अथर्ववेद का Means, स्वReseller, शाखाएं

वेदों को Indian Customer साहित्य का आधार माना जाता है Meansात् परवर्ती संस्कृत में विकसित प्राय: समस्त विषयों का श्रोत-वेद ही है। काव्य दर्शन, धर्मशास्त्र, व्याकरण आदि All दोनों पर वेदों की गहरी क्षाप है। इन All विषयों का अनुशीलन वैदिक ऋचाओं से ही आरम्भ है। वेद से Indian Customerों का जीवन ओतप्रोत है। हमारी उपासना के भाजन देवगण हमारे संस्कारों, की दशा बताने वाली पद्धति, हमारे मस्तिष्क को प्रेरित करने वाली विचारधारा इन सबका उद्भव स्थान वेद ही हैं अत: हमारे हृदय में वेद के प्रति यदि प्रगाढ़ श्रद्धा है तो कोर्इ आश्चर्य का विषय नहीं है, परन्तु वेदों का महत्व इतना संकिर्ण तथा सीमित नहीं है। Human जातियों के विचारों को लिपिबद्ध करने वाले गौरवमय ग्रन्थों से सबसे प्राचीन है।

इन वेदों में अथर्ववेद Single भूयसी विशिष्टताा से संवलित है। अन्यतीन वेद परलोक Meansात् स्वर्गलोक के प्राप्ति के साधन है वही अथर्ववेद इहलोक फल देने वाला है। मनुष्य जीवन को सुखमय तथा दु:ख से रहित करने के लिए जीन साधनों की Need है उनकी सिद्धि ही अथर्ववेद का मूल प्रतिपाद्य विषय है। यज्ञ के निष्पादन में जिन चार ऋत्विज की Need होती है उनमें अन्यतम-ब्रह्मा का साक्षात् सम्बन्ध इसी वेद से है। उनमें अन्यतम-ब्रह्मम का साक्षात् सम्बन्ध इसी वेद से है। यह ब्रह्मा यज्ञ का अध्यक्ष होता है। इसके लिये उसे मानस बल से पूर्ण होना आवश्यक है। वे चारों वेदों का ज्ञाता होता है। परन्तु प्रधान वेद अथर्ववेद ही होता है। ऐतरेय ब्राह्मण के According यज्ञ के दो मार्ग है-वाक् तथा मन। वचन के द्वारा वेदत्रयी यज्ञ के Single पक्ष को संस्कृत बनानी है Second पक्ष का संस्काार ब्रह्मा करता है और मन के द्वारा करता है। इन कथनों से स्पष्ट है कि अथर्ववेद की Need हमारे जीवन के लिए कितनी है?

