प्रकृति और उसके पाठक का निर्धारण नहीं हो पाता तब तक उसका अनुवाद कर पाना सम्भव नहीं हो पाता।

    कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हर भाषा की अपनी संCreationत्मक व्यवस्था और सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा होती है। इसके साथ-साथ विभिन्न प्रयोजनों में प्रयुक्त होने के कारण उसका अपना स्वReseller भी होता है। यही कारण है कि अनुवाद की प्रक्रिया में स्रोत-भाषा और लक्ष्य-भाषा की समतुल्यता के बदले उसका न्यूनानुवाद या अधिअनुवाद ही हो पाता है। 

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