अथर्ववेद का Means 

अथर्ववेद के उपलब्ध अनेक अभिधानों में अथर्ववेद, ब्रह्मवेद, अंगिरोवेद, अथर्वाष्रिस वेद आदि नाम मुख्य है। ‘अथर्व’ Word की व्याख्या तथा निर्वचन निरूक्त (11/2/17) तथा गोपथ-ब्राह्मण (1/4) में मिलता है। ‘पर्व’ धातु कौटिलय तथा हिंसावाची है। अतएव ‘अथर्व’ Word का Means है अकुटिलता तथा अंहिसा वृत्ति से मन की स्थिरता प्राप्त करने वाला व्यिक्ता। इस व्युत्पत्ति की पुष्टि में योग के प्रतिपादक अनेक प्रसंग स्वयं इस वेद में मिलते है (अथर्व 6/1;10/2/26-28)। होता वेद आदि नामों की तुलना पर ब्रह्मकर्म के प्रतिपादक होने से अथर्ववेद ‘ब्रह्मवेद’ कहलाता है ब्रह्मवेद नाम का यही मुख्य कारण है। ब्रह्मज्ञान का अंशत: प्रतिपादन है, परन्तु वह बहुत कम है। ‘अथर्वागिष्रस’ पद की व्याख्या करने से प्रतीत होता है कि यह वेद दो ऋषियों के द्वारा दृष्ट मन्त्रों का समुदाय प्रस्तुत करता हैं अथर्व-दृष्ट मन्त्र शान्ति पुष्टि कर्मयुक्त है तथा अष्रिस-दृष्ट मन्त्र आभिचारिक है। इसलिए वायुपुराण (65/27) तथा ब्रह्माण्ड पुराण (2/1/36) में अथर्ववेद को घोर कृत्याविधि से युक्त तथ प्रत्यंगिरस योग से युक्त होने से कारण ‘द्विशरीर शिरा:’ कहा गया है। ‘प्रत्यष्रिसयोग’ का तात्पर्य अभिचार का प्रतिविधान Meansात् शान्तिपुष्टि कर्म है। इन अभिधान से स्पष्ट है कि अथर्ववेद में दो प्रकार के मन्त्र संकलित हैं-शान्ति-पौष्ठिक कर्मवाले तथा आभिचारिक कर्मवाले। ‘आंगिरसकल्प’ में मारण, मोहन, उच्चाटन आदि प्रख्यात “ाट्कर्मों का विधान बतलाया गया है; ऐसा नारदीय पुराण का कथन है (5/7)

आंगिरसे कल्पे “ाट्कर्माणि सविस्तरम्। 

अभिचार-विधानेन निर्दिष्टानि स्वयंभुवा।। 

Single तथ्य विचारणीय हैं अवेस्ता का ‘Meansवन्’ Word Meansवन् का ही प्रतिनिधि है और बहुत सम्भव है दोनों का समान Means है-ऋग्नि का परिचारक ऋत्विक्। फलत: उसके द्वारा दृष्ट मन्त्रों में शान्ति तथा पुष्टिकारक मन्त्रों का अन्तर्भाव होना स्वाभाविक है।

तैत्तिरीय ब्राह्मण (3/12/9/1) में ‘अथर्वणा-मष्रिसां प्रतीची’ में दोनों के मिलित स्वReseller का वर्णन है। सम्भवत: इन दोनों ऋषियों के द्वारा दृष्अ मन्त्रसमूह पृथक् सत्ता भी धारण करता था। इस दृष्टि से गोपथब्राह्मण के Single ही प्रकरण में ‘आथर्वणी वेदोSभवत्’ और ‘आंगिरसो वेदोSभवत्’ वाक्य मिलते है (11/5,11/18) शतपथ ब्राह्मण (13/4/3/2) में भी इन दोनों का पृथक्-History Reseller गया है। सर्वत्र हो ‘अथर्वाष्रिस’ अभिधान उपलब्ध है जिससे अथर्वा ऋषि के अभ्यर्हित होने का संकेत मिलता है। इससे यह तथ्य निकाला जा सकता है कि इस वेद में शान्तिक पौष्टिक मन्त्रों की सत्ता Firstत: थी जिनमें आभिचारिक मन्त्रों का योग पीछे Reseller गया।

अथर्ववेद का स्वReseller 

अथर्ववेद के स्वReseller की मीमांसा करने से पता चलता है कि यह दो धाराओं के मिश्रण का परिणतफल है। इनमें से Single है अथर्वधारा और दूसरी है अिष्रोधारा। अथर्व द्वारा दृष्ट मन्त्र शान्ति पुष्टि कर्म से सम्बद्ध है। इसका संकेत भागवत 3/24/24 में भी उपलब्ध होता है-’अथर्वणेSदात् शान्ति यया यज्ञो वितन्यते।’ अिष्रोधारा अभिचारिक कर्म से सम्बन्ध रखती है और यह इस वेद के जन-सामाान्य में प्रिय होने का संकेत है। शान्तिक कर्म से सम्बद्ध होने से अथर्व का सम्बन्ध श्रौतयाग से आरम्भ से ही है। पीछे आभिचारिक कर्मों का भी सम्बन्ध होने से यह King के पुरोहित वर्ग के लिए नितान्त उपादेय वेद हो गया। ऋग्ग्वेदत्रयी तथा अथर्व का पार्थक्य स्पष्टत: ग्रन्थों में Reseller गया हैं वेदत्रयी जहाँ ‘पारत्रिक’ पारलौकिक फलों का दाता है, वहाँ अथर्व ‘ऐहलौकिक’ है। Single विशेष तथ्य ध्यातव्य हैं जयन्तभट्अ ने न्यायमज्जरी में अथर्ववेद को ‘First वेद’ माना है-’तत्रवेदाश्चत्वार:, FirstोSथर्ववेद:’। नगर खण्ड भी इसे आद्य वेद बतलाता है तथा युक्ति देता है कि सार्वलौकिक कार्यसिद्धि में अथर्व ही मुख्यResellerेण प्रयुक्त होता है और इसीलिए वह ‘आद्य’ कहलाता है। जयन्त भट्ट ने अथर्ववेद के प्राथम्य पर विस्तार से विचार Reseller है।

King के लिए अथर्ववेद का सविशेष महत्त्व है। King के लिए शान्तिक पौष्टिक कर्म तथा तुलापुरुषादि महादान की महती Need होती है ओर इन सबका विधान अथर्ववेद की निजी सम्पत्ति है। इस विषय में पुराण तथा स्मृति ग्रन्थों का प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता हैं विष्णु पुराण का स्पष्ट कथन है कि Kingओं को पौरोहित्य, शान्तिक, पौष्टिक आदि कर्म अथर्व-वेद के द्वारा कराना चाहिए। मत्स्यपुराण का कथन है कि पुरोहित को अथर्व मन्त्र तथा ब्राह्मण में पारंगत होना चाहिये (पुरोहितं तथा अथर्व-मन्त्र-ब्राह्मण-पारगम्) कालिदास के वचनों द्वारा इस तथ्य की पुष्टि होती है। कालिदास ने वसिष्ठ के लिए ‘अथर्व निधि’ का विशेषण दिया है जिसका तात्पर्य है कि रघुवंशियों के पुरोहित वसिष्ठ अथर्व मन्त्रों तथा क्रियाओं के भण्डार थे (रघुव्म् 1/59)। King आज अथर्ववेद के वेत्ता गुरु वसिष्ठ द्वारा अभिषेक संस्कार किये जाने पर शत्रुओं के लिए दुर्धर्ष हो गया (8/3)। यहाँ पर कालिदास ने वसिष्ठ को अथर्व-वेत्ता कहा है (स बभूव दुरासद: परैर्गुरुणाSथ्र्वविदा कृतिक्रिय: 8/3) ‘अथर्वपरिशिष्ट’ में लिखा है कि अथर्ववेद का ज्ञाता शान्तिकर्मका पारगामी जिस राष्ट्र में निवास करता है वह राष्ट्र उपद्रवां से हीन होकर वृद्धि को प्राप्त करता है। इस सब प्रमाणों का निष्कर्ष है कि राजपुरोहित को अथर्ववेद के मन्त्रों का तथा तत्सम्बन्धों अनुष्ठानों का ज्ञाता अवश्य होना चाहिए। इन्हीं कारणों से अथर्ववेद ऐहलौकिक माना जाता है, जहाँ अन्य तीनों वेद पारलौकिक (पारत्रिक) माने गये है।

अथर्ववेद की शाखाएं- 

अथर्ववेद को छोड़कर अन्य तीन वेदों की केवल Single ही संहिता पार्इ जाती है जो मुद्रित और प्रकाशित है। परन्तु अथर्ववेद की तीन संहिताओं का पता चलता है। अथर्ववेदीय कौशिक सूत्र के दारिल भाष्य में इने त्रिविध संहिताओं के नाम तथा स्वReseller का परिचय दिया गया हैं इन संहिताओं के नाम है (1) आष्र्ाी संहिता (2) आचार्य संहिता (3) विधिप्रयोग संहिता। इन तीनों संहिताओं में ऋषियों के द्वारा परम्परागत प्राप्त मन्त्रों के संकलन होने से इस संहिता कहा जाता है। अथर्ववेद का आजकल जो विभाजन काण्ड, सूक्त तथा मन्त्र Reseller् ा में प्रकाशित हुआ है इसी शौनकीय संहिता को ही ऋषि-संहिता कहते है। दूसरी संहिता का नाम आचार्य संहिता है जिसका description दारिलभाष्य में इस प्रकार पाया जाता है। ‘‘येन उपनीय शिष्यं पाठयति सा आचार्य-संहिता’’। Meansात् उपनयन संस्कर करने के पश्चात गुरु जिस प्रकार से शिष्य को वेद का अध्यापन करता है वही आचार्य-संहिता कही जाती हैं उदाहरण के लिए अथर्ववेद का यह मन्त्र लिया जा सकता है। शौनकीय अथर्वसंहिता के First काण्ड के तृतीय सूक्त का First मन्त्र इस प्रकार है :-

‘‘विद्या शरस्य पितरं पर्जन्यं शतवृष्ण्यम्। तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं वहिष्टे अस्तु बालिति। 1/3/1’’ परन्तु इसी सूक्त का दूसरा मन्त्र यह है-विद्या शरस्य पितरं मित्रं शतवृष्ण्यम्। ते ना ते तन्वे……..अस्तु बालिति। तीसरा मन्त्र भी ऐसा ही है जिसमें ‘विद्या शरस्य पितरं’’ तो आदि तेना ते तन्वे……अस्तु बालिति’’ अन्त में है। इन तीनों मन्त्रों के अनुशीलन से पता चलता है कि First मंत्र में ‘पर्जन्यं शतवृष्णयम’। Second मन्त्र में ‘मित्रे शतवृष्ण्यम्’ और Third मन्त्र में ‘वरुर्ण शतवृष्ण्यम्’ अंश ही केवल नवीन है। इसके अतिरिक्त इन मन्त्रों के ‘विद्या शरस्य पितर’ आदि में ओर ‘‘ते ना ते तन्वे शंकरं पृथिव्यां तो निषेचनं बहिष्टे वालिति’ यह मन्त्र का अंश अन्त में प्रत्येक मन्त्र में आवृत्त Reseller गया है। अत: आचार्य अपने शिष्यों को पढ़ाते समय केवल मन्त्र में आये हुए नवीन अंशों का ही अध्यापन करता था। इन्हीं नवीन मन्त्रों का संग्रह आचाय्र संहिता है। इस आचार्यसंहिता के पदपाठ से युक्त हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुर्इ है।

विधि-प्रयोग संहिता वह है जिसमें मन्त्रों के प्रयोग किसी विशिष्ट विधि के अनुष्ठान के लिए किये जाते हं।ै इस अनुष्ठान के अवसर पर Single ही मन्त्र के विभिन्न पदों के विभक्त करके नये-नये मन्त्र किये जाते हैं। यथा – आष्र्ाी संहिता का मन्त्र यह है-

‘‘ऋतुभ्यष्ट्वSर्तवेभ्यो, माद्भ्यो संवत्सरेभ्य:। 

धात्रे विधात्रै समृधे भूतस्य पतये यजे।।’’ 

अब इस मन्त्र को विभक्त करके आठ मन्त्र अनुष्ठान के लिये तैयार Reseller जाते हैं। जैसे-

  1. ऋतुभय: त्वा यजे स्वाहा। 
  2. आर्तवेभ्य: त्वा यजे स्वाहा।
  3. माद्भ्य: त्वा यजे स्वाहा।
  4. संवत्सरेभ्य: त्वा यजे स्वाहा। 

इसी प्रकार से धात्रे, समृधे, ओर भूतस्य पतये के बाद भी ‘तवा यजे स्वाहा’ जोड़ा जायेगा। विधि में प्रयुक्त होने वाले इन मन्त्रों का समुदाय ‘विधि-प्रयोग संहिता’ कहा जाता है।

विधि-प्रयोग संहिता का यह पहिला प्रकार है। इसी भाँति से इसके चार प्रकार और भी होते हैं। Second प्रकार में नये Word मन्त्रों में जोड़े जाते है। Third प्रकार में किसी विशिष्ट मन्त्र का आवर्तन उस सूक्त के प्रति मन्त्र के साथ Reseller जाता है। इस प्रकार से सूक्त के मन्त्रों की संख्या द्विगुणित कर दी जाती हैं Fourth प्रकार में किसी सूक्त में आये हुए मन्त्रों के क्रम का परिवर्तन कर दिया जाता है। पाँचवें प्रकार में किसी मन्त्र के अर्ध भाग को ही सम्पूण मन्त्र मानकर प्रयोग Reseller जाता है। इस प्रकार आष्र्ाी संहिता के मन्त्रों का विधि-प्रयोग संहिता में पाँच प्रकार से प्रयोग या उपयोग Reseller जाता है।

इससे स्पष्ट है कि ऋषिसंहिता ही मूल संहिता है। आचार्य संहिता में इसका संक्षेपीकरण कर दिया जाता है जबकि विधि-प्रयोग संहिता में इसका विस्तृतीकरण प्राप्त होता है। आचार्य दारिल के कौशिक सूत्र के भाष्य के According अथर्व संहिता के उपर्युक्त तीन प्रकारों का यह विश्लेषण Reseller गया है।

अथर्व में विज्ञान 

अथर्ववेद के भीतर आयुर्वेद के सिद्धान्त तथा व्यवहार की अनेक महनीय जिज्ञास्या बातें भरी हुर्इ हैं, जिनके अनुशीलन से आयुर्वेद की प्राचीनता, प्रामाणिकता तथा व्यापकता का पूरा परिचय हमें मिलता है। रोग, शारीरिक प्रतीकार तथा औषध के विषय में अनेक उपयोगी And वैज्ञानिक तथ्यों की उपलब्धि अथर्ववेद की आयुर्वेदिक विशिष्टता बतलाने के लिये पर्याप्त मानी जा सकती है। तक्म रोग (ज्वर) का सामाान्य वर्णन (6/21/1-3), सतत-शारद-ग्रैश्म-शीत-वार्षिक-तृतीय आदि ज्वर के प्रभेदों का निर्देश (1/25/4-5), बलास रोग का अस्थि तथा हृदय की पीड़ा करना (6/14/1-3), अपचित (गण्डमाला) के एनी-श्येनी-कृष्णा आदि भेदों का निदर्शन (6/83/1-3) यक्ष्मा, विद्रव, वातीकार आदि नाना रोगों का वर्णन (9/13/1-22) इस संहिता में स्थान-स्थान पर Reseller गया है। प्रतीकार के विषय में आधुनिक प्रणाली की शल्यचिकित्सा का निर्देश अतीव विस्मयकारी प्रतीत होता है, जैसे-मूत्रघात होने पर शरशलाका आदि के द्वारा मूत्र का नि:सारण (1/3/19) सुख प्रसव के लिए योनिभेदन (1/11/1-6) जल-घावन के द्वारा व्रण का उपचार (5/17/1-3) आदि। नाना कृतियों के द्वारा नाना प्रकार के रोगों की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्राचीन आयुर्वेद को आधुनिक वैद्यकशास्त्र के साथ सम्बद्ध कर रहा है। रोग कारक नाना कृमियों का वर्णन (2/31/1-5), नेत्र, नासिका तथा दाँतों में प्रवेश करने वाले कृमियों के नाम तथा निरसन का उपाय (5/23/1-13) तथा Ultra site-किरणां के द्वारा इनका नाश (4/37/1-12) आदि अनेक विषय वैज्ञानिक आधार पर निर्मित प्रतीत होते हैं। रोगों के निवारणार्थ तथा सर्पविष के दूरीकरणार्थ नाना ओषधियों, औषधों तथा मणियों का निर्देश यहाँ मिलता है। आश्चर्य की बात है कि ‘विषस्य विषमौषम्’ का सिद्धान्त भी अथर्व के एम मन्त्र में (7/88/1) पाया जाता है। इसीलिए तो आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद माना जाता है।

अनेक भौतिक विज्ञानों के तथ्य भी यहाँ यत्र-तत्र बिखरे मिलते हैं। उन्हें पहचानने तथा मूल्यांकन करने के लिए वेदज्ञ होने के अतिरिक्त विज्ञानवेत्ता होना भी नितान्त आवश्यक है। Single दो पदों या मन्त्रों में निगूढ़ वैज्ञानिक रहस्यों का उद्घाटन Reseller गया है। जिसे वैज्ञानिक की शिक्षित तथा अभ्यस्त दृष्टि ही देख सकती है। Single विशिष्ट उदाहरण ही इस विषय-संकेत के लिए पर्याप्त होगा। अथर्ववेद के पच्चम काण्ड के पच्चम सूक्त में लाक्षा (लाख) का वर्णन है, जो वैज्ञानिकों की दृष्टि में नितान्त प्रामाणिक तथ्यपूर्ण तथा उपादेय है। आजकल राँची (बिहाार) में भारत सरकार की ओर से ‘लाख’ के उत्पादन तथा व्यावहारिक उपयोग के विषय में Single अन्वेषण-संस्था कार्य कर रही है। उसकी नवीन वैज्ञानिक खोजों के साथ इस सूक्त में उल्लिखित तथ्यों की तुलना करने पर किसी भी निष्पक्ष वैज्ञानिक को आश्चर्य हुए बिना नहीं रह सकता। आधुनिक विज्ञान के द्वारा समर्पित और पुष्ट की गर्इ सूक्त-निर्दिष्ट बातें संक्षेप में ये हैं-

  1. लाह (लाख, लाक्षा) किसी वृक्ष का निस्यन्द नहीं है, प्रत्युत उसे उत्पन्न करने का श्रेय कीट-विशेष को (मुख्यतया स्त्री-कीट को) हैं। वह कीट यहाँ ‘शिलाची’ नाम से व्यवहृत Reseller गया है। उसका पेट लाल रष् का होता है और इसी से वह स्त्री (कीट) संखिया खाने वाली मानी गयी हैं यह कीट अश्र्वस्य, न्यग्रोध, घव, खदिर आदि वृक्षों पर विशेषत: रह कर लाक्षा को प्रस्तुत करता है 4/5/5। 
  2. स्त्री कीट के बड़े होने पर अण्डा देने से पहिले उसका शरीर क्षीण हो जाता है और उसके कोष में पीलापन विशेषत: आ जाता है। इसीलिए यह कीट यहाँ ‘हरिण्यवर्णा’ तथा ‘Ultra siteवर्णा’ कही गर्इ है (5/5/6)। इसके शरीर के ऊपर रोंये अधिक होते है। इसीलिए यह ‘लोमश वक्षणा’ कही गर्इ हैं लाह की उत्पत्ति विशेष Reseller से वर्षा काल की अँधेरी रातों में होती है और इसी लिए इस सूक्त में रात्रि माता तथा आकाश पिता बतलाया है (1/5/1)। 
  3. कीड़े दो प्रकार के होते हैं-(क) सरा ¾ रेंगनेवाले; (ख) पतत्रिणी ¾ पंखयुक्त, उड़ने वाले (पुरुष कीट)। शरा नामक (स्त्री) कीड़े वृक्षों तथा पौधों पर रेंगते हं ै और इससे वे ‘स्परणी’ कहलाते हैं।

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